बारिश ने उजागर की “स्मार्ट सिटी” की हक़ीकत
न स्वच्छता अभियान की नौटंकी, न नेताओं-मन्त्रियों की जवाबदेही — हर बार की तरह मज़दूर और मेहनतकश तबका ही भुगत रहा है!

आशु

अभी हाल में उत्तर भारत में हुई तेज़ बारिश ने एक बार फिर सरकार और प्रशासन के सारे दावों की पोल खोल दी। दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों के तमाम शहरों में जलभराव, सीवर जाम, टूटी सड़कें, और सड़ते पड़े कूड़े के ढेर एक भयानक हकीकत बनकर हमारे सामने हैं। दिल्ली एनसीआर से लेकर रोहतक, हिसार, गुड़गाँव जैसे कई क्षेत्रों में तो स्थिति इतनी बदतर हो गई कि घरों और दुकानों में गन्दा पानी भर गया। गलियों में चलना मुश्किल हो गया, बीमारियों ने दस्तक दी और मज़दूर तबका, जो पहले ही महँगाई और बेरोजगारी की मार झेल रहा है, अब स्वास्थ्य और आवागमन की परेशानी से भी जूझ रहा है।

झूठे वायदों की सड़ाँध और गन्दे नालों की बदबू

प्रतीकात्मक तस्वीर

यूँ तो मोदी सरकार हर साल “स्वच्छ भारत मिशन” और “स्मार्ट सिटी” का ढोल पीटती हैं। कागज़ों में करोड़ों रुपये ख़र्च दिखाये जाते हैं। अखबारों और टीवी चैनलों में चमचमाते विज्ञापन चलते हैं। लेकिन ज़मीनी हालात क्या हैं? एक बारिश आई और दिल्ली के कुलीन इलाकों से लेकर हरियाणा के छोटे शहरों तक, सबकी पोल खुल गई। जगह-जगह भरे नालों से बदबू मारता पानी सड़क पर बहने लगा। अस्पतालों में मलेरिया, डेंगू, टाइफाइड, पीलिया जैसे संक्रमणों के मरीज़ बढ़ गए। अमीरज़ादों के इलाकों में तो सरकार फिर भी तात्कालिक तौर पर कुछ इन्तज़ाम करने की क़वायद करती है, लेकिन मेहनतकश आबादी के इलाकों का कोई नामलेवा नहीं होता और आम जनता को जलभराव और गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियों और संक्रमणों से मरने के लिए छोड़ दिया जाता है।

इन हालात में सबसे ज़्यादा मार उस वर्ग पर पड़ी है, जो हर रोज़ सुबह 5 बजे उठकर काम की तलाश में, या कारखानों, दफ़्तरों, दुकानों पर काम तक पहुँचने के लिए निकलता है — मज़दूर वर्ग। फुटपाथ पर रहने वाला, झुग्गियों में गुजर-बसर करने वाला, ईंट-भट्ठों और फ़ैक्टरियों में काम करने वाला, सफाई कर्मचारी, निर्माण मज़दूर, रेहड़ी-पटरी चलाने वाला, इन सबके लिए ये बारिश आफ़त बनकर आई है। जिन झुग्गियों में वे रहते हैं, वहाँ सीवर व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं। न कोई निकासी का प्रबन्ध है, न कोई प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा। इसका नतीजा क्या होता है, ये हम मज़दूर जानते हैं। हमें इसी गन्दगी में पशुवत पड़े रहने के लिए छोड़ दिया जाता है, हालाँकि हमारे समाज के धनाढ्य वर्गों की समृद्धि की इमारतें हमारे श्रम की नींव पर ही खड़ी होती हैं।

कौन लेगा ज़िम्मेदारी?

हर बार की तरह इस बार भी जब पानी सिर के ऊपर चढ़ गया, तब कहीं जाकर प्रशासन हरक़त में आया, नेताओं की नींद खुली। नेताओं ने एक-दो जगह दौरा किया, कैमरे में पोज़ दिया और चले गए। कुछ जगह पर पानी निकालने के लिए दमकल या मोटरें लगाई गईं, लेकिन ज़्यादातर इलाकों में मज़दूर वर्ग को खुद ही अपनी गलियों और घरों से पानी बाल्टियों से निकालना पड़ा। सवाल यह है कि हर बार जनता ही क्यों ढोती रहे प्रशासन की नाकामी और असंवेदनशीलता का बोझ? क्या सड़कों की मरम्मत, सीवरेज सिस्टम की सफाई, और कूड़ा निस्तारण की जिम्मेदारी मज़दूरों की है? क्या करोड़ों रुपये टैक्स के रूप में देने के बावजूद जनता को हर बार अपनी समस्या खुद सुलझानी होगी? यह काम सरकार का है। लेकिन जनता से वसूले जा रहे डकैती टैक्सों जैसे जीएसटी व पेट्रोलियम उत्पादों पर लगे टैक्सों के ज़रिये जुटाये जा रहे लाखों करोड़ रुपयों को तो पूँजीपतियों को तमाम छूटें और रियायतें देने, नेताओं-नौकरशाहों की ऐय्याशियों, सुरक्षा आदि पर उड़ा दिया जाता है। तो फिर जनता की बुनियादी सुविधाओं पर ख़र्च करने के लिए सरकार के पास धन बचेगा कहाँ से!

स्वच्छता का ढोंग और ज़मीनी हकीकत

जब चुनाव आते हैं, तो हर पार्टी स्वच्छता, जलनिकासी, और सुन्दर शहरों की बातें करती है। लेकिन सत्ता में आते ही ये मुद्दे गायब हो जाते हैं। कई जगहों पर सांसद-विधायक वर्षों से एक ही व्यक्ति हैं, लेकिन इलाके की हालत जस की तस बनी हुई है। फिर सवाल उठता है — क्या स्वच्छ भारत का सपना केवल विज्ञापन एजेंसियों और ठेकेदारों के लिए है? क्या आम मज़दूर को साफ़-सुथरा और सुरक्षित जीवन जीने का कोई हक़ नहीं? मोदी सरकार ने तो सत्ता में आने के बाद से “स्वच्छ भारत” का सबसे ज़्यादा ढोल बजाया है। लेकिन हर बारिश में इस नौटंकी की सच्चाई जनता के सामने आ जाती है।

साफ़-सफ़ाई का मुद्दा सिर्फ “गन्दगी साफ करने” तक सीमित नहीं है। ये एक वर्गीय प्रश्न है। जिन इलाकों में अमीर लोग रहते हैं, आम तौर पर वहाँ की गलियाँ बारिश से पहले भी साफ कर दी जाती हैं, सीवर पहले से चेक कर लिए जाते हैं, स्ट्रीट लाइट्स दुरुस्त होती हैं। लेकिन ग़रीबों की बस्तियाँ, झुग्गियाँ, और मज़दूरों की कॉलोनियाँ प्रशासन की नज़र में आखिरी पायदान पर भी नहीं आतीं। हमें भी इस सवाल को निजी परेशानी नहीं, बल्कि सामूहिक जन संकट के रूप में लेना होगा और यह समझना होगा कि जब तक हम संगठित नहीं होंगे, तब तक हर बार की तरह बारिश हमें डुबोती रहेगी ।

बारिश ने जो दिखाया है वह सिर्फ मौसम की मार नहीं है — यह पूँजीवादी  व्यवस्था का भ्रष्टाचार, जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही का पूर्ण अभाव, और सरकारी तन्त्र की मजदूरविरोधी मानसिकता की असली तस्वीर है।

मज़दूर वर्ग को अब और इन्तज़ार नहीं करना चाहिए। अब समय है कि हम अपने हक़ के लिए, साफ-सुथरे और सुरक्षित जीवन के लिए, स्वच्छता और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं के लिए संगठित होकर संघर्ष करें। साफ है कि सफाई कर्मचारी हो या झुग्गी में रहने वाला मज़दूरजब सफाई और स्वास्थ्य की बात आती है तो सरकार उन्हें भूल जाती है।

हमें क्या करना होगा?

हर बार नेताओं को गालियाँ देने से कुछ नहीं होगा। अब वक्त आ गया है कि आम जनता, खासकर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश कामकाज़ी लोग एकजुट होकर इन बुनियादी सवालों पर संगठित होकर आवाज़ बुलन्द करें। बैठकर इन्तज़ार करते रहने, अपनी क़िस्मत और हालात को कोसते रहने से कुछ नहीं होगा। हमें अपने शत्रु को पहचानना होगा, और उसके विरुद्ध संघर्ष को संगठित करना होगा। इसके लिए हमें अपने इलाकों को संगठित होकर निम्न कार्रवाइयाँ करनी होंगी:

अपने वार्ड के पार्षद, विधायक और सांसद से जवाब माँगना होगा

लोकल स्तर पर जनजागरूकता अभियान चलाना होगा

गलियों की सफाई, सीवरेज और सड़कों की मरम्मत के लिए लगातार ज्ञापन, घेराव और प्रदर्शन जैसे कदम उठाने होंगे

जहाँ संभव हो, जनता को खुद सफाई अभियान चलाकर, प्रशासन की लापरवाही को सार्वजनिक रूप से उजागर करना चाहिए और लोगों को सफ़ाई के अधिकार को एक बुनियादी अधिकार के तौर पर पहचानने और उसके लिए लड़ने के लिए शिक्षित करना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025

 

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