जोशीमठ आपदा : मुनाफ़ाख़ोरी की योजनाओं के बोझ से धँसता एक शहर

अपूर्व मालवीय

उत्तराखण्ड का जोशीमठ एक बड़ी-सी आपदा के मुहाने पर खड़ा है। इस प्राकृतिक आपदा को देर-सबेर आना ही था। लेकिन मुनाफ़े की हवस और बड़े पैमाने पर प्रकृति व हिमालय की पारिस्थितकीय के साथ छेड़-छाड़ ने इसकी गति को तीव्र कर दिया है। आज की तारीख़ में इस छोटे-से शहर की आबादी के सामने अपने आवास और रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। बीते 2 जनवरी की रात साढ़े बारह बजे के क़रीब जोशीमठ के नौ वार्डों में अचानक से भू-धँसाव होने से सड़कों और सैकड़ों मकानों में दरारें आ गयीं। एक ज़ोरदार कम्पन और गर्जन ने वहाँ के लोगों को अन्दर तक हिलाकर रख दिया। दो जनवरी की उस रात से सैकड़ों परिवार सड़कों पर आ चुके हैं। महज़ ढाई वर्ग किलोमीटर में फैले जोशीमठ के डेढ़ वर्ग किलोमीटर के ऐरिया को आपदा ग्रस्त भू-धँसाव क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। अब तक 800 से ज़्यादा ऐसे मकानों को चिह्नित किया गया है जिसमें रहना अब ख़तरनाक है। समय बढ़ने के साथ-साथ ये दरारें और भी मकानों, भवनों और सड़कों को अपनी चपेट में लेती जा रही हैं। सैकड़ों परिवारों को आस-पास के इलाक़ों, स्कूलों, नगर पालिका की बिल्डिंग, लॉजों आदि में शिफ़्ट कर दिया गया है। हर बार की तरह आपदा से प्रभावित लोगों के ज़ख़्मों पर मलहम लगाते हुए उन्हें राहत के कुछ पैकेज (टुकड़े) पकड़ा दिये गये हैं। लेकिन आपदा के सम्भावित कारक अभी भी अपनी गति से इससे भी बड़ी आपदा को निकट लाने के लिए लगातार सक्रिय हैं।

कैसे आयी यह आपदा!

जोशीमठ की इस आपदा को समझने के लिए वहाँ की भू-गर्भीय और भू-स्थलीय परिस्थिति को समझना होगा। तभी हम समझ सकते हैं कि ये आपदा प्राकृतिक कम मानव जनित ज़्यादा है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार जोशीमठ हज़ारों साल पहले ग्लेशियरों द्वारा लायी गयी मिट्टी (मोरेन) और एक बहुत बड़े भू-स्खलन से सपाट हुए क्षेत्र पर बसा शहर है। इसकी सतह किसी ठोस पत्थर पर नहीं, बल्कि बालू और छोटे पत्थरों पर टिकी है। ऐसे में इस क्षेत्र में कोई भी भू-गर्भीय हलचल, किसी दबाव के कारण मिट्टी के खिसकने या बैठने से इसकी ऊपरी सतह पर दरारें आना स्वाभाविक है। 8वीं से 11वीं सदी तक राज करने वाले कत्यूरी राजवंशों से लेकर अबतक इस क्षेत्र में भूस्खलन की बहुत बड़ी-बड़ी घटनाएँ देखी गयी हैं। यहाँ तक कि कत्यूरी राजवंश को अपनी राजधानी तक शिफ़्ट करनी पड़ी थी। 1932-39 तक इस क्षेत्र का सर्वे करने वाले एक अंग्रेज़ भूवैज्ञानिक अर्नोल्ड हेइम ने भी इस क्षेत्र को भू-स्खलन के लिए बहुत ही संवेदनशील बताया था। 1960-70 के दशक में भी इस क्षेत्र में भू-धँसाव व स्खलन की बड़े पैमाने पर हुई घटनाओं को देखते हुए उस समय की तत्कालीन उत्तर-प्रदेश की सरकार ने 1976 में वहाँ के गढ़वाल कमिश्नर महेश चन्द्र मिश्रा के नेतृत्व में एक 18 सदस्यीय कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए बड़े निर्माण कार्यों पर रोक लगाने, खेती-बाड़ी को प्रतिबन्धित करके बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने ताकि मिट्टी पर पकड़ बनायी रखी जा सके, बड़े-बड़े बोल्डर पत्थरों के साथ किसी भी प्रकार से छेड़-छाड़ न करने, बारिश के पानी का रिसाव रोकने के लिए पक्की नालियाँ बनाने और नदी के तटों को छीजने से रोकने के लिए सीमेण्ट ब्लॉक बनाने जैसे कई सुझाव दिये। लेकिन इन सुझावों को दरकिनार करते हुए इसका ठीक उल्टा किया गया। विकास और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर यहाँ सड़क, बाँध, सुरंग, बहुमंज़िला इमारतों का बनना जारी रहा। आज की तारीख़ में जोशीमठ में शहरी कंस्ट्रक्शन का भार होने के साथ-साथ मुनाफ़े की अन्धी हवस को पूरा करने के लिए हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के बाँध, सुरंग और ऑल वेदर रोड तक के कंस्ट्रक्शन किये जा रहे हैं, जिसका ख़ामियाज़ा यहाँ की आम जनता से लेकर हिमालय के पूरी परिस्थितिकीय तंत्र तक को चुकाना पड़ रहा है।

जोशीमठ नगरपालिका क्षेत्र में 3900 मकान और 400 से ज़्यादा व्यावसायिक भवन हैं। लेकिन मात्र 10 प्रतिशत शहरी आबादी ही ड्रेनेज सिस्टम के तहत आती है। बारिश के पानी के साथ घरों का गन्दा पानी निकालने की सही व्यवस्था नहीं है। यह पानी ज़मीन के नीचे रिसता है। लगातार पानी रिसने से मिट्टी में मौजूद चिकने खनिज बह जाते हैं और ज़मीन कमज़ोर होती चली जाती है। ऊपर से लगातार हो रहा निर्माण भार को और बढ़ाता है। वहीं दूसरी तरफ़ एन.टी.पी.सी. की तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना के तहत बनने वाली 12 किलोमीटर की सुरंग ने इस परिस्थिति को और भी जटिल बना दिया है। इस हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट ने पिछले दो दशकों में ड्रिलिंग और विस्फोट से इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को नुक़सान पहुँचाया है। उसने भी जोशीमठ की इस आपदा को तीव्र किया है। पिछले दो दशकों में इस सुरंग के निर्माण के साथ ही यहाँ मकानों, सड़कों और पहाड़ों में दरारें आने और प्राकृतिक आपदाएँ आने का सिलसिला लगातार बढ़ा और तेज़ हुआ है। 2007 में जोशीमठ के नज़दीक चाई गाँव में जिसके ठीक नीचे इस सुरंग का निर्माण किया जा रहा था, एक साथ दर्जनों मकानों में बड़ी-बड़ी दरारें आ गयी थीं और लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। 2009 में सुरंग का निर्माण करते हुए टनल बोरिंग मशीन द्वारा एक ऐसे बोल्डर को काट दिया गया, जहाँ से 700 लीटर प्रति सेकेण्ड के हिसाब से कई दिनों तक पानी निकलता रहा। इस मशीन ने इस भू-क्षेत्र के भू-गर्भीय जलस्रोत में एक छेद कर दिया था। इस दौरान इलाक़े के कई गाँव में पेयजल का संकट उत्पन्न हो गया था। इसी दौरान इस मशीन के फँस जाने से जोशीमठ के ठीक नीचे एक दूसरी टनल खोदी गयी ताकि इस मशीन को निकाला जा सके। जोशीमठ के ठीक नीचे बनी इस सुरंग ने उसकी ऊपरी सतह को और भी कमज़ोर कर दिया है। फ़रवरी 2021 में भी इस परियोजना के ठीक ऊपर ऋषि गंगा-धौलीगंगा परियोजना में आयी आपदा (बाढ़) के कारण 200 से ज़्यादा मज़दूरों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी। एनटीपीसी की इस परियोजना का विरोध भी वहाँ की स्थानीय आबादी पिछले दो दशकों से कर रही है लेकिन ठेका व निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा पहुँचाने की सरकारी योजना को बदस्तूर अमली जामा पहनाया जा रहा है।

पहाड़ों को ऊपर से उजाड़ और अन्दर से खोखला करने की योजनाएँ!

2013 की केदारनाथ आपदा से लेकर जोशीमठ की त्रासदी तो एक बानगी है। जोशीमठ में जो हो रहा है वो सिर्फ़ इसी क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि हिमालय रीजन की एक पूरी पट्टी है, जिसपर बसे कई शहर, क़स्बे व गाँव इस तरह के ख़तरनाक भू-स्खलन, धँसाव व उच्च तीव्रता के भूकम्प जोन में आते हैं। इसे समझने के लिए इसके भूगोल को समझना ज़रूरी है। जोशीमठ में जो हो रहा है वो उत्तराखण्ड के कई पर्यटक स्थलों, शहरों, क़स्बों और गाँवों में भी शुरू हो चुका है। फ़र्क़ बस इतना है कि कहीं यह प्रक्रिया धीमी है तो कहीं बहुत तेज़ है। निम्न से लेकन उच्च हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता, इसके जंगलों के काटे जाने, चौड़ी सड़कों और बड़े बाँधों की परियोजनाओं के नुक़सान पर बहुत सारे भूवैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों के लेकर अनेक ऐक्टिविस्टों तक ने अपनी शंकाएँ, रिपोर्ट और सुझाव आदि जारी किये हैं। पूरा हिमालय अभी कच्चा व युवा पहाड़ है। जो लगातार बन रहा है। ये वो क्षेत्र है जहाँ भारतीय टेक्टोनिक प्लेट यूरेशियन प्लेट से टकराती है। इस कारण यह क्षेत्र भू-स्खलन व भूकम्प के प्रति बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील है। लेकिन प्राइवेट कम्पनियों से लेकर पूँजीवादी राज्यसत्ता तक को इसकी परवाह नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को चुनाव के लिए पूँजीपतियों से करोड़ों का चन्दा मिलता रहे, नेताओं-नौकरशाहों की जेब गरम होती रहे! अमीरों की विलासिता और मुनाफ़े की अन्धी हवस में हिमालय के इस क्षेत्र में उन परियोजनाओं को लागू किया जा रहा है, जो पर्यावरण के साथ ही साथ हिमालय और पूरे उत्तर भारत के मैदानी इलाक़े की आबादी के जान-माल के लिए बहुत ही ख़तरनाक है। सबसे ज़्यादा भूकम्प की तीव्रता वाले सिस्मिक ज़ोन 4 और 5 के क्षेत्र में आने वाले टिहरी और पंचेश्वर बाँध जैसी बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएँ चलायी जा रही हैं जो किसी भी समय पहाड़ों से लेकर उत्तर भारत के एक बहुत बड़े भू-भाग को बहा और डुबा देने की क्षमता रखती हैं। ये बड़े-बड़े बाँध हिमालय के ऐसे क्षेत्रों में बनाये गये हैं और बनाये जा रहे हैं, जहाँ भूकम्प का सर्वाधिक ख़तरा है। पंचेश्वर बाँध जैसी परियोजना अपने आप में इतनी ख़तरनाक है कि इसके डूब क्षेत्र में पिथौरागढ़ ज़िले के 87 गाँव तो आयेंगे ही साथ ही हिमालय की कई वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं, पक्षियों और मछलियों की कई प्रजातियों का अस्तित्व संकट में आ जायेगा। अभी उत्तराखण्ड में 25 जल विद्युत परियोजनाएँ चल रही हैं। जबकि 197 परियोजनाएँ विभिन्न नदी घाटियों में प्रस्तावित हैं।

वहीं दूसरी तरफ़ चारधाम सड़क परियोजना (ऑल वेदर रोड) से लेकर ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना तक ने हिमालय को जो नुक़सान पहुँचाया है और पहुँचा रहे हैं उसकी भरपाई शायद ही कभी हो पाये। चार-धाम परियोजना में 92 हज़ार पेड़ों को काटा जाना है, जिसमें अभी तक 70 हज़ार से ज़्यादा पेड़ों को काटा जा चुका है। सड़क काटने में निकलने वाला मलबा सीधे नदियों में डाल दिया जा रहा है। इससे नदियों का जल स्तर बढ़ने, धारा के प्रवाह बदलने के साथ ही जलीय जीवों और वनस्पतियों तक का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। वहीं ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना में 126 किलोमीटर की लाइन में 105 किलोमीटर लाइन सुरंगों के अन्दर से जायेगी। इन सुरंगों को बनाने के लिए ड्रिलिंग और विस्फोट लगातार जारी है। जो इसकी ऊपरी सतह को कमज़ोर तो कर ही रहा है साथ ही उन भू-गर्भीय जल स्रोतों को भी बाधित कर रहा है जिनके ऊपर स्थानीय आबादी की पानी और सिंचाई के लिए निर्भरता है। इन दोनों योजनाओं ने इस पूरे युवा और कच्चे पहाड़ को ऊपर से उजाड़ और भीतर से खोखला कर दिया है। हिमालय जैसे पहाड़ों में विकास की जो तकनीक अपनायी जा रही है वही तकनीक उसके विनाश का सबब बन रही है। इसी तरह की भौगोलिक स्थिति वाले दुनिया के कई देशों ने अपने यहाँ भी पहाड़ों में परिवहन और यातायात के साधनों का विकास किया है लेकिन प्रकृति को तबाह करके नहीं, बल्कि उसके साथ तालमेल बिठाकर। उन तकनीकों का इस्तेमाल करके जो इन पहाड़ों की संवेदनशीलता को नुक़सान पहुँचाए बगैर मानव की ज़रूरतों को पूरा करे। लेकिन भारत जैसे देश में पूरी अन्धेरगर्दी के साथ पूँजीपरस्त नीतियों को लागू किया जा रहा है।

इन परियोजनाओं का असर पिछले कुछ सालों से पूरे हिमालय में दिखायी भी दे रहा है। अतिवृष्टि, बादल फटना, भू-स्खलन, भू-धँसाव की घटनाएँ बहुत ज़्यादा बढ़ गयी हैं। पीने के पानी और सिंचाई के प्राकृतिक जलस्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं। प्राकृतिक आपदाएँ लोगों पर क़हर बनकर टूट रही हैं, बावजूद इसके ये परियोजनाएँ बदस्तूर बढ़ती जा रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पहले भी उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ़्तार काफ़ी बढ़ी है। लेकिन विकास और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर पूरे हिमालय में जो तबाही मचायी जा रही है उसका ख़ामियाज़ा उत्तर भारत के साथ दक्षिण एशिया की एक बड़ी आबादी को भुगतना पड़ेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले 90 सालों में गंगोत्री ग्लेशियर 1.7 किलोमीटर पीछे गया है। हर साल यह 20 से 22 मीटर पीछे जा रहा है। हिमालय रीजन के इस क्षेत्र में सैकड़ों ग्लेशियरों के पिघलने की रफ़्तार काफ़ी बढ़ी है। जहाँ सामान्यतः यह 0.3 मीटर से 0.8 मीटर हुआ करती थी, वहीं यह 5 से 7 मीटर तक पहुँच चुकी है। यह रफ़्तार अगर ऐसे ही बरक़रार रही तो आने वाले कुछ दशकों में उत्तर भारत की एक बहुसंख्यक और दक्षिण एशिया की चालीस प्रतिशत आबादी पीने के साफ़ पानी, सिंचाई आदि के साथ जलीय स्रोतों के उन तमाम संसाधनों से वंचित हो जायेगी, जो लोगों के रोज़ी-रोटी और रोज़गार का ज़रिया हैं।

मुनाफ़े की अन्धी हवस और अमीरों की विलासिता को पूरा करने का अड्डा बनता हिमालय!

हिमालय की पूरी पारिस्थितिकी के तबाह होने और इन ग्लेशियरों के पिघलने की रफ़्तार को सरकार की इन तथाकथित विकास और पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने की योजनाओं ने और बढ़ा दिया है। ऑल वेदर रोड से लेकर ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन और अभी हाल ही में प्रस्तावित टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन जैसी परियोजनाएँ अमीरों को उनकी ऐय्याशियों के लिए अड्डा बनाने के अलावा और क्या हैं जिसमें ये तबक़ा साप्ताहिक अवकाश पर अपनी फर्राटेदार गाड़ियों को चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर दौड़ाते हुए सीधे हिमालय के शिखरों पर पहुँचे और वहाँ उधमचौकड़ी मचाते, प्लास्टिक के कचरों को फैलाते अपनी छुट्टियाँ बिताये और चला जाये! हिमालय के उन संवेदनशील इलाक़ों में हर तरह की सुख-सुविधा से युक्त बहुमंज़िला इमारतें, होटल और रिज़ॉर्ट बनाये जा रहे हैं जहाँ धरती पर एक छोटी-सी कम्पन भी बहुत बड़े भू-स्खलन को जन्म दे सकती है। लेकिन इससे सरकारों को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है। उसे अपने आक़ाओं की विलासिता के लिए सरअंजाम पूरा करने का हुक्म जो मिला हुआ है! इसके विनाश को भुगतना तो आम मेहनतकश जनता को है।

जोशीमठ तो एक झाँकी है!

जोशीमठ की आपदा के सम्भावित परिणाम की चर्चा की जाये तो ये कहा जा सकता है कि अगर जोशीमठ धँसता है तो इसके इर्द-गिर्द बहती नदियों का स्तर मलबा गिरने से बढ़ जायेगा और पानी दूसरे क़स्बे में घुस जायेगा, जिसके बाद बाक़ी इलाक़ों में भी भारी नुक़सान झेलना पड़ेगा। इसके साथ ही जोशीमठ कई ग्लेशियरों से घिरा हुआ इलाक़ा है। इसके धँसाव से बड़ा कम्पन पैदा होगा जिससे ग्लेशियर के बड़े हिस्से के टूटने का ख़तरा भी बढ़ जायेगा। अगर यह टूटता है तो बड़ा सैलाब आ सकता है जो जोशीमठ से लेकर हरिद्वार तक तबाही मचायेगा।

हिमालय के पर्यावरण की तबाही के अलग-अलग कारणों को मिलाकर अगर देखा जाये तो इसकी बुनियाद में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, अमीरों की विलासिता और मुनाफ़े की अन्धी हवस है। हिमालय की आपदा केवल जोशीमठ जैसे शहरों, क़स्बों की नहीं है बल्कि ये एक राष्ट्रीय आपदा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। हिमालय की इस तबाही को राष्ट्रीय फलक पर लाने और एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की आज ज़रूरत है। नहीं तो बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय के पारिस्थितिकीय तंत्र को बर्बाद किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका ख़ामियाज़ा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। सरकारों के लिए ये आपदाएँ मौसमी चक्र बन चुकी हैं, जो आती और जाती रहती हैं। उसके लिए जनता उजड़ती-बसती रहती है। लेकिन मुनाफ़ा निरन्तर जारी रहना चाहिए!

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2023


 

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