पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (दूसरी किश्त)

आज भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मज़दूर पूँजी की लुटेरी ताक़त के तेज़ होते हमलों का सामना कर रहे हैं, और मज़दूर आन्दोलन बिखराब, ठहराव और हताशा का शिकार है। ऐसे में इतिहास के पन्ने पलटकर मज़दूर वर्ग के गौरवशाली संघर्षों से सीखने और उनसे प्रेरणा लेने की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। आज से 141 वर्ष पहले, 18 मार्च 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुक़ूमत क़ायम की। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने शोषकों की फैलायी इस सोच को धवस्त कर दिया कि मज़दूर राज-काज नहीं चला सकते। पेरिस के जाँबाज़ मज़दूरों ने न सिर्फ़ पूँजीवादी हुक़ूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। आगे चलकर 1917 की रूसी मज़दूर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

मज़दूर वर्ग के इस साहसिक कारनामे से फ्रांस ही नहीं, सारी दुनिया के पूँजीपतियों के कलेजे काँप उठे। उन्होंने मज़दूरों के इस पहले राज्य का गला घोंट देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया और आख़िरकार मज़दूरों के कम्यून को उन्होंने ख़ून की नदियों में डुबो दिया। लेकिन कम्यून के सिद्धान्त अमर हो गये।

पेरिस कम्यून की हार से भी दुनिया के मज़दूर वर्ग ने बेशक़ीमती सबक़ सीखे। पेरिस के मज़दूरों की कुर्बानी मज़दूर वर्ग को याद दिलाती रहती है कि पूँजीवाद को मटियामेट किये बिना उसकी मुक्ति नहीं हो सकती।

‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक से हमने दुनिया के पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा की शुरुआत की है, जो अगले कई अंकों में जारी रहेगी। — सम्पादक.

 

पहली किश्त में हमने जाना कि ‘पूँजी की ज़ालिम, बर्बर सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ना कैसे सीखा मज़दूरों ने’। मशीनें तोड़कर अपना गुस्सा निकालने से शुरू होकर मज़दूरों का संघर्ष चार्टिस्ट आन्दोलन तक पहुँचा। यह सर्वहारा वर्ग का पहला व्यापक आन्दोलन था और असफल होने के बावजूद यह एक प्रेरणादायी उदाहरण बन गया।!

मज़दूर वर्ग के आगे बढ़ते संघर्ष और उसकी मुक्ति की विचारधारा का जन्म

 

1. 1840 के दशक में इंग्लैण्ड में मज़दूर आन्दोलन दो हिस्सों में बँटा हुआ था — चार्टिस्ट और समाजवादी। चार्टिस्ट लोग सैद्धान्तिक मामलों में पिछड़े हुए थे लेकिन वे सच्चे सर्वहारा थे और अपने वर्ग के प्रतिनिधि थे। दूसरी ओर समाजवादी ज्यादा दूर तक देखने वाले थे और मज़दूरों की दशा सुधारने के लिए व्यावहारिक तरीक़े प्रस्तावित करते थे लेकिन वे बुर्जुआ वर्ग से आते थे और इसलिए मज़दूरों के साथ पूरी तरह घुलमिल नहीं पाते थे। जैसा कि फ्रेडरिक एंगेल्स ने लिखा है, चार्टिज्म और समाजवाद की एकता मज़दूर आन्दोलन का अगला क़दम था और इसकी शुरुआत उसी समय हो चुकी थी। मज़दूर अपनी लड़ाई में विचारों के महत्व को समझने लगे थे और ट्रेड यूनियनें, चार्टिस्ट और समाजवादी, सभी अलग-अलग या मिलकर मज़दूरों के लिए अनगिनत स्कूल, पुस्तकालय, रीडिंग-रूम आदि चलाते थे। पूँजीवादी सरकारें इन्हें ख़तरनाक समझती थीं और अक्सर इन्हें बन्द भी कर दिया जाता था। लेकिन मज़दूरों के बीच धीरे-धीरे बढ़ती राजनीतिक चेतना को फैलने से रोका नहीं जा सकता था।

1848 में लन्दन में एक चौराहे पर मज़दूरों की “साहित्यिक एवं वैज्ञानिक संस्था” की बैठक

1848 में लन्दन में एक चौराहे पर मज़दूरों की “साहित्यिक एवं वैज्ञानिक संस्था” की बैठक

 

1844 में जर्मनी में कपड़ा उद्योग के प्रमुख केन्द्र सिलेसिया प्रान्त में बढ़ती ग़रीबी और भुखमरी से तंग आकर हज़ारों बुनकर मज़दूरों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शहर पर कब्ज़ा कर लिया और उन्हें कुचलने के लिए सेना को बुलाना पड़ा। 11 मज़दूरों को गोली से उड़ाने और सैकड़ों को जेल और कोड़ों की सज़ाएँ दी गयीं। यह विद्रोह मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में बहुत महत्व रखता है क्योंकि सिलेसियाई बुनकरों की माँगों और नारों तथा उनकी कार्रवाइयों से पता चलता था कि समाज में मज़दूरों की स्थिति और उनकी भूमिका के बारे में उनकी समझ तेज़ी से बढ़ रही थी। दायीं ओर के चित्र अपनी माँगें पेश करने के लिए जाते हुए बुनकरों को दिखाया गया है। इसे जर्मनी की प्रसिद्ध चित्रकार और मज़दूर आन्दोलन की प्रबल समर्थक कैथी कॉलवित्ज़ ने बनाया था।

1844 में जर्मनी में कपड़ा उद्योग के प्रमुख केन्द्र सिलेसिया प्रान्त में बढ़ती ग़रीबी और भुखमरी से तंग आकर हज़ारों बुनकर मज़दूरों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शहर पर कब्ज़ा कर लिया और उन्हें कुचलने के लिए सेना को बुलाना पड़ा। 11 मज़दूरों को गोली से उड़ाने और सैकड़ों को जेल और कोड़ों की सज़ाएँ दी गयीं। यह विद्रोह मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में बहुत महत्व रखता है क्योंकि सिलेसियाई बुनकरों की माँगों और नारों तथा उनकी कार्रवाइयों से पता चलता था कि समाज में मज़दूरों की स्थिति और उनकी भूमिका के बारे में उनकी समझ तेज़ी से बढ़ रही थी। दायीं ओर के चित्र अपनी माँगें पेश करने के लिए जाते हुए बुनकरों को दिखाया गया है। इसे जर्मनी की प्रसिद्ध चित्रकार और मज़दूर आन्दोलन की प्रबल समर्थक कैथी कॉलवित्ज़ ने बनाया था।

 

2. मज़दूर आन्दोलन की एक मज़बूत धारा बनने के काफ़ी पहले ही समाजवाद का विचार पैदा हो चुका था। लेकिन इसे ”काल्पनिक” समाजवाद कहा गया क्योंकि इसके पीछे कोई वैज्ञानिक सोच और रास्ते की सही समझ नहीं थी। उस दौर के बहुत-से प्रगतिशील लोगों को उम्मीद थी कि राजाओं-जागीरदारों-सामन्तों के उत्पीड़न का अन्त होगा तो विवेक, स्वतन्त्रता और न्याय का राज क़ायम होगा। लेकिन वास्तव में सामन्ती अत्याचार और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का स्थान निर्मम पूँजीवादी शोषण और धन-सम्पत्ति के शासन ने ले लिया। पूँजीवादी विकास के उस शुरुआती दौर में ही कई ऐसे विचारक और दूरदर्शी लोग थे जिन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था की बुराइयों को समझ लिया था और एक ऐसी व्यवस्था के लिए आवाज़ उठायी थी जो सबके लिए इंसाफ़ और भाईचारे पर टिकी होगी।

सेण्‍ट-साइमन

सेण्‍ट-साइमन

रॉबर्ट ओवेन

रॉबर्ट ओवेन

चार्ल्‍स फूरिये

चार्ल्‍स फूरिये

इन महान चिन्तकों में सबसे ऊँचा स्थान फ्रांस के सेण्ट-साइमन और इंग्लैण्ड के चार्ल्स फूरिये तथा रॉबर्ट ओवेन का है। इन लोगों ने पूँजीवादी दुनिया की कठोर और सही आलोचना की और इसके स्थान पर भविष्य के न्यायपूर्ण समाज की तस्वीर पेश की। सबसे बढ़कर, उन्होंने आम लोगों को पूँजीवादी दासता की बेड़ियों से अपने को मुक्त करने के लिए ललकारा। लेकिन वे यह नहीं समझ पाये कि पूँजीवाद को हटाकर नया समाज लाने का सही रास्ता क्या होगा। उन्होंने जो कुछ सुझाया वह भोलेपन से भरा हुआ और अव्यावहारिक सपना था। अभी इन लोगों को यह विश्वास नहीं था कि मज़दूर वर्ग ही वह सामाजिक शक्ति है जो शोषण की ज़ंजीरों को तोड़कर खुद को भी मुक्त करेगा और पूरी मानवजाति को भी मुक्ति दिलायेगा। वे सोचते थे कि समाज के प्रबुद्ध लोगों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे मज़दूरों का इस दुर्दशा से उद्धार करें। लेकिन इन महान चिन्तकों के काम के बिना मज़दूरों की मुक्ति का वैज्ञानिक सिद्धान्त भी पैदा नहीं हो सकता था।

रॉबर्ट ओवेन द्वारा स्थापित बस्ती ‘न्यू लेनार्क’ – यहाँ एक विशाल सूती मिल थी जिसमें काम करने वाले 2500 मज़दूर और उनके परिवार रहते थे जिन्हें लेकर ओवेन ने समाजवाद के अपने आदर्श को लागू करने के प्रयोग किये।

रॉबर्ट ओवेन द्वारा स्थापित बस्ती ‘न्यू लेनार्क’ – यहाँ एक विशाल सूती मिल थी जिसमें काम करने वाले 2500 मज़दूर और उनके परिवार रहते थे जिन्हें लेकर ओवेन ने समाजवाद के अपने आदर्श को लागू करने के प्रयोग किये।

 

3. जब मज़दूर आन्दोलन ने काफ़ी अनुभव हासिल कर लिया और मज़दूर वर्ग ज्यादा अच्छी तरह संगठित हो गया तभी एक ऐसा वैज्ञानिक सिद्धान्त सामने आया जो मानवता को मुक्ति की सही राह पर ले जा सकता था। इस सिद्धान्त ने दिखाया कि अब तक का सामाजिक विकास किन मंज़िलों से होकर हुआ है और समाज विकास की सबसे ऊँची मंज़िल कम्युनिज्म तक जाने का रास्ता क्या होगा। इस सिद्धान्त के सृजक थे मज़दूर वर्ग के महान नेता कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्स। जर्मनी में जन्मे इन दो अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने नौजवानी की शुरुआत में ही अपने आपको तन-मन से क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया। मार्क्‍स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और सर्वहारा के संघर्ष की कार्यनीति बनायी। उन्होंने कहा, ”सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा और कुछ नहीं है।” मार्क्‍सवाद ने दिखाया कि सर्वहारा सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है और यह निजी मालिकाने की समूची व्यवस्था को नष्ट करने के संघर्ष में सारे मेहनतकश अवाम की अगुवाई करेगा। लेकिन यह नया सिद्धान्त दुनिया को बदलने वाली ज़बर्दस्त ताक़त तभी बन सकता था जब वह जनता के दिलो-दिमाग़ पर छा जाये।

कार्ल मार्क्स (जन्म 5 मई, 1848; निधन 14 मार्च 1883) ने नौजवानी से ही अपना पूरा जीवन मज़दूरों की मुक्ति की लड़ाई को समर्पित कर दिया। अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण उन्हें 25 साल की उम्र में ही अपना देश छोड़ना पड़ा और उनके शेष जीवन का ज़्यादा समय पराये मुल्कों में ही बीता। हर देश की पूँजीवादी सरकारें उनसे भय खाती थीं लेकिन सारी दुनिया के मेहनतकशों से उन्हें अपार प्यार और सम्मान मिला।

कार्ल मार्क्स (जन्म 5 मई, 1848; निधन 14 मार्च 1883) ने नौजवानी से ही अपना पूरा जीवन मज़दूरों की मुक्ति की लड़ाई को समर्पित कर दिया। अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण उन्हें 25 साल की उम्र में ही अपना देश छोड़ना पड़ा और उनके शेष जीवन का ज़्यादा समय पराये मुल्कों में ही बीता। हर देश की पूँजीवादी सरकारें उनसे भय खाती थीं लेकिन सारी दुनिया के मेहनतकशों से उन्हें अपार प्यार और सम्मान मिला।

 

फ्रेडरिक एंगेल्स (जन्म 25 नवम्बर, 1820; निधन 5 अगस्त 1895) एक कारख़ानेदार के बेटे थे जिन्होंने अपने पिता की इच्छाओं का पालन करने और अपनी शक्ति पैसा कमाने में लगाने के बजाय अपनी सारी ऊर्जा क्रान्तिकारी संघर्ष को समर्पित कर दी। मार्क्स और एंगेल्स की मुलाकात 1844 में हुई और उसके बाद सर्वहारा के इन दो महान नेताओं की ऐसी अटूट मित्रता की शुरुआत हुई जो इतिहास की एक मिसाल बन गयी है। दोनों ने अपनी सारी प्रतिभा, अपनी ऊर्जा की एक-एक बूँद पूँजी की दासता से मानवता की मुक्ति के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में लगा दी।

फ्रेडरिक एंगेल्स (जन्म 25 नवम्बर, 1820; निधन 5 अगस्त 1895) एक कारख़ानेदार के बेटे थे जिन्होंने अपने पिता की इच्छाओं का पालन करने और अपनी शक्ति पैसा कमाने में लगाने के बजाय अपनी सारी ऊर्जा क्रान्तिकारी संघर्ष को समर्पित कर दी। मार्क्स और एंगेल्स की मुलाकात 1844 में हुई और उसके बाद सर्वहारा के इन दो महान नेताओं की ऐसी अटूट मित्रता की शुरुआत हुई जो इतिहास की एक मिसाल बन गयी है। दोनों ने अपनी सारी प्रतिभा, अपनी ऊर्जा की एक-एक बूँद पूँजी की दासता से मानवता की मुक्ति के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में लगा दी।

 

1844 में विभिन्न समाजवादी मण्डलियों के साथ विचार-विमर्श करते हुए मार्क्स और एंगेल्स

1844 में विभिन्न समाजवादी मण्डलियों के साथ विचार-विमर्श करते हुए मार्क्स और एंगेल्स

 

4. मार्क्‍स और एंगेल्स से पहले मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद का विकास अलग-अलग रास्तों से हो रहा था। 1847 में मार्क्‍स और एंगेल्स के सक्रिय सहयोग से पहले अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा संगठन — क़म्युनिस्ट लीग — की स्थापना की गयी। अब एक नया नारा दिया गया — ”दुनिया के मज़दूरो, एक हो!” इसी लीग की तरफ़ से मार्क्‍स-एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ तैयार किया जो फ़रवरी 1848 में छपकर आया। इस छोटी-सी पुस्तिका ने पिछले 160 वर्षों में दुनिया को बदल डाला है। आज दुनिया की लगभग हर भाषा में इसकी करोड़ों-करोड़ प्रतियाँ छप चुकी हैं। लेकिन जब यह पहले पहल छपा था, तभी ”कम्युनिस्ट घोषणापत्र” ने ज़बर्दस्त असर पैदा किया। इसके बाद मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद दो अलग-अलग धराएँ नहीं रह गये और आपस में मिलकर एक अपराजेय शक्ति बन गये।

‘कम्युनिस्ट लीग’ की केन्द्रीय समिति की बैठक, सबसे दायें बैठे हुए कार्ल मार्क्स।

‘कम्युनिस्ट लीग’ की केन्द्रीय समिति की बैठक, सबसे दायें बैठे हुए कार्ल मार्क्स।

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के पहले संस्करण का आवरण पृष्ठ

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के पहले संस्करण का आवरण पृष्ठ

5. उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में कई जनविद्रोहों को सख्ती से कुचल दिये जाने के बाद यूरोप में सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया और दमनकारी पुलिस शासन का दौर आ गया। मगर दमन के कारण लम्बे समय से दबी पड़ी सामाजिक मुक्ति की शक्तियाँ लगातार मज़बूत होती जा रही थीं। 1848 में ज्वालामुखी फूट पड़ा। सारा यूरोप क्रान्तिकारी उथल-पुथल की चपेट में आ गया जिसकी अगली कतारों में हर जगह मज़दूर वर्ग था। क्रान्ति का पहला विस्पफोट सिसिली में हुआ लेकिन एक-एक करके यह क्रान्तिकारी ज्वार फ्रांस, आस्ट्रिया, रूस, जर्मनी, इटली, स्पेन, हंगरी, पोलैण्ड आदि से होते हुए सारे यूरोप में फैल गया और घृणित निरंकुश राजनीतिक व्यवस्थाओं, सम्राटों और मंत्रियों को अपने साथ बहा ले गया।

फ्रांस में फरवरी 1848 में क्रान्ति की शुरुआत होते ही जनता ने राजमहल पर धावा बोल दिया जहाँ से राजा पहले ही भाग खड़ा हुआ था। लोग राजसिंहासन को घसीटकर सड़कों पर ले आये और उसे आग के हवाले कर दिया।

फ्रांस में फरवरी 1848 में क्रान्ति की शुरुआत होते ही जनता ने राजमहल पर धावा बोल दिया जहाँ से राजा पहले ही भाग खड़ा हुआ था। लोग राजसिंहासन को घसीटकर सड़कों पर ले आये और उसे आग के हवाले कर दिया।

 

1848 की क्रान्तियों के दौरान लुटेरे और अत्याचारी शासक को जनता ने लात मारकर किनारे कर दिया। उस समय का एक प्रसिद्ध कार्टून। उन्हीं दिनों विख्यात रूसी क्रान्तिकारी लेखक अलेक्सान्द्र हर्ज़न ने लिखा थाः “यह अद्भुत समय है। अखबार उठाते हुए मेरे हाथ कँपकँपाने लगते हैं - हर दिन कोई न कोई अप्रत्याशित बात होती रहती है, बिजली का नया गर्जन सुनायी पड़ता है। या तो मानव जाति का नया उज्ज्वल पुनर्जन्म होने वाला है या क़यामत का दिन आ रहा है। लोगों के दिलों में नयी ताक़त आ गयी है, पुरानी आशाएँ फिर जाग उठी हैं और एक ऐसा साहस फिर हावी हो गया है जो कि सभी कुछ कर सकता है।”

1848 की क्रान्तियों के दौरान लुटेरे और अत्याचारी शासक को जनता ने लात मारकर किनारे कर दिया। उस समय का एक प्रसिद्ध कार्टून।
उन्हीं दिनों विख्यात रूसी क्रान्तिकारी लेखक अलेक्सान्द्र हर्ज़न ने लिखा थाः “यह अद्भुत समय है। अखबार उठाते हुए मेरे हाथ कँपकँपाने लगते हैं – हर दिन कोई न कोई अप्रत्याशित बात होती रहती है, बिजली का नया गर्जन सुनायी पड़ता है। या तो मानव जाति का नया उज्ज्वल पुनर्जन्म होने वाला है या क़यामत का दिन आ रहा है। लोगों के दिलों में नयी ताक़त आ गयी है, पुरानी आशाएँ फिर जाग उठी हैं और एक ऐसा साहस फिर हावी हो गया है जो कि सभी कुछ कर सकता है।”

 

लेकिन शानदार बहादुराना संघर्ष के बावजूद मेहनतकश जनता को आख़िरकार हार का मुँह देखना पड़ा। मज़दूरों की बढ़ती ताकत और लड़ाकू चेतना से घबराये पूँजीपति वर्ग ने हर ग़द्दारी और धोखाधड़ी की और क्रान्तिकारी आन्दोलन की पीठ में छुरा भोंकने का काम किया। दूसरी तरफ, सर्वहारा वर्ग की कमज़ोरी का मूल कारण यह था कि ज़बर्दस्त क्रान्तिकारी जोश के बावजूद न तो वह अच्छी तरह संगठित था और न ही उसे अपने ऐतिहासिक कार्यभार और लक्ष्य की सही समझ थी। 1848 की क्रान्तियों का अन्त पराजय में हुआ लेकिन उन्होंने यूरोप के आने वाले इतिहास को बदलकर रख दिया। साथ ही इन क्रान्तियों ने यूरोप के सर्वहारा को राजनीतिक संघर्ष का अमूल्य अनुभव प्रदान किया। उन्होंने दिखा दिया कि एक बड़े और ताक़तवर सामाजिक वर्ग के रूप में सर्वहारा के सामने आने के बाद अब बुर्जुआ वर्ग ज़रा भी प्रगतिशील नहीं रह गया है और एक प्रतिक्रान्तिकारी शक्ति के रूप में बदल चुका है।

6. मज़दूरों ने अपने संगठन स्थापित करने शुरू कर दिये। हड़तालें अधिकाधिक आम होती गयीं। समाजवादी मण्डलियों और दलों की स्थापना होने लगी और मज़दूरों ने अब अपनी समस्याओं को अपने ही कारख़ाने, शहर या देश के तंग नज़रिये से देखना बन्द कर दिया। उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक तक मज़दूर आन्दोलन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी शक्तियों को एकजुट करने के लिए तैयार हो चुका था। अब मेहनतकश अवाम को एक नये अन्तरराष्ट्रीय संगठन में एकताबद्ध करने का समय आ गया था।

पेरिस में जून विद्रोह के समय सड़कों पर मोर्चा लेते हुए मज़दूर। इन घटनाओं के साक्षी रहे मार्क्स ने लिखा हैः “मज़दूरों के पास और कोई विकल्प नहीं था - वे या तो भूखों मरते या संघर्ष करते। उन्होंने 22 जून के प्रचण्ड विप्लव से जवाब दिया, जो आधुनिक समाज को विभाजित करने वाले दोनों वर्गों के बीच होने वाला पहला बड़ा युद्ध था। यह बुर्जुआ व्यवस्था के संरक्षण या संहार का युद्ध था।” पूँजीपतियों की सरकार ने बर्बर दमन किया। सड़कों पर लड़ाई के दौरान 500 मज़दूर मारे गये थे। लेकिन उसके बाद के कुछ महीनों में 11 हज़ार मज़दूरों को गोली से उड़ा दिया गया।

पेरिस में जून विद्रोह के समय सड़कों पर मोर्चा लेते हुए मज़दूर। इन घटनाओं के साक्षी रहे मार्क्स ने लिखा हैः “मज़दूरों के पास और कोई विकल्प नहीं था – वे या तो भूखों मरते या संघर्ष करते। उन्होंने 22 जून के प्रचण्ड विप्लव से जवाब दिया, जो आधुनिक समाज को विभाजित करने वाले दोनों वर्गों के बीच होने वाला पहला बड़ा युद्ध था। यह बुर्जुआ व्यवस्था के संरक्षण या संहार का युद्ध था।” पूँजीपतियों की सरकार ने बर्बर दमन किया। सड़कों पर लड़ाई के दौरान 500 मज़दूर मारे गये थे। लेकिन उसके बाद के कुछ महीनों में 11 हज़ार मज़दूरों को गोली से उड़ा दिया गया।

 

28 सितम्बर, 1864 को लन्दन में हुई एक सभा में, जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली तथा कई अन्य देशों के मज़दूरों ने भाग लिया था, अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ (इण्टरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन) की स्थापना की गयी, जो इतिहास में पहले इण्टरनेशनल के नाम से प्रसिद्ध है। कार्ल मार्क्‍स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स आन्दोलन के मुख्य राजनीतिक और वैचारिक नेता थे। यूरोप के विभिन्न देशों और अमेरिका के अनेक ट्रेड यूनियन, मज़दूर सोसायटियाँ, श्रमिक शिक्षण मण्डल तथा अन्य मज़दूर संगठन पहले इण्टरनेशनल में शामिल हो गये। इन सभी देशों में अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की राष्ट्रीय शाखाएँ स्थापित हो गयीं और थोड़े ही समय में इण्टरनेशनल एक व्यापक अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा संगठन बन गया। उस समय भारत में अभी कारख़ाने लगने शुरू ही हुए थे और मज़दूर बहुत कम संख्या में तथा बिखरे हुए थे। लेकिन करीब 20 वर्ष बाद, जब यहाँ बहुत से उद्योग लग चुके थे जिनमें बड़ी संख्या में मज़दूर काम करने लगे थे, तो इण्टरनेशनल ने अपने दो प्रतिनिधियों को भारत के मज़दूरों के बीच संगठित होने की चेतना फैलाने के लिए कलकत्ता भेजा था।

 

 

प्रथम इण्टरनेशनल में उद्घाटन भाषण देते हुए मार्क्स  इस ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश : ''भाड़े का श्रम अस्थायी और निचली कोटि का रूप है जिसे ऐसे सहयोगपूर्ण श्रम के आगे खत्म हो जाना है जो इच्छापूर्वक, तत्पर मस्तिष्क और प्रसन्न हृदय के साथ किया जायेगा...'' ''बड़े पैमाने पर, और आधुनिक विज्ञान के अनुसार चलने वाला उत्पादन मालिकों के वर्ग की मौजूदगी के बिना भी चलाया जा सकता है...'' ''उनके (मज़दूरों के -- सं.) पास सफलता का एक तत्व है -- उनकी संख्या। लेकिन संख्या तभी कारगर होती है जब वह आपस में मिलकर एकताबद्ध हो और ज्ञान उसका नेतृत्व करता हो...'' ''इसलिए राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करना मेहनतकश वर्गों का महान लक्ष्य बन गया है।'' इस भाषण का अन्त इन शब्दों से हुआ : ''दुनिया के मज़दूरो, एक हो।''

प्रथम इण्टरनेशनल में उद्घाटन भाषण देते हुए मार्क्स
इस ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश :
”भाड़े का श्रम अस्थायी और निचली कोटि का रूप है जिसे ऐसे सहयोगपूर्ण श्रम के आगे खत्म हो जाना है जो इच्छापूर्वक, तत्पर मस्तिष्क और प्रसन्न हृदय के साथ किया जायेगा…”
”बड़े पैमाने पर, और आधुनिक विज्ञान के अनुसार चलने वाला उत्पादन मालिकों के वर्ग की मौजूदगी के बिना भी चलाया जा सकता है…”
”उनके (मज़दूरों के — सं.) पास सफलता का एक तत्व है — उनकी संख्या। लेकिन संख्या तभी कारगर होती है जब वह आपस में मिलकर एकताबद्ध हो और ज्ञान उसका नेतृत्व करता हो…”
”इसलिए राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करना मेहनतकश वर्गों का महान लक्ष्य बन गया है।”
इस भाषण का अन्त इन शब्दों से हुआ : ”दुनिया के मज़दूरो, एक हो।”

 

Mazdoor Bigul_April_2012_Page_10_Image_0004कम्यून ज़िन्दाबाद!

अगले अंक से कम्यून की स्थापना और उसके अमर सिद्धान्तों के जन्म की कहानी…

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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