नरेन्द्र मोदी की डिग्री पर विवाद
असली सवाल डिग्री होने या न होने का नहीं, बल्कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने हलफ़नामे में फ़र्ज़ीवाड़ा करने और झूठ बोलने का है
अन्तरा घोष
राजनीति में किसी विश्वविद्यालय या स्कूल की डिग्री होना अनिवार्य नहीं हैं। हमने राजनीति के भीतर भारी-भरकम डिग्रियों वाले भारी-भरकम मूर्ख पर्याप्त मात्रा में देखे हैं। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री को लेकर अभी भारी विवाद जारी है। ‘आम आदमी पार्टी’ के भारी नेता केजरीवाल ने इसको भारी मुद्दा बनाया है कि भारत के प्रधानमन्त्री को पढ़ा-लिखा होना चाहिए तभी वह सरकार चला सकता है। नोटबन्दी, जीएसटी के फ़ैसलों आदि को केजरीवाल ने प्रधानमन्त्री के भारी अनपढ़पन की निशानी बताया। केजरीवाल के इस स्टैण्ड ने एक बार फिर से आम आदमी पार्टी के मध्यवर्गीय चरित्र को ही उजागर किया है। मध्यवर्ग के राजनीतिक चेतना से रिक्त मूर्ख ही राजनीति में डिग्री के आवश्यक होने पर इस प्रकार ज़ोर दे सकते हैं।
राजनीति क्या है? वर्ग संघर्ष, यानी समाज में पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष, पूँजीपति वर्ग के विभिन्न आपसी हिस्सों के बीच जारी जद्दोजहद, मध्यवर्ग के विभिन्न संस्तरों के एक ओर पूँजीपति वर्ग और दूसरी ओर मज़दूर वर्ग से सम्बन्धों, आदि के अलग-अलग वर्गों के राजनीतिक नेतृत्व की नीतियों, योजनाओं व कार्रवाइयों में प्रतिबिम्बन को ही हम राजनीति कहते हैं। यानी राजनीति और कुछ नहीं बल्कि अलग-अलग वर्गों द्वारा वर्ग संघर्ष में सूत्रबद्ध की जाने वाली नीतियों, योजनाओं, रणकौशलों, और उन्हें कार्रवाइयों के रूप में कार्यान्वित करना ही है। यह हथियारों के बजाय ‘अन्य माध्यमों से होने वाला युद्ध’ है, जो वर्गों के बीच में जारी रहता है।
ऐसे में, राजनीति में जिस योग्यता की आवश्यकता है, जो कि किसी भी राजनीतिक नेता में होनी चाहिए, वह महज़ इतनी है कि वह जिस वर्ग का सचेतन प्रतिनिधि है, उस वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी और सेवा वह कर सकता है या नहीं, वह उन्हें समझता है या नहीं, वह अपने वर्ग के दूरगामी हितों का सामूहिकीकरण कर सकता है या नहीं और इनके लिए अन्य वर्गों के राजनीतिक नुमाइन्दों से प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष कर सकता है या नहीं। इसके लिए किसी का ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट होना कतई अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है। एक तकनोशाह टुटपुँजिया राजनीति का वाहक ही यह बात कह सकता है, जैसे कि अरविन्द केजरीवाल।
सवाल दूसरा है। सवाल यह है कि नरेन्द्र मोदी अगर 10वीं तक ही पढ़े हैं, तो झूठ बोलने की क्या ज़रूरत थी? अम्बानियों, अडानियों, टाटाओं, बिड़लाओं के वर्ग का राजनीतिक नुमाइन्दा होने की कुशलता और योग्यता तो जिस क़दर नरेन्द्र मोदी ने दिखायी है, उसके सामने केजरीवाल पानी भरते नज़र आयेंगे! ऐसे में, डिग्री को लेकर झूठ बोलने की ज़रूरत क्या थी?
हम जानते हैं कि सारे फ़ासीवादी मूलत: कुण्ठितमना लोग होते हैं। फ़ासीवादी राजनीति ही टुटपुँजिया वर्गों की बंजर हताशा और अक्षमता से पैदा होने वाली प्रतिक्रिया से जन्म लेती है और अन्तत: बड़ी पूँजी के हितों की नग्नता से सेवा करती है। ऐसे में, ऐसी राजनीति के शीर्ष पुरुष के मन में भी कुण्ठा की ग्रन्थि जड़ जमाये हो तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। फ़ासीवादियों में अक्सर नाम इतिहास में दर्ज करवाने की एक अजीब ललक होती है। वे बुरी तरह से आत्ममुग्ध भी होते हैं और अपनी असलियत के प्रति सचेत होने के कारण बुरी तरह से कुण्ठित भी होते हैं। वास्तव में, हर आत्ममुग्धता किसी न किसी प्रकार की कुण्ठा से ही जन्म लेती है। सच्चा ज्ञान कभी आत्मुग्धता या घमण्ड नहीं पैदा कर सकता है। इसका मोदी में नितान्त अभाव है, इस पर शायद ज़्यादा भाजपा वाले भी बहस नहीं करना चाहेंगे। आखिर उन्हीं के सुप्रीम लीडर ने दावा किया था कि नाली की गैस से चाय बनायी जा सकती है, बादलों के पीछे होने पर जहाज़ को रडार नहीं पकड़ पाता, क्लाइमेट नहीं बदल रहा है, बस हम बदल गये हैं, सिकन्दर बिहार गया था, आदि। तो इसमें तो कतई सन्देह नहीं किया जा सकता है कि यदि सिर्फ़ विज्ञान और इतिहास के ज्ञान की बात करें, तो ऐसा नगीना आज तक कभी हिन्दुस्तान का प्रधानमन्त्री नहीं बना है। मोदी जी तो विज्ञान और इतिहास पर विमर्श को एक नयी जगह ही लेते गये हैं!
लेकिन राजनीति करने का कौशल मोदी के पास बेशक़ है: फ़ासीवादी राजनीति करने का कौशल। क्योंकि इसके लिए इन ही चीज़ों की आवश्यकता है: एक अन्धी प्रतिक्रिया की दिमाग़ में मौजूदगी, ग़रीबों से नफ़रत और घृणा, पूँजीपतियों के वर्ग की सेवा करने का उन्माद, जनता को साम्प्रदायिकता और फि़रकापरस्ती के ज़रिये बाँटने की कला, विज्ञान और इतिहास के बारे में वास्तव में जानकारी रखने वाले लोगों के प्रति ईर्ष्यापूर्ण नफ़रत की भावना, आदि। क्या कोई भी कह सकता है कि इन चीज़ों की मोदी जी में कोई कमी है? कतई नहीं। इन गुणों का वरदान तो मोदी जी को खंचिया भर-भर के मिला है।
लेकिन एक सवाल उठता है। अगर मोदी जी की डिग्री फ़र्ज़ी है, और मोदी जी ने सार्वजनिक जीवन में और अपने क़ानूनी हलफ़नामे में झूठ बोला है, तब तो उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द होनी चाहिए, उनपर जुर्माना लगना चाहिए और उन्हें सम्भवत: हवालात की हवा भी खानी चाहिए। अब हम सभी (कम-से-कम मन ही मन!) यह जानते हैं कि डिग्री तो फ़र्ज़ी ही है। माने कि जिस डिग्री में ‘यूनीवर्सिटी’ की स्पेलिंग ग़लत (‘यूनीबर्सिटी’) लिखी हो, एक ऐसा विषय लिखा हो जो उस विश्वविद्यालय में कभी पढ़ाया ही नहीं गया और न ही पूरी दुनिया के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता हो, एक ऐसे फॉण्ट में डिग्री छपी हो जो फॉण्ट ही 1992 में आया जबकि डिग्री 1983 के होने का दावा मोदी जी ने किया है, तो स्पष्ट है कि दाल में कुछ काला नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है। आज तक मोदी जी का कोई सहपाठी बरामद नहीं हुआ, न कोई शिक्षक मिला जिसने मोदी जी को पढ़ाया हो! मतलब, कोई माने या न माने, असल में तो डिग्री फ़र्ज़ी ही प्रतीत होती है। वरना गुजरात विश्वविद्यालय को डिग्री दिखाने में कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए थी और गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा केजरीवाल पर रु. 25000 का जुरमाना करने का तो कोई मतलब ही नहीं था क्योंकि गुजरात विश्वविद्यालय से मोदी जी की डिग्री तो केन्द्रीय सूचना आयोग ने माँगी थी, केजरीवाल ने नहीं! तो फिर केजरीवाल पर जुरमाना? ज़ाहिर है, मोदी जी अपनी डिग्री को राष्ट्रीय सुरक्षा का दस्तावेज़ मानते हैं और इसलिए उसे खुफिया रखा जाना ज़रूरी है!
ज़ाहिर है, यह सारा प्रपंच केवल सच्चाई को छिपाने के लिए है। अगर देश का प्रधानमन्त्री अपनी भीतरी कुण्ठा के कारण क़ानूनी हलफ़नामे में झूठ बोलते पकड़ा जाये, तो क्या उस पर कोई भरोसा कर सकता है? तो क्या उसे सज़ा नहीं होनी चाहिए? क्या उसकी लोकसभा सदस्यता रद्द नहीं होनी चाहिए? आप ख़ुद सोचिए और फैसला करिए।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2023
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