पेरिस कम्यून की वर्षगाँठ (18 मार्च) के अवसर पर
कम्यून ज़िन्दाबाद!
पेरिस कम्यून की महान शिक्षाएँ

सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा वर्ग को हर सम्भव कोशिश करनी चाहिये कि उसके राज्य के उपकरण समाज के सेवक से समाज के स्वामी के रूप में न बदल जायें। सर्वहारा राज्य के विभिन्न अंगों-उपांगों में काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं के लिए ऊँची तनख़्वाहें पाने और एकाधिक पदों पर एक साथ काम करते हुए एकाधिक तनख्वाहें पाने की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिये, और इन कार्यकर्ताओं को किसी विशेष सुविधा का लाभ नहीं उठाना चाहिए।

सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य-उपकरणों के अधःपतन को कैसे रोका जाये? इस मामले में पेरिस कम्यून ने कई अन्वेषणात्मक कदम उठाये और कई एक ऐसी कार्रवाइयाँ कीं, जो हालाँकि अन्तरिम (या आज़माइशी) थीं, लेकिन जिनका गम्भीर और दूरगामी महत्व था। इन कार्रवाइयों से हमारे सोचने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र सामने आते हैं।

एंगेल्स के अनुसार, राज्य और राज्य के उपकरणों के, समाज के सेवक से समाज के स्वामी की स्थिति में इस रूपान्तरण के ख़िलाफ़-जो सभी पूर्ववर्ती राज्यों में अपरिहार्यतः घटित हुआ है-कम्‍यून ने दो अचूक साधनों का इस्तेमाल किया। पहला यह कि, इसने प्रशासकीय, न्यायिक और शैक्षिक-सभी पदों पर सभी सम्बन्धित लोगों के सार्विक मताधिकार के आधार पर चुनाव के द्वारा नियुक्तियाँ कीं और इस शर्त के साथ कि कभी भी उन्हीं निर्वाचकों द्वारा (चुने गये व्यक्ति को) वापस भी बुलाया जा सकता था। और दूसरा यह कि, ऊँचे और निचले दर्जे के सभी पदाधिकारियों को वही वेतन मिलता था जो अन्य मज़दूरों को। कम्यून द्वारा किसी को दी जाने वाली सबसे ऊँची तनख्वाह 6,000 फ्रैंक थी। इस तरह, प्रतिनिधि संस्थाओं के प्रतिनिधियों पर लगाये गये बाध्यताकारी अधिदेशों के अतिरिक्त, (उपरोक्त दो निर्णयों के द्वारा) पदलोलुपता और कैरियरवाद के रास्ते में एक प्रभावी अवरोधक लगाया गया।

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पेरिस कम्यून में जनसमुदाय वास्तविक स्वामी था। कम्यून जबतक अस्तित्व में था, जनसमुदाय व्यापक पैमाने पर संगठित था और सभी अहम राजकीय मामलों पर लोग अपने-अपने संगठनों में विचार-विमर्श करते थे। प्रतिदिन क्लब-मीटिंगों में लगभग 20,000 ऐक्टिविस्ट हिस्सा लेते थे जहाँ वे विभिन्न छोटे-बड़े सामाजिक और राजनीतिक मसलों पर अपने प्रस्ताव या आलोचनात्मक विचार रखते थे। वे क्रान्तिकारी समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में लेख और पत्र लिखकर भी अपनी आकांक्षाओं और माँगों को अभिव्यक्त करते थे। जनसमुदाय का यह क्रान्तिकारी उत्साह और यह पहलक़दमी कम्यून की शक्ति का स्रोत थी।

कम्यून  के सदस्य जनसमुदाय के विचारों पर विशेष ध्यान देते थे, इसके लिए लोगों की विभिन्न बैठकों में हिस्सा लेते थे और उनके पत्रों का अध्ययन करते थे। कम्यून की कार्यकारिणी समिति के महासचिव ने कम्यून के सेक्रेटरी को पत्र लिखते हुए कहा थाः”हमें प्रतिदिन, ज़ुबानी और लिखित-दोनों ही रूपों में बहुत सारे प्रस्ताव प्राप्त होते हैं जिनमें से कुछ, व्यक्तियों द्वारा और कुछ क्लबों और इण्टरनेशनल की शाखाओं द्वारा भेजे गये होते हैं। ये प्रस्ताव प्रायः उत्तम कोटि के होते हैं और कम्यून द्वारा इनपर विचार किया जाना चाहिए।” वास्तव में, कम्यून जनसमुदाय के प्रस्तावों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करता था और उन्हें स्वीकार करता था। कम्यून की बहुत-सी महान आज्ञप्तियाँ जनसमुदाय के प्रस्तावों पर आधारित थीं, जैसे कि राज्य के पदाधिकारियों के लिए ऊँची तनख़्वाहों की व्यवस्था समाप्त करना, लगान के बकायों को मंसूख करना, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा-व्यवस्था लागू करना, नानबाइयों के लिए रात की पाली में काम करने की व्यवस्था समाप्त करना, वगैरह-वगैरह।

जनसमुदाय कम्यून और इसके सदस्यों के कार्यों की सावधानीपूर्वक जाँच-पड़ताल भी करता था। तृतीय प्रान्त के कम्युनल क्लब का एक प्रस्ताव कहता है: “जनता ही स्वामी है… यदि जिन लोगों को तुमने चुना है वे ढुलमुलपन का या अनियंत्रित होने का संकेत देते हैं, तो उन्हें आगे की ओर धक्के दो ताकि हमारा लक्ष्य सिद्ध हो सके-यानी हमारे अधिकारों के लिए जारी संघर्ष अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके, गणराज्य का सृदृढ़ीकरण हो सके, ताकि न्यायसंगति का लक्ष्य विजयी हो सके।” प्रतिक्रान्तिकारियों, भगोड़ों और ग़द्दारों के खिलाफ़ दृढ़ कदम न उठाने के लिए, स्वयं द्वारा (कम्यून द्वारा) पारित आज्ञप्तियों को तत्काल लागू नहीं करने के लिए और कम्यून के सदस्यों के बीच एकता के अभाव के लिए जनसमुदाय ने कम्यून की आलोचना की। उदाहरण के तौर पर, ‘ल पेर दुशेन’ अख़बार के 27 अप्रैल के अंक में प्रकाशित एक पाठक का पत्र कहता है: “कृपया समय-समय पर कम्यून के सदस्यों को धक्के लगाते रहें, उनसे कहें कि वे सो न जाया करें, और अपनी स्वयं की आज्ञप्तियों को लागू करने में टालमटोल न करें। उन्हें अपने आपसी झगड़ों को समाप्त कर लेना चाहिये क्योंकि सिर्फ़ विचारों की एकता के ज़रिये ही वे, अधिक शक्ति के साथ, कम्यून की हिफ़ाज़त कर सकते हैं।”

उन जनप्रतिनिधियों को, जिन्होंने जनता के हितों के साथ विश्वासघात किया हो, बदल देने और वापस बुला लेने के प्रावधान खोखले शब्द-मात्र नहीं थे। कम्यून ने, वस्तुतः ब्लांशे को कम्यून की सदस्यता से वंचित कर दिया था क्योंकि वह पादरी, व्यापारी और खुफ़िया एजेण्ट रहा था। वह पेरिस पर कब्ज़े के दौरान ‘नेशनल गार्ड’ की कतारों में छलपूर्वक घुस गया था और जालसाज़ी करके फ़र्ज़ी नाम से कम्यून का सदस्य बन गया था। कम्यून ने इस तथ्य के मद्देनज़र क्लूसेरे को सैनिक प्रतिनिधि के ओहदे से वंचित कर दिया कि ‘सैनिक प्रतिनिधि की असावधानी और लापरवाही से इस्सी दुर्ग लगभग खो दिया गया था।’ इसके पहले, लूइये को भी पदच्युत किया जा चुका था और ‘नेशनल गार्ड’ की केन्द्रीय कमेटी द्वारा गिरफ़्तार किया जा चुका था।

पेरिस कम्यून ने राज्य के पदाधिकारियों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने में भी दृढ़ता का परिचय दिया और, तनख़्वाहों के मामले में इसने ऐतिहासिक अर्थवत्ता से युक्त एक महत्वपूर्ण सुधार किया।

हम जानते हैं कि शोषक वर्गों के अधीनस्थ राज्य अपने अधिकारियों को निरपवाद रूप से उत्तम कोटि की जीवन-स्थितियाँ और बहुतेरे विशेषाधिकार प्रदान करते हैं ताकि उन्हें जनता को कुचल डालने वाला अधिपति बना दिया जाये। अपने ऊँचे ओहदों पर बैठे हुए, मोटी तनख़्वाहें उठाते हुए और लोगों पर धौंस जमाते हुए-यही है शोषक वर्गों के अधिकारियों की तस्वीर। दूसरे फ्रांसीसी साम्राज्य के काल को लें। उस दौरान अधिकारियों की सालाना तनख़्वाहें इस प्रकार थीं: नेशनल असेम्बली के प्रतिनिधि के लिए 30,000 फ्रैंक; मंत्री के लिए 50,000 फ्रैंक; प्रिवी कौंसिल के सदस्य के लिए एक लाख फ्रैंक; स्टेट कौंसिलर के लिए 1 लाख 30 हजार फ्रैंक। यदि कोई व्यक्ति कई आधिकारिक पदों पर एक साथ काम करता था तो वह इकट्ठे कई तनख़्वाहें उठाता था। उदाहरण के लिए, नेपोलियन तृतीय का प्रिय पात्र राउहेर एक ही साथ नेशनल असेम्बली का प्रतिनिधि, प्रिवी कौंसिल का सदस्य और स्टेट का कौंसिलर-तीनों था। उसकी कुल सालाना तनख़्वाह 2 लाख 60 हजार फ्रैंक थी। पेरिस के एक कुशल मज़दूर को इतनी रकम कमाने के लिए 150 वर्षों तक काम करना पड़ता। जहां तक खुद नेपोलियन तृतीय की बात थी, राज्य के ख़ज़ाने से उसे सालाना 2 करोड़ 50 लाख फ्रैंक दिये जाते थे। अन्य राजकीय आर्थिक सहायताओं को मिलाकर उसकी कुल सालाना आमदनी तीन करोड़ फ्रैंक थी।

फ्रांसीसी सर्वहारा इस स्थिति से घृणा करता था। पेरिस कम्यून की स्थापना के पहले भी, उसने कई मौकों पर यह माँग की थी कि अधिकारियों की ऊँची तनख़्वाहों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाये। कम्यून की स्थापना के साथ ही, मेहनतकश अवाम की यह चिरकालिक आकांक्षा पूरी हो गई। 1 अप्रैल को यह प्रसिद्ध आज्ञप्ति जारी हुई कि किसी भी पदाधिकारी को दी जाने वाली सबसे ऊँची सालाना तनख़्वाह 6,000 फ्रैंक से अधिक नहीं होनी चाहिए। आज्ञप्ति के अनुसार: पहले, “सार्वजनिक संस्थाओं के ऊँचे ओहदे, ऊँची तनख़्वाहों के कारण, प्रलोभन की चीज माने जाते थे और संरक्षण के रूप में उन्हें किसी को दिया जाता था।” लेकिन “एक सच्चे जनवादी गणराज्य में दायित्वमुक्त, आराम की नौकरियों या ऊँची तनख़्वाहों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।” 6000 फ्रैंक की रकम उस समय के एक कुशल फ्रांसीसी मज़दूर की सालाना मज़दूरी की कुल रकम के बराबर थी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक हक्सले के अनुसार, यह रकम लन्दन मेट्रोपोलिटन स्कूल बोर्ड के एक सेक्रेटरी की तनख्वाह के पांचवे हिस्से से भी कुछ कम थी।

पेरिस कम्यून ने अपने पदाधिकारियों द्वारा एक साथ कई तनख़्वाहें उठाने पर भी रोक लगा दी, और 19 मई के निर्णय के अनुसार: “इस बात का ध्यान रखते हुए कि कम्यून की व्यवस्था के अन्तर्गत, हर आधिकारिक पद के लिए निर्धारित पारिश्रमिक की राशि हर उस व्यक्ति के लिए सुचारु रूप से और सम्मानपूर्वक जीवनयापन लायक होनी चाहिये जो अपने दायित्वों को पूरा करता है… कम्यून यह प्रस्ताव पारित करता है: एक से अधिक पद पर काम करने के एवज़ में किसी तरह का अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाना निषिद्ध है, कम्यून के जिन पदाधिकारियों को उनके सामान्य काम के अतिरिक्त कोई दूसरा ज़िम्मेदारी का काम सौंपा जायेगा, उन्हें कोई नया पारिश्रमिक पाने का अधिकार नहीं होगा।”

ऊँची तनख़्वाहों और एक से अधिक पदों के लिए तनख़्वाहों को समाप्त करने के साथ ही कम्यून ने कमतर तनख़्वाहों को बढ़ाने का भी काम किया ताकि वेतनमान में अन्तर को कम किया जा सके। उदाहरण के तौर पर डाकख़ाने को लें: कम तनख़्वाह वाले कर्मचारियों की पगार 800 फ्रैंक सालाना से बढ़ाकर 1200 फ्रैंक कर दी गयी जबकि 12,000 फ्रैंक सालाना की ऊँची तनख़्वाहों को आधा घटाकर 6,000 फ्रैंक कर दिया गया। कम तनख़्वाह वाले कर्मचारियों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए कम्यून ने त्वरित प्रावधान के द्वारा सभी आर्थिक कटौतियों और जुर्मानों पर भी रोक लगा दी।

विशेषाधिकारों, ऊँची तनख़्वाहों और एक साथ कई पदों के लिए कई तनख़्वाहों की समाप्ति से सम्बन्धित विनियमों के क्रियान्वयन में कम्यून के सदस्यों ने स्वयं मॉडल का काम किया। कम्यून के एक सदस्य थीस्ज को, जो डाकख़ाने का प्रभारी था, विनियमों के अनुसार 500 फ्रैंक माहवार की तनख़्वाह मिल सकती थी, पर वह सिर्फ 450 फ्रैंक लेने पर ही राज़ी हुआ। कम्यून के जनरल व्रोब्लेवस्की ने स्वेच्छा से अधिकारी श्रेणी का अपना वेतन छोड़ दिया और एलिसे महल में दिये गये अपार्टमेण्ट में रहने से इंकार कर दिया। उसने घोषणा की: “एक जनरल की जगह उसके सैनिकों के बीच होती है।”

पेरिस कम्यून की कार्यकारिणी समिति ने जनरल की पदवी को समाप्त करने के लिए भी एक प्रस्ताव पारित किया। 6 अप्रैल के अपने प्रस्ताव में समिति ने कहा: “इस तथ्य के मद्देनज़र कि जनरल की पदवी नेशनल गार्ड के जनवादी संगठन के उसूलों के असंगत है… यह निर्णय लिया जाता है: जनरल की पदवी समाप्त की जाती है।” अफ़सोस की बात है कि यह निर्णय व्यवहार में लागू नहीं हो सका।

राज्य के नेता जो वेतन लेते थे वह एक कुशल मज़दूर के वेतन के बराबर होता था। अधिक काम करना उनका अनिवार्य कर्तव्य था, पर उन्हें अधिक वेतन लेने का या किसी भी तरह की विशेष सुविधा का कोई अधिकार नहीं था। यह एक अभूतपूर्व चीज थी। इसने ‘सस्ती सरकार’ के नारे को सच्चे अर्थों में यथार्थ में रूपान्तरित कर दिया। इसने तथाकथित राजकीय मामलों के संचालन के इर्दगिर्द निर्मित फ्रहस्य” और “विशिष्टता” के उस वातावरण को समाप्त कर दिया-जो शोषक वर्ग द्वारा जनता को मूर्ख बनाने के एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इसने राजकीय मामलों के संचालन को सीधे-सीधे एक मज़दूर के कर्तव्यों में बदल दिया और (राज्य के) पदाधिकारियों को ‘विशेष औज़ारों’ से काम लेने वाले मज़दूरों में रूपान्तरित कर दिया। पर इसकी महान अर्थवत्ता सिर्फ़ इसी बात में निहित नहीं है। भौतिक पुरस्कारों या लाभों के मामले में, इसने पदाधिकारियों के अधःपतन को रोकने वाली स्थितियों का निर्माण किया। लेनिन के अनुसार, “यह कदम, और साथ ही पदाधिकारियों के चुनाव और सभी सार्वजनिक अधिकारियों के हटा दिये जाने का सिद्धान्त तथा उन्हें “मालिक वर्ग” के मानकों या बुर्जुआ मानकों के बजाय सर्वहारा मानकों के अनुसार वेतन-भुगतान-यह मज़दूर वर्ग का आदर्श है।” वह आगे कहते हैं:

“सभी प्रतिनिधित्व भत्तों की, और अधिकारियों के सभी वित्तीय विशेषाधिकारों की समाप्ति, राज्य के सभी सेवकों का पारिश्रमिक ‘मज़दूरों की तनख़्वाह’ के स्तर तक घटा देना। यह बुर्जुआ जनवाद के सर्वहारा जनवाद में, उत्पीड़कों के जनवाद के उत्पीड़ित वर्गों के जनवाद में, रूपान्तरण को, राज्य के एक वर्ग विशेष द्वारा दमन के ‘विशेष बल’ से- उत्पीड़कों का दमन करने वाले, जनता की बहुसंख्या के-मज़दूरों और किसानों के ‘सामान्य बल’ में रूपान्तरण को, अन्य किसी चीज के मुकाबले अधिक स्पष्टता से प्रदर्शित करता है। और यही वह विशिष्ट ध्यानाकर्षक बिन्दु है, राज्य की समस्या से जुड़ा हुआ शायद वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु है, जिस पर मार्क्स के विचारों की पूरी तरह अनदेखी की गई है!… जो किया गया है वह यह कि इसके बारे में चुप्पी साध ली गयी है मानो यह पुराने ढंग के ‘भोलेपन’ का एक हिस्सा हो।”

और ठीक यही वह चीज है जो ख्रुश्चेवी संशोधनवादियों का नेतृत्वकारी गुट कर रहा है: उन्होंने पेरिस कम्यून के इस महत्वपूर्ण अनुभव की पूरी तरह उपेक्षा की है। वे विशेषाधिकारों के पीछे भागते हैं, अपने विशेषाधिकार प्राप्त ओहदों का इस्तेमाल करते हैं, सार्वजनिक गतिविधियों को निजी लाभ के मौकों में बदल देते हैं, जनता की मेहनत के फल हड़प जाते हैं और साधारण मज़दूरों और किसानों की तनख़्वाहों से दसियों गुना और कभी-कभी तो सैकड़ों गुना अधिक कमाई करते हैं। राजनीतिक अवस्थिति से लेकर जीवन-प्रणाली तक में, वे मेहनतकश अवाम से मुँह मोड़ चुके हैं और बुर्जुआ वर्ग और नौकरशाह पूँजीपति जो कुछ करते हैं, उसी की नकल करने लगे हैं। अपने शासन का सामाजिक आधार मज़बूत करने की कोशिश में, मोटी आमदनी और विशेषाधिकारों वाला एक सामाजिक संस्तर तैयार करने में, वे ऊँची तनख्वाहों, ऊँचे पुरस्कारों, ऊँची फीसों एवं वज़ीफ़ों का और धन कमाने के अन्य तरह-तरह के तरीकों का भी इस्तेमाल करते हैं। जनता की क्रान्तिकारी संकल्प शक्ति को पैसे से क्षरित करने की कोशिश में, वे “भौतिक प्रोत्साहनों” के बारे में बेतहाशा बातें करते हैं, रूबल को “शक्तिशाली संचालक शक्ति” बताते हैं और कहते हैं कि उन्हें ‘लोगों को शिक्षित करने के लिए रूबलों का इस्तेमाल करना’ चाहिए। ख्रुश्चेवी संशोधनवादियों की इन हरकतों की तुलना पेरिस कम्यून के “भोलेपन” से (जैसाकि वे कहते हैं) करने पर कोई भी व्यक्ति आसानी से देख सकता है कि जनता के सेवक और जनता के स्वामी होने का क्या मतलब होता है, राज्य के अवयवों को समाज के सेवक से समाज के स्वामी में रूपान्तरित कर दिये जाने का क्या अर्थ है। एंगेल्स लिखते हैं, “क्‍या तुम जानना चाहते हो कि यह अधिनायकत्व कैसा होता है? पेरिस कम्यून को देखो। यह सर्वहारा का अधिनायकत्व था।” इसी प्रकार हम कह सकते हैं: क्या तुम जानना चाहते हो कि सर्वहारा का अधःपतित अधिनायकत्व कैसा होता है? तो ख्रुश्चेवी संशोधनवादी गुट के शासन के अन्तर्गत सोवियत संघ के “समूची जनता के राज्य” को देखो।

सर्वहारा वर्ग को दुश्मन की नकली शान्ति वार्ताओं के प्रति सतर्क रहना चाहिये जबकि वह वास्तव में युद्ध की तैयारी कर रहा होता है, और प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल से निपटने के लिए क्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल का इस्तेमाल करना चाहिये।

पेरिस कम्यून ने वसीयत के तौर पर हमारे लिए कई महान और प्रेरणादायी शिक्षाएँ छोड़ी हैं। इनमें से बहुतेरी सकारात्मक रूप से मूल्यवान हैं; और कुछ अन्य कड़वे अनुभवों की शिक्षाएँ हैं।

कम्यून के नेतृत्व में ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे। इनमें से कोई भी सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी नहीं थी। इनमें से किसी ने भी मार्क्सवाद को समझा नहीं था और किसी के पास सर्वहारा क्रान्ति को नेतृत्व देने का अनुभव नहीं था। सर्वहारा वर्ग द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने कुछ चीज़ों को सही ढंग से अंजाम दिया, लेकिन अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी ग़लतियाँ भी कीं। इनमें से एक प्रधान ग़लती यह थी कि वे दुश्मन की शान्ति वार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये जबकि वह वास्तव में युद्ध की तैयारी कर रहा था। उन्होंने दुश्मन को दीवार से जकड़ तो दिया लेकिन अपने विजयी आक्रमण का दबाव देश के भीतर बनाये नहीं रख सके और दुश्मन का पूरी तरह से सफाया नहीं कर सके। उन्होंने दुश्मन को उसकी झूठी शान्ति वार्ताओं की आड़ में दम ले लेने की मोहलत दे दी और इस अन्तराल में उसे प्रत्याक्रमण के लिए अपनी सेनाओं को पुनर्संगठित कर लेने का मौका मिल गया। उनके पास अपनी क्रान्तिकारी विजय को विस्तार देने का अवसर था, पर उन्होंने इसे अपनी उँगलियों के बीच से फिसल जाने दिया…-

जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था, जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था, तो पेरिस वार्ताएँ कर रहा था। नतीजा यह हुआ कि वर्साय के दस्यु-दल अपने कसाइयों के छुरों के साथ पेरिस में घुस गये। उन्होंने अपने कब्जे़ में आये कम्यून के सदस्यों और सैनिकों को गोली मार दी; उन्होंने चर्च में शरण लिये हुए लोगों को गोली मार दी; उन्होंने अस्पतालों में पड़े घायल सैनिकों को गोली मार दी; उन्होंने बुज़ुर्ग मज़दूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि इन लोगों ने बार-बार बग़ावतें की हैं और ये खाँटी अपराधी हैं; उन्होंने स्त्री-मज़दूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि ये “स्‍त्री अग्नि-बम” हैं और यह कि ये स्त्रियों जैसी सिर्फ़ तभी लगती हैं जब “मृत होती हैं”; उन्होंने बाल मज़दूरों को यह कहकर गोली मार दी कि “वे बड़े होकर बाग़ी बनेंगे।” यह हत्याकाण्ड, जिसे वे “शिकार करना” कहते थे, पूरे जून के महीने भर चलता रहा। पेरिस लाशों से भर गया, सैन ख़ून की नदी बन गई और कम्यून इस लहू के समन्दर में डुबो दिया गया। तीस हज़ार से अधिक लोग इस जनसंहार में मारे गये और एक लाख से अधिक लोग बन्दी बना लिये गये या निर्वासित कर दिये गये। वर्साय ने पेरिस की ‘सदाशयता’ और ‘दरियादिली’ का यह सिला दिया। इसकी झूठी शान्ति वार्ताओं और युद्ध की वास्तविक तैयारियों की चालबाज़ी की यह अन्तिम परिणति थी। यह रक्त से लिखी गई एक कड़वी शिक्षा थी। इसने हमें सिखाया कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति को अन्त तक चलाना होगा; कि भागते हुए डकैतों का पीछा किया जाना चाहिये और उन्हें तबाह कर देना चाहिये, कि डूबते हुए चूहों को पीट-पीटकर मार डालना चाहिये; कि दुश्मन को अपना दम फिर से हासिल कर लेने का मौका कतई नहीं दिया जाना चाहिए।

यदि यह कहा जा सकता है कि 95 वर्षों पहले पेरिस कम्यून के अधिकांश सदस्य थियेर की नकली शान्ति वार्ताओं और युद्ध की वास्तविक तैयारियों के कुचक्र को सही समय पर भाँप नहीं सके, और यह कि पर्याप्त अनुभव और समझदारी की कमी के कारण ऐसा हुआ, तो आज, जब ख्रुश्चेवी संशोधनवादी अमेरिकी साम्राज्यवाद की फ़र्ज़ी शान्ति और वास्तविक आक्रमण की नीति की सेवा में सबकुछ कर रहे हैं, वह समझदारी की कमी का मामला निश्चित रूप से नहीं है। ख्रुश्चेवी संशोधनवादी पूरी तरह ग़द्दारी की अवस्थिति पर जा खड़े हुए हैं और प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल द्वारा सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का गला घोंटने की कोशिश में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ सहयोग कर रहे हैं। फिर भी, समय आगे बढ़ रहा है, जनता आगे बढ़ रही है और क्रान्ति आगे बढ़ रही है। क्रान्तिकारी जनता ज़्यादा से ज़्यादा अच्छे ढंग से यह समझती जा रही है कि प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल के विरोध में क्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल का किस प्रकार इस्तेमाल किया जाता है और क्रान्ति को अन्त तक कैसे चलाया जाता है। अपने सभी किस्म के प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशलों के साथ साम्राज्यवादी, संशोधनवादी और सभी प्रतिक्रियावादी जनता द्वारा अन्तिम तौर पर, समूचा का समूचा, इतिहास के कूड़ेदानी के हवाले कर दिये जायेंगे।

पेरिस कम्यून की इक्कीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर, एंगेल्स ने लिखा थाः “बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई या 22 सितम्बर का उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्यौहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च ही होगा।”

आज, जब हम सर्वहारा वर्ग का त्यौहार-पेरिस कम्यून के विद्रोह की 95वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं, दुनिया पर एक नज़र डालने पर एक महान क्रान्तिकारी परिस्थिति दिखाई देती है जब “चारों महासागर उफन रहे हैं, बादल और जल क्रोधोन्मत्त हो उमड़ रहे हैं; पांचों महाद्वीप प्रकम्पित हो रहे हैं, हवाएँ और बिजलियाँ गरज रही हैं।” इतिहास ने मार्क्स की उस भविष्यवाणी को पूरी तरह साकार कर दिया है, जो उन्होंने 95 वर्षों पहले की थी: “यदि कम्यून को कुचल भी दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत और अनश्वर हैं, जबतक मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति अर्जित नहीं कर लेता, तबतक ये सिद्धान्त बार-बार अपनी घोषणा करते रहेंगे। पेरिस कम्यून का पतन हो सकता है, लेकिन जो सामाजिक क्रान्ति इसने प्रारम्भ की है, वह विजयी होगी। इसकी ज़मीन सर्वत्र मौजूद है।”

(‘पीकिघ रिव्यू’, 15 अप्रैल, 1966 में प्रकाशितचेघ चिह-स्त्जूका लेख)

“18 मार्च का गौरवमय आन्दोलन मानव जाति को वर्ग-शासन से सदा के लिए मुक्त कराने वाली महान सामाजिक क्रान्ति का प्रभात है।” – कार्ल मार्क्स

“बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई या 22 सितम्बर को उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्योहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च ही होगा।” – फ्रेडरिक एंगेल्स

“सम्पत्तिवान वर्गों की संयुक्त सत्ता के खिलाफ़ अपने संघर्ष में मजदूर वर्ग अपने को, सम्पत्तिवान वर्गों द्वारा स्थापित तमाम पुरानी पार्टियों के विरुद्ध और उनसे भिन्न, एक राजनीतिक पार्टी में संगठित करके ही, एक वर्ग की हैसियत से कार्रवाई कर सकता है।”- मार्क्स और एंगेल्स

“मजदूरों के पेरिस और उसके कम्यून को नये समाज के गौरवपूर्ण अग्रदूत के रूप में हमेशा याद किया जायेगा। इसके शहीदों ने मजदूर वर्ग के महान हृदय में अपना स्थान बना लिया है।”-कार्ल मार्क्स

“कम्यून, जो पुरानी दुनिया के शासकों के विचार में पूर्ण रूप से नष्ट हो चुका है, पहले के किसी भी समय के मुक़ाबले आज और ज़्यादा जीवनी-शक्ति से ओतप्रोत है। इसलिए, हम आप लोगों के साथ मिलकर यह नारा बुलन्द कर सकते हैं: कम्यून जिन्दाबाद।”- मार्क्स और एंगेल्स

पेरिस कम्यून की हार के बाद जो थोड़े से कम्यूनार्ड भागकर फ्रांस से बाहर निकल पाये, उनमें से एक यूजीन पोतिए भी थे। वे फ़रारी में रची हुई कुछ कविताएँ भी अपने साथ लाये थे जो कम्यून की उस ज्वाला में धधकती कविताएँ थीं, जो पराजय के बावजूद विश्व-सर्वहारा का मार्ग आलोकित कर रही थी। इन्हीं में से एक कविता यूरोप और फिर दुनिया की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और इसकी कुछ पंक्तियाँ पूरी दुनिया के सर्वहारा वर्ग का संघर्षनाद बन गईं। ‘इण्टरनेशनल’ नाम से प्रसिद्ध यह आह्वान गीत हर देश के मज़दूर गाते हैं, एक ही धुन पर! हम भी इसे गाते हैं:

उठ जाग ओ भूखे बन्दी

अब खींचो लाल तलवार

कब तक सहोगे भाई

जालिम का अत्याचार।

तेरे रक्त से रंजित क्रन्दन

अब दस दिशि लाया रंग

ये सौ बरस के बन्धन

मिल साथ करेंगे भंग।

ये अन्तिम जंग है जिसको

जीतेंगे हम एक साथ

गाओ इण्टरेनशनल

भव स्वतंत्रता का गान।

 

मज़दूर बिगुलमार्च  2013

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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