पंजाब में केजरीवाल और चन्नी में “आम आदमी” बनने की हास्यास्पद होड़
इस धर्मान्धता और मज़हबी उन्माद के ख़िलाफ़ मेहनतकशों को उठ खड़े होना होगा!
– शिवानी
पंजाब में सिख धार्मिक चिह्नों की तथाकथित बेअदबी और “बेअदबी” करने वालों की धार्मिक कट्टरपन्थियों द्वारा सरेआम हत्याओं के एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं। हाल ही में घटी एक वारदात में स्वर्ण मन्दिर, अमृतसर में एक युवक की इसी “बेअदबी” के नाम पर उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या कर दी गयी। एक अन्य घटना में कपूरथला में सिख धर्म के प्रतीक निशान साहिब का “अपमान” करने के नाम पर एक और युवक की कट्टरपन्थियों द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी। अभी ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे हैं जब सिख कट्टरपन्थी निहंगों द्वारा किसान आन्दोलन के दौरान सिंघु बॉर्डर पर एक दलित मज़दूर की बेरहमी से हत्या को सरेआम अंजाम दिया गया था। एक अन्य घटना में किसान आन्दोलन के धरनास्थल पर ही एक कट्टरपन्थी निहंग द्वारा एक अन्य मज़दूर की पिटाई की घटना भी सामने आयी थी।
पंजाब में 2015 से लेकर अब तक धार्मिक चिह्नों के तथाकथित अपमान के 100 से भी ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं और कई लोगों की हत्याएँ “बेअदबी” के नाम पर खुलेआम की जा चुकी हैं। यह एक बार फिर दिखलाता है कि पूँजीवादी आर्थिक संकट के गहराने के साथ ही पंजाब समेत पूरे देश में मज़हबी कट्टरपन्थ बढ़ा है तथा समाज में प्रतिक्रियावाद की जड़ें और भी गहरी व मज़बूत हुई हैं। ऐसा नहीं है कि सिख धर्म इससे अछूता है। अक्सर कम्युनिस्टों द्वारा भी सिख धर्म को अपवाद के रूप में पेश किया जाता है और उसके प्रगतिशील चरित्र पर बल दिया जाता है। कोई भी धर्म अन्ततः धर्म ही होता है, विज्ञान नहीं। हर धर्म इतिहास में निश्चित ऐतिहासिक कारणों के चलते पैदा होता है, लेकिन वह एक जड़सूत्र होता है और अपने समय में कोई प्रगतिशील भूमिका निभाने के बावजूद अन्ततः उसका चरित्र प्रतिक्रियावादी होना ही होता है। सिख धर्म भी धर्मों के विषय में आम तौर पर कही जा सकने वाली इस बात का अपवाद नहीं है। वैज्ञानिक नज़रिए और धर्म में यह अन्तर होता ही है और यह हर धर्म पर लागू होता है। इसलिए हर धर्म और उसके समुदाय में धर्मान्धता और कट्टरपन्थ का पनपना लाज़िमी है।
हम देख सकते हैं कि आम तौर पर प्रतिक्रियावादी दौर में धार्मिक कट्टरपन्थी, जातिवादी व स्त्री-विरोधी ताक़तों को अपनी मानवद्रोही हरकतों को अंजाम देने का और संवेग मिलता है। आम मेहनतकश आबादी का एक हिस्सा भी इस धर्मान्धता और मज़हबी जुनून का शिकार होता है जो अपने जीवन की समस्याओं के असली सारभूत कारण न समझने की वजह से ऐसी कट्टरपन्थी ताक़तों के भ्रामक प्रचार और उन्मादी लहर का शिकार बन जाते हैं। आम तौर पर भी पूँजीवाद में जब-जब आर्थिक संकट गहराता है और बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी बढ़ती है, तब-तब समाज में प्रतिक्रिया, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता, कूपमण्डूकता और धार्मिक उन्माद भी उसी अनुपात में पनपते हैं। पंजाब में धर्म के नाम पर हो रही ये हत्याएँ यह भी स्पष्ट कर देती हैं कि कोई भी धर्म अपने आप में “सहिष्णु” या “उदार” नहीं होता है जैसा कि इन घटनाओं के बाद एक लिबरल तबक़ा और यहाँ तक कि कुछ तथाकथित कम्युनिस्ट तक सिख धर्म की “विशिष्टता” को लेकर दुहाई दे रहा है।
यह बात भी सच है कि आम तौर पर पूरे देश में ही चुनाव नज़दीक आते ही धार्मिक चिह्नों से तथाकथित छेड़छाड़, साम्प्रदायिक दंगों और जातीय तनावों के मामले बढ़ने लग जाते हैं। ऐसे मामले मेहनतकश जनता के जीवन से जुड़े असली मुद्दों से उनका ध्यान भटकाने का ही काम करते हैं और उनके बीच की एकजुटता को तोड़ते हैं। इनमें फ़ायदा सत्ताधारियों का ही होता है। ज़ाहिरा तौर पर जनता को आपस में बाँटने, लड़ाने व धार्मिक उन्माद भड़काने के मक़सद से किसी धर्म के प्रतीक चिह्न के साथ सचेतन छेड़छाड़ करने वालों और ऐसे मामलों में संगठित षड्यंत्र होने पर क़ानून व्यवस्था द्वारा असल दोषियों को सज़ा दी जानी चाहिए। हमारे देश इस तरह की सचेतन कारगुज़ारियों को अंजाम देते हुए अक्सर हिदुत्व फ़ासिस्ट और हिन्दू कट्टरपन्थी संगठन पाये गये हैं जब साज़िशाना तरीक़े से कभी किसी हिन्दू धार्मिक स्थल पर “गौ मांस” की बरामदगी के नाम पर तो कभी किसी देवी-देवता का “अपमान” किये जाने के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ क़त्लेआम और मॉब लिंचिंग तक करवाये गये हैं। हालाँकि एक भी ऐसे मामले में असली दोषियों के ख़िलाफ़ पुलिस-प्रशासन और सरकारी तंत्र की एक अदना-सी कार्रवाई भी नहीं होती है।
मुख्य सवाल यह है कि धर्म के नाम पर हो रही इन बर्बर हत्याओं को किस रूप में जायज़ ठहराया जा सकता है? पंजाब में सिख धार्मिक कट्टरपन्थियों द्वारा “बेअदबी” के नाम पर लोगों को मौत के घाट उतारकर “तालिबानी न्याय” देना किस आधार पर सही है? “धार्मिक भावनाओं के आहत” होने का यह तर्क बेहद ख़तरनाक है और धर्म के नाम पर किसी भी नृशंस कार्रवाई को वैधीकरण देने का काम करता है मानो कि तब किसी इन्सान की हत्या हत्या नहीं रह जाती है!
पंजाब में इन “बेअदबी” के मामलों को लेकर सियासत हमेशा से काफ़ी गर्म रही है। सिख धर्म में गुरू ग्रन्थ साहिब के साथ “छेड़छाड़” को शुरू से ही “बेअदबी” की संज्ञा दी गयी है और इसे संगीन अपराध कहा गया है। इतिहास में भी इन “बेअदबी” के मामलों में बहिष्कार और बिरदारी-बाहर करने के सैंकड़ों उदहारण मिल जाते हैं। पंजाबी यूनिवर्सिटी के गुरू ग्रन्थ साहिब अध्ययन विभाग के प्रोफ़ेसर सरबिन्द सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था कि लखपत राय, जो उस वक़्त लाहौर के दीवान थे, ने गुरू ग्रन्थ साहिब के साथ “भौतिक छेड़छाड़” को “बेअदबी” के तौर पर संस्थाबद्ध किया था। यहाँ तक कि उसने ‘गुड़’ शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया था क्योंकि वह ‘गुरू” से मिलता-जुलता था! 1870 के दशक में सिंह सभा आन्दोलन के शुरू होने से लेकर 1920 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के गठन तक सिख धार्मिक आन्दोलन मज़बूत होता चला गया। इसके बाद जरनैल सिंह भिण्डरावाले और खालिस्तानी आन्दोलन के उद्भव के साथ सिख धार्मिक आन्दोलन में एक नया मोड़ आता है और अलगाववादी कट्टरपन्थी राजनीति परवान चढ़ती है। पंजाब में राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप का इतिहास भी पुराना है। पूँजीवादी चुनावी दलों ने तो इन “बेअदबी” के मसलों पर हमेशा फ़िरकापरस्ती ही दिखलायी है जिसमें कोई ताज्जुब की बात है भी नहीं। लेकिन तथाकथित क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें भी इन मसलों पर मौक़ापरस्ती दिखला रही हैं।
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। खालिस्तान आन्दोलन के दौरान पंजाब के क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों ने इस फ़िरकापरस्ती और धार्मिक अलगाववादी राजनीति का डटकर मुक़ाबला किया था और कई शहादतें भी दीं। उन्होंने सिर्फ़ मुँहज़ुबानी ही नहीं बल्कि सड़कों पर उतरकर धार्मिक कट्टरपन्थी और फ़िरकापरस्त ताक़तों का जवाब दिया। यह भी अनायास नहीं था कि खालिस्तानियों के निशाने पर सबसे पहले कम्युनिस्ट ही थे। यहाँ तक कि पूँजीवादी हुक्मरानों में भी कइयों को यह बात स्वीकारनी पड़ी थी कि खालिस्तानी धार्मिक कट्टरपन्थी अलगाववादियों का सबसे बहादुरी से मुक़ाबला क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों ने किया था।
लेकिन जैसे-जैसे इन संगठनों की नरोदवादी राजनीति का पतन होता चला गया, वैसे-वैसे वैचारिक साहस भी जाता रहा है और विशेषकर सिख धार्मिक कट्टरपन्थ के ख़िलाफ़ विरोध की धार भी कुन्द होती चली गयी। इसके कारण राजनीतिक हैं। जिस धनी किसान-कुलक वर्ग की नुमाइन्दगी ये तमाम नव-नरोदवादी संगठन आज करते हैं, वह वर्ग अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति से अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता, जातिगत दम्भ और धार्मिक पहचान के कारण ऐसी कट्टरता को पैदा करने की ज़रख़ेज़ ज़मीन देता है। यही कारण हैं कि जोगिन्दर सिंह उग्राहाँ से लेकर दर्शन पाल जैसे लोग और इनके नरोदवादी संगठन “बेअदबी” के नाम पर होने वाली इन हत्याओं के मसलों पर या तो मौक़ापरस्त चुप्पी अख्तियार करते रहे हैं या फिर बीच-बीच की कोई बात करते रहे हैं कि ‘बेअदबी तो ग़लत है, लेकिन क़ानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए’ आदि-आदि। इसके अलावा कुछ कायर लोकरंजकतावादी व क़ौमवादी संगठन हैं जो हर मसले में किसी साज़िश को तलाशते फिरते हैं। इन राजनीतिक मसखरों के लिए “बेअदबी” भी साज़िश है, कोरोना भी साज़िश है और कल इनके लिए पूँजीवाद भी एक साज़िश हो जायेगा! दरअसल यह इनका राजनीतिक अवसरवाद है जो पंजाब में सिख धार्मिक कट्टरपन्थ के ख़िलाफ़ बोलने से इन्हें रोकता है; बाक़ी सभी धर्मो के कट्टरपन्थ के ख़िलाफ़ यह अक्सर लोगों को ललकारते रहते हैं! असल बात यह है कि यदि किसी साज़िश के तौर पर भी किसी धार्मिक चिह्न की बेअदबी हो, तो क्या उसकी प्रतिक्रिया में धार्मिक उन्मादी भीड़ द्वारा पाशविक हिंसा और हत्या को कभी कोई क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि सही ठहरा सकता है? क़तई नहीं!
आज आम मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि धर्म के नाम पर किसी की हत्या कर देना किसी भी मापदण्ड से सही नहीं ठहराया जा सकता है। धार्मिक प्रतीकों के तथाकथित अपमान के नाम पर लोगों को मौत के घाट उतार देना किस पैमाने से “न्याय” है? हम किसी मध्ययुग में नहीं जी रहे हैं और कोई भी वस्तु मानवीय जीवन से क़ीमती नहीं हो सकती है! “भावनाओं के आहत होने” का तर्क हर-हमेशा मेहनतकशों को आपस में लड़वाने के लिए हुक्मरानों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। हमें अपने तर्क और विवेक को भावनाओं से ऊपर रखना चाहिए और ऐसे ही किसी के बहकावे में नहीं आना चाहिए। तमाम घटनाओं में हम देख सकते हैं कि आम तौर पर निशाने पर भी आम ग़रीब लोग होते हैं और मोहरे भी आम लोग ही बनते हैं। यह भी याद रखना होगा कि हर प्रकार का कट्टरतावाद मेहनतकशों की एकता क़ायम करने में रुकावट पैदा करता है। आज पंजाब समेत पूरे देश के मज़दूर वर्ग को धार्मिक कट्टरपन्थ और मज़हबी उन्माद की असलियत पहचाननी होगी और इसके ख़िलाफ़ भी अपना मोर्चा खोलना होगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2022
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