कश्मीर में बाढ़ और भारत में अंधराष्ट्रवाद की आँधी
आनन्द सिंह
दशकों से भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के दमन-उत्पीड़न और पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित इस्लामिक आतंकवाद का कहर झेल रही जम्मू एवं कश्मीर की अवाम को सितम्बर के महीने में एक नये क़िस्म के कहर का सामना करना पड़ा। सितम्बर के पहले सप्ताह में जम्मू एवं कश्मीर में आये सैलाब के बाद आयी बाढ़ में लगभग 300 लोग जान से हाथ धो बैठे, लाखों लोग बेघर हो गये और ग्रामीण क्षेत्रों मे हज़ारों हेक्टेयर की फसलें तबाह हो गयीं। इस आपदा की भीषणता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें गाँव के गाँव डूब गये और भूस्खलन से कई गाँवों का तो नामोनिशान भी नहीं बचा। श्रीनगर के गली-मुहल्लों में हफ्तों तक पानी का जमावड़ा लगा रहा। कई दिनों तक लोग अपने घरों की ऊपरी मंजिलों और छतों पर या अस्थायी कैंपों मे भोजन-पानी के अभाव में फँसे रहे। संचार व्यवस्था के पूरी तरह से ठप्प हो जाने की वजह से लाखों लोग कई दिन तक पूरी दुनिया से कटे रहे। जम्मू एवं कश्मीर सरकार के अनुसार इस आपदा में कुल 1 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। सितम्बर के अन्त तक हालाँकि श्रीनगर के अधिकांश इलाकों से पानी का जमावड़ा हट चुका था, परन्तु भोजन तथा पीने के पानी की किल्लत और बीमारी-महामारी का ख़तरा लगातार बना हुआ है। स्थिति सामान्य होने में महीनों लग सकते हैं।
किसी देश के एक हिस्से में इतनी भीषण आपदा आने पर होना तो यह चाहिए कि पूरे देश की आबादी एकजुट होकर प्रभावित क्षेत्र की जनता के दुख-दर्द बाँटते हुए उसे हरसंभव मदद करे। साथ ही ऐसी त्रासदियों के कारणों की पड़ताल और भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के तरीकों पर गहन विचार-विमर्श होना चाहिए। परन्तु कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानने का दावा करने वाले भारत के हुक़्मरानों नें इस भीषण आपदा के बाद जिस तरीके से अंधराष्ट्रवाद की आँधी चलायी वह कश्मीर की जनता के जले पर नमक छिड़कने के समान था। भारतीय सेना ने इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए बुर्जुआ मीडिया की मदद से अपनी पीठ ठोकने का एक प्रचार अभियान सा चलाया जिसमें कश्मीर की बाढ़ के बाद वहाँ भारतीय सेना द्वारा चलाये जा रहे राहत एवं बचाव कार्यों का महिमामण्डन करते हुए कश्मीर में भारतीय सेना की मौजूदगी को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की गयी। मीडिया ने इस बचाव एवं राहत कार्यों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया मानो भारतीय सेना राहत और बचाव कार्य करके कश्मीरियों पर एहसान कर रही है। यही नहीं कश्मीरियों को ‘‘पत्थर बरसाने वाले’’ एहसानफ़रामोश क़ौम के रूप में भी चित्रित किया गया। कुछ टेलीविज़न चैनलों पर भारतीय सेना के इस ‘‘नायकत्वपूर्ण’’ अभियान को एक ‘‘ऐतिहासिक मोड़बिन्दु’’ तक करार दिया गया और यह बताया गया कि इस अभियान से सेना ने कश्मीरियों का दिल जीत लिया और अब उनका भारत से अलगाव कम होगा।
परन्तु कश्मीर की स्थानीय मीडिया में स्थानीय लोगों के हवाले से तथा सोशल मीडिया पर कश्मीरियों की जो राय आयी, उनसे एकदम अलग तस्वीर उभर कर आती है। इस तस्वीर में यह साफ़ दिखता है कि इस आपदा के प्रबंधन, सेना की भूमिका एवं विशेष रूप से भारतीय मीडिया की अतिरंजनापूर्ण कवरेज ने कश्मीरियों के भारत से अलगाव को कम करने की बजाय बढ़ाया ही है। सैन्य बलों ने जिस तरीके से राहत एवं बचाव कार्यों में आम कश्मीरियों की बजाय सैलानियों, नेताओं, नौकरशाहों तथा वीआईपी लोगों को बचाने को प्राथमिकता दी, उससे भी आम कश्मीरियों में असंतोष की भावना पनपी। तमाम आम कश्मीरियों का यह कहना है कि सेना के हेलीकाप्टर उनके छतों के ऊपर से गुज़रे लेकिन उनको गुहार लगाने के बावजूद उन्होंने उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी क्योंकि आम कश्मीरियों को बचाना सेना की प्राथमिकता में नहीं था। जहाँ एक ओर भारतीय मीडिया में राहत एवं बचाव कार्यों में सेना की बहादुरी का गौरवगान चल रहा था, वहीं दूसरी ओर कश्मीरियों का कहना था कि आम कश्मीरियों के लिए अधिकांश राहत, बचाव एवं पुनर्वास का काम स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने किया। यंग कश्मीर वालिंटियर एलायंस (वाईकेवीएल) नामक कश्मीरी स्वयंसेवी संस्थाओं के एक समूह ने अपने अध्ययन में बताया है कि इस बाढ़ में 96 फ़ीसदी लोगों को स्थानीय स्वयंसेवकों ने बचाया और बाकी 4 फीसदी लोगों को सेना और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) ने बचाया। इस संस्था ने अपने अध्ययन में यह भी पाया कि 92.3 फीसदी पुनर्वास केन्द्रों को भोजन सामग्री स्थानीय स्वयंसेवक समुदायों ने पहुँचायी। राहत एवं बचाव कार्यों में नौका, टेंट, खाद्य एवं पेय सामग्री की किल्लत के मद्देनज़र कश्मीरियों का मानना था कि भारत को अन्तररष्ट्रीय मदद स्वीकार करनी चाहिए। परन्तु भारत सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानते हुए किसी भी प्रकार की अन्तरराष्ट्रीय मदद से साफ़ इन्कार कर दिया जिसकी वजह से भी कश्मीरियों में रोष देखा गया। नौका की किल्लत को देखते हुए स्थानीय स्वयंसेवक दस्तों ने लकड़ी, प्लास्टिक, पानी के खाली टैंक, ट्यूब आदि जो कुछ भी तैर सकता था उसको नौका के रूप में इस्तेमाल करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा जान-माल की रक्षा करने का भरसक प्रयास किया। नौकाओं एवं अन्य सामग्रियों की किल्लत के बावजूद भारतीय मीडिया के तमाम पत्रकार सेना की नौकाओं एवं हेलीकाप्टर में बैठकर रिपोर्टिंग करते हुए पाये गये जिससे कश्मीरियों के इस आरोप को बल मिलता है कि भारतीय सेना ने इस मौके का इस्तेमाल अपनी छवि बनाने में किया और भारतीय शासक वर्ग ने इसका इस्तेमाल पूरे देश में अंधराष्ट्रवाद की आँधी चलाने में किया।
कौन ज़िम्मेदार है इस भयंकर आपदा का?
पिछले साल केदारनाथ में आयी तबाही की तरह ही इस भीषण आपदा की शुरुआत भी बादल फटने की घटना से हुई जिसमें बेहद कम समयान्तराल में अत्यधिक वर्षा (सितम्बर के पहले सप्ताह में ही श्रीनगर में 500 मिमी वर्षा हुई जबकि वहाँ की औसत मासिक वर्षा 56.4 मिमी है) होने से नदियों एवं जलाशयों में पानी भर आया और तटबंधों और डूब क्षेत्र को पार करता हुआ रिहायशी इलाकों में फैल गया। हिमालय के समूचे क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में भीषण वर्षा को पर्यावरणविद् जलवायु परिवर्तन की परिघटना से जोड़कर देख रहे हैं जो अंधाधुंध पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति है। इसके अतिरिक्त हिमालय के क्षेत्र में बेतहाशा तरीके से जंगलों की कटाई की वजह से वर्षा का पानी पहाड़ के ढलान पर तेज़ी से नीचे की घाटियों की ओर आता है और बड़े पैमाने पर तबाही मचाता है। साथ ही जंगलों की बेतहाशा कटाई से पिछले कुछ वर्षों में भूस्खलन की घटनाओं में भी जबर्दस्त बढ़ोतरी देखने में आयी है जिसकी वजह से निचले इलाकों में बाढ़ की विभीषिका कई गुना बढ़ जाती है। इसके अलावा कश्मीर में आयी इस आपदा की भीषणता का एक प्रमुख कारण तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रखकर पिछले कुछ दशकों में झेलम नदी के डूब क्षेत्रों एवं डल, अंचल और वूलर जैसी झीलों के किनारे अंधाधुंध रिहायशी एवं वाणिज्यिक निर्माण कार्य भी रहा। श्रीनगर की प्रसिद्ध डल झील अपने मूल आकार का एक बटा छठा हिस्सा ही रह गयी है। श्रीनगर जैसे शहर के अनियोजित विकास की वजह से जहाँ एक ओर एक दूसरे से जुड़े हुए जलाशयों द्वारा जलनिकासी की प्राकृतिक संरचना तबाह हुई वहीं दूसरी ओर जलनिकासी का वैकल्पिक तरीका नहीं विकसित किया गया जिसकी वजह से श्रीनगर में बाढ़ का पानी लंबे समय तक जमा रहा।
कश्मीर घाटी में अनियंत्रित और अनियोजित विकास के मद्देनज़र लंबे अरसे से पर्यावरणविद घाटी में इस किस्म की आपदा आने की चेतावनी देते रहे हैं। नियोजित शहरी विकास एवं जलाशयों तथा नहरों की हिफ़ाजत करके श्रीनगर जैसे शहर में इस विभीषिका की भयावहता को कम किया जा सकता था। परन्तु जलाशयों एवं नहरों के किनारे एवं नदियों के डूब क्षेत्र में अंधाधुंध रिहायशी, वाणिज्यिक एवं सरकारी निर्माण कार्य को बेरोकटोक जारी रहने दिया गया। कई नहरों को पाट कर उनपर सड़कें बनायी गयीं जिससे झेलम नदी की बाढ़ झेलने की श्रीनगर शहर की क्षमता काफ़ी कम हुई। वर्ष 2010 में बाढ़ के ख़तरे को कम करने के लिए उत्तरी कश्मीर की वूलर झील की काई साफ़ करने की एक योजना भी बनायी गयी थी। परन्तु जैसा कि अन्य क्षेत्रों में होता है, यह योजना भी सिर्फ़ सरकारी फाइलों की धूल फांकती रही। झेलम नदी पर बाढ़ की चेतावनी देने की कोई व्यवस्था उपलब्ध न होने की वजह से भी इस आपदा की आकस्मिकता बढ़ी। पर्यावरणविदों द्वारा ऐसी आपदा की चेतावनी दिये जाने के बावजूद जम्मू एवं कश्मीर सरकार व केन्द्र सरकार ऐसी आपदा से निपटने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। पिछले कुछ दशकों से भारत सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर को महज़ सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखते हुए अपना पूरा ध्यान आतंकवादियों से निपटने में लगाया और यही वजह थी कि उसके पास ऐसी आपदा से निपटने की कोई योजना नहीं थी। जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने भी माना कि घाटी में बाढ़ आने के शुरुआती कुछ दिनों में तो मानो वहाँ का सिविल प्रशासन बाढ़ के पानी में बह सा गया था।
जम्मू एवं कश्मीर की बाढ़ के बाद भारतीय बुर्जुआ मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने यह उम्मीद बाँधनी शुरू कर दी की भारतीय सेना के राहत और बचाव कार्यों से कश्मीरी जनता भारत पर फिदा हो जायेगी और इस प्रकार यह राहत और बचाव कार्य कश्मीर में भारत के लिए ‘टर्निंग प्वाइंट’ साबित होगा। लेकिन इस किस्म के बचकाने विश्लेषण भारत के टीवी दर्शक मध्यवर्ग को आत्ममुग्ध करने से ज़्यादा और कुछ नहीं करते। भारतीय मध्यवर्ग सेना के इस मानवीय चेहरे की तारीफ़ करता नहीं अघाता। परन्तु यदि कश्मीरियों की बात की जाये तो उनमें सेना के बचाव कार्यों में कुलीनों और पर्यटकों का तवज्जो देने और अन्तर्राष्ट्रीय मदद न स्वीकार करने से असंतोष ही देखने में आया। बाढ़ से पीड़ितों के पुनर्वास का कोई इंतज़ाम न होता देख कश्मीरियों की ग़रीब आबादी में खासतौर पर गुस्सा देखने में आया। जिन लोगों के पास बहुमंजिला घर थे वे तो अपने घरों की ऊपरी मंजिलों और छतों पर चले गये, लेकिन झोपड़पट्टी में रहने वाले ग़रीबों की तो मानो इस बाढ़ ने पूरी दुनिया ही उजाड़ दी। सेना के खि़लाफ़ असंतोष इस हद तक था कि बचाव और राहत कार्य के दौरान भी कश्मीर में कुछ स्थानों पर स्थानीय लोगों द्वारा सेना का पत्थरों से स्वागत किया गया। ज़ाहिर है कि पिछले 67 सालों लगातार बढ़ रहे कश्मीरियों के भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता से अलगाव को एक प्राकृतिक आपदा में राहत एवं बचाव कार्य करके उसका ढिंढोरा पीटने से ख़त्म नहीं किया जा सकता।
कश्मीर में बाढ़ की त्रासदी के बाद वहाँ की आम ग़रीब जनता ने भारतीय राज्य के भेदभावपूर्ण आचरण के साथ ही साथ तथाकथित अलगाववादी नेताओं की उनसे दूरी भी देखी है। कश्मीरियों की जो ग़रीब आबादी भारी पैमाने पर बाढ़ के बाद बेघर हुई है उनको अब अस्थायी पुनर्वास केन्द्रों से निकाल बाहर किया जा रहा है और कश्मीरियों के रहनुमा होने का दावा करने वाले ये नेता भी उनको पूछ लेने नहीं आ रहे हैं। ये नेता भी भारतीय सेना की ही तरह ही आम जनता के दुखों-तकलीफों को बाँटने की बजाय राहत कार्यों के नाम पर फोटो खिंचवाने और मीडिया प्रबंधन में ही मशगूल रहे जिससे कश्मीरी आबादी के एक हिस्से में उनके खि़लाफ़ भी गुस्सा देखा गया।
एक बात साफ़ है जहाँ एक ओर पिछले 67 सालों के दौरान भारतीय राज्यसत्ता के दमन-उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी की वजह से कश्मीर की जनता का भारतीय राज्यसत्ता से बढ़ता अलगाव कश्मीर की हालिया बाढ़ के बाद कम होने की बजाय बढ़ा ही है वहीं दूसरी ओर तथाकथित अलगाववादी भी इस बाढ़ में आम ग़रीब कश्मीरी आबादी से कटे नज़र आये। इन अलगाववादी नेताओं ने पहले ही कश्मीरी अवाम के न्यायपूर्ण संघर्ष को इस्लामिक कट्टरपंथ के खड्ड में झोंककर उसे पहले ही काफ़ी नुकसान पहुँचाया हैं। कश्मीर की बाढ़ से पहले ही यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि कश्मीरी अवाम की ज़िन्दगी में बेहतरी तभी आ सकती है जब मज़हबी कट्टरपंथियों को किनारे लगाकर उनके बीच से ही एक धर्मनिरपेक्ष रैडिकल नेतृत्व खड़ा हो जो कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के संघर्ष को भारत के सर्वहारा के पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष से जोड़ सके। कश्मीर की बाढ़ के बाद अब इसमें कोई शक़ नहीं रह गया है कि यदि समय रहते कश्मीरी जनता के संघर्ष को समूचे भारत की सर्वहारा आबादी के पूँजीवाद विरोधी संघर्षों से जोड़ कर बेहिसाब मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था को धूल में न मिलाया गया तो यह व्यवस्था कश्मीर जैसी खूबसूरत वादियों को तबाह कर देगी।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2014
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