इलाज कराने वाली कम्पनियों का कौन करेगा इलाज?
तपिश
हाल ही में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 पारित हुई है। सरकार का दावा है कि इसके बाद भारत की जनता को सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ मुहैया कराना आसान हो जायेगा। सरकार यह भी दावा कर रही है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के बाद निजी अस्पतालों की लूट पर शिकंजा कसना आसान हो जायेगा। ये दावे बेहद आकर्षक हैं और कोई भी आम भारतीय नागरिक इनका समर्थन ही करेगा, लेकिन समर्थन या विरोध करने से पहले इन दावों की असलियत जानना ज़रूरी है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के ज़रिये स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराने का एक ऐसा मॉडल अपनाया जा रहा है जो बाक़ी दुनिया में 1985 के आसपास अपनाया गया था। इसे परचेज़र प्रोवाइडर स्पिलिट मॉडल के नाम से जाना जाता है। इसके तहत सरकार निजी संस्थाओं से स्वास्थ्य सेवाओं को ख़रीदकर इन्हें जनता को मुहैया कराती है।
इंग्लैण्ड, दक्षिण अफ़्रीका स्वीडन, इरान, न्यूज़ीलैण्ड जैसे देशों से इस मॉडल को लागू करने की शुरुआत की गयी थी और आज क़रीब 30-35 वर्षों का अनुभव बताता है कि इस मॉडल के पक्ष में जितने दावे किये गये थे, उस पर यह खरा नहीं उतरा है। इसे लागू करने की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर गिरा है, लापरवाहियाँ बढ़ी हैं, भ्रष्टाचार और लालफीताशाही का बोलबाला बढ़ा है। जहाँ पहले यह दावा किया गया था कि इसके कारण स्वास्थ्य सेवाएँ सस्ती हो जायेंगी, पर असल में हुआ यह कि स्वास्थ्य सेवाओं में बड़ी एकाधिकारी कम्पनियों का बोलबाला बढ़ गया और चिकित्सा सुविधाएँ काफ़ी महँगी होती चली गयीं।
पिछले कुछ सालों में कई राज्य सरकारें इसी नीति पर अमल करती रही हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फ़ाउण्डेशन’ के साथ मिलकर प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं को आउटसोर्स करने के मक़सद से अन्तरराष्ट्रीय संविदा की घोषणा की और इसकी शर्तें इस तरह से रखी गयीं कि स्थानीय सेवादाताओं को इसमें भाग लेने का कोई अवसर नहीं मिलेगा। विभिन्न सेवादाताओं के बीच कड़ी प्रतियोगिता के कारण कम से कम क़ीमत पर चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध कराने का दावा इन हालात में एक छलावा बनकर रह जाता है। राजस्थान पहले से ही चिकित्सा सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने का मॉडल बन चुका है। राजस्थान सरकार ने अभी पिछले ही साल 213 प्राइमरी हेल्थ सेण्टर निजी संस्थानों को सौंप दिये हैं। ठीक इसी तरह तमिलनाडु और तेलंगाना में भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को प्राइवेट हाथों में दिया जा रहा है। तेलंगाना सरकार ने सरकारी आदेश पारित कर अस्पतालों में वार्ड बॉय और आया की सेवाओं का हाल ही में निजीकरण किया है। इसके लिए सरकार प्रति बैड के बदले निजी कम्पनियों को 5016 रुपये का भुगतान कर रही है।
महँगी होती चिकित्सा सेवाओं के अलावा दवाइयों के दामों को नियन्त्रित करना एक ज़रूरी क़दम है। हालाँकि तमाम सरकारें दवा कम्पनियों की मनमानी लूट पर नियन्त्रण लगाने का दावा पेश करती रही हैं और वर्तमान भाजपा सरकार इसका अपवाद नहीं है। लेकिन वास्तव में ऐसा होता दिख नहीं रहा है। कुछ दिन पहले जब भारत सरकार ने दवाओं की क़ीमतों पर नियन्त्रण लागू करने वाला बयान जारी किया तो आम जन में ऐसी धारणा पैदा हुई है कि शायद अबकी बार सचमुच में दवाओं के दाम कम हो जायेंगे। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि सरकार की बनायी हुई एक प्रमुख संस्था ‘नीति आयोग’ और कई दूसरे सरकारी मन्त्रालय और विभाग दवा कम्पनियों के साथ मिलकर दवाओं के दामों को नियन्त्रण मुक्त रखने की ज़ोरदार मुहिम चला रहे हैं। इस मुहिम में परिवार एवं कल्याण मन्त्रालय, खाद एवं रसायन मन्त्रालय, व्यापार एवं उद्योग मन्त्रालय तथा डिपार्टमेण्ट ऑफ़ फ़ार्मास्यूटिकल आदि सक्रिय हैं। ऐसे हालात में यह आसानी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार की दवाओं की क़ीमतों के नियन्त्रण सम्बन्धी घोषणा का क्या होने वाला है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 से चिकित्सा क्षेत्र में सेवाएँ प्रदान करने और अस्पतालों की श्रृंखला चलाने वाली ज़्यादातर बड़ी कम्पनियाँ बेहद ख़ुश हैं। इनकी ख़ुशी का राज़ समझना हो तो ‘मेदान्ता’ के नाम से मशहूर अस्पतालों के कर्ताधर्ता डाॅ. नरेश त्रेहन का बयान ग़ौर करने लायक है। डाॅ. त्रेहन ने बताया है कि निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य कम्पनियों की माली हालत ठीक नहीं है। उन्होंने इस बात पर चिन्ता जताई है कि अस्पताल के मुनाफ़़े की दरें काफ़ी कम हैं और निवेश की गयी पूँजी पर मिलने वाले लाभ पूँजी की कुल लागत से भी कम है। डाॅ. त्रेहन को आशा है कि नयी स्वास्थ्य नीति लागू होने के बाद स्वास्थ्य सेवाओं के घरेलू बाज़ार का बड़े पैमाने पर विस्तार होगा और इस क्षेत्र में ख़र्च होने वाला सरकारी धन स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में काम करने वाली निजी कम्पनियों के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद साबित होगा।
ज़ाहिर है कि नयी स्वास्थ्य नीति का लाभ मरीज़ों को मिले या न मिले, लेकिन निजी कम्पनियाँ इससे बेशुमार फ़ायदा उठायेंगी और इसका नतीजा स्वास्थ्य सेवाओं के महँगे होने, भ्रष्टाचार और लालफीताशाही के बोलबाले के रूप में ही सामने आ सकता है जैसा कि दुनिया के दूसरे मुल्क़ों में दिखाई दे रहा है। जब तक स्वास्थ्य सेवाओं को पूँजीवादी मुनाफ़े के चंगुल से आज़ाद करने के बारे में नहीं सोचा जायेगा, तब तक मरीज इन स्वास्थ्यप्रदाता कम्पनियों के लिए चारे से अधिक कुछ नहीं है, जिसे खाकर वे अपनी माली हालत को बेहतर करते चले जाते हैं, अपनी तिजोरियों को भरते चले जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि इस देश में इलाज करवाने के दौरान अपना सब कुछ बिक जाने के चलते हर साल 6 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।
मज़दूर बिगुल, मई 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन