सभी मोर्चों पर नाकाम मोदी सरकार और संघ परिवार पूरी बेशर्मी से नफ़रत की खेती में जुट चुके हैं!
इनके गन्दे इरादों को रोकने के लिए मेहनतकशों को एकजुट होना होगा वरना ये पूरे देश को ख़ून के दलदल में तब्दील कर देंगे
सम्पादक मण्डल
जनता से किये गये अपने किसी भी चुनावी वायदे को पूरा करने में नाकाम मोदी सरकार और उसका मालिक संघ परिवार अब पूरी नंगई और बेशर्मी के साथ फिर अपने असली खेल, यानी नफ़रत की खेती करने में जुट गये हैं ताकि आने वाले चुनावों में वोटों की फसल काटी जा सके। इस खेती को जनता के ख़ून से सींचने में कोई कमी न रह जाये इसलिए जगह-जगह संघी संगठनों के प्रशिक्षण शिविर लगाकर हिन्दू युवकों और बच्चों को मारकाट मचाने की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। रोज़गार देने, महँगाई कम करने, अपराध रोकने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने जैसे सारे दावों के हवा हो जाने के बाद उनके पास अब कोई चारा भी नहीं है कि समय से पहले ही अपना नकली सदाचारी दुपट्टा उतार फेंकें और सीधे-सीधे हिंसा और घृणा का घिनौना खेल शुरू कर दें।
वैसे तो दो साल पहले भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही समाज को बाँटने और इतिहास के पहिये को उल्टा घुमाने का चक्कर शुरू हो गया था। लेकिन दो साल में मोदी के मुखौटे के एकदम नंगा हो जाने और सरकार के विरुद्ध चौतरफा असन्तोष बढ़ते जाने के कारण अब ये काम बिल्कुल नंगई से किया जा रहा है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले चुनाव को देखकर ये पूरी तरह बौरा गये हैं। कैराना में हिन्दुओं के पलायन के झूठे मुद्दे को लेकर जिस बेशर्मी के साथ ये साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की गन्दी कोशिश में लग गये हैं उससे यह साफ है कि अगर लोगों ने एकजुट होकर इनके ख़ूनी इरादों और साज़िशों का जवाब नहीं दिया तो इस बार ये मुज़फ़्फ़रनगर से भी ज़्यादा बड़ा क़त्लेआम करायेंगे – और अगर ये अपने इरादे में कामयाब रहे, तो 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले इसी मॉडल को चारों तरफ लागू करके पूरे देश को ख़ून के दलदल में तब्दील कर देंगे।
फासीवाद वास्तव में सड़ता हुआ पूँजीवाद होता है। पूँजीवाद के आर्थिक संकट के गहराने के साथ ही पूरी दुनिया में फासिस्ट ताक़तें सर उठा रही हैं। क्योंकि संकट में फँसे पूँजीवाद के लिए अपने को बचाने का एक ही तरीका होता है, और वह है जनता को और भी कसकर निचोड़कर अपने मुनाफ़े को बनाये रखना। इसके लिए उसे ऐसे आन्दोलन की ज़रूरत होती है जो सत्ता में बैठकर डण्डे के ज़ोर पर मेहनतकशों की हड्डियाँ पूरी ताक़त से निचोड़े और दूसरी तरफ समाज में आपसी नफ़रत फैलाकर लोगों को इस क़दर बाँट दे कि वे अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में न सोच पायें और न ही इसके विरुद्ध लड़ पायें। भारत में भी यही हो रहा है। मोदी की स्टार्टअप, स्टैंडअप, मेक इन इंडिया जैसी तमाम योजनाओं और सैकड़ों करोड़ रुपये उड़ाकर विदेशों के अन्धाधुन्ध दौरों के बावजूद अर्थव्यवस्था बिल्कुल ठप है। रोज़गार पैदा नहीं हो रहा है क्योंकि पहले से लगे हुए कारख़ाने ही केवल 70 प्रतिशत क्षमता पर चल रहे हैं, नये लगने का सवाल ही नहीं। सरकारी नौकरियों में किस्तों में और गुपचुप कटौती जारी है। मज़दूरी बढ़ नहीं रही, पर महँगाई बेहिसाब बढ़ती जा रही है। मनरेगा से लेकर तमाम कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करके पूँजीपतियों को भारी छूटें और तोहफ़े दिये जा रहे हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान सब आम लोगों की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं। मज़दूर, किसान, कर्मचारी, छात्र, नौजवान, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिलाएँ – सब तंगहाल हैं और आवाज़ उठाने पर पीटे जा रहे हैं, दमन के शिकार बनाये जा रहे हैं।
मौजूदा हालात पहले से गुणात्मक तौर पर भिन्न हैं। आज हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों की ताकत बहुत अधिक बढ़ चुकी है। आज देश में इनके द्वारा बड़े स्तर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ नफ़रत का वातावरण बना दिया गया है। गौहत्या, धर्म परिवर्तन, लव जिहाद, हिन्दु धर्म की रक्षा आदि अनेकों बहानों तले अल्प संख्यकों खासकर मुस्लमानों व ईसाइयों को निशाना बनाया जा रहा है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा दलितों पर दमन बहुत बढ़ गया है। साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालों साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को जान से मारने की धमकियाँ दी जा रही हैं, जानलेवा हमले हो रहे हैं, गुलाम अली जैसे गायकों को भारत में कार्यक्रम करने से रोका जा रहा है। हर दिन अनेकों साम्प्रदायिक कार्रवाइयाँ हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा अंजाम दी जा रही हैं।
लुटेरे पूँजीपति वर्ग की सेवा में हिटलर-मुसोलनी की तर्ज पर भारत में फासीवादी सत्ता कायम करने करके जनता के सारे जनवादी अधिकार छीनने का सपना देखने वाली आर.एस.एस. की सदस्यता पिछले पाँच सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है। अगस्त 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पाँच सालों में इसकी देश के कोने-कोने में लगने वाली शाखाओं की संख्या में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। देश में रोज़ाना इसकी 51335 शाखाएँ लगती हैं। आर.एस.एस. से सम्बन्धित करीब 40 संगठनों का आधार तेज़ी से बढ़ा है। इसका राजनीतिक विंग भारतीय जनता पार्टी मुस्लमानों के गुजरात-2002 नरसंहार के कमाण्डर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुआ है। केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद संघ परिवार (आर.एस.एस. व इससे सम्बन्धित संगठनों जैसे भाजपा, बजरंग दल, ए.बी.वी.पी., सेवा भारती आदि) के फैलाम में और भी तेज़ी आई है।
संघ परिवार की इस बढ़ी सामाजिक-राजनीतिक ताकत के मुताबिक इसके काले कारनामों में भी वृद्धि हुई है। पिछले पाँच वर्षों में संघ परिवार की ताकत में तेज़ वृद्धि के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी तेज़ वृद्धि हुई है। देश भर में साम्प्रदायिक नफ़रत फैला कर भाजपा द्वारा केन्द्र सरकार पर कबजे के अगले दो महीनों में ही साम्प्रदायिक हिन्सा की 600 घटनाएँ घटित हो गई थीं। हिन्दु धर्म की रक्षा, गौरक्षा, तथाकथित लव जेहाद का विरोध, धर्म परिवर्तन विरोध आदि बहानों तले पिछले दो वर्ष में साम्प्रदायिक हिंसा का माहौल निरन्तर बढ़ता गया है। संघ परिवार ही नहीं बल्कि इसे सीधे या परोक्ष ढंग से जुड़े अनेकों हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी संगठन-ग्रुप साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहे हैं और हिंसा की घटनाओं को अंजाम दे रहै हैं। विभिन्न पार्टियों की सरकारें व पुलिस प्रशासन इनके खिलाफ़ कार्रवाई करने की बजाए इनका साथ देते हैं। भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लमानों और ईसाइयों को बेहद भय के माहौल में दिन काटने पड़ रहे हैं। खान-पान, रहन-सहन, त्यौहारों, रीति-रिवाजों सम्बन्धी उनके मन में व्यापक पैमाने पर डर फैला है। भाजपा की केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को हवा दे रही हैं। इसके विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्य मंत्रियों, सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काऊ बयान लगातार आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिकता के विषय पर कम ही बोलते हैं। उनकी चुप्पी और कभी कभी दिए जाने वाले गोल-मोल ब्यानों से हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को स्पष्ट संदेश जाता है कि वे अपने काले कामों में जोर-शोर से लगे रहें, कि उनकी खिलाफ़ कार्रवाई करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। सन् 2002 में गुजरात में मुख्यमंत्री रहने के दौरान मुस्लमानों के कत्लेआम की कमान सम्भालने वाले मोदी से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
हमें भूलना नहीं चाहिए कि देश में इस समय जो लोग देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति के ठेकेदार बने हुए हैं, ये वही लोग हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया था! ये वही लोग हैं जिन्होंने अमर शहीद भगतसिंह और उन जैसे तमा अनेक आज़ादी के मतवालों के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों के लिए मुखबिरी की थी! सत्ताधारी पार्टी और संघ परिवार के ये लोग आज देश को धर्म और जाति के नाम पर तोड़ रहे हैं और साम्प्रदायिकता की लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुँच गये हैं। इन्होंने देशभक्ति को सरकार-भक्ति से जोड़ दिया है। जो भी सरकार से अलग सोचता है, उसकी नीति की आलोचना करता है, जो भी अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाता है उसे तुरन्त ही देशद्रोही और राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है। अम्बानियों और अदानियों के टुकड़ों पर पलने वाला कारपोरेट मीडिया भी इन तथाकथित ‘’देशभक्तों’’ के सुर में सुर मिलाता है और अपने स्टूडियो में ही मुकदमा चलाकर फैसला सुना डालता है!
नकली देशभक्ति के इस गुबार में आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी के ज़रूरी मुद्दों को ढँक देने की कोशिश की जा रही है। दाल, सब्ज़ी, दवाएँ, शिक्षा, तेल, गैस, किराया-भाड़ा, हर चीज़ की कीमतें आसमान छू रही हैं और ग़रीबों तथा निम्न मध्यवर्ग के लोगों का जीना मुहाल हो गया है। ‘विकास’ के लम्बे -चौड़े दावों में से कोई भी पूरा होना तो दूर की बात है, पिछले दो साल में खाने-पीने, दवा-इलाज और शिक्षा जैसी बुनियादी चीज़ों में बेतहाशा महँगाई, मनरेगा और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में भारी कटौती से आम लोग बुरी तरह तंग हैं। मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने के लिए मोदी सरकार संसद में कई क़ानून पास करवाने की तैयारी कर रही है। दूसरी ओर, अम्बानी, अदानी, बिड़ला, टाटा जैसे अपने आकाओं को मोदी सरकार एक के बाद एक तोहफे़ दे रही है! तमाम करों से छूट, लगभग मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, ब्याजरहित कर्ज़ और मज़दूरों को मनमाफिक ढंग से लूटने की छूट दी जा रही है। देश की प्राकृतिक सम्पदा और जनता के पैसे से खड़े किये सार्वजनिक उद्योगों को औने-पौने दामों पर उन्हें सौंपा जा रहा है। ‘स्वदेशी’, ‘देशभक्ति’, ‘राष्ट्रवाद’ का ढोल बजाते हुए सत्ता में आये मोदी ने अपनी सरकार बनने के साथ ही बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों समेत तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इजाज़त दे दी है। ‘मेक इन इण्डिया’ के सारे शोर-शराबे का अर्थ यही है कि ‘आओ दुनिया भर के मालिको, पूँजीपतियो और व्यापारियो! हमारे देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को बेरोक-टोक जमकर लूटो!’
अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डावाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनियों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।
फासिस्टों के विरुद्ध धुआँधार प्रचार और इस संघर्ष में मेहनतकश जनता के नौजवानों की भरती के साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि फासिस्ट शक्तियों ने आज राज्यसत्ता पर कब्ज़ा करने के साथ ही, समाज में विभिन्न रूपों में अपनी पैठ बना रखी है। इनसे मुकाबले के लिए हमें वैकल्पिक शिक्षा, प्रचार और संस्कृति का अपना तंत्र विकसित करना होगा, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक स्तर पर शिक्षित-संगठित करना होगा और मध्य वर्ग के रैडिकल तत्वों को उनके साथ खड़ा करना होगा। संगठित क्रान्तिकारी कैडर शक्ति की मदद से हमें भी अपनी खन्दकें खोदकर और बंकर बनाकर पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच मोर्चा बाँधकर चलने वाले लम्बे वर्गयुद्ध में पूँजी के भाड़े के गुण्डे फासिस्टों से मोर्चा लेना होगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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