क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 17 : पूँजी का संचय
अध्याय – 15
अभिनव
हमने अब तक देखा है कि पूँजीवादी उत्पादन का पहला चरण होता है मुद्रा की एक निश्चित मात्रा के रूप में मूल्य की एक निश्चित मात्रा का पूँजी में तब्दील होना। इसका अर्थ होता है इस मुद्रा का बाज़ार में श्रमशक्ति नामक विशिष्ट माल और उत्पादन के साधनों के साथ विनिमय। दूसरा चरण होता है उत्पादन का जो कि संचरण के क्षेत्र से अलग उत्पादन के स्थान पर होता है। इसमें उत्पादन के साधन माल का रूप ग्रहण करते हैं, जिनका मूल्य उत्पादन के साधनों व श्रमशक्ति के मूल्य से ज़्यादा होता है। यानी उत्पादन के फलस्वरूप उत्पादित उत्पाद का मूल्य शुरू में लगायी गयी पूँजी के मूल्य से ज़्यादा होता है। इसमें शुरू में लगायी गयी पूँजी के मूल्य के अलावा बेशी मूल्य भी शामिल होता है, जो मज़दूर द्वारा दिये गये श्रम के द्वारा पैदा किये गये नये मूल्य का एक हिस्सा होता है। नये मूल्य का दूसरा हिस्सा होता है मज़दूरी। मज़दूर पहले अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है और फिर उसके ऊपर बेशी मूल्य पैदा करता है। इसके बाद पूँजीवादी उत्पादन की समूची प्रक्रिया का तीसरा चरण आता है जिसमें कि उत्पादित मालों को फिर से संचरण के क्षेत्र में डाला जाता है, यानी उन्हें बाज़ार में बेचा जाता है। उन्हें बेचना, मुद्रा में परिवर्तित करना या उनका वास्तवीकरण करना, और फिर इस मुद्रा को वापस पूँजी में तब्दील करना और इस प्रक्रिया को बार-बार दुहराना अनिवार्य होता है। इसी समूची प्रक्रिया को हम पूँजी का संचरण (circulation of capital) कहते हैं।
पूँजी का संचय वास्तव में वह प्रक्रिया होती है जिसमें कि पूँजीपति बेशी मूल्य के एक हिस्से को अपने उपभोग के लिए इस्तेमाल करने के बजाय उसे वापस उत्पादन में लगाता है। इस प्रकार वह उत्पादन को विस्तारित पैमाने पर दुहराता है। मार्क्स विश्लेषण के इस चरण की शुरुआत करने से पहले स्पष्ट कर देते हैं कि यहाँ पर हम कुछ चीज़ों को मानकर चलेंगे क्योंकि उससे पूँजी के संचय की प्रक्रिया पर अपने आप में कोई असर नहीं पड़ता है। पहली बात हम यह मानकर चलेंगे कि पूँजीपति अपने मालों को सफलतापूर्वक बेच लेता है। हम जानते हैं कि आम तौर पर यह प्रक्रिया सामान्य रूप में नहीं चलती। कभी पूँजीपति अपना पूरा माल नहीं बेच पाता तो कभी उसे आंशिक तौर पर नहीं बेच पाता। लेकिन संचरण के क्षेत्र में होने वाली इन प्रक्रियाओं का विश्लेषण बाद में किया जा सकता है। वे विश्लेषण और निर्धारण का अलग स्तर हैं और बेशी मूल्य के उत्पादन और उनके पूँजी में तब्दील होने की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए हम उस स्तर पर होने वाले परिवर्तनों को नियतांक मानकर चलते हैं। यह सामान्य वैज्ञानिक पद्धति है। मिसाल के तौर पर, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का आकलन करने के लिए पहले हम वायु द्वारा होने वाले घर्षण को शून्य मान लेते हैं ताकि शुद्ध रूप से गुरुत्वाकर्षण की शक्ति को समझ सकें। जब हम यह कर लेते हैं तब हम गुरुत्व के प्रभाव में गिर रही वस्तु पर अन्य बलों के असर का आकलन करते हैं। यदि ऐसा न किया जाय तो न तो गुरुत्वाकर्षण को समझा जा सकता है और न ही अन्य बलों के प्रभाव को समझा जा सकता है।
इसी प्रकार मार्क्स बेशी मूल्य के पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के पहलू को भी अभी नज़रन्दाज़ करके चलते हैं क्योंकि जब हम समूचे पूँजीपति वर्ग की बात करते हैं तो इस विभाजन से बेशी मूल्य के विनियोजन व उसके पूँजी में तब्दील होने की प्रक्रिया में अपने आप में कोई असर नहीं पड़ता। हालाँकि औद्योगिक पूँजीपति को अपने द्वारा विनियोजित बेशी मूल्य को भूस्वामी पूँजीपति, वित्तीय पूँजीपति व वाणिज्यिक पूँजीपति के साथ साझा करना पड़ता है, मगर पूँजी संचय की प्रक्रिया का अध्ययन करने में अपने आप में इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है और हम यह मानकर चल सकते हैं कि औद्योगिक पूँजीपति समूचे पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधि है और इस रूप में ही वह बेशी मूल्य का प्रत्यक्ष और प्राथमिक विनियोजन करने का काम करता है।
इसलिए मार्क्स स्पष्ट करते हैं :
“जिस हद तक संचय वास्तव में होता है, हम यह मान सकते हैं कि पूँजीपति अपने मालों को बेचने में, और उनसे झड़कर उसकी जेब में गिरने वाली मुद्रा को पूँजी में तब्दील करने में सफल रहा है। इसके अलावा, बेशी मूल्य का विभिन्न खण्डों में विभाजन न तो बेशी मूल्य की प्रकृति को प्रभावित करता है और न ही उन स्थितियों को जिनके अन्तर्गत यह बेशी मूल्य संचय की प्रक्रिया में एक तत्व बनता है।…इसलिए संचय की अपनी प्रस्तुति में हम उससे ज़्यादा कोई कल्पना करके नहीं चल रहे हैं जिसकी कल्पना स्वयं संचय की वास्तविक प्रक्रिया करती है।…इसलिए इस प्रक्रिया का एक सटीक विश्लेषण यह माँग करता है कि हम फिलहाल उन सभी परिघटनाओं को नज़रन्दाज़ करके चलें जो इसकी आन्तरिक प्रणाली को छिपाने का काम करती हैं।” (कार्ल मार्क्स. 1990. पूँजी, खण्ड–1, पेंगुइन बुक्स, लन्दन, पृ. 710)
यानी, हम पूँजीवादी व्यवस्था में मालों के ख़रीदे-बेचे जाने की प्रक्रिया में मौजूद अराजकता और बेशी मूल्य के उद्यमी मुनाफ़ा, वाणिज्यिक मुनाफ़ा, लगान और ब्याज़ में बँटवारे को फिलहाल नज़रन्दाज़ करके चलेंगे, ताकि हम पूँजी संचय की प्रक्रिया की एक सटीक समझदारी बना सकें। इसके बाद ही हम उपरोक्त कारकों के पूँजी संचय की समूची प्रक्रिया पर पड़ने वाले असर को समझ सकते हैं।
सबसे पहले हमें जिस प्रक्रिया को समझना है वह है पुनरुत्पादन की सामान्य प्रक्रिया, जो किसी भी उत्पादन पद्धति में होती है, चाहे वह पूँजीवादी हो, सामन्ती हो या फिर दास प्रथा। इसके बाद ही हम पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में पुनरुत्पादन के विशिष्ट रूपों को समझ सकते हैं, जो कि पूँजी संचय को समझने की बुनियाद है।
पुनरुत्पादन
सबसे पहले हमें यह समझना ज़रूरी है कि सामाजिक उत्पादन की हर प्रक्रिया पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी होती है। इसका क्या अर्थ है? इसका महज़ इतना मतलब है कि जिस प्रकार कोई समाज अपने लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करना बन्द नहीं कर सकता, उसी प्रकार वह उनका उत्पादन करना भी बन्द नहीं कर सकता। इसलिए सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया इतिहास के हर दौर में एक बार-बार दुहराई जाने वाली प्रक्रिया होती है, जिसमें समान चरणों को बार-बार दुहराया जाता है। वह कोई एक बार होने वाली प्रक्रिया नहीं होती बल्कि बार-बार घटित होने वाली प्रक्रिया होती है। मार्क्स लिखते हैं :
“इस प्रकार, जब हम एक आपस में अन्तर्सम्बन्धित पूर्णता के रूप में और उसके अविरत पुनर्नवीकरण के निरन्तर प्रवाह में पूरी प्रक्रिया को देखते हैं, तो यह साफ़ हो जाता है कि उत्पादन की हर सामाजिक प्रकिया उसी समय एक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी होती है।” (वही, पृ. 711)
यह बात पाठकों को एक साधारण-सी बात लग सकती है जिसका ज़िक्र करना या उसे दुहराया जाना उन्हें अनावश्यक भी लग सकता है। लेकिन जैसे ही हम विश्लेषण की गहराई में उतरते हैं तो हमें इस बात का अहसास होता है कि सामान्य-सी दिखने वाली यह बात वास्तव में एक महत्वपूर्ण और गूढ़ बात है, जिसे न समझने या जिस पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण कई क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने गम्भीर भूलें कीं।
यदि सामाजिक उत्पादन की हर प्रक्रिया हर–हमेशा पुनरुत्पादन की प्रकिया भी होती है, तो इसका अर्थ है कि उत्पादन की स्थितियाँ या शर्तें भी हर–हमेशा पुनरुत्पादन की स्थितियाँ या शर्तें भी होती हैं। यदि किसी भी समाज में उत्पादन को कम-से-कम समान स्तर पर जारी रखना है, तो हर वर्ष उसे ख़र्च हो चुके उत्पादन के साधनों की भरपाई करनी होगी। यानी, उसे ख़र्च हो चुके उत्पादन के साधनों की पुन: आपूर्ति को सुनिश्चित करना होगा। हर वर्ष के कुल उत्पाद को हम केवल उपभोग के साधनों के रूप में नहीं देख सकते हैं। वार्षिक उत्पाद के हमेशा दो हिस्से होंगे: पहला, स्थानापन्न उत्पाद (replacement product) और दूसरा, शुद्ध उत्पाद (net product)। इस शुद्ध उत्पाद के ज़ाहिरा तौर पर एक वर्ग समाज में दो हिस्से होंगे: पहला, जो शासक वर्ग के उपभोग में जाते हैं यानी बेशी उत्पाद (surplus product) और दूसरा, जो उत्पादक वर्ग के उपभोग में जाते हैं यानी आवश्यक उत्पाद (necessary product)। स्पष्ट है कि पुनरुत्पादन के लिए जो पहली और सबसे ज़रूरी पूर्वशर्त है वह है ख़र्च हो चुके उत्पादन के साधनों की भरपाई, यानी वार्षिक उत्पाद का वह हिस्सा जो व्यक्तिगत उपभोग में नहीं इस्तेमाल होता, बल्कि उत्पादन में जाता है, या कहें कि उत्पादक उपभोग में इस्तेमाल किया जाता है; जिसे हमने यहाँ स्थानापन्न उत्पाद कहा है।
एक पूँजीवादी समाज में भी उत्पादन की प्रक्रिया हर-हमेशा पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी होती है। लिहाज़ा यहाँ भी पुनरुत्पादन की वह सामान्य पूर्वशर्त पूरी होनी चाहिए जिसका हमने ऊपर ज़िक्र किया है। यानी, व्यक्तिगत उपभोग में जाने वाली वस्तुओं व सेवाओं के अलावा उन सभी उत्पादन के साधनों की भरपाई भी होनी चाहिए जो कि उत्पादन में ख़र्च हो चुके हैं। साथ में, पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की विशिष्टता को समझना भी ज़रूरी है। जिस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया और कुछ नहीं बल्कि मूल्य संवर्धन या मूल्य की वृद्धि की प्रक्रिया है, यानी बेशी मूल्य समेत मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया है, उसी प्रकार पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया पूँजीपति द्वारा पूँजी के रूप में उत्पादन में लगायी गयी मूल्य की मात्रा को वापस पूँजी के रूप में पुनरुत्पादित करना है, यानी मूल्य की ऐसी मात्रा के रूप में जो उत्पादन की प्रक्रिया में अपने आपको बढ़ाती है। एक व्यक्ति पूँजीपति के तौर पर तभी स्थापित हो सकता है, जब उसका धन निरन्तर पूँजी के रूप में संचरित होता रहे, यानी, बार-बार उत्पादन में लगे और बेशी मूल्य समेत मूल्य का उत्पादन करे। सामान्य शब्दों में कहें तो उसके द्वारा निरन्तर निवेशित की जा रही पूँजी को उसके लिए नियमित तौर पर मुनाफ़ा पैदा करना होगा। यानी अगर कोई पूँजीपति किसी वर्ष रु. 1000 का पूँजी के रूप में निवेश करता है (यानी उससे उत्पादन के साधन व श्रमशक्ति ख़रीदता है) और उसे उत्पादन के एक चक्र के अन्त में रु. 500 के बेशी मूल्य समेत रु. 1500 प्राप्त होते हैं, तो यह प्रक्रिया साल-दर-साल दुहराई जानी चाहिए। यानी पूँजीवादी पुनरुत्पादन की यह पूर्वशर्त है कि पूँजीपति द्वारा निवेशित धन बार-बार अपने आपको पूँजी के रूप में पुनरुत्पादित करे, यानी धन की ऐसी मात्रा के रूप में जो निवेशित होने पर मुनाफ़ा देती हो।
सामन्ती व्यवस्था के विपरीत, जहाँ उत्पादक (किसान व भूदास) 3 दिन अपने प्लॉट पर काम करते हैं और आवश्यक उत्पाद व स्थानापन्न उत्पाद का एक हिस्सा पैदा करते हैं और बाकी 3 दिन या 4 दिन सामन्ती भूस्वामी के खेत पर काम करते हैं और बेशी उत्पाद व स्थानापन्न उत्पाद का दूसरा हिस्सा पैदा करते हैं, पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर एक समेकित कार्यदिवस में पूँजीपति के कारखाने में काम करता है और पहले आवश्यक उत्पाद पैदा करता है और फिर उसके ऊपर बेशी उत्पाद पैदा करता है। समूचे पूँजीवादी उत्पादन को देखें तो मज़दूर वर्ग उसी कार्यदिवस में स्थानापन्न उत्पाद तथा आवश्यक उत्पाद व बेशी उत्पाद पैदा करते हैं। मज़दूर पूँजीपति की पूँजी के एक विशेष हिस्से यानी परिवर्तनशील पूँजी के रूप में अस्तित्वमान मुद्रा की एक निश्चित मात्रा के बदले में पूँजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचते हैं और बदले में एक पूरे कार्यदिवस के दौरान काम करते हैं। मज़दूर वर्ग के बेशी श्रम के बिना किसी मेहनताने के पूँजीपति द्वारा हड़प लिए जाने की सच्चाई को यह विशेषता छिपा देता है। मज़दूर अपने उपभोग के लिए आवश्यक सामग्री भी पैदा करता है और वह पूँजीपति के उपभोग के लिए आवश्यक सामग्री भी पैदा करता है।
वास्तव में, मज़दूरी तो मज़दूर को उत्पादन के बाद मिलती है। यानी, पूँजीपति उसे उधार नहीं दे रहा है, बल्कि मज़दूर पूँजीपति को उधार दे रहा है। मज़दूर पहले अपनी श्रमशक्ति को ख़र्च कर अपने उपभोग के बराबर मूल्य (‘श्रम निधि’) और पूँजीपति के उपभोग के लिए ज़रूरी मूल्य (‘स्वामी निधि’) पैदा करता है। मज़दूर द्वारा पैदा ‘श्रम निधि’ से ही पूँजीपति उसे मज़दूरी देता है, जो कि और कुछ नहीं बल्कि मज़दूरों द्वारा उत्पादित समस्त वार्षिक उत्पाद के उस हिस्से पर मज़दूर का दावा या ड्राफ्ट मात्र होता है, जो मज़दूरों के उपभोग में जाता है, यानी आवश्यक उत्पाद। यानी मज़दूर ही उत्पादन कर वह सामग्री पैदा कर चुका होता है, जिसके बदले में पूँजीपति उसे मज़दूरी देता है और मज़दूर अपने ही द्वारा उत्पादित उस सामग्री को पूँजीपति द्वारा दी गयी इस मज़दूरी से ख़रीदता है। मतलब कि मज़दूर ही मज़दूरी देने के लिए पूँजीपति को मूल्य पैदा करके दे रहा है। मार्क्स लिखते हैं :
“एक तय अवधि के लिए श्रमशक्ति की ख़रीद उत्पादन की प्रक्रिया की प्रस्तावना है; जब वह अवधि समाप्त हो जाती है जिसके लिए श्रमशक्ति को बेचा गया है, जब उत्पादन की एक निश्चित अवधि जैसे कि एक सप्ताह या एक माह समाप्त हो गया है, तो यह प्रस्तावना निरन्तर दुहराई जाती है। लेकिन मज़दूर को तब तक भुगतान नहीं किया जाता है, जब तक कि वह अपनी श्रमशक्ति को ख़र्च नहीं कर चुका होता है, और मालों के रूप में अपनी श्रमशक्ति के मूल्य को और बेशी मूल्य की एक निश्चित मात्रा को वास्तविक रूप नहीं दे चुका होता है। इस प्रकार न सिर्फ़ वह बेशी मूल्य पैदा कर चुका होता है…बल्कि वह परिवर्तनशील पूँजी भी पैदा कर चुका होता है, यानी वह फण्ड भी पैदा कर चुका होता है जिससे उसे भुगतान किया जाता है, इससे पहले कि वह मज़दूरी के रूप में वापस उसके पास प्रवाहित हो; और उसका रोज़गार भी तभी तक रहता है जब तक वह इस निधि का पुनरुत्पादन करना जारी रखता है।…मज़दूर के पास मज़दूरी के रूप में जो वापस प्रवाहित होता है वह उसी उत्पाद का एक अंश मात्र है जो वह स्वयं निरन्तर पुनरुत्पादित करता है। यह सच है कि पूँजीपति उसे मुद्रा के रूप में उसके श्रमशक्ति का मूल्य भुगतान करता है, लेकिन यह मुद्रा स्वयं उसके श्रम के उत्पाद का ही एक परिवर्तित रूप मात्र है।…मुद्रा-रूप द्वारा पैदा भ्रम तुरन्त ग़ायब हो जाता है अगर हम एक पूँजीपति और एक मज़दूर को देखने के बजाय समूचे पूँजीपति वर्ग और समूचे मज़दूर वर्ग को देखते हैं। पूँजीपति वर्ग निरन्तर मज़दूर वर्ग को मुद्रा के रूप में एक ड्राफ्ट (दावा, अधिकार या हुण्डी-ले.) देता है जो कि मज़दूर वर्ग द्वारा पैदा किये गये और पूँजीपति वर्ग द्वारा हस्तगत कर लिये गये उत्पाद का ही एक हिस्सा होता है। मज़दूर इस ड्राफ्ट को उतनी ही निरन्तरता से पूँजीपतियों को वापस देते हैं और बदले में उनसे अपने ही उत्पाद का वह हिस्सा लेते हैं, जो उनके लिए आबण्टित है। यह लेन-देन उत्पाद के माल-रूप और माल के मुद्रा-रूप द्वारा छिपा दिया जाता है।” (वही, पृ. 712-13, ज़ोर हमारा)
यानी मज़दूरी या परिवर्तनशील पूँजी और कुछ नहीं है बल्कि उस निधि या उत्पाद के उस हिस्से का महज़ एक विशिष्ट ऐतिहासिक रूप है जो कि वर्ग समाज में उत्पादन की हर सामाजिक प्रक्रिया में मौजूद होता है और जिसका उत्पादन और पुनरुत्पादन कभी भी शासक वर्ग नहीं बल्कि हमेशा स्वयं उत्पादक वर्ग ही करते हैं। यह निधि है ‘श्रम निधि’ या आवश्यक उत्पाद।
साथ ही, उत्पादक वर्ग ही हमेशा उत्पादन व पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में शासक वर्गों के उपभोग के लिए ज़रूरी उत्पाद भी पैदा करते हैं, यानी ‘स्वामी निधि’ या बेशी उत्पाद। उत्पादन के साधनों के स्वामी के उत्पादन के साधन भी और कुछ नहीं उत्पादक वर्गों के ही श्रम का उत्पाद होते हैं, यानी कि स्थानापन्न उत्पाद। इस स्थानापन्न उत्पाद का उत्पादन व पुनरुत्पादन भी हमेशा उत्पादक वर्ग ही करते हैं। इस मायने में पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की सामान्यता को हम देख सकते हैं। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में वार्षिक उत्पाद के ये सभी हिस्से एक ही समेकित कार्यदिवस में और सामान्यत: एक ही स्थान पर पैदा किये जाते हैं, क्योंकि उत्पादक अब उजरती मज़दूर बन चुका है, उसकी श्रमशक्ति माल बन चुकी है और यह श्रमशक्ति एक माल के तौर पर बाज़ार में मज़दूरी के बदले बिकती है; अधिकांश उत्पाद माल बन चुके हैं; और इन मालों का भी बाज़ार में मुद्रा से विनिमय होता है। श्रमशक्ति का माल बनना, मज़दूरी–रूप का पैदा होना, उत्पादों का माल–रूप ग्रहण करना और मालों द्वारा मुद्रा–रूप ग्रहण करना उत्पादन व पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में निहित शोषण पर पर्दा डालता है और इस सच्चाई को छिपा देता है कि समस्त वार्षिक उत्पाद मज़दूर वर्ग द्वारा पैदा किया है और पूँजीपति के उपभोग समेत उपभोग की समस्त वस्तुएँ और साथ ही उत्पादन के समस्त साधन मज़दूर वर्ग ही पैदा करता है।
पुनरुत्पादन के सामान्य तत्वों और पूँजीवादी पुनरुत्पादन के विशिष्ट तत्वों को समझने के बाद हम आगे पूँजीवादी पुनरुत्पादन के दो रूपों पर चर्चा कर सकते हैं। पहला रूप होता है साधारण पुनरुत्पादन और दूसरा रूप होता है विस्तारित पुनरुत्पादन या पूँजी का संचय।
साधारण पुनरुत्पादन
साधारण पुनरुत्पादन वह स्थिति होती है जिसमें पूँजीवादी उत्पादन के दौरान पैदा होने वाले पूरे बेशी मूल्य का पूँजीपति उपभोग करता है। मज़दूर उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों के मूल्य को माल में स्थानान्तरित करते हैं; वे अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य मालों के रूप में पैदा करते हैं; और उसके ऊपर वे पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य को भी मालों के रूप में पैदा करते हैं। यदि यह समूचा बेशी मूल्य पूँजीपति के लिए ‘स्वामी निधि’ का काम करता है और वह पूरी तरह से उसका उपभोग करता है, तो उत्पादन पहले के पैमाने पर ही जारी रहता है। यही साधारण पुनरुत्पादन होता है। इसमें उत्पादन के पैमाने में कोई विस्तार नहीं होता है। यदि पूँजीपति ने रु. 1000 का पूँजी के रूप में निवेश किया और उत्पादन के पूरा होने और मालों के बिकने के बाद उसके हाथ में रु. 1500 आये, यानी उसे रु. 500 का मुनाफ़ा प्राप्त हुआ, और उसने इस पूरे मुनाफ़े का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत उपभोग में किया और उत्पादन के अगले चक्र में फिर से रु. 1000 का निवेश किया, तो हम कहेंगे कि इस मामले में साधारण पुनरुत्पादन हो रहा है।
साधारण पुनरुत्पादन के मामले में भी इसका पूँजीवादी चरित्र बिल्कुल स्पष्ट है। यहाँ पर मज़दूर का श्रम ही पूँजीपति के उपभोग के लिए बेशी मूल्य पैदा कर रहा है और अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए मज़दूरी के बराबर मूल्य भी वही पैदा कर रहा है। लेकिन वास्तव में जब हम साधारण पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को ही एक निरन्तरता में, एक सतत् प्रवाह के रूप में देखते हैं कि मज़दूर का श्रम न सिर्फ़ पूँजीपति के उपभोग और मज़दूर के उपभोग के लिए बेशी मूल्य और परिवर्तनशील पूँजी के बराबर नया मूल्य पैदा कर रहा है, बल्कि उसका श्रम एक निश्चित समय के बाद पूँजीपति की समूची आरम्भिक पूँजी के बराबर मूल्य पैदा कर देता है। जब हम एक पूँजीपति और उसके मज़दूरों के बीच के सम्बन्धों के बजाय समूचे पूँजीवादी समाज के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो यह सच्चाई और भी साफ़ हो जाती है। यह मज़दूरों का श्रम ही है जो कि उत्पादन के साधनों को भी पैदा करता है, वही खानों-खदानों से खुदाई करके उस प्राकृतिक संसाधन को भी धरती के गर्भ से निकालता है जो उत्पादन अथवा उपभोग के साधनों के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। मज़दूर का श्रम की पूँजीवादी उत्पादन व पुनरुत्पादन की प्रकिया में स्थानापन्न उत्पाद व शुद्ध उत्पाद (जिसके दो हिस्से पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के उपभोग में जाते हैं: बेशी उत्पाद व आवश्यक उत्पाद) दोनों ही पैदा करते हैं। यह महज़ पूँजीवादी स्वामित्व के सम्बन्ध और श्रम का विभाजन है, यानी पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध है जिनके कारण उसे सबकुछ पैदा करने के बदले में मज़दूरी के रूप में जीने की ख़ुराक भर मिलती है। लेकिन एक कारखाने के स्तर पर भी देखें तो कुछ समय के बाद मज़दूर बिल्कुल जायज़ तौर पर पूँजीपति की समूची पूँजी, यानी उसके उत्पादन के साधनों पर, अपना दावा ठोंक सकते हैं। इसे मार्क्स द्वारा दिये गये उदाहरण से समझते हैं :
“अगर 1000 पाउण्ड के इस्तेमाल से हर वर्ष 200 पाउण्ड का बेशी मूल्य पैदा होता है, और अगर इस बेशी मूल्य का हर वर्ष उपभोग कर लिया जाता है, तो यह स्पष्ट है कि अगर यह प्रक्रिया पाँच वर्षों के लिए दुहराई जाती है, तो उपभोग कर लिये गये बेशी मूल्य की राशि होगी 5 x 200 पाउण्ड, या 1000 पाउण्ड, जो कि पूँजीपति ने शुरुआत में लगाया था। अगर पूँजीपति बेशी मूल्य के केवल एक हिस्से का, मान लें आधे हिस्से का, उपभोग करता है तो यही नतीजा दस वर्षों के अन्त में सामने आयेगा, क्योंकि 10 x 100 पाउण्ड = 1000 पाउण्ड। इससे निम्न सामान्य सूत्रीकरण उभरता है: लगायी गयी पूँजी का मूल्य बटा वार्षिक तौर पर उपभोग कर लिया जाने वाला बेशी मूल्य हमें उन वर्षों की संख्या, या पुनरुत्पादन की अवधियों की संख्या बता देगा जिनके समाप्त हो जाने पर मूल तौर पर लगायी गयी पूँजी का पूँजीपति ने उपभोग कर दिया है और अब वह ग़ायब हो चुकी है। पूँजीपति को यह लगता है कि वह दूसरों के बेगार श्रम के उत्पाद, यानी बेशी मूल्य, का उपभोग करता जा रहा है जबकि उसकी मूल पूँजी का मूल्य ज्यों का त्यों सुरक्षित बना हुआ है; लेकिन जो उसे लगता है वह वास्तविक स्थिति को नहीं बदल सकता। एक निश्चित संख्या में वर्षों के बीतने के बाद, उसके पास जो पूँजी थी उसका मूल्य उस बेशी मूल्य के कुल योग के बराबर होता है जो उन वर्षों के दौरान उसनेहड़पा है, और जिस कुल मूल्य का उसने उपभोग किया होता है वह उसकी मूल पूँजी के मूल्य के बराबर होता है। यह सच है कि उसके हाथ में अभी भी पूँजी की एक मात्रा है जिसका परिमाण बदला नहीं है, और इसका एक हिस्सा, जैसे कि इमारतें, मशीनरी, आदि पहले से मौजूद थी जब उसने अपना व्यावसायिक काम शुरू किया। लेकिन यहाँ हमारा सरोकार पूँजी के भौतिक संघटकों से नहीं है। हमारा सरोकार यहाँ उसके मूल्य से है। अगर कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति के मूल्य के बराबर कर्ज़ लेकर अपनी पूरी सम्पत्ति का उपभोग कर जाता है, तो यह स्पष्ट है कि उसकी सम्पत्ति अब और किसी चीज़ की नहीं बल्कि उसके द्वारा लिए गये कुल कर्ज़ के योग की नुमाइन्दगी करती है। और ऐसा ही पूँजीपति के साथ होता है; जब उसने अपनी मूल पूँजी के बराबर मूल्य का उपभोग कर लिया होता है, तो उसकी वर्तमान पूँजी और किसी चीज़ की नहीं बल्कि उसके द्वारा बिना किसी भुगतान के हड़पे गये बेशी मूल्य की कुल राशि की नुमाइन्दगी करती है। उसकी पुरानी पूँजी के मूल्य का एक अणु भी बचा नहीं रह गया होता है।” (वही, पृ. 714-715, ज़ोर हमारा)
दूसरे शब्दों में, महज़ पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की निरन्तरता ही यह सुनिश्चित करती है कि पूँजीपति की पूँजी कुछ ही समय में संचित पूँजी, यानी मज़दूरों के श्रम से पैदा होने वाले बेशी उत्पाद को बिना किसी मेहनताने के हड़पने से बनी निधि, में तब्दील हो जाती है। यदि हम यह भी मान लें कि पूँजीपति ने जब एक उद्यमी पूँजीपति के तौर पर अपना धंधा शुरू किया तो उसकी मूल पूँजी वास्तव में उसके ही श्रम और बचत से एकत्र पूँजी थी और वह अन्य किसी मज़दूर के शोषण से संचित पूँजी नहीं थी, तो भी पूँजीवादी पुनरुत्पादन अपने साधारण रूप में भी यह सुनिश्चित करता है कि कुछ ही समय में इस उद्यमी पूँजीपति के पास जो बचेगा वह केवल मज़दूरों से हड़पे हुए बेशी मूल्य का भण्डार, पूँजीकृत बेशी मूल्य या संचित पूँजी ही होगी। हालाँकि सच यह है कि आम तौर पर कहें तो एक वर्ग के तौर पर पूँजीपति वर्ग के पास वह आरम्भिक पूँजी भी प्रत्यक्ष उत्पादकों को उत्पादन के साधनों से वंचित करने की प्रक्रिया से ही आती है, जिसे मार्क्स ने आदिम संचय कहा है और जिसके बारे में हम आगे आने वाले एक अध्याय में पढ़ेंगे। लेकिन यदि उन पूँजीपतियों की भी बात करें जो यह दावा करते हैं कि उनकी आरम्भिक पूँजी का स्रोत स्वयं उनका, या उनके बाप-दादों का व्यक्तिगत श्रम है, तो उनके मामले में भी उनके पूँजीपति में तब्दील होते ही पूँजीवादी पुनरुत्पादन की निरन्तर दुहराई जाने वाली प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि कुछ ही समय बाद उनकी समूची पूँजी मज़दूरों से हड़पे गये बेशी मूल्य में तब्दील हो चुकी होती है। यानी, आम तौर पर, पूँजीवादी उत्पादन व पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में मज़दूर एक निश्चित समय में पूँजीपति को इतना मुनाफ़ा पैदा करके दे देते हैं, जो उस पूँजीपति की मूल पूँजी के बराबर होता है।
यह भी स्पष्ट है कि पूँजीवादी उत्पादन व पुनरुत्पादन की यह प्रक्रिया साधारण पुनरुत्पादन के मामले में भी निरन्तर यह सुनिश्चित करती है कि पूँजी–सम्बन्ध या मज़दूरी–सम्बन्ध का पुनरुत्पादन होता रहे। यानी पूँजीपति का पूँजीपति के रूप में, यानी पूँजी के स्वामी के रूप में, और मज़दूर का मज़दूर के रूप में, यानी सिर्फ़ और सिर्फ़ श्रमशक्ति के स्वामी के रूप में पुनरुत्पादन होता रहे। पूँजीवादी उत्पादन की शुरुआत महज़ मालों के उत्पादन व संरचरण से, यानी उनके बिकने-ख़रीदे जाने से नहीं हो सकती। यह तो पूँजीवादी उत्पादन के सैंकड़ों वर्षों पहले से, दास प्रथा के समय से ही होता आया है: यानी वस्तुओं को बेचे-ख़रीदे जाने वाले माल के तौर पर पैदा किया जाना। पूँजीवादी उत्पादन के लिए सबसे ज़रूरी पूर्वशर्त यह है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों से उत्पादन के साधनों को छीन लिया जाय और साथ ही ये उत्पादन के साधन एक छोटी–सी अल्पसंख्या के हाथ में केन्द्रित हो जायें। यानी, पूँजीवादी उत्पादन तभी सम्भव है जब उत्पादक को उजरती मज़दूर में तब्दील कर दिया गया है और उत्पादन के साधन पूँजीपति वर्ग के हाथों में केन्द्रित हो गये हैं। श्रमशक्ति के स्वामी के तौर पर मज़दूर और पूँजी के स्वामी के तौर पर पूँजीपति एक-दूसरे से पूँजीवादी श्रम बाज़ार में मिलते हैं, जहाँ पूँजीपति मज़दूरी (श्रमशक्ति के मूल्य के परिवर्तित रूप) के बदले मज़दूर की श्रमशक्ति को ख़रीदता है। इसके साथ ही पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया शुरू होती है क्योंकि इसी के साथ उत्पादक का श्रमकाल दो हिस्सों में बँटा जाता है: आवश्यक श्रमकाल जिसमें वह अपने लिए काम करता है और अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है और बेशी श्रमकाल जिसमें वह बिना किसी मेहनताने के लिए पूँजीपति के लिए काम करता है और उसका मुनाफ़ा पैदा करता है।
पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि पूँजीपति और मज़दूर के बीच का यह सम्बन्ध पुनरुत्पादित होता रहे; यानी मज़दूर जीने की ख़ुराक के बदले एक पूरे कार्यदिवस में पूँजीपति के लिए अपना हाड़ गलाकर उसके लिए मुनाफ़ा और समृद्धि पैदा करता रहे। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक बार श्रमशक्ति के बिकने के बाद पूँजीपति उसका स्वामी होता है और उसके किसी भी रूप में उपयोग का अधिकारी होता है। नतीजतन, इस श्रमशक्ति का उत्पादक उपभोग, यानी मज़दूर द्वारा जीवित श्रम का दिया जाना एक ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें मज़दूर स्वयं अपने श्रम से अलगावग्रस्त होता है। वह श्रम करता है तो वह जानता है कि वह अपने लिए नहीं बल्कि पूँजीपति के लिए श्रम कर रहा है। ठीक इसीलिए उसके श्रम का उत्पाद भी उसके लिए पराया होता है; वह पूँजीपति का होता है; उसे बार-बार पूँजीपति द्वारा हड़पा जाता है और यही पूँजीपति की संचित पूँजी और उसकी समृद्धि का स्रोत होता है। जितना मज़दूर काम करता जाता है, उतना ही वह उस शत्रुतापूर्ण ताक़त को बड़ा करता जाता है, जो उसे ही लूटती है: यानी, पूँजी। पूँजीपति वर्ग जितना समृद्ध होता जाता है, मज़दूर वर्ग सापेक्षिक तौर पर उतना ही दरिद्र होता जाता है। मार्क्स कहते हैं :
“एक ओर उत्पादन प्रक्रिया लगातार भौतिक सम्पदा को पूँजी, यानी पूँजीपति के आनन्द और उसके मूल्य संवर्धन के साधन में में तब्दील करती है। दूसरी ओर, मज़दूर हमेशा इस प्रक्रिया को उसी अवस्था में छोड़कर जाता है, जिसमें कि उसने प्रवेश किया था – समृद्धि के एक निजी स्रोत के रूप में, लेकिन उन सभी साधनों से वंचित होकर जिनके ज़रिये वह इस समृद्धि को अपने लिए एक असलियत में बदल पाता। क्योंकि, प्रक्रिया में प्रवेश करने से पहले ही, उसके श्रम का उससे पहले ही अलगाव कर दिया गया है, उसे पूँजीपति द्वारा हस्तगत कर लिया गया है, और उसे पूँजी में सम्मिलित कर लिया गया है, यह अब, इस प्रक्रिया के ही दौरान, लगातार अपने आपको वस्तुरूप देता है और एक ऐसा उत्पाद बन जाता है जो उसके लिए पराया है। चूँकि उत्पादन की प्रकिया श्रमशक्ति के पूँजीपति द्वारा उपभोग की प्रक्रिया भी है, इसलिए मज़दूर का उत्पाद लगातार महज़ मालों में ही नहीं, बल्कि पूँजी में, यानी ऐसे मूल्य में तब्दील होता रहता है जो मज़दूर की मूल्य पैदा करने की शक्ति को चूसता रहा है, ऐसे आजीविका के साधनों में जो वास्तव में इंसानों को ख़रीदते हैं, और ऐसे उत्पादन के साधनों में जो उत्पादन करने वाले लोगों को काम पर लगाते हैं। इसलिए मज़दूर स्वयं निरन्तर वस्तुगत सम्पदा को पूँजी के रूप में पैदा करता है जो एक परायी शक्ति है जो उसे दबाती है और उसका शोषण करती है; और उसी प्रकार पूँजीपति भी निरन्तर श्रमशक्ति का समृद्धि के एक ऐसे मनोगत स्रोत के रूप उत्पादन करता रहता है, जो बस मज़दूर के भौतिक शरीर में वास करती है, और अपने ही वस्तुकरण और वास्तवीकरण के ज़रिये उससे अलग कर दी जाती है; संक्षेप में, पूँजीपति मज़दूर को एक उजरती श्रमिक के रूप में पैदा करता है। यह निरन्तर जारी पुनरुत्पादन, मज़दूर के अस्तित्व को यह निरन्तर जारी रखा जाना, पूँजीवादी उत्पादन की निरपेक्ष रूप से अनिवार्य पूर्वशर्त है।” (वही, पृ. 716, ज़ोर हमारा)
पूँजीवादी पुनरुत्पादन में जिस प्रकार मज़दूर पूँजी का उत्पादन करता जाता है उसी प्रकार पूँजीपति श्रमशक्ति का उत्पादन करता जाता है। यह पूँजीवादी पुनरुत्पादन की पूर्वशर्त है। श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के बिना पूँजीवादी पुनरुत्पादन जारी नहीं रह सकता। वास्तव में, श्रमशक्ति का उत्पादन व पुनरुत्पादन पूँजीपति के सबसे प्रमुख उत्पादन के साधन का उत्पादन व पुनरुत्पादन है: यानी, स्वयं मज़दूर। श्रमशक्ति को ख़रीदकर पूँजीपति मज़दूर पर अहसान नहीं करता। उल्टे इसके ज़रिये उसे दो तरीके से फ़ायदा होता है। मज़दूरी के बदले में पूँजीपति मज़दूर से जो लेता है न सिर्फ़ उससे उसका मुनाफ़ा आता है, बल्कि पूँजीपति मज़दूर को जो देता है, उससे भी उसे फ़ायदा होता है। पूँजीपति द्वारा दी गयी मज़दूरी से मज़दूर अपने और अपने परिवार के जीवन के लिए आवश्यक उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदकर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन करता है। लेकिन मज़दूर का व्यक्तिगत उपभोग ही उसकी श्रमशक्ति के उत्पादक उपभोग को सम्भव बनाता है। यह उस सबसे ज़रूरी उत्पादन के साधन को पैदा करता है, जिसकी आवश्यकता पूँजीपति को है, यानी स्वयं मज़दूर जो कि उसके लिए उस श्रमशक्ति का वाहक मात्र है।
पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि एक ज़रूरतमन्द व्यक्ति के तौर पर उजरती मज़दूर का भी पुनरुत्पादन होता रहे। इस रूप में मज़दूर की श्रमशक्ति वस्तुत: बिकने से पहले भी मज़दूर की अपनी श्रमशक्ति नहीं होती, बल्कि वह पूँजीपति वर्ग की होती है। प्राचीन काल का गुलाम सीधे दास-स्वामियों की नंगी आँखों से देखी जा सकने वाली बेड़ियों से बँधा हुआ था। आधुनिक पूँजीवादी समाज का उजरती गुलाम, यानी मज़दूर, जो उजरत के बदले अपनी श्रमशक्ति को लगातार बार-बार बेचने को बाध्य होता है, अदृश्य बेड़ियों से पूँजीपति वर्ग से बँधा होता है। श्रमशक्ति को बेचते रहने की उसकी बाध्यता उसे पूँजीपति वर्ग का उजरती गुलाम बनाती है। साधारण पुनरुत्पादन की स्थिति में भी, जिसमें पूँजीपति हड़पे गये समस्त बेशी मूल्य को अपने उपभोग पर ख़र्च कर देता है, यह प्रक्रिया जारी रहती है। मार्क्स साधारण पुनरुत्पादन की अपनी चर्चा का समापन इन शब्दों से करते हैं :
“इसलिए पूँजीवादी उत्पादन स्वयं अपनी प्रक्रिया में श्रमशक्ति और श्रम की स्थितियों (यानी उत्पादन के साधनों – ले.) के बीच के विलगाव का पुनरुत्पादन करता है। इसके ज़रिये यह उन स्थितियों का पुनरुत्पादन करता है और उनकी निरन्तरता को सुनिश्चित करता है जिसके तहत मज़दूर का शोषण होता है। वह लगातार उसे जीने की ख़ातिर अपनी श्रमशक्ति को बेचने को बाध्य करता है, और पूँजीपति को श्रमशक्ति को ख़रीदने में सक्षम बनाता है ताकि वह अपने आपको समृद्ध करता रह सके। यह अब महज़ संयोग नहीं होता कि पूँजीपति और मज़दूर का बाज़ार में ख़रीदार और विक्रेता के रूप में सामना होता है। यह स्वयं इस प्रक्रिया की प्रत्यावर्ती (alternating) लय होती है जो बार-बार मज़दूर को बाज़ार में उसकी श्रमशक्ति के विक्रेता के रूप में फेंकती है और लगातार उसके उत्पाद को एक ऐसे साधन में तब्दील करती है जिसके ज़रिये एक दूसरा व्यक्ति उसे ख़रीद सकता है। असल में, अपने आपको पूँजीपति को बेचने से पहले ही मज़दूर पर पूँजी का स्वामित्व होता है। उसकी आर्थिक दासता की उस कार्रवाई के नियमित पुनर्नवीकरण के ज़रिये एक ही साथ मध्यस्थता भी की जाती है और उसे छिपाया भी जाता है, जिसके अन्तर्गत वह अपने आपको बेचता है, अपने स्वामियों की अदला–बदली करता है, और जिसके अन्तर्गत उसके श्रम की बाज़ार–कीमत में उतार–चढ़ाव आते हैं। इसलिए पूर्ण और अर्न्सम्बन्धित प्रक्रिया के रूप में देखने पर पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया, यानी पुनरुत्पादन की एक प्रक्रिया, न सिर्फ मालों को पैदा करती है, न सिर्फ़ बेशी मूल्य को पैदा करती है, बल्कि यह स्वयं पूँजी–सम्बन्ध का भी उत्पादन व पुनरुत्पादन करती है; एक ओर पूँजीपति का, और दूसरी ओर उजरती श्रमिक का।” (वही, पृ. 723-724, ज़ोर हमारा)
पूँजीवादी क़रार का कानूनी रिश्ता केवल एक कानूनी कल्पना मात्र है जो मालिकों की अदला-बदली करने की स्वतन्त्रता के ज़रिये मज़दूरों की पूँजी के प्रति ढाँचागत अधीनस्थता को छिपाती है। वास्तव में, साधारण पुनरुत्पादन की स्थिति में ही उत्पादन व पुनरुत्पादन का पूँजीवादी चरित्र स्पष्ट हो जाता है।
लेकिन वास्तव में आम तौर पर पूँजीवादी उत्पादन का आम नियम साधारण पुनरुत्पादन नहीं होता, बल्कि विस्तारित पूँजीवादी उत्पादन होता है। पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा और पूँजीपति वर्ग की अधिक से अधिक मुनाफ़े की हवस इसका बुनियादी कारण है। पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति साधारण पुनरुत्पादन नहीं है, बल्कि पूँजी का संचय, बेशी मूल्य के एक हिस्से को पूँजी में तब्दील करना और विस्तारित पुनरुत्पादन करना है। साधारण पुनरुत्पादन की चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं को समझाने के बाद मार्क्स वह बुनियादी तैयार कर लेते हैं, जिसके आधार पर हम बेशी मूल्य के पूँजीकरण (capitalization of surplus-value), पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन को समझ सकते हैं।
(अगले अंक में अध्याय 15 जारी रहेगा जिसमें बेशी–मूल्य का पूँजीकरण, पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन पर विचार किया जायेगा)
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन