‘बिगुल’ के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार

सम्‍पादक

‘बिगुल’ का पाठक कौन है? मज़दूरों के किस हिस्से तक पहुँचना इसका मक़सद है? – इन सवालों पर अख़बार से जुड़े संगठनकर्ताओं-कार्यकर्ताओं-हमदर्दों के बीच लगातार बहस-बातचीत होती रहती है। कुछ हलक़ों से, और विशेष तौर पर बुद्धिजीवी साथियों की ओर से यह शिक़ायत भी आती है कि आम मज़दूर या औसत मज़दूरों की व्यापक आबादी को बिगुल की भाषा या लेख समझ में नहीं आते।

यह बहस महज़ एक तकनीकी-व्यावहारिक प्रश्न पर केन्द्रित नहीं है। यह मज़दूरों के बीच प्रचार और संगठन की कार्रवाई तथा मज़दूर वर्ग के राजनीतिक अख़बार के प्रति दो पहुँचों या नज़रियों का टकराव है। यह मज़दूर वर्ग की चेतना के क्रान्तिकारीकरण के प्रति दो तरह की सोचों या बोधों के बीच की बहस है।

‘बिगुल’ के प्रवेशांक से लेकर अब तक, कई बार इसके स्वरूप के बारे में यह साफ़ किया जा चुका है कि बिगुल किसी ट्रेडयूनियन का मुखपत्र कदापि नहीं है। इसका दायरा अलग है। ‘बिगुल’ का सम्पादकीय उद्देश्य है – मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई चलाना, मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलाना, मज़दूर क्रान्ति की विचारधारा एवं उसके रास्ते से उसे परिचित कराना तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन के निर्माण व गठन की दिशा में उसे प्रेरित और उन्मुख करना।

कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की यह राह है कि मज़दूर वर्ग के बीच सीधे-सीधे विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार से अख़बार को बचना चाहिए और आर्थिक संघर्षों के मुद्दों एवं कार्रवाइयों तथा आम जनवादी अधिकार के सवालों के इर्दगिर्द लेख-टिप्पणियाँ-रपटें आदि छापकर आम मज़दूरों की चेतना के स्तर को ऊँचा उठाना चाहिए। ऐसे लोगों का मानना है कि इसी प्रक्रिया में आम मज़दूरों में से कुछ वर्ग-सचेत मज़दूर और उनमें से कुछ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट तैयार होंगे। यह अर्थवाद और सामाजिक जनवाद की एक नयी मेंशेविक प्रवृत्ति है, यह एक तरह की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्ति है जो मज़दूर वर्ग की पार्टी की अपरिहार्यता के बजाय यूनियन के संघर्षों को ही मुक्ति का मार्ग मानती है या महज़ आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ने व यूनियनें खड़ी करना सर्वोपरि ”क्रान्तिकारी काम” मानती है और सोचती है कि इसी के ज़रिये मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के गठन और निर्माण का काम भी पूरा हो जायेगा। चुनावी वामपन्थी तो ऐसा सोचते ही थे, क्रान्तिकारी शिविर में भी कुछ हिस्से मज़दूर वर्ग के बीच इसी तरह से काम करने के बारे में सोच रहे हैं और अर्थवाद के समान्तर जुझारू अर्थवाद और ट्रेडयूनियन के सामने जुझारू ट्रेडयूनियनवाद का मॉडल खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे लोगों को इस विषय पर लेनिन की शिक्षाओं के ककहरे से परिचित होने की ज़रूरत है।

हमारी यह स्पष्ट सोच है कि अख़बार के ज़रिये सर्वोपरि तौर पर आज मज़दूर वर्ग के बीच विचारधारा को ले जाने की ज़रूरत है, क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई संगठित करने की ज़रूरत है, उसे सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान के मार्गदर्शन में निर्मित-गठित पार्टी की अपरिहार्य ज़रूरत से परिचित कराने की ज़रूरत है। और ऐसा मज़दूर अख़बार सिर्फ़ राजनीतिक प्रचारक ही नहीं, बल्कि ‘राजनीतिक संगठनकर्ता’ भी होगा। ‘राजनीतिक सगंठनकर्ता’ होगा वह राजनीतिक संगठनकर्ताओं के माध्‍यम से। इस अख़बार का एक-एक एजेण्ट, विक्रेता, हॉकर, प्रचारक मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी संगठनकर्ता होगा जो अख़बार के इर्द-गिर्द मज़दूरों के अध्‍ययन-मण्डल और प्रचार-दस्ते संगठित करते हुए उनके रोज़मर्रा की ज़िन्दगी और आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों में शिरक़त करेगा और इस प्रक्रिया में मज़दूरों की तमाम स्थापित बुर्जुआ और सुधारवादी ट्रेडयूनियनों के भीतर क्रान्तिकारी केन्द्रक या कोशिकाएँ या नाभिक संगठित करने का काम करेगा। अलग से ट्रेडयूनियन की एक और दूकान खोलकर अतिवामपन्थी ”बचकाना मर्ज़” का शिकार होने के बजाय, लेनिन की शिक्षा के अनुसार, ‘हर उस जगह जाना होगा, जहाँ मज़दूर वर्ग है!’ आर्थिक प्रश्नों पर संघर्ष संगठित करना राजनीतिक प्रचार एवं कार्रवाई की अनिवार्य बुनियादी पूर्व शर्त है, पर उसकी पहली मंज़िल नहीं। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच अहम मतभेद का प्रश्न यह भी था। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर क्रान्ति की विचारधारा ”बाहर से” डालनी होती है और मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार यह करते हुए सर्वहारा वर्ग की पार्टी के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करता है।

हम समझते हैं कि भारतीय पूँजीवादी जनतन्त्र में जब तक गुंजाइश बची हुई है, क्रान्तिकारी विचारधारात्मक प्रचार की कार्रवाई जमकर और व्यापक तथा खुले तौर पर चलानी ही चाहिए। जब यह गुंजाइश नहीं रहेगी, तब भी क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार जारी रहेगा, और तरीक़ों से, और रास्तों से। सेंसर या बन्दिशें इस काम को कठिन बना सकती हैं, रोक नहीं सकतीं। कभी रोक भी नहीं पायी हैं।

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में जब हम ‘बिगुल’ की विषयवस्तु पर सोचते हैं तो यह साफ़ है कि यह ज्‍़यादातर अपेक्षाकृत उन्नत चेतना वाले उन मज़दूरों को सम्बोधित होती है, जो सबसे पहले सर्वहारा क्रान्ति के विचार को आत्मसात करते हैं और जिनके बीच से मज़दूर आन्दोलन के हरावल पैदा होते हैं। ऐसे मज़दूर पाठक ज़ाहिरा तौर पर कम हैं, पर पूरे मज़दूर आन्दोलन के लिए वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं और विभिन्न स्तरों पर क्रान्तिकारी कोर उन्हीं से निर्मित होंगे। इन उन्नत चेतना के मज़दूरों के बाद दूसरा स्तर औसत मज़दूरों का है। ये मज़दूर भी क्रान्तिकारी प्रचार के दायरे में आते हैं, पर अख़बार के बहुतेरे अहम सैद्धान्तिक मसलों को, वे बिना अपने अधिक समझदार कॉमरेडों की मदद के नहीं समझ पाते। लेनिन के अनुसार, मज़दूर अख़बार इन औसत मज़दूरों की समझ के स्तर तक अपने को नीचे नहीं लाता, बल्कि उनकी समझ के स्तर को ऊपर उठाता है।

औसत से नीचे के मज़दूरों के संस्तर, अधिकांश अख़बार, बल्कि मुमकिन है कि पूरा अख़बार ही नहीं समझ सकें। पर मज़दूर अख़बार को मज़दूरों के इस संस्तर की चेतना के हिसाब से ढाला नहीं जाना चाहिए। इन तक विचारधारा, प्रचार और कार्रवाइयों के अन्य साधनों-माध्यमों से (पर्चे, पोस्टर, भाषण, नुक्कड़ नाटक-गायन आदि) पहुँचती है और ज्‍़यादातर अपने उन्नत मज़दूर साथियों के साहचर्य और संवाद से पहुँचती है। सर्वहारा वर्ग के निम्नतर संस्तरों की चिन्ता में उन्नत मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा के काम को छोड़ देने से सर्वहारा संगठनकर्ताओं की भर्ती बाधित होगी, पार्टी-निर्माण का कार्य बाधित होगा और निम्नतर संस्तर के मज़दूर भी अपनी उसी स्थिति में पड़े रह जायेंगे।

क्रान्तिकारी व्यावहारिक हों, यह भी ज़रूरी है। सिर्फ़ सबसे पिछड़े मज़दूरों के लिए, या सभी मज़दूरों के लिए एक साथ, छाती पीटना किताबी आदर्शवादी बुद्धिजीवियों की फितरत होती है, हमें इससे बचना चाहिए।

कुछ क्रान्तिकारी, सहृदय बुद्धिजीवी तो ऐसे भी मिलेंगे, जो ”आम लोगों” के लिए, एकदम आम मज़दूरों के लिए, इसीलिए लिखने पर बल देते हैं कि वे मसलों की गम्भीर समझ ही नहीं रखते। चूँकि उनकी ख़ुद की विचारधारात्मक समझ दुर्बल होती है, अत: वे ”गम्भीर” लेखों के बजाय ”लोकप्रिय” लेखन की दुहाई देते हैं। पर इस कोशिश में वे महज़ लोकरंजक, सस्ता, लिजलिजा, प्रहसनात्मक सुधारवादी लेखन या जुमलेबाज़ी ही कर पाते हैं, क्योंकि आम लोगों को समझ में आने लायक़ सही, वैज्ञानिक बात लिखने के लिए मामले की और अधिक गहरी-गम्भीर, तथा साथ ही व्यावहारिक समझ की ही ज़रूरत होती है। वरना सर्वहारा के लिए लिखा जाने वाला सारा साहित्य ”चना ज़ोर गरम” का गाना बनकर रह जायेगा। बहरहाल, इस कोटि के बुद्धिजीवी ”ज्ञान-प्रसारकों” पर अलग से फिर कभी चर्चा की जायेगी।

एक और सूचना जो हम अपने पाठकों और बिरादरों तक पहुँचाना चाहते हैं, वह यह कि आज ‘बिगुल’ की कम से कम पचहत्तर फ़ीसदी खपत मज़दूरों के बीच होती है और मुख्यत: मज़दूरों की मदद के बूते पर ही अपने पूरे ताने-बाने सहित यह आर्थिक तौर पर भी स्वावलम्बी है। मज़दूर पाठक मुख्यत: हमसे यह माँग करते हैं कि अख़बार में संघर्षों और उनकी ज़िन्दगी के हालात पर ठोस रपटें और अधिक होनी चाहिए। यह माँग हम पूरी तरह स्वीकार करते हैं और इसमें यदि कोई कमी है तो वह हमारे प्रतिनिधियों-रिपोर्टरों-एजेण्टों की और हमारी क्षमता की कमी के कारण है। विचारधारात्मक-राजनीतिक सामग्री ज्‍़यादा है या जटिल है, यह शिक़ायत आज तक सिर्फ़ कुछ एक पिछड़ी चेतना वाले मज़दूरों ने की। ट्रेडयूनियनवादी मज़दूर नेताओं ने इसे ”उग्रपन्थी” अख़बार कहा और उनका यह कहना स्वाभाविक है।

कुछ बिरादर संगठनों की यह शिक़ायत सुनने में आयी कि मज़दूर वर्ग में सीधे-सीधे विचारधारा के प्रचार की यह कार्रवाई ग़लत है। हमारे ख़याल से अपने अल्पज्ञान-सन्तोष और अहम्मन्यता के कारण ये साथी मेंशेविक विचारों से बुरी तरह ग्रस्त हैं। ”व्यक्तिवाद-विरोध” की मध्‍यवर्गीय बानगी प्रस्तुत करने का भला इससे अधिक कूपमण्डूकतापूर्ण उदाहरण क्या हो सकता है कि अपने पत्रों में लेखकों के नाम से लेख देना ये लोग व्यक्तिवादी काम मानते हैं। यानी सारा कृतित्व पूरे समूह का! यह नायाब क़दम तो लेनिन, स्तालिन और माओ की पार्टियों को भी नहीं सूझा था! दरअसल क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन के शोचनीय बिखराव ने ही आज ऐसे अधकचरे मौलिक सिद्धान्तकारों को जन्म दिया है।

लेखों की विषय-वस्तु और रूप की जटिलता व आम मज़दूरों के लिए दुरूह होने की शिक़ायत अब तक सिर्फ़ कुछ बुद्धिजीवी साथियों की ओर से आयी है, वह भी तब जबकि उनके पास मज़दूरों के बीच अख़बार लेकर जाने के कोई ख़ास अनुभव नहीं थे। या तो मज़दूर वर्ग की समझ और चेतना के बारे में ऐसे साथियों की सोच मनोगत है या फिर मज़दूर अख़बार के लक्ष्य व स्वरूप के बारे में वे स्पष्ट नहीं हैं।

‘बिगुल’ अख़बार के चरित्र, उद्देश्य, स्वरूप और इसके पाठक समुदाय से सम्बन्धित अपनी ऊपर उल्लिखित आपसी बहस को और अधिक धारदार बनाने तथा मुद्दों पर सम्पादकीय अवस्थिति को और अधिक साफ़ करने के लिए, इस बार विशेष सामग्री के तौर पर, हम लेनिन की संग्रहीत रचनाओं (अंग्रेज़ी संस्करण) के चौथे खण्ड में शामिल, 1899 के अन्त में लिखित उनके एक लेख ‘रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति’ का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं। यह लेख रूसी अर्थवादियों के पत्र ‘राबोचाया मीस्ल’ (मज़दूर विचार) के राजनीतिक प्रचार-कार्य, राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों के रिश्तों तथा अख़बार की भूमिका आदि विषयों से सम्बन्धित भ्रामक एवं ग़लत विचारों के ख़िलाफ़ लिखा गया था। लेख के प्रस्तुत हिस्से में इसी प्रश्न पर विचार किया गया है कि मज़दूरों का क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार मुख्यत: मज़दूर वर्ग के किस हिस्से के लिए होता है तथा प्रचार और संगठन के सन्दर्भ में उसकी ठोस नीति और कार्यनीति क्या होनी चाहिए?

लेनिन के महत्वपूर्ण लेख का यह अंश इस महामानव की जन्मतिथि (22 अप्रैल) के अवसर पर हमारी श्रद्धांजलि भी है। लेनिन-जन्मदिवस के अवसर पर, हम अपनी ठोस समस्याओं को सुलझाने के लिए उनसे मार्गदर्शन लेकर उन्हें याद करना चाहते हैं।

बिगुल, अप्रैल 1999


 

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