28 फ़रवरी की हड़ताल: एक और ”देशव्यापी” तमाशा

बिगुल संवाददाता

वर्ष 1991 से देश में निजीकरण-उदारीकरण की वे नीतियाँ लागू करने का सिलसिला शुरू हुआ जिनके तहत मालिकों को मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ लेने की खुली छूट दी गयी और मज़दूरों के तमाम अधिकार एक-एक करके छिनते चले गये। तब से लेकर अब तक 14 बार तमाम केन्द्रीय यूनियनें मिलकर ”देशव्यापी हड़ताल” और ”भारत बन्द” करा चुकी हैं। लेकिन ऐसी हर हड़ताल और बन्द के बाद मज़दूरों की हालत में सुधार के बजाय उनकी लूट और शोषण में बढ़ोत्तरी ही होती रही है।

पिछली 28 फ़रवरी को जो हड़ताल हुई वह भी पिछले तमाम तमाशों से अलग नहीं थी। इसे आयोजित करने वालों में कांग्रेस पार्टी से जुड़ी इण्टक, भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी बीएमएस, मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) से जुड़ी सीटू, सीपीआई से जुड़ी एटक सहित दर्जनभर केन्द्रीय यूनियनें शामिल थीं। इन यूनियनों से जुड़े बहुत से नेता तो संसद और विधानसभाओं में भी बैठते हैं।

पिछले 20-21 साल के दौरान निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का बुलडोज़र मज़दूरों पर चलता रहा है, पहले से मिले हुए उनके अधिकार भी एक-एक करके छीने जाते रहे हैं और सभी पार्टियों की सरकारें इसमें शामिल रही हैं। इण्टक और बीएमएस के नेता तो इन नीतियों का उग्र विरोध करने की बात सोच भी नहीं सकते, मगर मज़दूरों की रहनुमाई का दावा करने वाले नक़ली वामपन्थियों ने भी संसद में गत्ते की तलवार भाँजने और टीवी पर गाल बजाने के अलावा और कुछ नहीं किया है। करें भी कैसे? पश्चिम बंगाल और केरल में जहाँ उनकी सरकारें थीं, वहाँ तो वे उन्हीं नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू कर रहे थे। लेकिन मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की मजबूरी यह है कि उनकी दुकान का शटर डाउन न हो जाये इसके लिए उन्हें मज़दूरों के बीच अपनी साख बचाये रखने के वास्ते कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। इसीलिए वे बीच-बीच में विरोध के नाम पर कुछ नाटक-नौटंकी करते रहते हैं। सभी पार्टियों को मज़दूरों-कर्मचारियों के वोट चाहिए, इसलिए एक तरफ़ वे संसद में बैठकर मज़दूरों को लूटने-खसोटने वाली नीतियाँ बनाती हैं और दूसरी तरफ़ बीच-बीच में मज़दूरों के हित की चिन्ता का दिखावा भी करती रहती हैं।

ट्रेड यूनियन की बड़ी-बड़ी दुकानें चलाने वाले मज़दूर-हितों के वामपन्‍थी सौदागरों का सबसे बड़ा आधार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में संगठित मज़दूरों तथा निजी क्षेत्र के कुछ बड़े उद्योगों में काम करने वाले संगठित मज़दूरों के बीच था। निजीकरण-उदारीकरण की आँधी में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लाखों संगठित मज़दूरों की नौकरियाँ तो गयीं ही, इन धन्धेबाज़ों के ज़्यादातर तम्बू-कनात भी उखड़ गये। आज देश की 45-46 करोड़ मज़दूर आबादी में से क़रीब 93 प्रतिशत असंगठित मज़दूर हैं जिन्हें संगठित करने की बात तो दूर, उनकी माँग उठाना भी ट्रेड यूनियन के इन मदारियों ने कभी ज़रूरी नहीं समझा। मगर मज़दूरों की इस भारी आबादी में भीतर-भीतर सुलगते ग़ुस्से और बग़ावत की आग को भाँपकर अब ये न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, ठेका प्रथा जैसी माँगों के सहारे असंगठित मज़दूरों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए उछलकूद कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि सरकार और पूँजीपतियों से रियायतों के कुछ टुकड़े माँगने में सफल हो जायें जिससे इस विशाल मज़दूर आबादी के बढ़ते आक्रोश पर पानी के छींटे डाले जा सकें। लेकिन इनके सारे संगठन ऊपर से नीचे तक इतने ठस और जर्जर हो चुके हैं कि चाहकर भी ये अपनी ताक़त का ज़ोरदार प्रदर्शन नहीं कर पाते।

आज करोड़ों-करोड़ मज़दूर भयानक शोषण के शिकार हैं। किसी भी इलाक़े में कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता। 12-12 घण्टे काम करने के बाद भी इस जानलेवा महँगाई में इतना नहीं मिलता कि मज़दूर चैन और इज्ज़त के साथ दो रोटी खा सकें। मालिक जब चाहे जिसे भी निकालकर बाहर कर सकते हैं, पैसे मार सकते हैं, मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। मज़दूर जान पर खेलकर काम करते हैं और आये दिन दुर्घटना और बीमारी के शिकार होते रहते हैं। स्त्री मज़दूरों की हालत तो और भी बदतर है। क़दम-क़दम पर अपमान और ज़िल्लत भी बर्दाश्त करनी पड़ती है। ऐसे में मज़दूरों की माँगों पर लम्बी तैयारी के साथ ज़बर्दस्त जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि मज़दूरों को उनके हक़ों के बारे में जागरूक और शिक्षित किया जाये और ज़मीनी तौर पर छोटी-छोटी लड़ाइयों के ज़रिये उनको मज़बूत और जुझारू तरीक़े से संगठित किया जाये। मगर बड़ी-बड़ी यूनियनों के बड़े-बड़े नेता आलीशान दफ्तरों में बैठकर डीलिंग करते हैं और निचले स्तर पर उनके लोग घटिया क़िस्म की दल्लागीरी में लगे रहते हैं। मज़दूरों को उनके हक़ों के बारे में जागरूक करने से तो उनकी दुकानदारी ही चौपट हो जायेगी। इसलिए हड़ताल के नाम पर कुछ रस्मी क़वायदों से ज़्यादा ये कुछ कर ही नहीं सकते।

इस बार भी ऐसा ही हुआ। ज़्यादातर मज़दूरों में हड़ताल को लेकर न कोई उत्साह था न इच्छा। हालाँकि कई महीने पहले से इसकी घोषणा हो गयी थी लेकिन ज़्यादातर कारख़ाना इलाक़ों और मज़दूर बस्तियों में इसकी कोई तैयारी नहीं थी। बस हफ्ता भर पहले से टैम्पो में माइक बाँधकर दो-चार जगह भाषण हो गये और कुछ पोस्टर चिपका दिये गये। मालिक भी इसके लिए तैयार ही थे कुछ ने पहले से ही काम की रफ्तार तेज़ कराके प्रोडक्शन पूरा करा लिया था तो कुछ ने छुट्टी रद्द करके बाद में काम करा लिया। बहुत-सी फ़ैक्ट्रियाँ तो उस दिन भी गेट बन्द करके चलती ही रहीं। बैंक, बीमा, पोस्टऑफ़िस आदि के कर्मचारियों और सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों में ज़रूर हड़ताल का कुछ असर रहा। ज़्यादातर औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरों को एकजुट करने का कोई कार्यक्रम भी नहीं लिया गया। जो मज़दूर काम पर नहीं गये वे भी कमरों में बैठकर छुट्टी मनाते रहे। सच तो यह है कि ऐसे नपुंसक क़िस्म के कार्यक्रम सरकार और पूँजीपतियों का हौसला बढ़ाने का ही काम करते हैं। वे समझ जाते हैं कि बिखरे और नेतृत्वहीन मज़दूर वर्ग में अभी इतनी ताक़त नहीं है कि उनके अन्धाधुन्ध लूट अभियान की राह रोक सके। सरकार इनको कितनी गम्भीरता से लेती है इसको इसी बात से समझा जा सकता है कि हड़ताल से कुछ ही दिन पहले राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में प्रधानमन्‍त्री ने केन्द्रीय यूनियनों के नेताओं के सामने कहा कि देश के विकास के लिए ज़रूरी है कि मालिकों को और ज़्यादा छूट दी जाये जिसके लिए आप लोग मज़दूरों को तैयार कीजिये।

सवाल उठता है कि लाखों-लाख सदस्य होने का दावा करने वाली ये बड़ी-बड़ी यूनियनें करोड़ों मज़दूरों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर भी कोई जुझारू आन्दोलन क्यों नहीं कर पातीं? अगर इनके नेताओं से पूछा जाये तो ये बड़ी बेशर्मी से इसका दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ देते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियनों के इन मौक़ापरस्त, दलाल, धन्धेबाज़ नेताओं का चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को अब ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। एक जुझारू, ताक़तवर संघर्ष के लिए व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि उनके बीच इन नक़ली मज़दूर नेताओं का, लाल झण्डे के इन सौदागरों का पूरी तरह पर्दाफ़ाश किया जाये। मगर ख़ुद को ‘इंक़लाबी’ कहने वाले कुछ संगठन ऐसा करने के बजाय हड़ताल वाले दिन भी कहीं-कहीं इन दलालों के पीछे-पीछे घूमते नज़र आये।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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