आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों के संघर्ष ने तमाम पूँजीवादी पार्टियों के मज़दूर-मेहनतकश विरोधी चेहरे को बेपर्द किया!
– प्रियम्वदा
दिल्ली में 31 जनवरी 2022 से शुरू हुआ आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों का संघर्ष दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में एक आगे बढ़ा हुआ क़दम है। दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन की रहनुमाई में 38 दिनों तक चली ये हड़ताल हर आने वाले दिन के साथ नया इतिहास रचते हुए और अधिक मज़बूत होती रही। अपनी हड़ताल और रैलियों के माध्यम से सड़कों पर उतरे महिलाओं के सैलाब ने न सिर्फ़ दिल्ली में और केन्द्र में बैठे हुक्मरानों की कुर्सियाँ हिला दी थीं, उन्हें भयाक्रान्त कर दिया था और उनकी असलियत को उजागर किया बल्कि इस समूची पूँजीवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी चुनौती दी। महिला मज़दूरों की इस अभूतपूर्व हड़ताल से बौखलायी दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार ने इसे रोकने के लिए दमनकारी ‘हेस्मा’ जैसे काले क़ानून का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही अपनी वाजिब और न्यायसंगत माँगों के लिए लड़ रही 991 महिलाओं को ग़ैर-क़ानूनी बर्ख़ास्तगी पत्र भी भेजे। स्वयंसेविका माने जाने वाली आँगनवाड़ीकर्मियों की हड़ताल पर ‘हरियाणा एस्सेंशियल सर्विसेस मेण्टेनेंस एक्ट (हेस्मा)’ लगाना इन सरकारों के दोमुहेपन को और स्पष्ट कर देता है।
हेस्मा का क़ानून क़ायदन सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकारी कर्मचारी पर ही लागू होता है, जबकि आँगनवाड़ी में काम कर रही महिलाओं को सरकार सरकारी कर्मचारी नहीं मानती। जहाँ एक तरफ़ सरकार का कहना है कि आँगनवाड़ी महिलाकर्मी समाज में आवश्यक सेवा मुहैया करती हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आँगनवाड़ीकर्मियों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, बल्कि उनसे बेगार खटवाकर नाममात्र का ‘मानदेय’ दिया जाता है। ज़रूरी सेवा प्रदान कर रही आँगनवाड़ी वर्कर और हेल्पर को सरकार द्वारा दिये जाने वाले 9678 रुपये और 4839 रुपये कहाँ तक जायज़ हैं? उन्हें कर्मचारी का दर्जा देकर उनके काम को पक्का क्यों नहीं किया जा रहा है? इस सवाल पर दोनों ही सरकारों ने अपने आँख और कान बन्द कर लिये हैं। हड़ताल के दौरान ही केजरीवाल सरकार ने घबराकर आँगनवाड़ी वर्करों व हेल्परों के मानदेय को बढ़ाकर क्रमश: रु. 12700 और रु. 6810 किया। लेकिन यह बढ़ा हुआ मानदेय अभी तक आँगनवाड़ी वर्करों व हेल्परों को प्राप्त नहीं हुआ है। यहाँ तक कि आँगनवाड़ी केन्द्रों का किराया तक केजरीवाल सरकार नहीं दे रही है।
ग़ौरतलब है, कि केवल तात्कालिक तौर पर हेस्मा के मद्देनज़र आँगनवाड़ीकर्मियों ने अपनी हड़ताल को स्थगित किया है व इस दमनकारी क़ानून को यूनियन ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। न्यायालय का फ़ैसला आने तक हड़ताल स्थगित हुई है मगर आन्दोलन अपने नये रूप में जारी है। यदि अदालत इस मसले पर न्याय नहीं करती तो दिल्ली की 22,000 आँगनवाड़ी कर्मचारी हेस्मा तोड़कर हड़ताल पर जायेंगी क्योंकि जब अन्याय ही क़ानून बन जाये तो विद्रोह हमारा अधिकार और ज़िम्मेदारी बन जाता है। इस बीच दिल्ली में कार्यरत आँगनवाड़ीकर्मियों ने यह ऐलान किया है कि वे आने वाले निगम चुनाव में भाजपा और आम आदमी पार्टी का पूर्ण बहिष्कार करेंगी। न सिर्फ़ आँगनवाड़ी महिलाकर्मी इन चुनावबाज़ पार्टियों की वोटबन्दी करेंगी, बल्कि इनके परिवार और रिश्तेदार भी भाजपा और आप का बहिष्कार करेंगे। ‘नाक में दम करो अभियान’ के तहत आँगनवाड़ी की महिलाएँ दिल्ली की सड़कों पर उतरकर सक्रिय बहिष्कार अभियान चला रही हैं। दिल्ली की जनता को इन हुक्मरानों की असलियत से परिचित करा रही हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि आम आदमी पार्टी ने पहले निगमों के एकीकरण के ज़रिए निगम चुनावों को निलम्बित किये जाने के सवाल पर भाजपा का विरोध किया था लेकिन अब इन दोनों पार्टियों ने मिलकर निगम चुनावों को अनिश्चितकाल के लिए निलम्बित कर दिया है क्योंकि इन्हें पता है कि पूरे शहर में इनके ख़िलाफ़ आँगनवाड़ीकर्मियों ने जो ‘नाक में दम करो अभियान’ चला रखा है, उसके कारण पूरे शहर में इन दोनों ही पार्टियों की थू-थू हो रही है। अभी चुनाव न होना ही इन दोनों को अब फ़ायदेमन्द नज़र आ रहा है।
आँगनवाड़ी कामगारों की जायज़ माँगों की पूर्ति करने के बजाय भाजपा और ‘आप’ ने मिलकर हड़ताल पर हेस्मा लगाया व ग़ैर-क़ानूनी टर्मिनेशन किये, वहीं दूसरी तरफ़ भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता आँगनवाड़ीकर्मियों की तकलीफ़ों पर घड़ियाली आँसू बहाने की नौटंकी कर रहा है। 2018 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गयी रु. 1500 व रु. 750 रुपये की मामूली बढ़ोत्तरी, चार साल बाद भी लोगों तक क्यों नहीं पहुँची है, इस सवाल पर भाजपा और उसके नेता-मंत्री चुप्पी साधे बैठे हैं। इनकी नौटंकियों को आँगनवाड़ीकर्मी बख़ूबी समझती हैं। भाजपा शासित राज्यों में आँगनवाड़ीकर्मियों की हालत कुछ बेहतर नहीं है। अधिकांश भाजपा शासित राज्यों में आँगनवाड़ीकर्मियों को मिलने वाला मानदेय 8000 रुपये के आसपास है, जो कहीं से भी सम्मानजनक नहीं है। भाजपा सरकार चाहे तो आँगनवाड़ी के काम की नियमित प्रकृति और आवश्यकता को देखते हुए उन्हें तत्काल सरकारी कर्मचारी घोषित कर सकती है और उन्हें सभी सुविधाएँ मुहैया करा सकती है। भाजपा का यह पाखण्ड अब किसी से छुपा हुआ नहीं है।
ख़ुद को आम आदमी की हितैषी बताने वाली केजरीवाल की सरकार ने 991 महिलाओं को काम से निकालकर यह कहना शुरू किया है कि वे आँगनवाड़ीकर्मियों की माँगों को पूरा करने के लिए हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं। इनके ढोंग को 38 दिनों तक चली इस हड़ताल ने उघाड़कर रख दिया। तमाम ग़ैर-ज़रूरी मुद्दों पर भाजपा के साथ ‘तू नंगा-तू नंगा’ का खेल खेलने वाली केजरीवाल सरकार ने आँगनवाड़ीकर्मियों के दमन के लिए भाजपा के साथ मिलकर अपने असल रंग को दिखला दिया है। भाजपा और ‘आप’ ने आँगनवाड़ी महिलाओं क साथ जो किया है, यह पहले डीटीसीकर्मी, डॉक्टर, नर्स, शिक्षकों और मज़दूरों के साथ भी कर चुके हैं। केजरीवाल सरकार की सभी नीतियाँ जनता को भरमाने का काम करती हैं। चाहे वह दिल्ली में स्कूल का मॉडल हो, डीटीसी बसों में महिलाओं के टिकट फ़्री करने का या फिर फ़्री पानी और बिजली का। असल बात तो यह है कि ये जनता की एक जेब में चवन्नी डालकर उनकी दूसरी जेब से रुपया ऐंठने का काम करते हैं। मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ डालकर सारा पैसा अपने चुनाव प्रचार पर ख़र्च करने का काम करते हैं और धन्नासेठों की सेवा में लगाते हैं। पंजाब में आँगनवाड़ीकर्मियों से बड़े-बड़े वायदे करने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार का मज़दूर और महिला विरोधी चेहरा हमारे सामने है। सरकार बनने के महीनेभर बाद अब इन्हें आँगनवाड़ी की महिलाओं से किये गये वायदे को पूरा करने की कोई सुध नहीं है। उल्टे हर वायदे पर आम आदमी पार्टी और केजरीवाल पंजाब की जनता को बता रहे हैं कि वे वायदे तभी पूरे कर सकते हैं, जबकि मोदी की केन्द्र सरकार उन्हें फ़ण्ड दे! यह पंजाब की जनता के साथ भद्दा मज़ाक़ और धोखा है।
आँगनवाड़ी कामगारों की ऐतिहासिक हड़ताल के दौरान चली सियासी जमातों की पूरी सरकस में कांग्रेस भी अपना करतब दिखाने से बाज़ नहीं आयी। एक तरफ़ तो राहुल गाँधी ने आँगनवाड़ीकर्मियों की माँगों को जायज़ ठहराते हुए अपना रोना रोया और दूसरी तरफ़ कांग्रेस के नेता व अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी को दिल्ली व केन्द्र सरकार की दमनकारी नीति का अदालत में बचाव करने के लिए भेजा। इस हड़ताल ने यह बात दिखला दी है कि जब कभी मेहनतकश वर्ग एकजुट होता है, तब सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ अपने आपसी झगड़े भुलाकर मेहनतकशों के संघर्ष को कुचलने के लिए एकजुट हो जाती हैं। असल बात यह है कि इस हड़ताल ने वह किया जो समूचे शासक वर्ग और उसकी सभी पार्टियों को भयाक्रान्त करता है: शासक वर्ग के प्राधिकार की पूर्ण अवहेलना। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों ने इनकी चौधराहट, रसूख़ और हनक की कोई परवाह किये बिना इन्हें इनकी औक़ात दिखायी। यही वह चीज़ है जो सिर्फ़ केजरीवाल सरकार को ही नहीं, बल्कि भाजपा और कांग्रेस को भी भयाक्रान्त कर रही है। साथ ही मज़दूरों का लाल रंग देखकर वैसे भी इन्हें चक्कर आने लगते हैं और इस हड़ताल ने 38 दिनों के दौरान पूरी दिल्ली को लाल रंग में रंग दिया था। यह शासक वर्ग और उनकी पार्टियों के दिल में ख़ास तौर पर खलबली पैदा कर रहा था। यही कारण है कि इन स्त्री मज़दूरों के हौसले की बुलन्दी देखकर आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस के बौने एकजुट हो गये।
आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार और भाजपा की केन्द्र सरकार के इस दमनकारी रवैये को ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पेर्स यूनियन’ ने न्यायालय में चुनौती दी है और इस देश की न्याय व्यवस्था को अपनी स्वतंत्रता और पक्षधरता साबित करने का मौक़ा दिया है। मेहनतकशों की लूट पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी और श्रम के बीच जारी संघर्ष में न्यायालय के अधिकांश फ़ैसले पूँजी के पक्ष में होते हैं। हमारे दिमाग़ मे यह बात बैठा दी जाती है कि सरकार की ज़्यादतियों पर नियंत्रण के लिए न्यायपालिका मौजूद है, मगर इस देश का मज़दूर-मेहनतकश अपनी ज़िन्दगी के हालातों से यह बख़ूबी समझता है कि मौजूदा समाज में न्याय प्रणाली एक पूँजीवादी न्याय प्रणाली ही है और अन्तत: वह पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी सरकारों के हितों की ही सेवा करती है, हालाँकि वह किंचित मामलों में जनदबाव के समक्ष तात्कालिक तौर पर उनके ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाने को मजबूर भी हो सकती है। जनता ने अपने संघर्ष के बूते जो थोड़े-बहुत अधिकार हासिल किये थे, उन्हें भी बचाने में भारतीय न्यायपालिका अक्षम रही है। जिन श्रम क़ानूनों को बनवाने के लिए मज़दूरों ने अपनी क़ुर्बानियाँ दीं, उन श्रम क़ानूनों को लचर बनाये जाने के ख़िलाफ़ इस देश की न्यायपालिका ने एक शब्द तक नहीं बोला, बल्कि कई मामलों में सरकार और पूँजीपतियों के पक्ष में फ़ैसला दिया।
आज के फ़ासीवादी दौर में न्याय व्यवस्था का चरित्र और अधिक साफ़ हुआ है। बर्बर हत्यारों से लेकर, नरसंहार करने वाले और बलात्कारी आज खुलेआम घूम रहे हैं, जबकि अपना हक़ माँग रहे लाखों निर्दोष और इन्साफ़पसन्द लोग सलाख़ों के पीछे हैं। हमारे पास कई उदाहरण मौजूद हैं, जिसमें न्यायपालिका ने शासक वर्ग के हितों की सेवा की है और मज़दूरों के हक़-अधिकार और उनके आन्दोलन को कुचलने का काम किया है। हमें यह बात स्पष्ट तौर पर समझ लेनी चाहिए कि स्वतंत्रता और निष्पक्षता की बात करने वाली ये संस्थाएँ शोषण और लूट पर टिकी मौजूदा व्यवस्था को ही और गहराई से स्थापित करने का काम करती हैं। यदि अदालत सभी ग़ैर-क़ानूनी बर्ख़ास्तगियों को रद्द नहीं करती है और हेस्मा जैसे काले क़ानून को वापस नहीं लेती है, तब दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मी अपनी जायज़ माँगों की पूर्ति के लिए एक बार फिर हड़ताल पर जाने को मजबूर होंगी।
मज़दूर-मेहनतकश अपने संघर्ष के जूझारू इतिहास से यह बात बख़ूबी समझता है कि असल में जीत तभी मिलती है जब आन्दोलन सड़कों पर जारी रहता है। आँगनवाड़ी की स्त्री कामगारों ने यह तय किया है कि जब तक फ़ैसला उनके हक़ में नहीं होता सड़कों पर आन्दोलन जारी रहेगा। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था और सरकार के ख़िलाफ़ लड़ने का यही एकमात्र रास्ता हो सकता है कि हम सड़कों पर उतरकर अपने संघर्ष को और तेज़ करें।
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