लुटेरों के झूठे मुद्दे बनाम जनता के वास्तविक मुद्दे
सोचो, तुम्हें किन सवालों पर लड़ना है
सम्पादक मण्डल
पिछले कुछ महीनों से देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो इस देश के लोगों की महँगाई, बेरोज़गारी, मज़दूरों के शोषण, भ्रष्टाचार, पुलिस अत्याचार, दलितों-स्त्रियों पर हिंसा जैसी सारी समस्याएँ हल हो चुकी हैं। अब इस देश में बच्चे भूख और कुपोषण से नहीं मर रहे हैं, 12-12 घंटे खटने के बाद भी मज़दूर नारकीय ज़िन्दगी बसर नहीं कर रहे हैं, पैसेवालों की लूट-खसोट ख़त्म हो गयी है, क़दम-क़दम पर नेताशाही और अफ़सरशाही का भ्रष्टाचार लोगों का जीना हराम नहीं कर रहा है! देश में सबसे बड़ी समस्या यह है कि गोमाता पर ख़तरा आ गया है या हिन्दू धर्म ख़तरे में आ गया है। साल भर हज़ारों गायें पॉलिथीन खाकर मरती रहती हैं या कचरे के ढेरों में मुँह मारती रही रहती हैं तब उन पर ख़तरा नहीं आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सारे नकली मुद्दे असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए हैं। पूरा मीडिया भोंपू बना दिनो-रात ऐसा शोर मचा रहा है कि लोग अपना अच्छा-बुरा सोचना ही भूल जायें। हिटलर और मुसोलिनी के आज़माये हुए नुस्खों पर चलते हुए लोगों के दिमाग़ ऐसे बनाने की कोशिश की जा रही है कि वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने क़त्लख़ाने की ओर बढ़ते जायें और साथ-साथ अपने क़ातिलों की तारीफ़ में नारे भी लगाते जायें।
यह एक ख़तरनाक स्थिति है। हम सभी सोचने वाले लोगों से अपील करते हैं, हम उन सभी मेहनतकशों, उन सभी नौजवानों से अपील करते हैं जो अभी झूठ के नशे से पागल नहीं हुए हैं — चेत जाओ! जाग जाओ! आँखें खोलकर सच्चाई को देखने की कोशिश करो, वरना पूरा देश ग़ुलामों के बाड़े और ख़ून के दलदल में तब्दील कर दिया जायेगा और तब तुम कुछ करने लायक नहीं रह जाओगे! तब तक बहुत देर हो चुकी होगी!
सोचो, समझो, देखो। लोकलुभावन जुमलेबाजी और ‘‘अच्छे दिनों’’ के झूठे सपनों को दिखलाकर भाजपा भले ही केन्द्र की सत्ता पर काबिज़ हो गयी हो, लेकिन पिछले तीन साल में एक बात साफ़ हो गयी है कि उसका असली मक़सद पूँजीवाद की डूबती नैया को पार लगाना है। संघ, भाजपा तथा मोदी भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि नव-उदारवादी नीतियों ने जिस तरह महँगाई, लगातार कम होती मज़दूरियाँ, बेरोज़गारी और भुखमरी के दानव को खुला छोड़ दिया है उससे त्रस्त जनता एक न एक दिन ज़रूर ही संगठित होकर मैदान में खड़ी हो जायेगी। इसी लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतें देशभर में सीमित पैमाने के छोटे-बडे़ दंगे करवा रही हैं। फासीवाद जनता के सामने हमेशा एक झूठा दुश्मन खड़ा करता है ताकि अपनी बदहाली से परेशान जनता के गुस्से को उस झूठे दुश्मन के विरुद्ध मोड़कर असली कारणों से बहकाया जा सके। धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ ही प्रगतिशील ताक़तें हमेशा उसके निशाने पर रहती हैं। अन्धराष्ट्रवाद का हथियार उसके बड़े काम आता है।
‘विकास’’ की सच्चाई यह है कि देश की ऊपर की 1 फीसदी आबादी के पास देश की कुल सम्पदा का 58.4 फीसदी हिस्सा इकट्ठा हो चुका है और अगर ऊपर की 10 फीसदी आबादी को लें तो यह आंकड़ा 80.7 फीसदी तक पहुँच जाता है। दूसरी ओर नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास कुल सम्पदा का महज 1 फीसदी है। देश के गोदामों में अनाज सड़ने के बावजूद प्रतिदिन लगभग 9000 बच्चे कुपोषण व स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से मर जाते हैं। यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषण का शिकार दुनिया का हर तीसरा बच्चा भारत का है। 50 प्रतिशत औरतें खून की कमी की शिकार हैं। सरकारी नीतियों के कारण होने वाली मौतें आतंकी घटनाओं से होने वाली मौतों की तुलना में कई हजार गुना हैं। लेकिन इन मौतों पर नेताओं व मीडिया द्वारा साजिशाना चुप्पी बनी रहती है। 1 फरवरी को बजट पेश होने से पहले आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि हर साल औसतन 90 लाख लोग रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़कर प्रवासी बन जाते हैं। जिनमें से ज़्यादातर मुम्बई, तिरूपुर, दिल्ली, बंगलूरू, लुधियाना आदि की गन्दी और बीमारी से भरी झोपड़पट्टियों में समा जाते हैं। आँकड़ों के मुताबिक देश की लगभग 36 करोड़ आबादी झुग्गी-झोपड़ियों और फुटपाथ पर रहने के लिए मजबूर है। मोदी सरकार ने जून 2015 में 2022 तक 2 करोड़ मकान बनवाने की बात की थी यानि हर साल लगभग 30 लाख मकान। लेकिन जुलाई 2016 में पता चला कि 1 साल में केवल 19,255 मकान बने।
इसी तरह हर वर्ष 2 करोड़ नये रोजगार पैदा करने के दावे की सच्चाई इसी से सामने आ जाती है कि बेरोजगारी की दर पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ते हुए 2015-16 में 7.3 प्रतिशत तक पहुँच गई। देश के लगभग 30 करोड़ लोग बेरोजगारी में धक्के खा रहे हैं। जनता की सुविधाओं में लगातार कटौती की जा रही है और अमीरज़ादों के अरबों रुपये के क़र्ज़ बट्टे खाते में डाले (वास्तव में माफ़ किये) जा रहे हैं। स्टेशन पर चाय बेचने का ढोंग रचते हुए अब स्टेशन को ही निजी हाथों में बेचा जा रहा है। इसकी शुरुआत हबीबगंज रेलवे स्टेशन (मध्यप्रदेश) से कर दिया गया है। आगे करीब 400 रेलवे स्टेशनों को पी.पी.पी (प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप) के हवाले करने की योजना है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की फीसें बढायी जा रही हैं, सीटें घटायी जा रही हैं। शिक्षा में सरकारी खर्च घटाया जा रहा है ताकि उसकी स्थिति लचर हो और शिक्षा को पूरी तरह बाज़ार के हवाले किया जा सके। इनके ख़िलाफ़ खड़े होने वाले छात्रों-संगठनों के आन्दोलनों को कुचला जा रहा है। अभी-अभी पंजाब विश्वविद्यालय में 11 गुना फीस बढ़ाने के खिलाफ जब छात्रों ने आन्दोलन चलाया तो न केवल उन पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया बल्कि 58 छात्र-छात्राओं पर राष्ट्रदोह का मुकदमा लाद दिया। बाद में छात्रों की एकजुटता देख राष्ट्रदोह का मुकदमा हटा दिया लेकिन वहाँ दमनचक्र जारी है।
आज देश ही नहीं, पूरी दुनिया में फासिस्ट ताक़तें सिर उठा रही हैं। अमेरिका के इतिहास में पहली बार डोनाल्ड ट्रम्प जैसा व्यक्ति राष्ट्रपति बन गया है जो साध्वी प्राची और आदित्यनाथ जैसे लोगों की भाषा में बयानबाज़ियाँ करता रहा है। भारत में भी इसका सीधा सम्बन्ध पूँजीवाद के गहराते संकट से है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को जितने नंगई और कुशलता के साथ मोदी ने लागू करना शुरू किया उसके कारण बड़े-बड़े पूँजीपति घराने, बैंकों के मालिक, हथियारों के सौदागर, देश के तेल और गैस पर क़ब्ज़ा जमाये अम्बानी जैसे धनपशु, फिक्की, एसोचैम जैसी संस्थायें तथा मध्य वर्ग के लोग मोदी की शान में क़सीदे पढ़ रहे थे। मगर संकट की चपेट ऐसी है कि जनता को बुरी तरह निचोड़कर भी मोदी सरकार अपने आकाओं के घटते मुनाफ़े को बढ़ा नहीं पा रही है। ऐसे में कई पूँजीपति घरानों का धैर्य भी जवाब दे रहा है। दूसरी ओर, बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी से तबाह आम जनता ठगी महसूस कर रही है और चारों ओर से विरोध के स्वर उठ रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में सरकारी दमन और सड़कों पर संघी गुण्डा गिरोहों का उत्पात बढ़ता ही जायेगा।
निश्चय ही फासीवादी माहौल में क्रान्तिकारी शक्तियों के प्रचार एवं संगठन के कामों का बुर्जुआ जनवादी स्पेस और भी सिकुड़ जायेगा, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह होगा कि नवउदारवादी नीतियों के बेरोकटोक और तेज़ अमल तथा हर प्रतिरोध को कुचलने की कोशिशों के चलते पूँजीवादी ढाँचे के सभी अन्तरविरोध उग्र से उग्रतर होते चले जायेंगे। मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता रीढ़विहीन ग़ुलामों की तरह सबकुछ झेलती नहीं रहेगी। देश के छात्र-नौजवान चुपचाप सहते नहीं रहेंगे। आने वाले दिनों में व्यापक मज़दूर उभारों की परिस्थितियाँ तैयार होंगी। छात्रों-नौजवानों को भी यह समझना होगा कि उनकी लड़ाई मेहनतकशों को अपने साथ लिये बिना आगे नहीं बढ़ सकती। उन्हें फासिस्टों का भण्डाफोड़ करने और उनके मज़दूर-विरोधी चरित्र के बारे में मेहनतकश जनता को जागरूक करने के लिए उनके बीच जाना होगा। यदि इन्हें नेतृत्व देने वाली क्रान्तिकारी शक्तियाँ तैयार रहेंगी और साहस के साथ ऐसे उभारों में शामिल होकर उनकी अगुवाई अपने हाथ में लेंगी तो क्रान्तिकारी संकट की उन सम्भावित परिस्थितियों में बेहतर से बेहतर इस्तेमाल करके संघर्ष को व्यापक बनाने और सही दिशा देने का काम किया जा सकेगा। अपने देश मे और और पूरी दुनिया में बुर्जुआ जनवाद का क्षरण और नव फासीवादी ताक़तों का उभार दूरगामी तौर पर नयी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के विस्फोट की दिशा में भी संकेत कर रहा है।
मज़दूरों और मेहनतकशों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की राजनीति झूठा प्रचार या दुष्प्रचार करके सबसे पहले एक नकली दुश्मन को खड़ा करती है ताकि मज़दूरो-मेहनकशों का शोषण करने वाले असली दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग को जनता के गुस्से से बचाया जा सके। ये लोग न सिर्फ़ मज़दूरों के दुश्मन हैं बल्कि आम तौर पर देखा जाये तो ये पूरे समाज के भी दुश्मन हैं। इनका मुक़ाबला करने के लिए मेहनतकश वर्गों को न सिर्फ़ अपने वर्ग हितों की रक्षा के लिए एकजुट होकर पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ एक सुनियोजित लंबी लड़ाई लड़ने की शुरुआत करनी होगी, बल्कि साथ ही साथ महँगाई, बेरोज़गारी, महिलाओं की बराबरी तथा जाति और धर्म की कट्टरता के खि़लाफ़ भी जनता को जागरूक करना होगा।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चैकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताक़त के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए।
यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है। फासिस्ट पूँजीवादी लोकतंत्र तक को नहीं मानते और उसे पूरी तरह रस्मी बना देते हैं और वास्तव में पूँजी की नंगी, खुली तानाशाही स्थापित कर देते हैं। फासिस्ट धर्म या नस्ल के आधार पर आम जनता को बाँट देते हैं, वे नक़ली राष्ट्रभक्ति के उन्मादी जुनून में हक़ की लड़ाई की हर आवाज़ को दबा देते हैं, वे धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक नक़ली लड़ाई से असली लड़ाई को पीछे कर देते हैं, पूरे देश में दंगों और ख़ून-खराबों का विनाशकारी खेल शुरू कर देते हैं। पूँजीपति वर्ग अपने संकटों से निजात पाने के लिए फासिज़्म को संगठित करता है और ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की तरह उसका इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन जब तब यह कुत्ता अपनी जंजीर छुड़ा भी लेता है और तब समाज में भयंकर ख़ूनी उत्पात मचाता है। हमारे देश में पिछले पच्चीस छब्बीस वर्षों से कभी मंदिर-निर्माण, कभी लव-जेहाद, कभी गाय तो कभी तथाकथित देशद्रोह बनाम देशप्रेम के नाम पर जारी यह उन्पाद बढ़ता हुआ पूरे देश को एक ख़ूनी दलदल की ओर धकेलता जा रहा है। धर्म, नक़ली देशप्रेम और तमाम फ़र्ज़ी मुक़दमों को उभाड़कर पूँजीवादी लूट, पुलिसिया दमन, बेदख़ली, बेरोज़गारी, महँगाई आदि नब्बे फ़ीसदी लोगों की ज़िंदगी के बुनियादी मुद्दों को तथा सरकार की वायदा-खि़लाफ़ियों पर परदा डाल दिया गया है। जिन्हें मिलकर दस फ़ीसदी लुटेरों से लड़ना है, वे आपस में ही एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे हैं।
आखि़र मुल्क़ को इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकालने का कोई रास्ता है? क्या रोशनी की कोई लकीर कहीं दीख रही है? – हाँ, बिल्कुल। इस अँधेरे से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है – शहीदेआज़म भगतसिंह का रास्ता। नाउम्मीदों की एक ही उम्मीद बची है – क्रांति। हमें अपने महान शहीदों द्वारा छेड़ी गयी अधूरी लड़ाई को अंजाम तक पहुँचाना होगा, मेहनतकश जनता के बहादुर सपूतों को भगतसिंह के विचारों का परचम ऊँचा उठाना होगा, आम जनता के इंक़लाबी जनसंगठन बनाने होंगे तथा देशी-विदेशी लूट और जनतंत्र नामधारी धनतंत्र की क़ब्र खोदने की तैयारी करनी होगी। तभी जाकर ऐसा समाज बनेगा जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज पर उत्पादन करने वाले काबिज होंगे, फ़ैसले की ताक़त उनके हाथों में होगी। भगतसिंह ने ऐसी ही आज़ादी का सपना देखा था, जिसमें सत्ता मेहनतकश के हाथों में हो, न कि हर पाँच साल पर होने वाले चुनावी ड्रामे का जिसमें लोकतंत्र के नाम पर केवल पूँजी के घोड़ों पर सट्टा लगता हो।
आज जगह-जगह अन्याय के खिलाफ युवा सड़कों पर उतर रहे हैं लेकिन सवाल ये है कि युवाओं की बड़ी तादाद अभी भी इन संघर्षों में शामिल क्यों नहीं है? जनता की बड़ी आबादी की निष्क्रियता क्यों है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बहुत बड़ी आबादी अपनी ज़िन्दगी की तबाही-बर्बादी के कारणों से परिचित नहीं है। लोगों के इस पिछड़ेपन का फायदा शासक वर्ग उठाते हैं। वो लोगों की समस्याओं का कारण किसी अन्य धर्म के लोगों या जाति, देश आदि से जोड़ देते हैं। दंगे-फसाद करवाते हैं। लोगों की एकता टूट जाती है और वो आपस में ही लड़ने पर आमादा हो जाते हैं। आर्थिक संकट के आज के दौर में धर्म-जाति के नाम पर झगड़े केवल चुनावी राजनीति का मसला नहीं है। उससे आगे बढ़कर संघ परिवार की फासीवादी राजनीति पूरे देश में बड़े पैमाने पर पाँव पसारती जा रही है। फासीवादी जहाँ एक ओर महँगाई बढ़ाकर, जनता को मिलने वाली छूटों में कटौती करके बड़े-बड़े उद्योगपतियों के मुनाफे की दर को स्थिर रखते हैं या बढ़ाते हैं वहीं दूसरी ओर इससे असंतुष्ट होकर जनता सड़कों पर न उतर पड़े, इसके लिए लोगों में नकली राष्ट्रवाद, मन्दिर-मस्जिद, धार्मिक झगड़े, संस्कृति के नाम पर झगड़े आदि भड़काते हैं। उनके गुण्डा गिरोह जनता के लिए लड़ने वाले लोगों की क्रूर हत्यायें करते रहते हैं और वे शासन-प्रशासन को भी अपने हाथ में ले लेते हैं। इन फासीवादी ताकतों का विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही ठहरा दिया जाता हैं। यानि कि एक निरंकुश तानाशाही जनता पर थोप दी जाती है। अतीत में हिटलर और मुसोलिनी की सत्ता इसकी मिसाल हैं और वर्तमान समय में भारत में संघ परिवार।
हमें भी इन झगड़ों के कारणों को समझना होगा। इन झगड़ों का परिणाम केवल आम जनता की तबाही होती है। जबकि दोनों धर्मों के धनिको को कोई नुकसान नहीं होता। युवाओं को टी.वी चैनलों, धर्म के ठेकेदारों, नेताओं-मन्त्रियों के भ्रमजाल से बाहर आना होगा। शिक्षा, रोजगार, जैसे वास्तविक मुद्दों पर संघर्ष संगठित करना होगा। नेताओं को घेरना होगा कि जो वायदे वो चुनाव में करते हैं उसे पूरा करें। जातिवाद-भेदभाव की दीवारें गिरानी होंगी। धार्मिक कट्टरपंथियों, चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम, सिख या ईसाई, के खिलाफ हल्ला बोलना होगा। अन्धविश्वास, रूढ़ियों के विरुद्ध वैचानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करना होगा। हमें मेहनतकश जनता के वास्तविक मुद्दों पर संघर्षों से इस लड़ाई को जोड़ना होगा।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017
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