महान अक्टूबर क्रान्ति (7 नवम्बर) की 108वीं जयन्ती के अवसर पर
सोवियत संघ में समाजवाद की युगान्तरकारी उपलब्धियाँ

शशि प्रकाश

आज की दुनिया पुनरुत्थान और विपर्यय के जिस घुटन भरे अँधेरे में जी रही है, वह एक ऐतिहासिक स्मृति-लोप का समय है। बुर्जुआ संचार और प्रचार का दैत्याकार वैश्विक तंत्र हमें लगातार यह बताता रहता है कि हमारे “उत्तर-आधुनिक समय” में क्रान्तियों के महाख्यान विसर्जित हो चुके हैं, कि आधुनिकता, तर्कणा और मुक्ति की सारी परियोजनाएँ यूटोपिया सिद्ध हुई हैं, कि समाजवाद भी फ़ासीवाद व अन्य बुर्जुआ निरंकुश तंत्रों जैसा ही सर्वसत्तावादी था… वगैरह-वगैरह। सोवियत संघ में 1956 से 1990 तक समाजवाद के नाम पर संशोधनवादी पार्टी के नेतृत्व में जो भ्रष्ट और निरंकुश बुर्जुआ सत्ता क़ायम थी (1976 के बाद चीन में भी “बाज़ार समाजवाद” के नाम पर वैसी ही सत्ता क़ायम है), उस ‘सोशल फ़ासिस्ट’ सत्ता के सभी कुकर्मों को समाजवाद के मत्थे थोपकर उसे बदनाम किया जाता है। जिन स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने प्रगति और न्यायपूर्ण समाज-निर्माण के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किये तथा अपने दो करोड़ 70 लाख नागरिकों की कुर्बानी देकर पूरी दुनिया को फ़ासिज़्म के कहर से बचाया, उन्हें सबसे अधिक कुत्सा-प्रचार का निशाना बनाया जाता है। 1920 से लेकर 1940 के दशक तक एच.जी. वेल्स, रोम्यां रोलां, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू आदि दर्जनों शीर्ष बुद्धिजीवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों और बुर्जुआ राजनेताओं ने सोवियत संघ की प्रगति के बारे में अभिभूत और चमत्कृत होकर जो कुछ भी लिखा था, उसे आज के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिक भी नहीं जानते।…

निराशा और विभ्रम के इस दौर में, सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि विश्व इतिहास में अतीत में भी क्रान्तियों के शुरुआती संस्करण पराजित हुए हैं और फिर अगले दौर में उनके नये संस्करणों ने निर्णायक विजय हासिल की है। और फिर, सर्वहारा क्रान्तियाँ मानव इतिहास की सर्वाधिक आमूलगामी क्रान्तियाँ हैं, जो वर्ग समाज की बुनियाद पर—सम्पत्ति सम्बन्धों और निजी स्वामित्व पर चोट करती हैं। ये सिर्फ़ चन्द शताब्दियों की उम्र वाले पूँजीवादी समाज के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि सहस्राब्दियों लम्बी उम्र वाले सम्पूर्ण वर्ग समाज के ख़िलाफ़ हैं। अत: यदि विश्व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो बीसवीं शताब्दी की प्रारम्भिक सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय अप्रत्याशित नहीं है। इतना तय है कि यह पराजय स्थायी नहीं, बल्कि फ़िलहाली है। श्रम और पूँजी के शिविर के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र कई चरणों से होते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर 1976 तक जारी रहा। फिर इस चक्र का समापन श्रम के शिविर की पराजय के रूप में हुआ। अब आने वाला समय इस विश्व-ऐतिहासिक समर के दूसरे चक्र का साक्षी होगा।…

आज एक नयी शुरुआत के लिए समाजवादी संक्रमण की समस्याओं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को समझना सबसे ज़रूरी है। लेकिन इसके पहले कुछ तथ्यों और आँकड़ों के ज़रिये हम उस विस्मयकारी प्रगति की एक तस्वीर प्रस्तुत करना चाहेंगे जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत समाजवाद ने हासिल की थी।

अक्टूबर क्रान्ति एक ऐसे समय में सम्पन्न हुई जब पहले साम्राज्यवादी युद्ध में उलझाव के चलते रूस की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी। लोग भयंकर तबाही और बदहाली का जीवन बिता रहे थे। 1918 से 1921 के बीच नवजात सोवियत राज्य को अन्तरराष्ट्रीय तौर पर संगठित सशस्त्र प्रतिक्रान्ति का सामना करने के लिए युद्ध कम्युनिज़्मकी नीतियाँ अपनायी गयीं। इन फौरी और आपातकालीन नीतियों में बड़े पैमाने पर उद्योगों का राष्ट्रीकरण, कृषि उत्पादों की अनिवार्य वसूली और व्यापार का राज्य के हाथों में केन्द्रीकरण शामिल था। ये नीतियाँ सामान्य तौर पर समाजवादी क्रान्ति के प्रारम्भिक दौर में सर्वहारा सत्ता के आर्थिक कार्यभारों के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन युद्ध और तबाही के हालात में इन्हें अपनाने के लिए विवश होना पड़ा था।

बाहरी हमले और प्रतिक्रान्ति की अन्दरूनी कोशिशों को नाकाम कर दिये जाने के बाद भी समाजवादी निर्माण का काम सामान्य तौर पर शुरू करने की परिस्थितियाँ नहीं थीं। विश्वयुद्ध, क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के सात तूफानी वर्षों ने रूसी राष्ट्रीय अर्थतंत्र को पंगु बना दिया था। सोवियत संघ की साम्राज्यवादी घेरेबन्दी अभी भी जारी थी। हालत यह थी कि 1913-21 के बीच पूँजी-निवेश के लगभग ठप्प हो जाने के कारण, 1920 में बड़े उद्योगों का सकल राष्ट्रीय उत्पादन 1913 के स्तर का मात्र 14.4 प्रतिशत था। …उपभोक्ता सामग्रियों का घोर अभाव था। इन हालात में बोल्शेविकों ने क्रमबद्ध ढंग से पीछे हटने का रास्ता चुना ताकि समाजवाद की दिशा में फिर आगे बढ़ा जा सके। यह नयी आर्थिक नीति का दौर था जो सर्वहारा राज्यसत्ता द्वारा संगठित और नियंत्रित ढंग से राजकीय पूँजीवाद की नीतियों की ओर पीछे हटने का दौर था। इस दौरान छोटे-मँझोले निजी उद्योगों और निजी आन्तरिक व्यापार को अस्थायी तौर पर फिर से बहाल किया गया, अनिवार्य कृषि-वसूली की जगह हल्के कराधान की व्यवस्था की गयी, उद्योगों को कुछ खास क्षेत्रों में काफी लाभप्रद छूटें दी गयीं। राष्ट्रीकृत बड़े पैमाने के ‘मास मार्केट’ उद्योगों को पूँजीवादी आधार पर चलाया जाने लगा, हालाँकि यह व्यवस्था सख्त नियंत्रण के तहत थी। राजकीय उद्योगों के लिए मुनाफे के आधार पर काम करने की व्यवस्था की गयी। कारख़ानों के प्रबन्धकों को मज़दूरी तय करने में स्वायत्तता दी गयी और उन्हें अंशत: मुनाफे़ पर कमीशन के आधार पर वेतन दिया जाता था।…

यूँ तो नयी आर्थिक नीति का दौर 1928 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू होने तक चलता रहा लेकिन आर्थिक स्थिति सापेक्षत: सुदृढ़ होते ही “पीछे हटना” पहले ही रोक दिया गया था। 1920 के दशक के मध्य से निजी उद्यम और निजी व्यापार को समाप्त करना शुरू कर दिया गया था और 1932 तक उत्पादन या व्यापार को बाधित किये बिना इन्हें लगभग ख़त्म किया जा चुका था। राजकीय उद्यमों के प्रबन्धन की स्वायत्तता को क्रमश: सीमित किया गया और कदम ब कदम उद्योगों की सभी शाखाओं में समाजवादी नियोजन लागू कर दिया गया।

फिर भी 1920 के दशक के अन्त तक कृषि क्षेत्र पर पूँजीवादी सम्बन्धों की जकड़बन्दी क़ायम थी। कुलकों का अस्तित्व क़ायम था जो सोवियत राज्य की खुली अवज्ञा करते थे, टैक्स अदा करने और अनाज बेचने से इन्कार करते थे, तथा जमाखोरी और कालाबाज़ारी करते थे। दूसरी तरफ लाखों छोटे किसान परिवार आदिम युग के साधनों से जमीन के छोटे-छोटे अलाभप्रद टुकड़ों पर खेती करते थे और नारकीय जीवन बिताते थे। तेज़ गति से विकुलकीकरण और सामूहिकीकरण के पीछे इन लाखों ग़रीब किसानों की कुलकों के प्रति गहरी घृणा और उन्हें बेदखल करने की व्यग्रता की भी एक अहम भूमिका थी। आधुनिक खेती के विकास और गाँवों में समाजवाद के आधार-निर्माण के लिए ग़रीब किसानों की सक्रिय भूमिका के सहारे सामूहिकीकरण का अभियान शुरू किया। कुलकों के तीव्र प्रतिरोधों और विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वे कुचल दिये गये। इस मुहिम में कुलकों को दबाने के दौरान निस्सन्देह कुछ ज़्यादतियाँ भी हुईं और कहीं-कहीं सहकारी फार्मों में शामिल होने के लिए किसानों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती भी की गयी। स्तालिन ने विध्वंसक तत्वों के साथ सख़्ती बरतने के साथ ही, इन ग़लतियों की आलोचना की और मध्यम किसानों को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। फलत: किसानों के बीच राजनीतिक कार्य और पार्टी उपकरण मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया गया। पुराने बोल्शेविकों में से चुने गये 17,000 पार्टी सदस्यों को मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों में राजनीतिक विभाग स्थापित करने के लिए देहाती इलाक़ों में भेजा गया। ये मशीन ट्रैक्टर स्टेशन समाजवादी निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में सामूहिक फार्मों के लिए काम कर रहे थे। इस प्रक्रिया में गाँवों में पार्टी उपकरण मज़बूत हुए और पार्टी की ग्रामीण सदस्यता 1930 से 1934 के बीच चार लाख से बढ़कर आठ लाख हो गयी।

1934 के अन्त तक 75 प्रतिशत किसान परिवार और 90 प्रतिशत खेती लायक़ ज़मीन 2,40,000 सामूहिक फार्मों के दायरे में आ चुकी थी। जो खेती-बाड़ी अभी हाल तक मशीनीकरण से एकदम अछूती थी, उसमें 1934 के अन्त तक 2,81,000 ट्रैक्टर और 32,000 हार्वेस्टर कम्बाइन काम कर रहे थे। इस मशीनीकरण की बदौलत गाँवों से बड़े पैमाने पर श्रम शक्ति खाली हुई जो तेज़ी से बढ़ते उद्योगों के लिए ज़रूरी थी। चौथे दशक के मध्य तक सोवियत सत्ता इस स्थिति में पहुँच गयी थी कि रोटी और अधिकांश बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों की राशनिंग समाप्त कर दी गयी।

पूरे देश के लिए केन्द्रीकृत रूप से एक आर्थिक योजना तैयार करने के लिए राजकीय योजना आयोग (गॉस्प्लान) की स्थापना तो 1921 में ही हो चुकी थी लेकिन पहली पंचवर्षीय योजना 1928 में ही जाकर बनायी जा सकी। पहली पंचवर्षीय योजना इतिहास में केन्द्रीकृत नियोजन का पहला प्रयास थी। यह आर्थिक निर्माण का पहला ऐसा समाजवादी क़दम था, जब योजना की प्राथमिकताएँ व्यापक जन समुदाय के हितों के मुताबिक, और तात्कालिक भौतिक फ़ायदों के लिए नहीं, बल्कि एक समाजवादी समाज की अग्रवर्ती प्रगति के लिए आवश्यक भौतिक आधार के निर्माण को केन्द्र में रखकर तय की गयी थीं। बड़े समाजवादी उपक्रमों के रूप में आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों की स्थापना को समाजवाद के लिए अपरिहार्य मानते हुए स्तालिन भी लेनिन की ही लाइन पर सोच रहे थे।…

व्यापक जन-पहलकदमी और उत्साह के निर्बन्ध होने के चलते पहली पंचवर्षीय योजना निर्धारित समय से 9 माह पहले ही पूरी हो गयी। तकनीशियनों की भारी कमी के बावजूद, इस अवधि के दौरान ट्रैक्टर, ऑटोमोबाइल, जहाज़, रसायन, कृषि मशीनरी, मशीन टूल्स, इंजीनियरिंग, युद्धक सामग्री आदि के उत्पादन के विशालकाय औद्योगिक ढाँचे एकदम शून्य से शुरू करके खड़े किये गये। लौह खनिज और पेट्रोलियम उत्पादन तेज़ी से बढ़ा। जिस रफ़्तार से इस्पात कारख़ाने लगे और लगभग पूरे देश का विद्युतीकरण हुआ, उस पर पश्चिमी दुनिया दंग थी और बुर्जुआ मीडिया भी इन “चमत्कारों” की चर्चा करने लगा। पूरे देश की जनता का, विशेषकर भारी उद्योगों के मज़दूरों का जीवन-स्तर तेज़ी से ऊपर उठा। मज़दूरी में 103.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जिस समय पूँजीवादी विश्व पर महामन्दी का कहर बरपा हो रहा था और अमेरिका में 1.15 करोड़, जर्मनी में 56 लाख और ब्रिटेन में 23 लाख बेरोजगार थे, उस समय, यानी 1932 तक सोवियत संघ में बेरोजगारी का पूर्ण उन्मूलन हो चुका था। नवम्बर, 1932 में अमेरिका की उदारवादी पत्रिका नेशन ने लिखा था : पंचवर्षीय योजना के चार वर्षों में वाक़ई असाधारण विकास हुआ है।रूस नये जीवन के भौतिक और सामाजिक साँचों के निर्माण के रचनात्मक कार्यभार को पूरा करने में युद्धस्तर की तेज़ी के साथ जुटा हुआ है। देश का नक्शा वाकई इतना ज़्यादा बदला जा रहा है कि इसे पहचानना मुश्किल होगा।

दूसरी पंचवर्षीय योजना भी अपने समय से 9 माह पहले पूरी हो गयी। मॉरिस डॉब (सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिन्स 1917’) के अनुसार, इस योजना का लक्ष्य पूरी अर्थव्यवस्था का तकनीकी पुनर्गठन था। योजना के अन्त तक देश के कुल औद्योगिक उत्पादन का 4/5 हिस्सा “पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान निर्मित या पूर्णत: पुनर्गठित नये उद्योगों” द्वारा होना था। इसके लिए नये उद्योग लगाना, नयी तकनीक में महारत, श्रम-उत्पादकता में भारी वृद्धि, उत्पादन-लागत में कमी लाना और उत्पाद के स्तर को ऊपर उठाना ज़रूरी था। इस लक्ष्यसिद्धि में योजना पूर्णत: सफल रही। औद्योगिक उत्पादन 1932 की तुलना में 100 प्रतिशत और 1913 की तुलना में 500 प्रतिशत बढ़ गया। योजना के अन्त तक 4500 नये औद्योगिक उपक्रम स्थापित हुए जो कुल औद्योगिक उत्पादन का 80 प्रतिशत पैदा कर रहे थे। बिजली उत्पादन 2600 करोड़ किलोवाट हो गया जो 1932 की तुलना में दोगुना और 1913 की तुलना में तेरह गुना था। सभी अवरचनागत उद्योगों ने ऐसी ही प्रचण्ड वृद्धि दर्ज की।

नयी आर्थिक नीति की समाप्ति के समय दुनिया के औद्योगिक देशों में रूस पाँचवें स्थान पर था, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर यह दूसरे स्थान पर आ चुका था। 1928 में नयी आर्थिक नीति की समाप्ति पर विश्व के कुल औद्योगिक उत्पादन में अमेरिका का हिस्सा 46.9%, जर्मनी 11.9%, ब्रिटेन का 8.46%, फ्रांस का 7.84% और सोवियत यूनियन का 4.42% हिस्सा था। लेकिन 1937 में दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक यह स्थिति बदल चुकी थी। अब पर विश्व के कुल औद्योगिक उत्पादन में अमेरिका का हिस्सा 38.16%, सोवियत यूनियन का 14.99%, जर्मनी का 10.33%, ब्रिटेन का  8.16% और फ्रांस का 5.25% हिस्सा हो गया था। सोवियत संघ के औद्योगिक विकास की दर समूचे आधुनिक इतिहास में अतुलनीय थी।

ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार ऐंगस मैडिसन के अनुसार, सोवियत संघ में 1913 से 1965 के बीच प्रति व्यक्ति आर्थिक वृद्धि की दर दुनिया के सभी विकसित देशों से भी ऊपर थी। इस दौरान सोवियत संघ की आर्थिक वृद्धि दर 440 प्रतिशत थी। उसके ठीक नीचे जापान (400 प्रतिशत) था। ब्रिटिश मार्क्सवादी अर्थशास्त्री मॉरिस डॉब के अनुसार, उद्योगों की परिमाणात्मक वृद्धि को संक्षेप में इन सूचकों के ज़रिये जाना जा सकता है
1928-38
के दशक के दौरान लोहा और इस्पात उद्योग की उत्पादक क्षमता चार गुना, कोयले की साढ़े तीन गुना, तेल की भी तीन गुना और बिजली की लगभग सात गुना बढ़ गयी थी, जबकि इसी दौरान नये उद्योगों की एक पूरी कतार स्थापित की जा चुकी थी जिसमें वायुयान, प्लास्टिक और कृत्रिम रबर सहित विविध भारी रसायन, एल्यूमीनियम, ताँबा, निकिल और टिन आदि शामिल हैं। सोवियत संघ दुनिया में ट्रैक्टरों और रेल इंजनों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा तेल, सोना और फॉस्फेट का दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया थाा

सोवियत सत्ता ने गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद से ही विज्ञान-तकनोलॉजी के विकास पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया। पहली पंचवर्षीय योजना के समय से नाभिकीय भौतिकी, क्वाण्टम भौतिकी, अन्तरिक्ष भौतिकी, रसायन, जैव-रसायन, प्राणि विज्ञान, भूगर्भ शास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में तथा इंजीनियरिंग की सभी शाखाओं में योजनाबद्ध शोध-अध्ययन की शुरुआत हुई।… 1930 के दशक के मध्य तक, ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.डी. बर्नाल के आकलन के अनुसार, सोवियत संघ अपनी राष्ट्रीय आय का एक प्रतिशत विज्ञान-तकनोलॉजी पर खर्च कर रहा था जो अमेरिका के मुकाबले 3 गुना और ब्रिटेन के मुकाबले 10 गुना था। इस वैज्ञानिक प्रगति का आधार तैयार करने के लिए सोवियत सत्ता विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई-कई संस्थाओं के ज़रिये समाज के तृणमूल स्तर पर काम करती थी। साथ ही, उच्च शिक्षा का एक व्यापक ताना-बाना खड़ा किया गया था। 1917 में रूस में मात्र 91 विश्वविद्यालय और कॉलेज तथा 289 शोध संस्थान थे जिनमें 4,340 वैज्ञानिक कार्यरत थे। 1941 में सोवियत संघ में 700 विश्वविद्यालय व कालेज तथा 908 शोध संस्थान थे जिनमें 26,246 वैज्ञानिक कार्यरत थे।

1941 तक गणित, क्वाण्टम भौतिकी, नाभिकीय भौतिकी, क्रिस्टल भौतिकी, भूगर्भ शास्त्र, भू-विज्ञान, भौतिक रसायन, प्लाण्ट-ब्रीडिंग और एयरोडायनॉमिक्स जैसे क्षेत्रों में सोवियत संघ में कई ‘पाथ ब्रेकिंग’ शोध हो चुके थे और यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। सोवियत नाभिकीय कार्यक्रम और अन्तरिक्ष कार्यक्रम की नींव भी इसी समय पड़ चुकी थी।…

साक्षरता कम्युनिज़्म का रास्ता तैयार करती है– 1920 के दशक के एक पोस्टर की इबारत को बोल्शेविकों ने इस तरह व्यवहार में उतारा कि गृहयुद्ध (1918-21) के दौरान भी निरक्षरता-विरोधी अभियान चलता रहा और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मज़दूरों के लिए फैक्ट्रियों, खदानों और रेलवे लाइन के किनारे विशेष स्कूल स्थापित किये गये। 1927 से 1940 के बीच पाँच करोड़ प्रौढ़ लोगों ने पढ़ना-लिखना सीखा। 1914-15 में सभी शिक्षा संस्थानों में छात्रों की कुल संख्या 99 लाख थी। 1956-57 तक यह बढ़कर 3 करोड़ 55 लाख हो चुकी थी। समाजवाद की राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुरूप प्राथमिक शिक्षा और काम के साथ शिक्षा पर अधिक ज़ोर दिया गया। 1897 में पुरुषों में साक्षरता 39.1% और स्त्रियों में 13.7% तथा दोनों को मिलाकर 26.3% थी। क्रान्ति के बाद के 9 वर्षों में यह छलाँग लगाकर 1926 में पुरुषों में 71.5% और स्त्रियों में 42.7& (दोनों मिलाकर 56.6%) हो गयी। 1959 में यह आँकड़ा पुरुषों में 99.3% और स्त्रियों में 97.8% (दोनों मिलाकर 98.5%) हो गया।

अब हम स्वास्थ्य सेवाओं पर एक दृष्टि डालें। क्रान्ति के तुरन्त बाद सोवियत सत्ता ने सभी नागरिकों के लिए मुफ़्त चिकित्सा सेवा की व्यवस्था लागू की। इस मामले में सरकार की प्रतिबद्धता इतनी कठोर थी कि गृहयुद्ध के वर्षों में भी इसके लिए बुनियादी ढाँचा खड़ा करने का काम जारी रहा और 1920 के दशक से तो यह तूफ़ानी गति से आगे बढ़ा। 1960 में एक बुर्जुआ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ मार्क जी. फ़ील्ड ने सोवियत जन-स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में लिखा था : किसी भी अन्य गतिविधि की तरह स्वास्थ्यरक्षा भी नियोजित होनी चाहिए, इसमें समानता होनी चाहिए, स्वास्थ्य रक्षा राज्य द्वारा वित्त पोषित एक मुफ़्त सामाजिक सेवा हैजनता का स्वास्थ्य सरकार की ज़िम्मेदारी है, और इसमें व्यापकतम जनभागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, सिद्धान्त और व्यवहार की एकता होनी चाहिएसोवियत शासन ने पिछले चार दशकों के दौरान जनसेवा के तौर पर प्रदान की जाने वाली चिकित्सीय उपचार और निरोधक चिकित्सा की एक व्यवस्था क़ायम की है जिसका विस्तार इस क्षेत्र में राष्ट्रीय पैमाने पर किये गये किसी भी प्रयास से अधिक व्यापक हैा” (एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रशिया ऐण्ड सोवियत यूनियन’, सम्पादक, एम.टी. फ्लोरिंस्की, न्यूयार्क)

स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में हुई चतुर्दिक क्रान्ति को कुछ आँकड़ों के ज़रिये समझा जा सकता है। अस्पतालों में शैयाओं की संख्या 1913 में 20,700 थी जो छह गुना बढ़कर 1956 में 1,36,000 हो गयी। 1913 में प्रति दस हजार आबादी पर 13 शैयाएँ थी जो 1956 में बढ़कर 68 हो गयीं। डॉक्टरों की संख्या 1913 में 23,000, 1940 में 1,42,000 और 1958 में 3,62,000 थी। यानी इस अवधि में 15 गुना बढ़ोत्तरी हुई। 1958 में प्रति दस हज़ार निवासियों पर डॉक्टरों की संख्या ब्रिटेन में 8.8, अमेरिका में 12 और सोवियत संघ में 17 थी। यह बड़ी संख्या में स्त्रियों के प्रशिक्षण के कारण सम्भव हो सका। क्रान्ति के पहले डॉक्टरों में 10 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1940 तक वे 60 प्रतिशत और 1958 तक 75 प्रतिशत हो चुकी थीं। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले ही सोवियत संघ से यौन रोगों, कुपोषण और अस्वास्थ्यकर परिस्थिति-जनित रोगों तथा अधिकांश संक्रामक बीमारियों का लगभग ख़ात्मा हो चुका था।

ज़ाहिर है कि समाजवाद का लक्ष्य सिर्फ़ भौतिक प्रगति के नये शिखरों तक पहुँचना नहीं था, बल्कि न्याय, समानता और पूरी आबादी की (भौतिक मुक्ति के साथ ही) आत्मिक मुक्ति के साथ-साथ भौतिक प्रगति हासिल करना था। इसके लिए ज़रूरी था कि निजी स्वामित्व की व्यवस्था के साथ ही वह उसके एक प्रमुखतम स्तम्भ पर, यानी पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे पर भी चोट करे, चूल्हे-चौखट की दमघोंटू नीरस दासता से स्त्रियों को मुक्त करे, उन्हें पुरुषों के साथ वास्तविक बराबरी का दर्जा देते हुए सामाजिक उत्पादक गतिविधियों और राजनीतिक-सामाजिक दायरों में भागीदारी का भौतिक-वैचारिक आधार तैयार करे तथा इसके लिए पुरुष वर्चस्ववादी मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं की जड़ों पर कुठाराघात करे।

अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्त्रियों की मुक्ति की जिस लम्बी यात्रा की शुरुआत हुई, उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण भौतिक पक्ष था सामाजिक श्रम में उनकी बढ़ती हुई भागीदारी। 1914 में कारख़ानों में लगी कुल श्रम शक्ति का मात्र 25 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1929 में यह संख्या बढ़कर 28 प्रतिशत, 1940 में 41 प्रतिशत और 1950 में 45 प्रतिशत हो गयी। इस उपलब्धि को इस तथ्य की रोशनी में देखा जाना चाहिए कि केवल 1913 से 1937 के बीच उद्योगों में आठ गुना वृद्धि हुई थी और इसके साथ ही, ज़ाहिरा तौर पर कुल औद्योगिक श्रम-शक्ति भी बढ़ गयी थी। संचार सेवाओं, जन भोजनालयों, जन स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों का अनुपात विशेष रूप से अधिक था, लेकिन धातुकर्म, मशीन निर्माण, खदान और निर्माण उद्योगों में उनका प्रतिशत अनुपात लगातार बढ़ती भागीदारी के बावजूद पुरुषों से कम था। लेकिन जब तक सोवियत संघ में समाजवाद क़ायम था, यह स्थिति लगातार तेज़ी से बदलती जा रही थी। 1957 में उद्योगों में कार्यरत कुल तकनीशियनों में 59 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं।

सोवियत क्रान्ति ने स्त्रियों को जब मताधिकार दिया, उस समय दुनिया के उन्नत बुर्जुआ जनवादी देशों की स्त्रियों को भी यह हक़ हासिल नहीं था। ब्रिटेन की स्त्रियों को यह हक 1928 में जाकर हासिल हुआ। क्रान्ति के ठीक एक माह बाद सिविल मैरिज की व्यवस्था और तलाक को सुगम बनाने के लिए दो आज्ञप्तियाँ जारी की गयीं। फिर अक्टूबर, 1918 में विवाह, परिवार और बच्चों के अभिभावकत्व जैसे सभी पक्षों को समेटते हुए एक ऐतिहासिक मैरिज कोड की अभिपुष्टि की गयी।  इस कोड ने जेण्डर समानता और व्यक्तिगत अधिकारों के नये सिद्धान्त के रूप में पहली बार स्त्रियों को वे अधिकार दिये जो दुनिया का कोई भी बुर्जुआ जनवादी देश आज तक नहीं दे पाया है।

विवाह, सहजीवन और तलाक के मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को पूरी तरह समाप्त कर दिया। यौन-सम्बन्धों के मामले में भी राज्य और समाज का कोई हस्तक्षेप नहीं था, जब तक कि किसी को चोट पहुँचाने, ज़ोर-जबर्दस्ती या धोखा देने जैसा कोई मामला न हो। समलैंगिकता और रज़ामन्दी से किये जाने वाले यौन-क्रियाकलापों के विरुद्ध पहले के सभी क़ानूनों को समाप्त कर दिया गया। इसी तरह वेश्यावृत्ति को अपराध मानने वाले क़ानूनों को भी इस कम्युनिस्ट सोच के तहत रद्द कर दिया गया कि स्त्री को समान अधिकार और स्वतंत्र सामाजिक-आर्थिक हैसियत देने के बाद वर्ग समाज की इस प्राचीनतम बुराई का भी समूल नाश हो जायेगा। आने वाले वर्षों ने इस सोच को सही साबित किया। 1930 के दशक के मध्य तक सोवियत संघ से वेश्यावृत्ति, यौन रोगों और यौन अपराधों का पूरी तरह से ख़ात्मा हो चुका था।

क्रान्ति-पश्चात् काल में, यानी साम्राज्यवादी हमले, घेरेबन्दी और गृहयुद्ध के पूरे दौर में स्त्री बोल्शेविकों ने युद्ध, उत्पादन, शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चों पर अहम भूमिका निभाने के साथ-साथ सुदूर रूसी गाँवों और इस्लामी धार्मिक रूढ़ियों में जकड़े पूरब के सोवियत गणराज्यों तक पहुँचकर तमाम ख़तरों और कठिनाइयों का सामना करते हुए स्त्रियों के बीच शिक्षा एवं प्रचार का काम किया। 1920 तक अगर रूढि़यों-वर्जनाओं की सभी बेड़ियों को तोड़ते हुए 80,000 से भी अधिक स्त्रियाँ लाल सेना में भरती हो गयीं, तो इसमें स्त्री बोल्शेविकों के श्रमसाध्य प्रयासों की भी एक महती भूमिका थी। इन वीरांगनाओं की क़ुर्बानी का अनुमान महज़ इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गृहयुद्ध के दौरान और उसके बाद के दो वर्षों के दौरान जब पूरा देश (विशेषकर दक्षिणी और पश्चिमी भाग) अकाल, भुखमरी और बीमारियों से जूझ रहा था तो इस दौरान तेरह प्रतिशत स्त्री बोल्शेविक कार्यकर्ता आम जनता के बीच काम करते हुए कुपोषण और संक्रामक बीमारियों से मौत का शिकार हो गयीं। यही समय था जब देश के दक्षिणी और पश्चिमी इलाक़ों में तीन वर्ष से कम आयु के 90 प्रतिशत बच्चे मौत के ग्रास बन गये। 1922 में देश में अनाथ बच्चों की संख्या 75 लाख थी। सरकार 1918 से 16 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ़्त भोजन और आवास का प्रबन्ध कर रही थी।…

सरकार ने क्रान्ति के तत्काल बाद स्त्री मज़दूरों को सामाजिक-साँस्कृतिक सुविधाएँ और सामुदायिक सेवाएँ देने के साथ-साथ उनके लिए शिक्षा एवं प्रशिक्षण के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी। 1918 के लेबर कोड के अन्तर्गत छोटे बच्चों की माँ स्त्री मज़दूरों को हर तीन घण्टे पर बच्चे को दूध पिलाने के लिए 30 मिनट का अवकाश दिया जाता था जिसे काम के घण्टों में ही गिना जाता था। गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्चों की माँओं को रात की पाली में काम नहीं करना होता था। उनको ओवरटाइम करने से भी छूट थी। 1918 में ‘मातृत्व बीमा कार्यक्रम’ लागू हुआ, जिसके अन्तर्गत स्त्री मज़दूरों के लिए पूर्णत: सवैतनिक आठ सप्ताह के मातृत्व अवकाश, फैक्ट्री में काम के दौरान बच्चे की देखरेख और आराम के लिए ब्रेक्स की सुविधा, प्रसव-पूर्व और पश्चात डॉक्टरी देखभाल के लिए नि:शुल्क सुविधा और नक़दी भत्तों की व्यवस्था की गयी थी। गृहयुद्ध के कठिन दिनों में ही कार्यस्थलों पर पालनाघरों और नर्सरियों के साथ ही मैटर्निटी क्लीनिकों, परामर्श केन्द्रों, फ़ीडिंग स्टेशनों तथा नवजात केन्द्रों के एक देशव्यापी नेटवर्क के निर्माण का काम शुरू हो गया था।… 1927-28 तक रजोनिवृत्ति के दिनों में स्त्रियों को सवैतनिक छुट्टी दी जाने लगी। सोवियत संघ ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश था।

पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान जब पूरे देश में खेती का सामूहिकीकरण हुआ, सामूहिक फार्मों का तेज़ गति से मशीनीकरण हुआ और ग्राम सोवियतों की व्यवस्था पूरे देश में फैल गयी तो कृषि उत्पादन में भारी वृद्धि के साथ ही गाँवों में स्त्रियों की स्थिति में भी क्रान्तिकारी बदलाव आये। ट्रैक्टर और हार्वेस्टर चलाने के साथ ही स्त्रियाँ सोवियतों के कामकाज में भी बराबरी से हिस्सा लेने लगीं। गाँवों की स्त्रियों में शिक्षा तेज़ी से बढ़ी। कारख़ानों के अतिरिक्त सामुदायिक भोजनालय, पालनाघर, नर्सरी आदि सामूहिक फार्मों में भी खुलने लगे और ग्रामीण स्त्रियाँ भी चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी से मुक्त होने लगीं।

स्त्रियों की इस सामाजिक प्रगति को कुछ आँकड़ों के ज़रिये हम आसानी से जान-समझ सकते हैं। 1929 में सोवियत संघ में कुल स्त्री कामगारों की संख्या 30 लाख से कुछ अधिक थी। पाँच वर्षों में यह दोगुनी से भी अधिक बढ़कर 1934 में 70 लाख हो गयी। 1929 में कुल कामगारों में स्त्रियाँ 25 प्रतिशत से कुछ अधिक थीं। 1941 में ये बढ़कर 45 प्रतिशत हो गयीं। 1929 से 1941 के बीच बड़े उद्योगों में स्त्रियों की भागीदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत, परिवहन में 10 प्रतिशत से बढ़कर 38 प्रतिशत, शिक्षा में 55 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 72 प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में 65 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 78 प्रतिशत हो गयी। शिशुशालाएँ 1927 में 550 थीं जो 1938 में बढ़कर 7,23,651 हो गयीं। बाल विहारों की संख्या 1927 में 1,07,500 थी जो 1937-38 में बढ़कर 10,56,800 हो गयीं। 1940 में सोवियत सत्ता ने यह निर्देश जारी किया हर नये सामुदायिक आवास परियोजना में 5 प्रतिशत ज़मीन नर्सरी सुविधाओं के लिए आरक्षित रहेगी।

स्त्रियों की मुक्ति ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ की विजय में अहम भूमिका निभायी। मुख्यत: उन्हीं की बदौलत युद्ध के कठिन दिनों में उत्पादन जारी रहा। 1941 के ठीक पहले उद्योगों में कुल श्रमशक्ति की 45 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं, जो 1942 तक 53 प्रतिशत हो गयीं। 1942 में रेल यातायात में 25 प्रतिशत, शिक्षा में 58 प्रतिशत और चिकित्सा में 83 प्रतिशत श्रमशक्ति स्त्रियों की लगी हुई थी। और सामुदायिक खेती तो मानो उन्हीं के कन्धों पर टिकी थी। युद्ध पूर्व वर्षों के मुक़ाबले युद्धकाल में स्त्री ट्रैक्टर चालकों की संख्या 11 गुना, स्त्री हॉर्वेस्टर ऑपरेटरों की संख्या 7 गुना और मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों में कार्यरत स्त्रियों की संख्या 10 गुना बढ़ गयी। उत्पादन के मोर्चे के साथ ही नात्सी-विरोधी छापामार दस्तों में भी युवा स्त्रियों ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की। युद्ध में 2 करोड़ 70 लाख लोगों को खोकर और बुरी तरह तबाह होने के बावजूद सोवियत संघ ने अगर फासिज़्म को नेस्तनाबूद कर दिया और अगर युद्ध पश्चात चन्द वर्षों के भीतर तूफ़ानी गति से पुनर्निर्माण करके फिर से उठ खड़ा हुआ तो इसके लिए मुख्यत: तीन चीज़ें जि़म्मेदार थीं : पहला, क्रान्ति द्वारा मुक्त हुए मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय की सामूहिक पहलकदमी और हर क़ीमत पर समाजवाद को बचाने की आकांक्षा, दूसरा, क्रान्ति के बाद व्यापक जन-भागीदारी से उत्पादन, विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास, और तीसरा, समाजवाद द्वारा मुक्त हुईं स्त्रियों की अकूत सामूहिक शक्ति और सर्जनात्मकता का निर्बन्ध होना।

स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बावजूद, समाज में तृणमूल स्तर पर समाजवादी संस्थाएँ और मूल्य लम्बे समय तक बने रहे। ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव काल से लेकर 1980 के दशक तक, आर्थिक संकट, राजनीतिक निरंकुश भ्रष्ट तंत्र और सामाजिक-साँस्कृतिक विकृतियों के बावजूद, जनता की पहलक़दमी पर स्थापित सोवियत संस्थाएँ समाज में नीचे के स्तरों तक बनी रहीं तथा स्त्री-उत्पीड़न और स्त्री-पुरुष असमानता केनये रूपों के अस्तित्व में आने के बावजूद, स्त्रियों की वह सामाजिक प्रगति और स्वतंत्रता किसी हद तक सुरक्षित बची रह गयी थी, जो समाजवादी दौर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। 1960 और 1970 के दशकों के दौरान विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा-प्राप्त स्त्रियों की संख्या सोवियत संघ में अमेरिका और फ्रांस से अधिक थी। 1971 में पैरामेडिकल क्षेत्र में कुल कार्यरत आबादी में 98 प्रतिशत, मेडिकल और राजकीय स्कूलों में 75 प्रतिशत और पुस्तकालयों में 90 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। स्त्रियों की जीवन-प्रत्याशा 1927 में 30 से बढ़कर 1974 में 74 हो चुकी थी।

नादेज़्दा क्रुप्सकाया ने एक बार कहा था कि समाजवाद का मतलब केवल विशालकाय कारख़ानों और सामूहिक फार्मों का निर्माण करना नहीं है, बल्कि सर्वोपरि तौर पर एक नये मनुष्य का निर्माण करना है। समाजवाद के चन्द दशकों ने ही इस धारण को मूर्त रूप में ढाल दिया था। गृहयुद्ध, अकाल और भुखमरी के तीन वर्षों के बीतने के साथ ही रूस और सोवियत संघ के सभी गणराज्यों में साँस्कृतिक संस्थाओं और माध्यमों का अभूतपूर्व स्तर पर विस्तार होने लगा। सिर्फ़ राजधानियों और शहरों में ही नहीं, कारख़ानों और सामूहिक फार्मों तक में रंगशालाएँ, सिनेमाघर, पुस्तकालय, सभागार, संगीत-नाटक आदि के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित होने लगे। आम लोगों को इतने बड़े पैमाने पर नि:शुल्क साँस्कृतिक संसाधन कभी नहीं मुहैया कराये गये थे। पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से लेकर फिल्म, संगीत, कला आदि सभी साँस्कृतिक उत्पादन समाजवादी राज्य द्वारा वित्तपोषित होते थे। ज्ञान, कला और संस्कृति तक इस आम पहुँच की बदौलत आम मज़दूरों के बीच से सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों-हजार लेखक और कलाकार उभरकर सामने आये।…

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दुनिया की पहली समाजवादी क्रान्ति की इन युगान्तरकारी, अभूतपूर्व और विस्मयकारी उपलब्धियों की चर्चा के बाद यह यक्ष प्रश्न और विकट होकर हमारे समक्ष खड़ा हो जाता है कि इतनी महान क्रान्ति किन आन्तरिक अन्तरविरोधों के कारण, किन कमज़ोरियों और ग़लतियों के कारण, किन प्रश्नों का उत्तर न ढूँढ़ पाने के कारण, या यूँ कहें कि किन मनोगत और वस्तुगत कारणों से गतिरोध, विघटन और पराजय का शिकार हुई? जिस समाजवादी सत्ता ने गृहयुद्ध और चौदह साम्राज्यवादी देशों के आक्रमण को भी नाकाम कर दिया था, जिसने अकेले ही पूरे यूरोप को बूटों तले रौंद रही हिटलर की फ़ौजों को धूल में मिला दिया था और चन्द वर्षों के भीतर विनाश की राख से फ़ीनिक्स पक्षी की तरह उठकर फिर से उन्नति के नये सोपानों को चढ़ना शुरू कर दिया था, वह फिर बिना किसी सामरिक हमले के ही कैसे ध्वस्त हो गयी?

इन सवालों के जवाब ढूँढ़ने के लिए आप वह पूरी पुस्तिका ज़रूर पढ़ें जिसके कुछ अंश हमने ऊपर प्रकाशित किये हैं – ‘अक्टूबर क्रान्ति की उपलब्धियाँ, समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ  और भविष्य की सम्भावनाएँ’, लेखक : शशि प्रकाश।

आप लेखक की यह पुस्तिका भी ज़रूर पढ़ें – ‘समाजवाद की समस्याएँ, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और महान सर्वहारा साँस्कृतिक क्रान्ति’।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2025

 

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन