हरसोरिया हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों की हड़ताल
आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

राजकुमार 

पिछले दिनों गुड़गाँव के ओरियण्ट क्राफ्ट और फिर ओरियो ग्राण्ट कॉम्प्लेक्स में कम्पनी मैनेजमेण्ट और ठेकेदारों की तानाशाही और गुण्डागर्दी के विरोध में हुए मज़दूरों के उग्र प्रदर्शन दबा दिये गये मगर मज़दूरों का गुस्सा अन्दर ही अन्दर सुलग रहा है। इसी बीच उद्योग विहार स्थित मेडिकल उपकरण बनाने वाली एक कम्पनी हरसोरिया हेल्थकेयर के मज़दूर पिछले डेढ़ महीने से हड़ताल पर हैं। पिछले 27 अप्रैल से हड़ताली मज़दूर श्रम कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे हैं। पिछले कुछ समय से गुड़गाँव क्षेत्र में जगह-जगह मज़दूर अपने साथ होने वाले अन्याय-अत्याचार के ख़िलाफ़ बार-बार आवाज़ उठा रहे हैं। मगर हर संघर्ष पर ख़ुश होकर तालियाँ पीटने और मज़दूर वर्ग के जाग उठने का सर्टिफिकेट जारी करने के बजाय थोड़ा ठहरकर यह सोचना ज़रूरी है कि अलग-अलग हो रहे इन संघर्षों-हड़तालों और आन्दोलनों में मज़दूरों को कितनी कामयाबी मिल पा रही है? क्या लड़ने का यही एक रास्ता है? क्या एक जैसे हालात में शोषण और दमन के शिकार मज़दूर, साझा माँगों पर एक साथ मिलकर कोई साझा और बड़ी लड़ाई नहीं लड़ सकते?

मगर पहले हम हरसोरिया में चल रही हड़ताल की पृष्ठभूमि और इस कम्पनी में पिछले वर्ष भी हुई हड़ताल पर एक नज़र डाल लेते हैं। हरसोरिया में मार्च 2010 में मज़दूरों ने अपनी ट्रेड यूनियन बनाई थी जिसका पंजीकरण मार्च 2011 में हो गया था। इसके कुछ दिन बाद ही कुछ मज़दूर नेताओं पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर बर्खास्त कर दिया गया। इसके विरोध में मज़दूरों ने अप्रैल 2011 में हड़ताल की जिस दौरान मज़दूरों को पुलिस और गुण्डों द्वारा मारा-पीटा और डराया-धमकाया गया मगर मज़दूर अड़े रहे। लेकिन हड़ताल की अगुवाई कर रही हिन्द मज़दूर सभा (एच.एम.एस.) ने समझौता करवाने के बाद कानूनी लड़ाई का रास्ता दिखाकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करके काम पर वापस भेज दिया था। इसके बाद एक साल से मज़दूर कोर्ट के चक्कर लगा रहे थे।

जनवरी 2012 में कम्पनी मैनेजमेण्ट ने उत्पादन में 35 प्रतिशत की कमी होने की बात कहकर मज़दूरों पर काम धीमा करने, दूसरे मज़दूरों को ओवरटाइम करने से रोकने और अनुशासनहीनता का आरोप लगाया और सभी मज़दूरों का नवम्बर 2011 से जनवरी 2012 तक 35 प्रतिशत वेतन काट लिया। इसी बीच नवम्बर 2011 में एक मज़दूर को कम्पनी से बर्खास्त कर दिया गया, दिसम्बर 2011 की शुरुआत में दो और स्थाई मज़दूरों को बर्खास्त किया गया और 17 दिसम्बर 2011 को 13 मज़दूरों को निलम्बित कर दिया गया। मैनेजमेण्ट के साथ वार्ता के बाद भी निलम्बित 12 मज़दूरों को वापस नहीं लिया गया और पिछले अप्रैल में इन 12 में से 3 मज़दूरों को बर्खास्‍त कर दिया गया।

एक के बाद एक मैनेजमेण्ट की इस अन्धेरगर्दी से तंग आकर पिछले 24 अप्रैल को मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया और कम्पनी के अन्दर ही धरने पर बैठ गये। अगले ही दिन कम्पनी ने 21 और स्थाई मज़दूरों को काम से निकाल दिया और 109 मज़दूरों को सस्पेण्ड कर दिया। 27 अप्रैल को मैनेजमेण्ट मज़दूरों को कम्पनी परिसर से बाहर निकलवाने के लिए कोर्ट से आदेश ले आया और पुलिस तथा कम्पनी के गुण्डों की मदद से अन्दर बैठे मज़दूरों को ज़बरदस्ती कम्पनी से बाहर निकाल दिया। कम्पनी से 50 मीटर दूर बैठने के बाद भी गुण्डों ने पुलिस के सामने ही मज़दूरों के साथ मारपीट की और पुलिस खड़ी देखती रही। इसके बाद सभी मज़दूर 27 अप्रैल से श्रम कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे हुए हैं। मज़दूरों को बाहर निकालने के दूसरे दिन से कम्पनी ने कुछ नये मज़दूरों को लाकर काम शुरू करवाने की अफवाह फैला दी। पुराने मज़दूरों द्वारा नये मज़दूरों को समझाकर काम पर न जाने देने के बाद प्रबन्धन द्वारा लगभग 25 नये मज़दूरों को कम्पनी के अन्दर ही रहने-खाने और काम करने का इन्तज़ाम करने की बात भी पता चली है। तब से अब तक लगभग 650 मज़दूर लेबर आफिस पर धरने पर बैठे हैं, लेकिन आन्दोलन की अगुवाई कर रही हिन्द मज़दूर सभा का कोई बड़ा नेता मज़दूरों की माँगों पर आगे की कार्रवाई की ना तो कोई योजना दे रहा है, और ना ही कम्पनी पर दबाव बनाने का कोई प्रयास ही कर रहा है। दूसरी तरफ श्रम अधिकारी और मैनेजमेण्ट मज़दूरों की कोई बात सुनने के लिए ही तैयार नहीं हैं।

हड़ताल को एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी हड़ताल के पक्ष में व्यापक समर्थन जुटाने की बात तो दूर, हरसोरिया कम्पनी के आसपास मौजूद दूसरे कारख़ानों के मज़दूरों तक को हड़ताल की कोई जानकारी तक नहीं है। और न ही एच.एम.एस. ने मज़दूरों के सामने इस प्रकार की कोई योजना ही रखी है। यहाँ काम करने वाले ज्यादातर मज़दूर उद्योग विहार के आसपास स्थित सरौल, मौलाहेड़ा और कापसहेड़ा की बस्तियों में रहते हैं, जहाँ लाखों की मज़दूर आबादी मौजूद है। ये मज़दूर भी उन्हीं परिस्थितियों में काम करते हैं जैसे कि हरसोरिया के मज़दूर और ज्यादातर ठेका-कैज़ुअल-दिहाड़ी मज़दूरों की यह पूरी असंगठित आबादी कम्पनियों में खुले शोषण और उत्पीड़न की शिकार है। गुड़गाँव के हज़ारों कारख़ानों में से मुश्किल से सवा सौ में यूनियन है और यूनियन की माँग हर जगह एक अहम मुद्दा है। मगर आन्दोलन के नेतृत्व ने कभी भी मज़दूरों की व्यापक आबादी का समर्थन जुटाने की कोई कोशिश नहीं की।

हड़ताल के शुरू से ही यूनियन के पास न तो कोई योजना दिखती है और न ही संघर्ष को जुझारू ढंग से चलाकर कम्पनी पर दबाव बनाने का कोई ठोस कार्यक्रम उसके पास रहा है। धरने पर बैठे हरसोरिया के मज़दूरों ने बताया कि एक महीने में अभी तक सिर्फ एक बार गेट मीटिंग की गयी है। मज़दूरों का कहना है कि यूनियन के नेताओं के पास आगे की कोई योजना नहीं है और वे मैनेजमेण्ट से अपनी कोई भी माँग मनवाने के लिए दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं। दूसरी तरफ श्रम अधिकारियों, हरियाणा के श्रम मंत्री और पुलिस मज़दूरों पर लगातार दबाव बनाये हुए हैं कि हड़ताल को समाप्त कर दिया जाये और निकाले गये मज़दूरों को छोड़कर बाकी मज़दूर वापस काम पर चले जायें, नहीं तो उन्हें ज़बरदस्ती हटा दिया जायेगा। बिना किसी योजना के चल रहे आन्दोलन के कारण पैदा हुई निराशा का ही परिणाम है कि आम तौर पर धरना स्थल पर सिर्फ 15 से 20 मज़दूर बैठे रहते हैं। अन्य मज़दूर अपने कमरों पर पड़े रहते हैं या घर चले गये हैं, या फिर अस्थायी मज़दूर कहीं और काम कर रहे हैं।

लगता है जैसे कि मैनेजमेण्ट और केन्द्रीय यूनियन का नेतृत्व दोनों ही इस इन्तज़ार में बैठे हैं कि मज़दूरों को इतना थका दिया जाये कि अन्त में वे फिर से समझौता करने के लिए मजबूर हो जायें। अगर ऐसा हुआ तो एक बार फिर हरसोरिया में पिछले साल की कहानी दोहरायी जायेगी।

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

पिछले 2-3 साल पर नज़र डालें तो गुड़गाँव और आसपास के औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरों के आन्दोलनों और हड़तालों का सिलसिला कभी टूटा नहीं है। मगर यह भी सच है कि ऐसे लगभग सभी आन्दोलनों का अन्त किसी न किसी समझौते में हुआ जिसमें मज़दूरों को कुछ भी ख़ास हासिल नहीं हुआ और कई जगह तो नुकसान भी उठाना पड़ा। आख़िर इसकी वजह क्या है? कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व और सही दिशा न होने के कारण ये सभी आन्दोलन पुलिस और मालिक के गुण्डों द्वारा मज़दूरों के दमन या क़ानूनी लड़ाई के लिए मज़दूरों द्वारा समझौता कर लेने के साथ समाप्त हो जाते हैं, और फिर मज़दूर सालों कोर्ट के चक्कर लगाते रहते हैं। सभी बड़ी यूनियनें लाखों की मेम्बरशिप का दावा करती हैं लेकिन जब मज़दूर हितों की सुरक्षा की बात आती है तो चन्द दिखावटी प्रोग्रामों के अलावा इनका कुछ पता नहीं चलता। दलाली और चन्दे की कमाई पर चाँदी काटने वाले इनके नेता मज़दूरों के हर जुझारू संघर्ष को किसी न किसी बेजान समझौते के गड्ढे में गिराने का मौका तलाशते रहते हैं। समझना मुश्किल नहीं है कि ये मज़दूरों के अगुवा हैं या मालिकों के मददगार। इनको किनारे लगाकर मज़दूरों की जुझारू क्रान्तिकारी यूनियनें खड़ी किये बिना मज़दूर अपने हक़ की लड़ाई में आगे नहीं बढ़ सकते।

हरसोरिया के मज़दूरों को यह समझना होगा कि पूँजी की एकजुट शक्ति का मुकाबला आज एक-एक कारख़ाने के मज़दूर अकेले-अकेले नहीं कर सकते। मज़दूरों को इलाक़ाई पैमाने पर, उद्योग के पूरे सेक्टर के पैमाने पर, विभिन्न तरीक़ों से व्यापक एकजुटता क़ायम करनी होगी। लड़ाई के पुराने घिसे-पिटे तरीक़ों से अब काम नहीं चलेगा। चुपचाप धरने पर बैठे रहने या हड़ताल करके वार्ता का इन्तज़ार करते रहने से कोई उनकी बात नहीं सुनेगा। मज़दूरों को लड़ाई के नये-नये तरीक़े निकालने होंगे और बहुत योजनाबद्ध ढंग से पूरी तैयारी के साथ लड़ना होगा।

(6 जून, 2012)

      [stextbox id=”alert” caption=”हरसोरिया हेल्थकेयर में मज़दूरों की स्थिति : कुछ तथ्य”]

      • 2003 से चल रही यह कम्पनी मुख्य रूप से चिकित्सा के उपकरण बनाती है जिनका निर्यात यूरोप, सिंगापुर और कोरिया में किया जाता है।
      • क़म्पनी का सालाना कारोबार लगभग 37 करोड़ रुपये है, जिसमें से 650 मज़दूरों को वेतन के रूप में सालाना सिर्फ 12 प्रतिशत (लगभग 4 करोड़) दिया जाता है।
      • यहाँ 400 ठेका और 250 स्थाई मज़दूर हैं जो ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के रहने वाले हैं।
      • अप्रैल 2011 में कम्पनी में 203 कैज़ुअल मज़दूर थे जिन्हें सीधे कम्पनी ने काम पर रखा था। बाद में कम्पनी ने 143 कैज़ुअल मज़दूरों को ठेकेदारों के माध्यम से काम पर ट्रांसफर कर दिया जिनमें से 15 मज़दूर ठेकेदार के साथ कान्ट्रैक्ट करके काम पर चले गये लेकिन बचे हुए 128 मज़दूरों को सस्पेण्ड या निष्कासित कर दिया गया। ये सभी इस अवैध कार्रवाई के ख़िलाफ मुक़दमा लड़ रहे हैं।
      • पिछले कुछ दिनों से मैनेजमेण्ट लगातार ठेका मज़दूरों को बढ़ा रहा है और स्थाई मज़दूरों को निकालने की कोशिश कर रहा है। स्थाई मज़दूरों का वेतन 8 घण्टे के काम के बदले 5600 से 6000 रु. और ठेका मज़दूरों का 4000 से 4600 रु. है।
      • हर मज़दूर के लिए हर घण्टे लगभग 1000 से अधिक पीस बनाने का टार्गेट तय है। टार्गेट पूरा नहीं हो पाने पर उस दिन का वेतन काट लिया जाता है।
      • पिछले साल कम्पनी ने पी.एफ. और ई.एस.आई. का अपना हिस्सा जमा नहीं किया है जबकि मज़दूरों के वेतन से कटौती जारी है।
      • पिछली हड़ताल के बाद मज़दूरों को दीवाली बोनस नहीं दिया गया। चार साल से ज्यादा काम करने वाले मज़दूरों को दिया जाने वाला 1500 रु. का बोनस भी बन्द कर दिया गया है।
      • क़म्पनी ने दोपहर का खाना देना बन्द कर दिया है। काम के घण्टों से अलग चाय के लिए दो बार 15-15 मिनट का ब्रेक दिया जाता था जो अब ख़त्म कर दिया गया है।
      • बढ़ती महँगाई के बावजूद वर्षों से मज़दूरों के वेतन में कोई भी वृद्धि नहीं की गई है।

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मज़दूर बिगुल, जून 2012

 


 

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