यूनान में फ़ासीवाद का उभार
गौतम
यूरोप का आर्थिक संकट बदस्तूर जारी है। यूनान, इटली, स्पेन, पुर्तगाल और कई पूर्वी यूरोपीय देशों को यह आर्थिक संकट बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। अभी कुछ ही महीने पहले एक और देश साइप्रस जो यूरोपीय यूनियन का सदस्य है, का दिवाला पिट गया जिसे बचाने के लिए साइप्रस को 10 बिलियन डॉलर का बेल-आउट पैकेज देना पड़ा यघपि इसके लिए साइप्रस पर तगड़ी शर्तें लगी हैं जिसके नतीजे वहाँ की आम जनता को भुगतने पड़ेंगे। इसी तरह इटली में ताजा चुनाव के पश्चात किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने के कारण वहाँ की स्थित गम्भीर बनी हुई है। लेकिन सब से गम्भीर स्थिति यूनान में है। 8 जुलाई को यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने यूनान को अल्टीमेटम दिया कि अगर उसे बेल-आउट के जरिए और सहायता हासिल करनी है तो उसे अपने सार्वजनिक खर्चों में कटौती करनी ही होगी और इसके लिए उसे सिर्फ 10 दिन मिलेंगे। यूनान की सत्तारूढ़ न्यू डेमोक्रेसी पार्टी और सामाजिक जनवादी पासोक पार्टी की गठबन्धन सरकार ने तिकड़ी के इस अल्टीमेटम को मानते हुए नया बिल संसद में पास कर दिया है जिसके तहित 4,000 से ऊपर सरकारी कर्मचारियों की छँटनी और 25,000 कर्मचारियों को ‘रिज़र्व’ (जिसका मकसद भी छँटनी ही है) करार देने का ऐलान कर दिया है। सरकार के इस बिल का विरोध होना लाज़िमी है और विभिन्न यूनियनें और संगठन इसका पहले से ऐलान कर चुके हैं। मगर इस नए बेल-आउट पैकेज से यूनान की स्थिति में कोई सुधार आयेगा, ये बहुत मुश्किल लग रहा है। तीन साल पहले जब पहला बेल-आउट पैकेज दिया गया था तब यूनान का कर्ज़ा उसके सकल घरेलू उत्पाद का 129 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 159 प्रतिशत हो चुका है, बेरोज़गारी भी पहले से बढ़ी है। ऊपर से यह भी साफ हो रहा है कि यूनान बेल-आउट पैकेज के रूप में मिले कर्ज़े को कभी भी चुका नहीं सकेगा जिसके चलते इस कर्ज़े को माफ करने या न करने के मसले पर फ्रांस, जर्मनी जैसे यूरोपीय यूनियन के बड़े देशों में मतभेद खड़े हो गए हैं।
इस से पहले जून महीने में सरकार ने सरकारी टेलीविजन को बंद कर दिया और और उसके 2,700 के करीब कर्मचारियों को नौकरी से हटा दिया जिसका विरोध करते हुए डेमोक्रेटिक लेफ्ट गठबन्धन सरकार से अलग हो गया था, इसके चलते संसद में सरकार की पोजीशन कमजोर हुई है और 300 सीटों में से 153 सीटों के बहुत मामूली बहुमत से खुद को बचाये हुए है। ऐसे में यह सरकार आम लोगों और विपक्ष का विरोध कब तक झेल पाती है, ये देखने वाली बात होगी। उधर यूनान में एक और बड़ा खतरा, फ़ासीवाद लगातार अपने पैर पसार रहा है । मई, 2012 के पिछले आम चुनाव में “गोल्डन डॉन” नाम की एक नव-नाजी पार्टी संसद में दाखिल हुई और उसके पश्चात इस घोर दक्षिणपंथी राजनीतिक पक्ष ने न सिर्फ अपनी गतिविधियाँ तीखी की हैं, बल्कि इसकी लोकप्रियता में इज़ाफ़ा भी हुआ। एक सर्वे के मुताबक अब यह पार्टी यूनान की तीसरी सब से बड़ी पार्टी बन चुकी है और अगर अभी चुनाव होते हैं तो इसको 15 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिलने की संभावना है।
पूँजीवादी ढाँचे के भीतर जब संकट आता है तो सरकार डूब रही वित्तीय संस्थानों जैसे बैंकें आदि (जो अपने लालच-मुनाफे के कारण संकट में फंसती हैं) को संकट से उभारने के लिए सरकारी खजाने में से (अर्थात आम लोगों से टैक्सों के रूप में बटोरे पैसों से) भारी रकम “बेल-आउट’ पैकेज के रूप में देती हैं और फिर सरकारी खर्चे, जन-सेवाओं और कर्मचारियों के वेतन आदि के खर्चे के लिए उन्ही बैंकों से ब्याज पर कर्ज लेती है । खजाना खाली होने के कारण कुछ वक्त के बाद सरकार के पास ब्याज चुकाने के लिए भी धनराशि नहीं बचती। इस हालात में से निकलने के लिए सरकार जन-सेवाएं जैसे सेहत, शिक्षा आदि के खर्चों पर कटौती करती है, कर्मचारियों की (पर मोटी तनख्वाह लेने वाले नौकरशाहों की नहीं) छँटनी करती है और आम मेहनतकश जनता पर टैक्सों का बोझ बढ़ाती जाती है। नतीजतन, बेरोज़गारी फैलती है, लोगों की खरीद शक्ति कम होती है और वह अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने से भी असमर्थ होते जाते हैं। यही कुछ यूनान में हुआ है। हालात इतने बुरे हो गए हैं कि सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय देनदारियाँ चुकाने के लिए भी पैसा नहीं रहा है और यूनान दिवालिया होने के कगार तक पहुँच गया है। यूनान यूरोपीय यूनियन का मेम्बर है, इसलिए उसके दिवालिया होने से पूरी यूरोपीय यूनियन की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने का ख़तरा खड़ा हो गया है। इस ख़तरे से निपटने के लिए यूरोपीय यूनियन, यूरोपीय बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने यूनान को बेल-आऊट पैकेज देना तो मान लिया किंतु साथ ही “किफायत की नीतियाँ” लागू करने की शर्त लगा दी। यह “किफायत की नीतियाँ” असल में कुछ नहीं, बस सार्वजनिक सेवाओं पर होने वाले खर्चों पर भारी कटौती, कर्मचारियों और श्रमिकों के वेतन/मजदूरी को कम करना और कर्मचारियों की छँटनी और साथ ही आम लोगों पर टैक्स का बोझ पहले से और अधिक करना है। सरकार बेल-आउट द्वारा हासिल हुई धनराशि को लोगों के हालात बेहतर करने की बजाए अपनी देनदारियाँ चुकाने हेतु इस्तेमाल करेगी, जिसका अर्थ है कि इस धनराशि से बैंकों के मालिक पूँजीपति और अन्य बड़े पूँजीपति पहले से और अधिक अमीर हो जायेंगे और लोगों के पल्ले पड़ेगी कंगाल-बदहाल असुरक्षित जिंदगी।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम ने यूनान के आम लोगों के हालात दयनीय बना रखे हैं। 2013 का साल यूनान में आर्थिक मंदी का लगातार छठा साल है और अगले दो-तीन वर्षों तक भी संकट से उभरने के कोई आसार नजर नहीं आते। बेरोज़गारी की दर 24.4 प्रतिशत है जो यूरोप में स्पेन के बाद दूसरे क्रम पर है, और अगर नौजवानों में फैली बेरोज़गारी की दर (जो कि 55 प्रतिशत को भी पार कर चुकी है) देखी जाये तो यूनान स्पेन से भी आगे निकल चुका है। बहुत बड़ी आबादी खाने के लिए सरकार की तरफ से बांटे जा रहे भोजन के पैकटों पर निर्भर है और बहुत से लोगों को उपवास काटने पड़ रहे हैं। आर्थिक तंगियों के मारे लोग अपना गुस्सा और बेचौनी सड़कों पर प्रदर्शन और बड़े-बड़े मार्च करके दिखा रहे हैं और यह सिलसिला कभी अधिक तीव्र और कभी कुछ मंद रूप में, निरंतर जारी है। दूसरी ओर, पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियां एक से बाद एक, आम लोगों की नजरों में अपना विश्वास खो रही हैं। सोशलिस्ट पार्टी की सरकार गिरने के कारण जून, 2012 में दो बार आम चुनाव हुए। “किफायत की नीतियाँ” लागू करने की पक्षधर सोशलिस्ट पार्टी को लोगों ने नकार दिया पर सत्ता में आई दक्षिण-मध्य पार्टी “न्यू डेमोक्रेसी” भी वही नीतियां लागू कर रही है। इसलिए आम जनता का सरकार से मोह भंग होना निश्चित है। ऐसी स्थिति में जब आर्थिक ढांचा संकटग्रस्त हो और राजनीतिक तौर पर शून्यता का आलम हो, तो नये राजनीतिक दल उभरते हैं। यह या तो लोगों की पक्षधर ताकतें हो सकती हैं या फिर बुर्जुआ पक्ष की घोर दक्षिण-पंथी फ़ासीवादी ताकतें हो सकती हैं। यूनान की फ़ासीवादी पार्टी “गोल्डन डॉन” का उभार भी इन्ही परिस्थितियों में ही हो रहा है।
“गोल्डन डॉन” पार्टी की स्थापना 1993 में इसके मौजूदा नेता निकोस मिशलाईकोस ने की थी। वर्षों तक यह पार्टी यूनान के राजनीतिक रंगमंच के हाशिए पर बनी रही है। इसके मौजूदा नेता के 1967-74 के समय सत्ता में रही फ़ासीवादी फ़ौजी मण्डली के सदस्यों के साथ संबंध रहे हैं। इस फ़ौजी मण्डली के अत्याचारों के कारण आज भी यूनान के लोगों में इस दौर के लिए कड़वी यादों के अम्बार हैं। इन लोगों की मदद से ही निकोस मिशलाईकोस ने 1980 के दशक में एक छोटा सा गुट कायम किया था जो बाद में आकर “गोल्डन डॉन” के रूप में सामने आया। यूनान में फ़ासीवाद का इतिहास इससे भी थोड़ा पुराना है। 1932 में नाजियों के प्रभाव के कारण यूनान में नाजीवादी “नेशनल सोशलिस्ट पार्टी” की स्थापना हुई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के यूनान ऊपर कब्जे के सालों के दौरान इस पार्टी ने हिटलर की फौजों के साथ मिलकर अपने देश के लोगों पर असह्य ज़ुल्म किये। विश्व युद्ध दौरान यूनान में भी फ़ासीवादियों का मुकाबला करने में कम्युनिस्ट आगे रहे और युद्ध खत्म होने पर एक मुख्य राजनीतिक ताकत के तौर पर उभर कर सामने आए। कम्युनिस्टों को सत्ता में आने से रोकने के लिए साम्राज्यवादी अमेरिका और ब्रिटेन ने फ़ासीवादियों को हर तरह की मदद दी और यूनान के क्रांतिकारी संघर्ष को लहू की नदियों में डुबो दिया। यूनान के लोगों के हिस्से आयी नयी ज़ालिम सत्ता और साम्राज्यवादियों की लूट। लम्बे संघर्ष के पश्चात जब 1967 में आम चुनाव का वक्त आया तो एक बार फिर साम्राज्यवादियों की शह पर सत्तापरिवर्तन हो गया और फ़ौजी राज कायम हुआ जिससे 1974 में आकर यूनानी लोगों को मुक्ति मिली। ख़ैर, हम यूनान की वर्तमान स्थिति की तरफ वापस आते हैं।
अपनी स्थापना के पश्चात, गोल्डन डॉन पार्टी यूनान में छोटी-मोटी कारवाईयों के दायरे में सीमित रही और 2009 तक भी इसका लोगों में ज्यादा आधार नहीं था जिससे इसको आम चुनाव में 0.2 प्रतिशत वोटें ही पड़ी। पर जैसे कि कहा जाता है, फ़ासीवाद शासक पूँजीपति वर्ग का ज़ंजीर के साथ बँधा हुआ पालतू कुत्ता होता है और जब तक पूँजीवाद को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती, यह किल्ली के साथ बँधा हुआ थोडा-बहुत भौंकता रहता है पर पूँजीवाद हर कीमत पर इसके स्वास्थ्य का ख्याल रखता है ताकि “मुश्किल समय” में यह काम आ सके। जब यूनान में पूँजीवाद का “मुश्किल समय” शुरू हुआ तो गोल्डन डॉन की गतिविधियां भी तेज हो गई नतीजन 2012 के चुनाव में इसको 7 प्रतिशत वोट मिले और पहली बार इसके प्रतिनिधियों को संसद में जगह मिली। चुनाव के कुछ माह बाद ही हुए एक सर्वे के अनुसार गोल्डन डॉन की लोकप्रियता बढकर 12% तक पहुँच गई है। गोल्डन डॉन पार्टी के नेता सरेआम हिटलर और जर्मनी की नाजी पार्टी का गुणगान करते हैं, इस पार्टी का चिन्ह भी नाजियों के स्वास्तिक चिन्ह के साथ मिलता-जुलता है। किसी भी फ़ासीवादी पार्टी की राजनीति होती है, आम लोगों की मुश्किलों के लिए पूँजीवादी व्यवस्था को जिम्मेदार न ठहरा कर आम जनता के ही एक तबके को बहुसंख्यक लोगों की आर्थिक तंगियों का जिम्मेदार बना कर पेश करना, फिर उस तबके के खिलाफ तीखा और घना, नफरत से भरा प्रचार-प्रोपेगंडा चलाना और उस तबके के सदस्यों को हिंसक कारवाईयों का निशाना बनाना। बिल्कुल यही काम इस समय यूनान में गोल्डन डॉन कर रही है। गोल्डन डॉन की तरफ से यूनान में आकर काम करने वाले प्रवासियों और इनमे से खास तौर पर मुस्लिम प्रवासियों को यूनान के लोगों की मुश्किलों का कारण बना कर पेश किया जा रहा है। गोल्डन डॉन का नारा है – “यूनान सिर्फ यूनानियों का है!” उसके नफरत फैलाने वाले प्रचार-तंत्र की मानें तो यूनान के लोगों को रोज़़गार न मिलने का कारण यह है कि यह प्रवासी यूनान के स्थानीय लोगों का रोज़गार छीन लेते हैं जिस कारण यूनान के स्थानीय लोगों को बेरोज़गारी का सामना करना पड़ता रहा है। गोल्डन डॉन की सरगर्मी प्रवासियों के विरुद्ध नफरत फैलाने तक सीमित नहीं है, यह हिंसक कारवाईयाँ भी कर रही है। पिछले साल अगस्त में एक इराकी नौजवान की गोल्डन डॉन के साथ जुड़े लोगों नें हत्या कर दी। इसी तरह एक अन्य घटना में, एक पाकिस्तानी प्रवासी व्यक्ति के सैलून में आग लगा दी और वहां बैठे यूनानी मूल के ग्राहकों को पीटा। गोल्डन डॉन यह प्रचार लगातार कर रही है कि प्रवासियों की दुकानों से कोई खरीदारी ना की जाये और खरीदारी करने वाले यूनानी मूल के लोगों के साथ ग़द्दारों जैसा व्यवहार किया जाए। गोल्डन डॉन का कहना है कि प्रवासियों के साथ सम्बंधित किसी भी मसले के लिए प्रशासन या पुलिस के पास जाने के बजाये उस तक पहुँचा जाये। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी कि पुलिस खुद लोगों को गोल्डन डॉन के दस्तों तक भेजती है। सरकार भी गोल्डन डॉन के इस दावे को बल प्रदान कर रही है। पिछले साल यूनानी सरकार ने 5000 प्रवासियों को पुलिस हिरासत में लिया।
गोल्डन डॉन का दूसरा काम है अन्ध-राष्ट्रवाद का तीक्ष्ण प्रचार। इस वर्ष फरवरी में गोल्डन डॉन ने 1996 में तुर्की से हुई यूनान की फ़ौजी झड़प के दौरान मारे गए तीन पायलटों की मृत्यु का दिन एक कौमी दिवस के तौर पर मनाया। इस मकसद के लिए रखी रैली में 30,000 से भी अधिक लोगों ने भाग लिया। इस रैली के समय गोल्डन डॉन के 5000 कार्यकर्ता फ़ौजी वर्दी पहनकर मार्च में शामिल हुए। गोल्डन डॉन का कहना है कि तुर्की का शहर इसतंबोल यूनान का हिस्सा है, और जब उन की सरकार आएगी तो इसतंबोल को तुर्की से छीन कर “राष्ट्रीय गर्व” बहाल किया जाएगा। इसने “राष्ट्रीय जागरण” कैंपों का आयोजन करने की श्रृंखला शुरू की है जिस के अंतर्गत प्राइमरी स्कूलों के बच्चों से लेकर युवकों के अलग-अलग समूहों को अपने जहरीले प्रचार के द्वारा फ़ासीवादी राजनीति को बढ़ावा दे रही है। गोल्डन डॉन आम लोगों में अपनी साख बनाने के लिए लोगों में खुराक का पैकेट बाँट रही है, और इस तरह के ही अन्य “जन-सेवा” के काम कर रही है। पर गोल्डन डॉन की “जन-सेवा” की सुविधा लेने के लिए यूनानी होने का लाइसेंस होना अनिवार्य है और अक्सर गोल्डन डॉन इस तरह संपर्क में आए लोगों को गोल्डन डॉन पार्टी में सम्मिलित होने का लिए दबाव भी डालती है। और तो और, गोल्डन डॉन ऐसे ब्लडबैंक स्थापत कर रही है जिनके ऊपर लिखा होता है ‘सिर्फ यूनानी खून’ और जो सिर्फ शुद्ध यूनानी लोगों के लिए खूनदान का इंतजाम करते हैं। लोगों में सनसनी फैलाने वाले “ऐक्शन” करने भी प्रत्येक फ़ासीवादी पार्टी का विशिष्ट लक्षण होता है, फिर गोल्डन डॉन पीछे कैसे रह सकती है। कुछ समय पूर्व, इसके एक संसदीय सदस्य ने टीवी प्रोग्राम के दौरान सोशलिस्ट पार्टी की महिला नेता को थप्पड़ मार दिया, हैरानी की बात यह थी कि प्रबंधकों ने गोल्डन डॉन के इस लीडर को वहाँ से जाने दिया और सरकार की भी ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई।
आर्थिक संकट को भी बाकी फ़ासीवादी पार्टियों के माफिक, गोल्डन डॉन पिछली और मौजूदा सरकारों में सम्मिलित पार्टियाँ और नेताओं की गलतियाँ और भ्रष्टाचार का नतीजा बताती है जबकि राजनीतिक अर्थशास्त्र हमें साफ-साफ बताती है कि आर्थिक संकट पूँजीवादी प्रबंध की आंतरिक गति का नतीजा होते हैं और इस ढाँचे के अन्दर संकट का चक्रीय क्रम जारी रहता है चाहे सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो। हम देख सकते हैं कि भारत के फ़ासीवादी भी यही कुछ कहते और करते हैं। गोल्डन डॉन “किफायत की नीतियां” का भी विरोध कर रही है पर इसके विरोध की बुनियाद और है। बेल-आउट पैकेज हासिल करने के लिए ये नीतियां लागू करने की शर्तों को गोल्डन डॉन एक राष्ट्रीय गर्व-सम्मान का मसला बना कर अंधी देशभक्ति को हवा दे रही है। दूसरी बात, अगर यूनान बेल-आउट पैकेज नहीं भी लेता, तो भी पूँजीवादी ढाँचे के अन्दर आर्थिक संकट में से निकलने का रास्ता आम लोगों की तबाही में से हो कर ही निकलता है। सार्वजनिक सेवाओं पर होते हुए खर्च में कटौती, छँटनी और आम लोगों पर टैक्सों का बोझ, इसके बिना पूँजीवाद के लिए संकट में से निकलना असम्भव है। और साथ ही, यह संकट जितना अधिकतर वैश्विक रूप अपनाता चला जाएगा, जंगों-युद्धों का सिलसिला भी अधिकतर विराट रूप धारण करता चला जाएगा। सत्य यही है कि पूँजीवादी ढाँचे के अन्दर “किफायत की नीतियां” लागू करने के बिना किसी भी बुर्जुआ पार्टी के पास कोई रास्ता न तो है ही और न ही पूँजीपति वर्ग इससे अधिक कुछ करना चाहता है। गोल्डन डॉन के भी पास यही रस्ता है और यही कुछ वह भी करेगी जब सत्ता में आएगी, पर वह अधिक नग्न तानाशाह आतंकी राज्यसत्ता के द्वारा इसको अंजाम देगी। पर फ़ासीवादी राजनीति सत्ता में आने का रास्ता साफ करने का लिए हर तरह का झूठ बोलती है और बार-बार बोलती है।
जब आम लोगों का विरोध इस कदर बढ़ जाता है कि वह पूँजीवाद की लूट की नीतियां को लागू होने में रुकावट बन जाता हैं और पूँजीवाद की पहली कतार की राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता संभालने अर्थात लोगों पर डंडा चलाने में असमर्थ हो जाती हैं तो इस काम के लिए पूँजीवाद गोल्डन डॉन जैसी फ़ासीवादी पार्टियों का सहारा लेता है। दूसरी ओर, यही वह ऐतिहासिक क्षण होते हैं जब समाज को आगे लेकर जाने वाली क्रांतिकारी ताकतों के पास लोगों के समक्ष पूँजीवादी ढाँचे के मनुष्य विरोधी चरित्र को पहले से कहीं अधिक नंगा करने और इसके होते हुए मानवता के लिए किसी भी किस्म के अमन-चौन की असंभाविता और सब से ऊपर, पूँजीवादी ढाँचे के ऐतिहासिक रूप पर अधिक लम्बे समय के लिए बने रहने की असंभाविता को स्पष्ट करने का अवसर होता है। यही वह समय होता है जब आम लोग बदलाव के लिए उठ खड़े होते हैं और उनकी शक्ति को दिशा देकर क्रांतिकारी ताकतें पूँजीवादी ढाँचे की जोंक को मानवता के शरीर से तोड़ सकती हैं। पूँजीवादी वर्ग के पहरेदार भी समझते हैं कि आर्थिक संकट, और साथ ही इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक संकट के दो ही मुमकिन नतीजे निकल सकते हैं – पहला है, क्रांति और पूँजीवादी ढाँचे को तबाह करके समाजवाद की स्थापना और दूसरा है, फ़ासीवादी सत्ता स्थापित करके आम लोगों का दमन-उत्पीड़न, समाज की उत्पादक शक्तियों की तबाही और क्रांति को रोकने की लिए क्रांतिकारी ताकतों का दमन। साफ है कि पहला रास्ता आम श्रमिक लोगों के लिए मुक्ति लेकर आता है और दूसरा रास्ता पूँजीवाद की उम्र और साथ ही लोगों के दमन-उत्पीड़न के वर्षों को लम्बा करने का रास्ता है। पूँजीवादी वर्ग अपने टुकड़ों पर पलने वाली बुद्धिजीवी मण्डली, मीडिया तंत्र और फ़ासीवादी राजनीति के हथियारों के साथ आम लोगों पर आक्रमण करता है, सब से ऊपर वह आम लोगों का मार्ग-दर्शन करने वाली विचारधारा अर्थात मार्क्सवाद पर आक्रमण करता है, वह लोगों की ताकत के बारे में समाज में संदेह पैदा करता है और श्रमिक लोगों के नेतृत्व में हुई क्रांतियों के इतिहास पर कूची फेरता है अथवा बदनाम करता है। ऐसे समय में आवश्यक होता है कि लोगों में उनकी मुक्ति की विचारधारा का प्रचार अधिक से अधिक हो, वह लामबंद हों और सबसे ऊपर उनके नेतृत्व के लिए सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी तैयार और मुस्तैद हो। यूनान भी कुछ ऐसे ऐतिहासिक पलों में गुजर रहा है। यूनान भविष्य में किस दिशा की तरफ बढ़ता है, यह इस बात पर निर्भर रहेगा कि किसका हाथ ऊपर रहता है, प्रतिगामी फ़ासीवादी दल जो पूँजी की सेवा करती है, या फिर क्रांतिकारी ताकतों का। यूनान की घटनाएँ इस अर्थ में पूरी दुनिया के श्रमिक लोगों और उनका प्रतिनिधित्व करने वाली क्रांतिकारी राजनीति के लिए उस सबक को फिर से दुहरायेंगी जिसका पाठ इतिहास पहले अनेक बार पढ़ा चुका है। इतिहास में समाजवाद की घड़ी आती है, फिर आयेगी। सवाल है कि हम उसके लिए तैयार होंगे अथवा नहीं, और साथ ही हमें याद रखना होगा यह ऐतिहासिक सबक – अगर हमने समाजवाद की घड़ी निकल जाने दी तो हमारी सजा होगी फ़ासीवाद!
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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