मज़दूर संघर्षों की श्रृंखला की एक अभूतपूर्व कड़ी
भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल (23-28 जुलाई, 1908)
अरविन्द
“हिन्दुस्तान के जनवादी तिलक को अंग्रेज गीदड़ों द्वारा सुनायी गयी बदनाम सज़ा – उन्हें लम्बे देश-निर्वासन की सज़ा दी गयी, ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कामन्स में एक प्रश्न ने यह उजागर किया कि हिन्दुस्तानी जूरी-सदस्यों ने उन्हें बरी करने के पक्ष में मत दिया और फैसला अंग्रेज़ जूरी-सदस्यों के मतों से पास किया गया – पूँजीपतियों के पालतू कुत्तों द्वारा की गयी इस प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के फलस्वरूप बम्बई में सड़कों पर प्रदर्शन और हड़ताल भड़क उठी है। भारत में भी सर्वहारा अब सचेत राजनीतिक जनसंघर्ष के स्तर तक विकसित हो चुका है।” मज़दूरों के महान नेता लेनिन के ये शब्द राष्ट्रीय आन्दोलन के लोकप्रिय नेता बालगंगाधर तिलक पर चले मुक़दमे और विरोधस्वरूप मज़दूर वर्ग की शानदार हड़ताल के बारे में हैं। 23 से 28 जुलाई सन् 1908 का समय भारतीय मज़दूर आन्दोलन का वह गौरवशाली इतिहास है, जिसे मुम्बई के मज़दूरों ने अपने ख़ून से लिखा था। बंगाल के आतंकवाद पर ‘केसरी’ नामक समाचारपत्र में कुछ लेख लिखने के कारण अंग्रेजों द्वारा लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया और उन्हें 6 साल के लिए देश निकाला दे दिया गया। जब 24 जून, 1908 को मुम्बई में तिलक की गिरफ़्तारी हुई तो न सिर्फ़ मुम्बई में बल्कि शोलापुर, नागपुर समेत पूरे देश में इसके विरोध में जनता सड़कों पर उमड़ आयी थी। किन्तु मुम्बई के मज़दूर इस संघर्ष में सबसे आगे थे। मज़दूरों द्वारा किया गया यह संघर्ष एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरी औपनिवेशिक व्यवस्था के अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष का प्रतीक है। मज़दूर अपनी आर्थिक माँगों के लिए नहीं बल्कि गोरे दमन के खिलाफ़ लड़ रहे थे। यह दिखाता है कि मज़दूर वर्ग औपनिवेशिक ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल उसी समय बजा चुका था, जब देश के पूँजीपति वर्ग के नेता ख़ुद को अंग्रेजी हुक़ूमत की वफ़ादार प्रजा बताते हुए सरकार से कुछ रियायतों की भीख माँग रहे थे।
तिलक पर मुक़दमा चलने के दौरान हर दिन मुम्बई के मज़दूरों ने विशाल प्रदर्शन और हड़तालें की थीं, जिनमें अक्सर पुलिस के साथ हिंसक मुठभेड़ें हो जाती थीं। फलस्वरूप सेना को भी बुला लिया गया, लेकिन देसी पुलिस का प्रयोग करने में अंग्रेज़ अन्त तक बचते रहे थे। जब 13 जुलाई से तिलक पर मुक़दमा चलना शुरू हुआ, तो उसी दिन अदालत के सामने जनता की पुलिस से हिंसक झड़प हुई थी। उस दिन अंग्रेज़ों की सेना के हथियारबन्द दस्तों ने रास्तों को इस तरह से घेर रखा था कि मज़दूर अपने कारख़ानों से निकलकर अदालत तक न पहुँच सकें। इसके बावजूद ब्रिव्स्कर्ण मिल के मज़दूरों ने हड़ताल करके जुलूस निकाला। 14, 15 और 16 को भी ऐसा ही हुआ। मज़दूर जुलूस निकालते और मिलिटरी उन्हें आगे बढ़ने से रोकती और जूलूस को तोड़ने के प्रयास करती। 17 जुलाई को मज़दूरों के आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। दोपहर बाद लक्ष्मीराम, ग्लोब, क्रिसेंट, जमशेद, नारायण, करीमभाई, मोहम्मदभाई, ब्रिटानिया, फीनिक्स, ग्रीव्सकाटन इत्यादि कपड़ा मिलों के मज़दूर हड़ताल करके बाहर निकल आये। क़रीब 20,000 मज़दूरों ने औद्योगिक इलाक़े में जुलूस निकाला और सभी मज़दूरों से कारख़ानों से बाहर निकल आने का आह्वान किया गया। 18 जुलाई को भी यही हुआ, किन्तु इस दिन पुलिस ने मज़दूरों पर गोली चला दी। 19 जुलाई को मुम्बई के माहिम और परेल इलाक़े के 60 कारखानों और रेलवे वर्कशॉप के क़रीब 65,000 मज़दूर हड़ताल कर बाहर आ गये। 20 जुलाई को मज़दूरों पर फिर से गोलियाँ चलायी गयीं। 21 जुलाई के दिन संघर्ष ने और भी विराट रूप धारण कर लिया। संग्राम में औद्योगिक मज़दूरों के साथ गोदी मज़दूर, दुकान मज़दूर, दुकानदार, और छोटे-मोटे व्यापारी भी शामिल हो गये। 22 जुलाई को 5 हड़ताली मज़दूरों को गिरफ़्तार करके उन्हें कठोर सजाएँ दी गयीं ताकि दूसरे इससे डर सकें। साथ ही यह दिन तिलक पर मुक़दमे की सुनवाई का आखिरी दिन भी था। उन्हें 6 साल के कठोर कारावास, 1000 रुपये के जुर्माने समेत देश-निकाले की सज़ा दी गयी। उसी दिन मज़दूरों द्वारा 6 दिन की व्यापक हड़ताल का निर्णय (तिलक की कैद के हरेक साल के लिए एक दिन की हड़ताल के रूप में) लिया गया।
23 जुलाई को करीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुम्बई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबन्द दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटो और पत्थरों की बारिश से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा।
मालिकों ने फैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मज़दूरों को हड़ताल बन्द कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिलमालिकों को सलाह दी -’आपकी ज़िम्मेदारी यह देखना है कि सरकार को किसी तरह परेशान न किया जाये, क़ानून-क़ायदों को मानकर चला जाये। आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।’ परन्तु मज़दूरों ने मालिकों-पुलिस- प्रशासन की तिकड़मों को धता बताते हुए अपने संघर्ष को जारी रखा। देश की जनता के सामने किये गये 6 दिन की हड़ताल के वायदे को मज़दूरों ने शब्दशः निभाकर अपने जुझारूपन को स्थापित कर दिया। शहर के मध्यवर्ग और श्रमिकों के दूसरे हिस्सों ने मज़दूरों का साथ दिया। पुलिस और सेना की तरफ़ से बार-बार गोलियाँ चलायी गयीं। इस संघर्ष में करीब 200 मज़दूरों और आम लोगों ने अपनी शहादत दी और बहुत से घायल हुए।
जिस तरह आज़ादी की लड़ाई में मज़दूर-किसानों की शानदार भूमिका और मेहनतकशों की लाखों-लाख कुर्बानियों की चर्चा तक नहीं की जाती उसी तरह मज़दूरों के इस ऐतिहासिक संघर्ष पर भी साज़िशाना तरीक़े से राख और धूल की परत चढ़ाकर इसे भुला दिया गया। लगता है हमारे तथाकथित इतिहासकारों और नेताओं को इन संघर्षों का जिक्र करते हुए भय और शर्म की अनुभूति होती है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को झण्डा फहराते हुए ‘साबरमती के सन्त’ के कारनामों की तो चर्चा होती है, अंग्रेज़ों के दल्ले तक ‘महान स्वतंत्रता सेनानी’ बन जाते हैं किन्तु जब देश की मेहनतकश जनता ने अपने ख़ून से धरती को लाल कर दिया था, और जिन जनसंघर्षों के दबाव के कारण अंग्रेज़ भागने को मजबूर हुए उनका कभी नाम तक नहीं लिया जाता। मज़दूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल, अहमदाबाद, कानपुर, नागपुर आदि के मज़दूरों के संघर्ष, गिरनी कामगार यूनियन का गौरवमयी इतिहास, शोलापुर कम्यून का संघर्ष, नौसेना और सेना की बग़ावतें, तेलंगाना, तेभागा पुनप्रा-वायलार और कय्यूर के जुझारू किसान संघर्ष, पंजाबी जनता की डण्डा फौज, भगतसिंह और उनके साथियों के संगठन एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारी इतिहास इत्यादि के बारे में कितने लोग जानते हैं? पूँजीवादी मीडिया कब इनका नाम लेता है, और नाम ले भी क्यों? क्योंकि शासक वर्ग जानता है कि यदि मेहनतकश अवाम से उसका प्रतिरोध का हथियार छीनना है तो उसे उसके क्रान्तिकारी इतिहास से काट देना ही काफ़ी है। संसदीय वामपंथी बातबहादुर और उनकी ट्रेड-यूनियनें (जिन्हें दलाल यूनियनें कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी) तो मज़दूरों का नाम लेकर और उन्हें दुवन्नी-चवन्नी के आर्थिक घेरों में उलझाकर गद्दारी ही करती रही हैं।
आज सबसे बड़ा काम है मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराया जाय। इसी कड़ी में हमें अपने पुरखों को भी याद करना होगा; सिर्फ़ याद करने के लिए नहीं बल्कि अपने संघर्षों के लिए प्रेरित होने के लिए भी। शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि आज यही हो सकती है कि मज़दूरी की व्यवस्था के नाश के उनके सपनों को हम कितनी शिद्दत के साथ अपने व्यवहार में लागू करते हैं। मुम्बई की सड़कों पर बहा हमारे पुरखों का ख़ून हमें आवाज़ दे रहा है कि शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार की इस अमानवीय और नारकीय ज़िन्दगी से मज़दूर वर्ग की आज़ादी के लिए लड़ने का ठेका दूसरों को देने की बजाय अपनी और साथ ही साथ पूरे समाज की मुक्ति का परचम हम ख़ुद अपने हाथों में थामकर आगे बढ़ें।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन