एक नौजवान की पुलिस द्वारा हत्या से फट पड़ा ग्रीस के छात्रों-नौजवानों-मज़दूरों में वर्षों से सुलगता आक्रोश 

कपिल

greek-pic-1दिसम्बर के पहले सप्ताह में 15 वर्षीय किशोर एलेक्सी की पुलिस द्वारा हत्या के विरोध में ग्रीस (यूनान) के छात्र-नौजवान, मज़दूर और आम नागरिक सड़कों पर उतर आये। ग्रीस की राजधानी एथेंस सहित देश के सभी प्रमुख शहरों में हज़ारों-हज़ार लोगों के उग्र प्रदर्शन और हड़तालें हुईं। लोगों ने पुलिस और दंगारोधी बलों के हमलों का जमकर मुकाबला किया। छात्रों-नौजवानों ने लगभग 600 स्कूल-कॉलेजों पर क़ब्ज़ा कर लिया और सड़कों पर आमने-सामने की लड़ाई में सशस्त्र बलों को नाकों चने चबवा दिये।

दरअसल एलेक्सी की हत्या सिर्फ एक चिंगारी थी जिसने पूरे ग्रीस में मेहनतकश और छात्र-युवा आबादी के बीच सुलग रहे गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे दिया। ग्रीस में सामाजिक असन्तोष पैदा होने के संकेत पहले ही मिलने लगे थे। नवउदारवादी नीतियाँ लागू करने के परिणामस्वरूप आबादी का बड़ा हिस्सा खराब जीवन स्तर झेलने पर मजबूर है। बेरोज़गारी, कम तनख़्वाहें, काम करने की ख़राब स्थितियाँ, बढ़ती महगाँई, पुलिस का दमनकारी रवैया और भ्रष्ट सरकारों के बीच आम जनता का जीवन बद से बदहाल होता जा रहा है। देश की इन स्थितियों से सबसे ज़्यादा निराशा युवावर्ग के अन्दर पैठ गयी है। वास्तव में युवाओं को अपने भविष्य की अन्धकारमय तस्वीर ही नज़र आ रही है। मन्दी के दौर ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। हालात ये हैं कि ग्रीस, फ्रांस, इटली, स्पेन, पोलैण्ड, तुर्की आदि कई यूरोपीय देशों में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है और मेहनतकश आबादी का जीवन ख़राब होता जा रहा है। फ्रांस में 2005 में हुए दंगे ऐसे ही हालात की उपज थे। यही वजह रही कि ग्रीस की घटना ने सभी यूरोपीय राष्ट्राध्यक्षों के चेहरों पर चिन्ता की लकीरें पैदा कर दी हैं।

पूँजीवाद का संकट बढ़ने के साथ यूरोप के अनेक देशों में जनअसन्तोष बार-बार कई रूपों में प्रकट हो रहा है। बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, अशिक्षा आदि के कारण तीसरी दुनिया के देशों में ही नहीं बल्कि अमेरिका और यूरोप के देशों समेत पूरी दुनिया की मेहनतकश आबादी और जागरूक छात्रों-नौजवानों में असन्तोष बढ़ रहा है। हालात यह हैं कि एक आम सी लगने वाली घटना भी जनता के असंतोष के उभरने का सबब बन जा रही है। ग्रीस में भी ऐसा ही हुआ।

ग्रीस में बेरोज़गारी एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। 15-24 वर्ष के हर 4 में से 1 नौजवान के पास काम नहीं है। बेरोज़गारी के कारण 25 वर्ष से कम उम्र की 25 प्रतिशत युवा आबादी गरीबी की दर से नीचे जीवन बिता रही है। 30 साल से कम आयु के 28 प्रतिशत  युवा विश्वविद्यालय से स्नातक करके नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। युवाओं में बेरोज़गारी का आधिकारिक आँकड़ा 21.4 प्रतिशत का है। हालाँकि इसमें उन युवाओं को शामिल नहीं किया गया है जो अभी भी अपने परिवारों के साथ रह रहे हैं।

greek-pic-2काम करने वाले लोगों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। 29 वर्ष से कम उम्र के युवा कामगारों की औसत तनख्वाह मात्र 964 यूरो है। जबकि सभी उम्र के कर्मचारियों को मिलाकर औसत आय 789 यूरो है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 55 प्रतिशत नौजवान कर्मचारी ही अपना गुज़ारा ठीक से कर पाते हैं। ज़्यादातर स्नातकोत्तर युवाओं को ग्रीस की न्यूनतम मज़दूरी 600 यूरो प्रति माह मिलती है। इतनी कम तनख़्वाह होने की वजह से कई युवाओं को दो-दो नौकरियाँ करनी पड़ रही हैं। इसी वजह से इस आबादी को “जनरेशन 600” नाम भी दे दिया गया है।

अर्थव्यवस्था की स्थिति भी गम्भीर है। सामाजिक सेवाओं के ख़र्च में कटौती करने और जनता के लिए लाभकारी कई बुनियादी सेवाओं का निजीकरण करने के बावजूद ग्रीस की ऋणग्रस्तता (सकल घरेलू उत्पाद की 94 प्रतिशत) यूरोपीय देशों में केवल इटली से कम है। पिछले सात वर्षों में व्यक्तिगत घरेलू ऋणग्रस्तता 16.8 से 93.3 बिलियन यूरो तक पहुँच गयी है। निजीकरण की वजह से हज़ारों नौकरियाँ समाप्त हो गयी हैं। फिलहाल सरकारी स्वामित्व वाले ओलिम्पिक एयरलाइन को बेचने की तैयारी चल रही है। ज़रूरी सामानों की क़ीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। पिछले जून में मुद्रास्फीति की दर 10 सालों के अधिकतम स्तर 4.9 प्रतिशत तक पहुँच गयी। जनरल कन्फेडरेशन ऑफ ग्रीस वर्कर्स का कहना है कि आने वाले साल में 1,00,000 नौकरियाँ खत्म हो सकती हैं और बेरोज़गारी की दर 5 प्रतिशत बढ़ सकती है। भयंकर बेरोज़गारी, महँगाई के साथ-साथ भ्रष्ट सरकारों ने भी ग्रीस को इस हालत में पहुँचा दिया है।

ग्रीस की राजनीति में शुरू से केरामानलिस और पापेन्द्रयू परिवारों का वर्चस्व रहा है। ग्रीस के प्रधानमन्त्री कोस्तास केरामानलिस की न्यू डेमोक्रेसी नामक दक्षिणपन्थी पार्टी फिलहाल सत्ता में है। जबकि पासोक नाम की समाजवादी पार्टी के आन्द्रियास पापेन्द्रयू राष्ट्रपति हैं। पासोक नवउदारवादी नीतियों की समर्थक पार्टी है। संशोधनवादी ग्रीक कम्युनिस्ट पार्टी भी भारत के नकली वामपंथियों की तरह पासोक की नीतियों का समर्थन कर रही है।

इन पार्टियों का जनविरोधी चरित्र इस संघर्ष के दौरान खुलकर सामने आ गया। प्रदर्शन, हड़ताल और सड़कों पर सशस्त्र बलों का सामना कर रहे छात्रों- नौजवानों-मज़दूरों को किसी पार्टी ने अराजकतावादी कहा तो किसी ने ‘हिंसा करने वाले अपराधी’। सरकार और विपक्ष दोनों ने इस संघर्ष को उन्मादी भीड़ की कार्रवाई बताते हुए नैतिक रूप से तोड़ने की भी कोशिश की। लेकिन लोगों का संघर्ष चलता रहा। इस घटना की ख़ास बात यह भी है कि लोगों ने तमाम अवसरवादी और गद्दार राजनीतिक संगठनों और पार्टियों को किनारे कर कमान खुद अपने हाथों में ले ली थी। भले ही यह संघर्ष कुचल दिया गया हो पर इसने संकेत दे दिया कि सतह के नीचे लावा सुलग रहा हैं जो कभी भी मौका पाकर फूट सकता है।

 

 

बिगुल, जनवरी 2009

 


 

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