पूँजी के इशारों पर नाचती पूँजीवादी न्याय व्यवस्था : विनायक सेन को आजीवन क़ैद
अभिनव
4 जनवरी का दिन भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास के उन तमाम दिनों में से एक बन गया, जब यह साबित होता है कि मौजूदा न्यायपालिका भी इसी लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था का ही एक अंग है। दूरगामी तौर पर, सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, न्यायपालिका के सभी स्तम्भ पूँजीवादी व्यवस्था के रवाँ तरीके से चलने को ही सुनिश्चित करते हैं। 4 जनवरी को प्रसिध्द चिकित्सक, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज से जुड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच लम्बे समय से जन स्वास्थ्यकर्मी के रूप में काम करने वाले डॉ. विनायक सेन और उनके साथ तथाकथित माओवादी नेता नारायण सान्याल और तथाकथित माओवादी-समर्थक पीयूष गुहा को छत्तीसगढ़ के एक सत्र न्यायालय के न्यायाधीश बी.पी. वर्मा ने आजीवन कारावास की सजा सुनायी। इन तीनों को देशद्रोह का दोषी करार दिया गया और साथ ही आतंकवाद निरोधक कानून और कुख्यात छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम के तहत भी दोषी ठहराया गया। पूरी दुनिया में, इस फैसले को लेकर भारतीय न्याय व्यवस्था उपहास का पात्र बनी हुई है। यह सर्वविदित तथ्य है कि यह फैसला पूरी तरह छत्तीसगढ़ की मजदूर-विरोधी राजग सरकार के इशारों पर लिया गया है। वास्तव में, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के दमन के लिए सरकारी गुण्डा वाहिनी सलवा जुडूम और सशस्त्र बलों के अत्याचार को खोलकर जनता के सामने रखने में अपनी भूमिका के लिए विनायक सेन को कीमत अदा करनी पड़ रही है। सारी दुनिया में इस बात की चर्चा आम है कि इस पूरे मामले में आरोपियों के ख़िलाफ सबूत या तो मजाकिया थे या फिर फर्जी। यही कारण है कि साम्राज्यवादियों के पैसे पर मानवाधिकार की हिमायती बनने वाली संस्था एमनेस्टी इण्टरनेशनल तक यह कहने को मजबूर हो गयी कि यह फैसला अन्याय का प्रतीक है। अरुन्धाती राय,राजेन्द्र सच्चर, अमर्त्य सेन, जस्टिस अहमदी, प्रशान्त भूषण, जस्टिस काटजू समेत अगणित बुध्दिजीवियों, वकीलों, न्यायाधीशों, आदि ने इस फैसले को न्याय का मखौल बताया है। पूरे देश में जनसंगठनों और जनवादी अधिकारों को समर्पित संस्थाओं ने इस फैसले के ख़िलाफ प्रदर्शन किया है।
विनायक सेन पर जेल में बन्द नारायण सान्याल से पत्र लेकर पीयूष गुहा को पहुँचाने का आरोप है। लेकिन इस आरोप के लिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा कैसे चलाया जा सकता है? और इसके लिए आजीवन कारावास की सजा कैसे दी जा सकती है? अब यह भी जाहिर हो चुका है कि सबूत के तौर पर जिन पत्रों को पेश किया जा रहा है उनमें कुछ भी आपत्तिाजनक नहीं था। दूसरी बात, नारायण सान्याल और पीयूष गुहा के भाकपा माओवादी से सम्बन्धों को पुष्ट करने लायक पर्याप्त प्रमाण भी पुलिस और सरकार के पास नहीं हैं। ऐसे में, यह पूरा फैसला छत्तीसगढ़ सरकार के राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों से प्रेरित दिखलायी पड़ता है। इसके अतिरिक्त, जिस वीडियो को सजा देने के आधार के रूप में इस्तेमाल किये गये प्रमाणों में से एक माना गया है, वह मजिस्ट्रेट ने शूट करवाया था। यह वीडियो सेन के घर पर छापे का वीडियो था, जिसमें पुलिसकर्मियों को एक बैग के साथ सेन के घर की सीढ़ियों से उतरते दिखलाया गया है। वे कह रहे हैं कि इस छापे में यही मिला है। जाहिर है, कि वीडियो स्वयं ही सरकार के दावों को निराधार साबित करता है। लेकिन छत्तीसगढ़ सत्र न्यायालय के मजिस्ट्रेट ने इस वीडियो को बचाव पक्ष के वकीलों को दिखलाने से इंकार कर दिया। स्पष्ट है, न्यायालय सबूत देखने से पहले ही फैसला तय कर चुका था। क्योंकि सबूत ऐसे नहीं हैं कि देशद्रोह के आरोप में सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनायी जाये। देशद्रोह की यह धारा ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं को और जनता के प्रतिरोध को दबाने के लिए बनायी थी और जब इसे बाल गंगाधर तिलक पर 1897 में और महात्मा गाँधी पर 1922 में लगाया गया था तो उन्हें महज छह वर्ष की सजा सुनायी गयी थी। लेकिन विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा दी गयी है। साफ जाहिर है कि विनायक सेन को छत्तीसगढ़ में सरकारी सशस्त्र बलों और सलवा जुडूम के अत्याचारों का पर्दाफाश करने और सलवा जुडूम से सरकार के रिश्तों का भण्डाफोड़ करने की सजा दी जा रही है।
कानून के जानकार तमाम वकीलों और पूर्व न्यायाधीशों ने माना है कि इस फैसले के आधार के तौर पर जिन सबूतों को माना गया है, उन्हें सबूत कहा ही नहीं जा सकता है। दूसरी बात यह कि अगर वे सबूत होते भी तो भी इन आरोपों के आधार पर आजीवन कारावास की सजा नहीं सुनायी जा सकती है। लेकिन यहाँ साफतौर पर न्याय व्यवस्था पूँजी के इशारों पर नाचती नजर आ रही है। छत्तीसगढ़ में जारी जनसंसाधनों की पूँजीवादी लूट की प्रक्रिया पर जो भी सवाल उठायेगा, जो भी बाधा पैदा करेगा उसे सबक सिखाने के लिए छत्तीसगढ़ की रमण सिंह सरकार पूरी तरह प्रतिबध्द है। अगर वह व्यक्ति कोई आम आदिवासी या मजदूर है तो उसे दैहिक-दैविक ताप से ही मुक्ति दे दी जायेगी और अगर वह व्यक्ति विनायक सेन जैसा कोई प्रसिध्द चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता है तो उसे माओवादी समर्थक बताकर जीवनभर के लिए सलाखों के पीछे धकेल दिया जायेगा। विनायक सेन इस निर्णय के विरुध्द छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय गये हैं। हो सकता है कि दूरगामी तौर पर भारतीय न्यायपालिका की लाज रखने के लिए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय या फिर आगे सर्वोच्च न्यायालय इस निर्णय को बदल दे और सजा को ख़ारिज कर दे या कोई छोटी सजा दे। लेकिन तब भी एक बात साबित होती है, भारतीय न्यायपालिका भारत की पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हितों को धयान में रखकर काम करती है। राज्य स्तर पर न्याय व्यवस्था के भ्रष्टाचार के बारे में तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही टिप्पणी कर दी है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय किसी निरपेक्ष न्याय की वकालत करता हो, ऐसा नहीं है। भोपाल गैस त्रासदी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ही आरोप को हल्का कर एण्डरसन को बचाया था। अलग-अलग मौकों पर जहाँ जैसा सम्भव हो, न्यायपालिका पूँजी के पक्ष के खड़े होकर निर्णय लेती है।
इस पूरे मामले ने एक और सवाल को भी उपस्थित किया है। यह सवाल है देशद्रोह के कानून का। ज्ञात हो कि यह कानून अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता के प्रतिरोध के नंगे दमन के लिए बनाया गया सबसे कुख्यात कानून है। यह कानून आजादी मिलने के बाद भी कायम रहा। विडम्बना की बात तो यह है कि स्वयं गाँधी और तिलक को इस कानून के तहत दोषी ठहराया गया था। गाँधी ने कहा था कि इस कानून ने न्याय को शासकों की रखैल बना दिया है और यह कानूनी अन्याय का प्रतीक है। नेहरू ने कहा था कि हमें जितनी जल्दी हो इस कानून से छुटकारा पा लेना चाहिए, क्योंकि यह हमारी गुलामी का प्रतीक है। लेकिन आजादी के बाद भी इस कानून को कायम रखा गया। कारण यह था कि आजादी के बाद जो पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया उसे शुरू से ही इस कानून की जरूरत इस देश के मजदूरों और किसानों के आन्दोलन को कुचलने के लिए महसूस हुई। इसलिए उन सारी बातों को सचेतन तौर पर नेपथ्य में धकेल दिया गया जो गाँधी, नेहरू आदि ने इसके बारे में कही थीं। आज एक उदार जनतन्त्र होने का दावा करने वाले पूँजीवादी देश में इसकी मौजूदगी पूँजीवादी जनतन्त्र की प्रकृति को साफ करती है। पूँजीवादी जनतन्त्र ऐसा ही हो सकता है और ख़ासतौर पर भारत जैसे बौने, विकलांग और चालाक पूँजीवाद के तहत तो ऐसा कानून पूँजीपति वर्ग के लिए बेहद जरूरी हो जाता है। और सवाल सिर्फ इस कानून का नहीं बल्कि समूची भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) और भारतीय अपराध दण्ड संहिता (सीआरपीसी) की वैधता का है, जिसे बिना किसी परिवर्तन या मामूली परिवर्तनों के साथ अपना लिया गया। और सवाल तो भारतीय संविधान पर ही खड़ा है। ज्ञात हो, कि मौजूदा संविधान को पूरी भारतीय जनता द्वारा चुनी गयी संविधान सभा ने नहीं बनाया था, बल्कि महज दस फीसदी राजे- रजवाड़ों, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों द्वारा चुना गया था। आजादी के बाद नयी संविधान सभा को बुलाने का वायदा नेहरू ने किया था लेकिन वह इससे मुकर गये। नतीजतन, जनवाद के खोखले वायदे करने वाला आज का संविधान स्वयं ग़ैर-जनवादी नींव पर खड़ा है और भारत की पूरी जनता ने इसे कभी मान्यता दी ही नहीं।
ऐसे संविधान और न्याय-व्यवस्था के तहत विनायक सेन को सुनायी गयी सजा कोई चौंकाने वाली नहीं है। अब राज्य के दमन की जद में जनवादी और नागरिक अधिकारों की बात करने वाले बुध्दिजीवी, वकील, डॉक्टर और कार्यकर्ता भी आयेंगे ही आयेंगे। यह क्रूर पूँजी संचय का एक ऐसा दौर है जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था देश के सबसे पिछड़े, ग़रीब और अरक्षित लोगों के जीवन के अधिकार को छीने बग़ैर पूँजी के हितों को साध ही नहीं सकती। नतीजतन, देश में जनवादी स्पेस लगातार सिकुड़ रहा है। और मजदूरों के लिए तो कमोबेश ऐसी स्थिति लगातार और हमेशा से रही है। विनायक सेन ने भारतीय लोकतन्त्र के असली घिनौने पूँजीवादी चरित्र को पूरी तरह से नंगा कर दिया है। इसका चरित्र मजदूरों से छिपा हुआ तो कभी नहीं था और वे हर रोज सड़क पर इस पूँजीवादी लोकतन्त्र से दो-चार होते हैं।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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