वज़ीरपुर के मौत और मायूसी के कारखानों में लगातार बढ़ते मज़दूरों की मौत के मामले!
श्रम कानूनों का नंगा उल्लंघन, मालिक और प्रशासन की मिलीभगत की बलि चढ़ते मज़दूर!
सिमरन
वज़ीरपुर का स्टील उद्योग चमचमाते बर्तन बनाने के लिए मशहूर है, यहाँ ठंडा रोला, गरम रोला, तपाई, फोड़ाई, एसिड की फैक्टरियों में हज़ारों मज़दूर दिन रात खटते हैं। भट्टी के आगे, तैयारी मशीन पर बिना किसी सुरक्षा उपकरण और गर्मी से बचाव के किसी उपकरण के बिना काम करते हुए आये दिन मज़दूर दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। अभी हाल ही में तैयारी मशीन पर काम करते हुए स्टील की पट्टी में से टुकड़ा छिटक के लगने से दो मज़दूरों की मौत हो गयी। वज़ीरपुर में काम करने वाले मज़दूरों के लिए ऐसी मौतें आम घटनाये बन गयी है। आये दिन या तो किसी मज़दूर की प्रेसिंग मशीन पर काम करते हुए उंगलियां कट जाती है, या पट्टी छिटक कर उनकी हड्डियों तक को भेद जाती है। एसिड की फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों को बिना किसी गैस मास्क या दस्तानों के नाइट्रिक एसिड जैसे घातक रसायन के साथ न सिर्फ काम करना पड़ता है बल्कि उसके ज़हरीले धुएं में सांस भी लेनी पड़ती है जिसके चलते उन्हें फेफड़ों से जुडी कई बीमारियों का शिकार होना पड़ता हैं। पोलिश के मज़दूर दिन भर कला धुंआ फेफड़ों को पिलाते हैं। वज़ीरपुर में काम करने वाले मज़दूरों के सर पर मौत की गिद्ध हमेशा मंडराती रहती है।
लेकिन इन मौतों को बड़ी आसानी से दुर्घटनाओं का नाम दे दिया जाता है और न तो मालिकों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की जाती है और न ही सुरक्षा के इंतज़ामों को पुख़्ता किया जाता है जिससे दोबारा कोई मज़दूर ऐसी मौत का शिकार न हो। यह सब पुलिस प्रशासन, श्रम विभाग और मालिकों की मिलीभगत से चलने वाला माफिया है।
अगर श्रम कानूनों को सख़्ती से लागू किया जाय और सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम फैक्टरियों में मुहैया किये जायें तो ऐसी मौतों को रोका जा सकता है। मगर न तो सरकार की नज़रों में मज़दूरों की जान की कोई कीमत है और न मालिकों के लिए मज़दूर मुनाफ़ा कमाने के साधन से ज़्यादा कुछ हैं। पूरे वज़ीरपुर में जिस तरह का काम होता है उसको मद्देनज़र रखते हुए यहाँ 1948 के कारखाना अधिनियम और खतरनाक मशीन (विनियमन) अधिनियम 1983 के प्रावधानों को सख़्ती से अमल में लाया जाना बेहद ज़रूरी है। लेकिन देश के बाकी मज़दूर इलाकों की तरह यहाँ भी 8 घण्टे के कार्य दिवस और न्यूनतम वेतन तक का कानून लागू नहीं किया जाता तो ऐसे ख़ास कानूनों को लागू करवाने की अपेक्षा सरकार से रखना बेकार हैं। कारखाना अधिनियम 1948 के मुताबिक खतरनाक परिस्तिथियों में काम करने वाले मज़दूरों को खतरे से बचाव के लिए सुरक्षा उपकरण मुहैया करना कारखानेदार की ज़िम्मेदारी है, उच्च तापमान पर चलने वाली मशीनों और भट्टियों के सामने काम करते हुए विशेष तरह के परिधान मज़दूरों को दिए जाने चाहिए जिसमे बॉडी सूट और जूतें शामिल है, ज़हरीली गैसों के आसपास काम करने वाले मज़दूरों को गैस मास्क और आँखों को सुरक्षित रखने के लिए चश्मा दिया जाना चाहिए। रिक्शा चलाने वाले मज़दूरों के लिए भी इस कानून के तहत उतना ही वज़न उठवाया जाना चाहिए जिससे उनकी जान को ख़तरा न हो और दुर्घटना होने की सम्भावना न हो लेकिन वज़ीरपुर की सड़कों पर शरीर की क्षमता से अधिक बोझ वाले स्टील की पट्टियों से लदे रिक्शे आये दिन उलटते रहते है और रिक्शा खींचने वालों को चोट पहुँचाते रहते हैं। साथ ही वज़ीरपुर में इस्तेमाल की जाने वाली सारी मशीनें और रोलर खतरनाक मशीन (विनियमन) अधिनियम 1983 के अन्तर्गत आते है जिसके तहत कारखाना मालिक को ऐसी किसी भी मशीन पर काम करवाने से पहले उसे चलाने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य है जिसे हर पाँच साल बाद श्रम विभाग द्वारा जाँच किये जाने के बाद नवीकृत किया जायेगा और अगर जाँच के दौरान यह पाया जाता है कि सुरक्षा के इंतज़ाम मुफ़ीद नहीं है तो लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा। लाइसेंस मिलने के बाद उस मशीन पर काम करने वाले मज़दूर की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी कारखाना मालिक की है। अगर कोई मज़दूर काम करते हुए दुर्घटना का शिकार होता है तो मालिक लेबर इंस्पेक्टर को उस दुर्घटना की सुचना देने के लिए बाध्य है। सुचना मिलने पर लेबर इंस्पेक्टर पहले आकर दुर्घटनास्थल की जाँच करेगा और जब तक जाँच पूरी नहीं होती तब तक फैक्टरी बंद रहेगी। अगर दुर्घटना में मज़दूर का कोई अंग कट जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है तो मालिक को उसे कानून मुआवज़ा देना पड़ेगा। कागज़ पर लिखे यह सब कानून श्रम विभाग में पड़ी किताबें में धूल खाते रहते है और फैक्टरियों में मज़दूर लगातार मारने के लिए अभिशप्त है। 31 जुलाई 2016 को जब वज़ीरपुर के ए ब्लॉक की एक फैक्टरी में तैयारी मशीन पर काम करते हुए पट्टी छिटक के लगने से एक मज़दूर की मौत हो जाती है तो सारे श्रम कानूनों को ताक पर रखते हुए फैक्टरी मालिक न तो श्रम विभाग को सुचना पहुँचाना ज़रूरी समझता है और न ही पुलिस को इत्तेलाह करता है। उल्टा वह बाकी मज़दूरों को छुट्टी दे देता है और फैक्टरी परिसर में बहे दुर्घटनाग्रस्त मज़दूर के ख़ून को पानी से साफ़ करवा देता है। पुलिस के आने पर उन्हें पैसा खिला कर आस पास जमा हुए मज़दूरों को भगा दिया जाता है। वही एक दूसरी फैक्टरी में दुर्घटनाग्रस्त हुए मज़दूर की लाश को पुलिस लावारिस घोषित कर यह एलान कर देती है कि उसे किसी ने फैक्टरी गेट पर छोड़ दिया! क्योंकि ज़्यादातर फैक्टरियों में मस्टर रजिस्टर (हाज़री और वेतन का ब्यौरा रखने वाला दस्तावेज़) में सभी मज़दूरों का नाम नहीं लिखा जाता इसीलिए किसी भी ऐसी दुर्घटना के बाद मालिक सबसे पहले उस मज़दूर को पहचानने से ही मुकर जाता है। लेबर कोर्ट में ज़्यादातर मामले ऐसे ही होते हैं जहाँ मालिक हर्ज़ाना देने से बचने के लिए मज़दूर को पहचानने से ही इनकार कर देता है। इतना सब होने के बाद न तो इन फैक्टरियों की कोई इंस्पेक्शन होती है ना ही मज़दूरों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाये जाते है। पैसे पर टिकी इस व्यवस्था में मज़दूर की जान की कीमत बेहद सस्ती है। हैरान करने वाली बात यह है कि पूरे वज़ीरपुर की फैक्टरियों की इंस्पेक्शन और जांच के लिए श्रम विभाग में इस समय केवल एक लेबर इंस्पेक्टर है जिसके अधिकारक्षेत्र में 4 और औद्योगिक इलाकें भी आते है। यानि की वज़ीरपुर की फैक्टरियों में श्रम कानून लागू होते है या नहीं इसकी जांच करने के लिए सरकार विभाग के पास अफ़सर ही नहीं है। किसी मज़दूर की मौत हो जाने पर मालिक पुलिस को और श्रम विभाग को पैसे खिलाकर उनका मुंह बंद करवा देता है और मृत मज़दूर के परिजनों को कुछ पैसे देकर मामला रफा दफ़ा कर देता है। यह सब वज़ीरपुर जैसे औद्योगिक इलाकों में होने वाली आम घटनाएं है। और इसका एक बहुत बड़ा कारण जहाँ मालिकों, पुलिस प्रशासन की मिलीभगत है वही इसके ज़िम्मेदार कहीं न कहीं मज़दूर भी है। जो अपने साथियों की रोज़ होती मौतों और दुर्घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए एकजुट नहीं होते। कानून में लिखे सभी श्रम कानून मज़दूरों द्वारा की गयी कुर्बानियों का नतीजा है। यह कानून किसी नेक दिल धन्नासेठ या पूँजीपति ने नहीं लिखे बल्कि मज़दूरों ने अपने जुझारू संघर्ष से हासिल किये थे। लेकिन इस पूरी व्यवस्था के भीतर मज़दूरों को मिली कोई भी जीत अधूरी ही रहती है इसीलिए कागज़ पर सारे प्रावधान होने के बावजूद ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है। आज भारत के विकास के लिए ‘मेक इन इन्डिया’ जैसी योजनाओं का ढोल पीटा जा रहा है लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ें मज़दूरों से उनका एक एक हक़ छीना जा रहा है। वज़ीरपुर में आये दिन होती मौतें, मौतें नहीं बल्कि हत्याएं है और मज़दूरों के ख़ून से सने हाथों से मालिक अपनी तिजोरियों में नोट भर रहे हैं।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन