मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (तेरहवीं क़िस्त)
शिवानी
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हमने पिछली बारह किश्तों में मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवाद की प्रवृत्ति पर अपनी बात रखी थी। इस बार यहाँ हम इस चर्चा के मुख्य बिन्दुओं का एक संक्षिप्त समाहार प्रस्तुत करेंगे ताकि अगली बार से हम एक नयी प्रवृत्ति पर अपनी बात शुरू कर सकें। अर्थवाद की प्रवृत्ति मज़दूर आन्दोलन में मौजूद एक बेहद ख़तरनाक और भ्रामक प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति पर केन्द्रित अपनी चर्चा के दौरान जो सबसे महत्वपूर्ण बात हमने समझी वह यह है कि अर्थवाद जहाँ एक ओर मज़दूरों को केवल वेतन-भत्तों की आर्थिक लड़ाई के गोल चक्कर में फँसाकर रखता है, वहीं दूसरी ओर वह मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद की चौहद्दियों के पार जाने से भी रोकता है। अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्तों और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही, समस्त आन्दोलन का अन्तिम पड़ाव बना देता है और आन्दोलन की समस्त कार्यवाइयों को केवल आर्थिक संघर्षों की ओर ही संचालित करता है।
अर्थवादी आम तौर पर यह तर्क देते हैं कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से केवल इन्हीं आर्थिक संघर्षों से पैदा हो जाती है! मज़दूर वर्ग के बीच अलग से राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण के काम की कोई आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि मजदूरों की राजनीतिक मसलों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है! अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सबसे पहले आता है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है। मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का दायरा केवल आर्थिक माँगों तक सीमित रहेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि बतौर एक राजनीतिक वर्ग वह इन आर्थिक संघर्षों को भी राजनीतिक तौर पर लड़ेगा।
मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने अर्थवाद की विजातीय ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ एक फैसलाकुन विचारधारात्मक संघर्ष चलाया था और मज़दूर आन्दोलन में सही सर्वहारा अवस्थिति को स्थापित किया था। इस संघर्ष का चरमोत्कर्ष लेनिन की 1902 की रचना ‘क्या करें?’ थीं। इसके साथ ही हमने अपनी चर्चा में यह भी देखा था कि अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम सैद्धान्तिक संघर्ष के दौरान ही लेनिन द्वारा सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को भी सूत्रबद्ध किया गया था। अर्थवाद के विरुद्ध चले इस वैचारिक संघर्ष में लेनिन ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया था कि मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग बन सके, वह अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में व्यापक मेहनतकश जनता का हिरावल बन सके और उनको नेतृत्व दे सके, इसके लिए उसे अपनी तात्कालिक विशिष्ट आर्थिक माँगों से आगे बढ़कर दीर्घकालिक राजनीतिक माँगों के बारे में भी सोचना होता है और अपने ऐतिहासिक मिशन के बारे में सचेत रहना होता है। यह ऐतिहासिक मिशन है पूँजीवाद का नाश करना और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करना। मज़दूर वर्ग यह लक्ष्य केवल अपनी ताक़त के बूते पूरा नहीं कर सकता है बल्कि इसके लिए उसे जनता के अलग-अलग हिस्सों के साथ की ज़रूरत होती है और इसलिए मित्र वर्गों के साथ संश्रय और मोर्चा बनाने की दरकार होती है। अर्थवाद की विशेषता ही यही है कि वह मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर अपंग बना देता है।
हमने अपनी चर्चा के दौरान इस बात को भी समझने का प्रयास किया कि अर्थवाद की प्रवृत्ति वास्तव में पूँजीवाद के आर्थिक तर्क को ही मज़दूर आन्दोलन में स्थापित करने का काम करती है और मज़दूरों के केवल वेतन-भत्ते बढ़वाने के लिए संघर्ष की बात पर ज़ोर देते हुए पूँजीवाद के दायरे का अतिक्रमण करने के विचार को ही अजेण्डा से ग़ायब कर देती है। हमने यह भी समझा कि हमारे देश के मज़दूर आन्दोलन में आज जहाँ एक तरफ़ नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनें अर्थवाद का एक बेहद भोंडा और नंगा क़िस्म का संस्करण प्रस्तुत करती हैं यानी कि अर्थवाद का संशोधनवादी-दक्षिणपन्थी संस्करण पेश करती हैं, वहीं दूसरी तरफ़ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन जुझारू क़िस्म के अर्थवाद यानी कि “वामपन्थी” अर्थवाद का घोलमट्ठा तैयार करते हुए मिलते हैं।
हमने यह भी समझने का प्रयास किया कि अर्थवाद आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों के ऊपर तरजीह देता है। यानी यह राजनीति को कमान में रखने की बजाय आर्थिक कारकों को कमान में रखता है। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थवादियों की कोई राजनीति नहीं होती। दरअसल अर्थवाद की खासियत ही यही है कि वह मज़दूर आन्दोलन को कम्युनिस्ट राजनीति (लेनिन के समय में सामाजिक-जनवादी राजनीति) से भटकाकर ट्रेड यूनियनवादी राजनीति की ओर ले जाता है। हमने इस बात पर भी चर्चा केन्द्रित की थी कि मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर मज़दूरों के बीच पायी जाने वाली इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाये तो वह अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, मज़दूरवाद, पेशावादी संकीर्णतावाद, ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावाद-संघाधिपत्यवाद आदि ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों तक चली जाती है। अर्थवाद क्रान्ति के अभिकरण (एजेण्ट) यानी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट राजनीति व क्रान्तिकारी हिरवाल पार्टी की ज़रूरत पर ज़ोर देने की बजाय मज़दूर आन्दोलन के भीतर ट्रेड यूनियनवादी राजनीति पर भी पूरा ध्यान केन्द्रित करता है।
इसके अलावा अर्थवाद की दूसरी विशेषता जिस पर हमने तफ़सील से चर्चा की वह थी अर्थवाद द्वारा मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता की पूजा, अन्धभक्ति और उसका अनालोचनात्मक महिमा-मण्डन। अर्थवाद इस स्वतःस्फूर्तता की पूजा को सिद्धान्त के धरातल तक पहुँचा देता है और सचेतनता के तत्व का व्यावहारिक और सैद्धान्तिक, दोनों ही धरातल पर, विरोध करता है। लेनिन ने स्वतःस्फूर्ततावाद के इस अर्थवादी सिद्धान्त के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष चलाया था और सचेतनता व राजनीति के तत्व की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया था। यही कारण था कि लेनिन क्रान्तिकारी पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को अपरिहार्य मानते थे। लेनिन का मानना था कि पार्टी को क्रान्तिकारी जनदिशा लागू करते हुए जनसमुदायों को क्रान्तिकारी नेतृत्व देना होगा, उनसे एक जीवन्त रिश्ता बनाये रखना होगा और इसी प्रक्रिया में जनता से सीखना भी होगा। यानी लेनिन के अनुसार मज़दूर आन्दोलन में सही क्रान्तिकारी राजनीति का प्रवेश वह पूर्वशर्त है जो मज़दूर वर्ग को एक ऐसे राजनीतिक वर्ग में तब्दील करता है जिसकी अपनी राजनीतिक परियोजना है, दूसरे शब्दों में, एक ऐसा वर्ग जिसे राजनीतिक सत्ता चाहिए।
इसी श्रृंखला में लेनिन के हवाले से हमने यह भी जाना था कि रूस में अर्थवादी सैद्धान्तिक तौर पर मज़दूर वर्ग की आकांक्षाओं और संघर्षों को ज़्यादा मज़दूरी और बेहतर कार्यस्थितयों के लिए आर्थिक संघर्षों तक सीमित करते थे और मानते थे कि आगे का राजनीतिक संघर्ष उदार बुर्जुआ वर्ग का कार्य है। वे मज़दूर वर्ग के हिरावल के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को भी नकारते थे और मानते थे कि पार्टी को महज़ आन्दोलन की स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया के पीछे चलना चाहिए और अहम घटनाओं को केवल दर्ज करना चाहिए। मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्तता की पूजा और उसके अधीनस्थ रहने के चलते अर्थवादी क्रान्तिकारी सिद्धान्त, विचारधारा और वर्ग-सचेतनता की अहमियत को ख़ारिज करते थे और दावा करते थे कि समाजवादी विचारधारा अपने आप स्वतःस्फूर्त आन्दोलन के भीतर से पैदा हो जायेगी। कुल मिलाकर, अर्थवादियों का मानना था कि जब आर्थिक परिस्थितियाँ उपयुक्त और अनुकूल हो जाती हैं तो सामाजिक परिवर्तन स्वयं ही हो जाते हैं। यानी कि मज़दूर वर्ग को सचेतन तौर पर संगठित करने और इस काम के लिए लौह अनुशासन में तपी-ढली, अधिकतम सम्भव गुप्त और संगठित हिरावल पार्टी की कोई ज़रूरत नहीं है। मज़दूर वर्ग को महज़ अपने आर्थिक अधिकारों के लिए ट्रेड यूनियनों के तहत संघर्ष करना चाहिए।
अर्थवाद की ख़ासियत ही यह है कि वह राजनीति और अर्थनीति के बीच ‘चीन की दीवार’ खड़ी कर देता है। अर्थवादियों का प्रायः यह भी मानना होता है कि मज़दूरों की राजनीतिक मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं होती और राजनीति पार्टी के बौद्धिक नेताओं का काम है। मज़दूरों की रुचि तो केवल उनके आर्थिक हितों की लड़ाई में होती है, यानी कि उन संघर्षों में जो ट्रेड यूनियन के ज़रिये लड़े जाते हैं। इस प्रकार अर्थवाद द्वारा मज़दूर वर्ग की समूची गतिविधि को उसकी ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित कर दिया जाता है; दूसरे शब्दों में, मालिकों के खिलाफ़ बेहतर मज़दूरी और कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष तक। ज़ाहिर सी बात है कि यह संघर्ष मौजूदा व्यवस्था के ढाँचे के भीतर ही लड़ा जा सकता है और इसके लिए व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। यानी क्रान्ति की ज़रूरत को ही अर्थवाद द्वारा वस्तुतः ख़ारिज कर दिया जाता है। दरअसल अर्थवाद मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को एक प्रकार के ट्रेड यूनियनवाद और छोटे-छोटे धीरे-धीरे होने वाले सुधारों के “यथार्थवादी” संघर्ष तक सीमित करके रख देता है। इसके विपरीत लेनिन का मानना था कि मज़दूर वर्ग की पूरी राजनीति को ट्रेड यूनियन की राजनीति तक सीमित कर देना वास्तव में मज़दूर वर्ग की राजनीति के एक पूँजीवादी संस्करण की बात करना होगा और यह मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ नीति को लागू करने के समान है। लेनिन के लिए आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के बीच कोई ‘चीन की दीवार’ नहीं थी, क्योंकि उनके लिए हर आर्थिक संघर्ष भी मूलतः राजनीतिक ही था।
हमने अपनी चर्चा में लेनिन के मार्फ़त इस बात को भी रेखांकित किया था कि विचारधारा का प्रवेश मज़दूर आन्दोलन में बाहर से होता है और यह भी कि आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित किसी “स्वतन्त्र” विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है। इसलिए केवल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या फिर समाजवादी विचारधारा को चुना जाये। बीच का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि “मानव जाति ने कोई “तीसरी” विचारधारा पैदा नहीं की है, और इसके अलावा जो समाज वर्ग अन्तरविरोधों के कारण बँटा हुआ है, उसमें कोई ग़ैर-वर्गीय या वर्गोपरि विचारधारा कभी नहीं हो सकती। इसलिए समाजवादी विचारधारा के महत्व को किसी भी तरह कम करके आँकने, उससे ज़रा भी मुँह मोड़ने का मतलब बुर्जुआ विचारधारा को मज़बूत करना होता है।” लेनिन स्पष्ट शब्दों में इंगित करते हैं कि मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्तता का परिणाम यह होता है कि आन्दोलन बुर्जुआ विचारधारा के अधीन हो जाता है क्योंकि स्वयंस्फूर्त मज़दूर आन्दोलन ट्रेड-यूनियनवाद होता है और ट्रेड-यूनियनवाद का मतलब मज़दूरों को विचारधारा के मामले में बुर्जुआ वर्ग का दास बनाकर रखना होता है। इसलिए लेनिन कहते हैं कि “हमारा कार्यभार, सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार है स्वतःस्फूर्तता के खिलाफ़ लड़ना, मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के उस स्वयंस्फूर्त ट्रेड-यूनियनवादी रुझान को, जो उसे बुर्जुआ वर्ग के साये में ले जाता है, मोड़ना और उसे क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के साये में लाना।”
चूँकि मज़दूर वर्ग के भीतर राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं पैदा होती है, बल्कि उसमें इस चेतना को पैदा करना एक हिरावल का सचेतन कार्यभार होता है, यही वजह थी कि लेनिन सचेतनता के तत्व और हिरवाल पार्टी की भूमिका पर इतना ज़ोर देते थे। लेनिन का मानना था कि एक सामाजिक-जनवादी यानी कि कम्युनिस्ट की चेतना महज़ एक ट्रेड यूनियन सचिव की नहीं होती, बल्कि मज़दूर वर्ग और आम जनसमुदायों के हिरावल की होती है। लेनिन का यह भी मानना था कि राजनीतिक चेतना मज़दूर वर्ग के भीतर आर्थिक संघर्षों के तीव्र होते जाने से स्वयं ही नहीं पैदा हो जायेगी। किसी बाह्य राजनीतिक अभिकर्ता (यानी, सामाजिक-जनवादी बुद्धिजीवियों या कम्युनिस्ट पार्टी) के हस्तक्षेप के बिना मज़दूर वर्ग अपने आप केवल ट्रेड यूनियन चेतना तक ही पैदा कर सकता है। इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि मज़दूर वर्ग अपने राजनीतिक सिद्धान्तकार नहीं पैदा कर सकता है। यहाँ लेनिन ने स्पष्ट किया कि एक मज़दूर जब आर्थिक संघर्षों से अलग मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक दूरगामी राजनीतिक लक्ष्यों की बात करता है तो वास्तव मे वह महज़ एक सामान्य मज़दूर नहीं होता बल्कि उस वक़्त वह मज़दूर वर्ग के राजनीतिक सिद्धान्तकार की भूमिका निभा रहा होता है। एक बार यहाँ ग़ौर करने लायक है। वह यह कि एक वर्ग के तौर पर समूचा मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से ऐसी चेतना, यानी कि राजनीतिक वर्ग चेतना, समाजवादी चेतना, को जन्म नहीं दे सकता है। यह समाजवादी चेतना मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में बाहर से ही आती है और यह चेतना इतिहास की वैज्ञानिक समझदारी के साथ मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों के मेल से पैदा होती है।
स्वतःस्फूर्तता और सचेतनता के द्वन्द्व को रेखांकित करते हुए लेनिन कहते हैं कि अर्थवादी रुझान की बुनियादी ग़लती यह है कि वह स्वतःस्फूर्तता की पूजा करती है और यह नहीं समझती है कि जनता की स्वतःस्फूर्तता दरअसल कम्युनिस्टों से और अधिक सचेतनता की माँग करती है। जनसमुदायों में जितना ही अधिक स्वतःस्फूर्त उभार होता है, आन्दोलन का विस्तार जितना ही बढ़ जाता है सामाजिक-जनवाद के सैद्धान्तिक, राजनीतिक, सांगठनिक कामों में चेतना की माँग उतनी ही अधिक अतुलनीय द्रुत गति से बढ़ जाती है। स्वतःस्फूर्तता पर अर्थवादियों का ज़ोर अन्त में इस मंज़िल तक जाता है कि वह किसी भी प्रकार के राजनीतिक हिरावल की भूमिका को ही नकारने लगते हैं क्योंकि उनकी दलील ही यह है कि सर्वहारा वर्ग की आर्थिक कार्रवाइयाँ जैसे कि ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ और हड़तालें अन्ततः उन्हें क्रान्ति के लिए तैयार कर देती हैं, जैसी कि हमने ऊपर चर्चा भी की थी।
हमने इस बात पर भी चर्चा की थी कि अर्थवादियों के विरुद्ध लेनिन द्वारा चलाये गये विचारधारात्मक संघर्ष में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच होने वाले विभाजन के बीज थे। 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच विभाजन हुआ और इस विभाजन के मूल व केन्द्रीय मुद्दे वास्तव में स्वतःस्फूर्तता और सचेतनता का प्रश्न, कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत और उसके सांगठनिक उसूल व ढाँचे, सदस्यता की शर्तें आदि के प्रश्न थे। ‘क्या करें?’ में इस बहस को लेनिन ने निर्णायक तौर पर मुक़ाम पर पहुँचाया और उसकी राजनीतिक परिणति 1903 की पार्टी कांग्रेस में हुई।
इसके बाद हमने इस बात पर अपनी चर्चा केन्द्रित की थी कि अर्थवाद के विरुद्ध चली बहस में लेनिन ने किस प्रकार ट्रेड-यूनियन चेतना/राजनीति और सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट चेतना/राजनीति के बीच के फ़र्क को रेखांकित किया था जो वास्तव में अर्थवाद और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के बीच के अन्तर को ही दिखलाता है। यह फ़र्क समझना हम सभी के लिए आवश्यक है क्योंकि मज़दूर आन्दोलन में इस मुद्दे पर काफ़ी अस्पष्टता दिखलाई पड़ती है। यह ट्रेड-यूनियन के विशिष्ट कार्यभारों और पार्टी की विशिष्ट भूमिका को समझने के लिए भी अनिवार्य है। अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन एक जगह कहते हैं कि “क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन असम्भव है”, और फिर अन्यत्र यह भी कहते हैं कि सामाजिक-जनवादी चेतना या “वर्ग राजनीतिक चेतना” अपने आप स्वतःस्फूर्त तरीक़े से पैदा नहीं हो जाती है बल्कि मज़दूर वर्ग के पास “बाहर से” आती है, जिसकी चर्चा हमने पिछले अंकों में विस्तार से की है। ये दोनों ही लेनिनवादी अवधारणाएँ दरअसल वर्ग और हिरावल के बीच के सम्बन्ध को ही दर्शाती हैं।
इसके बाद हमने यह भी समझने का प्रयास किया कि क्यों लेनिन मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक चेतना को विकसित करने के काम की अपरिहार्यता पर ज़ोर देते हैं जो कि कम्युनिस्ट राजनीति को शुद्ध ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति से अलग करता है। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि राजनीतिक शिक्षा का मतलब मज़दूरों द्वारा महज़ अपने राजनीतिक उत्पीड़न को समझना मात्र नहीं है, वैसे ही जैसे मज़दूरों के लिए यह समझना काफ़ी नहीं है कि उनके हित और मालिकों के हित में परस्पर विरोध है। ज़रूरत इस बात की है कि इस उत्पीड़न की प्रत्येक ठोस मिसाल को लेकर उद्वेलन किया जाये और मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को विकसित करने के लिए सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ संगठित किया जाये। इसके विपरीत अर्थवादियों का मानना था कि आर्थिक संघर्ष ही जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का ज़रिया है। लेनिन के अनुसार यह दलील वास्तव में राजनीतिक आन्दोलन को आर्थिक आन्दोलन के पीछे घिसटने की अर्थवादी नसीहत थी। दमन-उत्पीड़न की हर घटना जनता को आन्दोलन में खींचने के लिए पर्याप्त हो सकती है। इसपर सही अवस्थिति यह होनी चाहिए कि आर्थिक संघर्षों को भी अधिक से अधिक व्यापक आधार पर चलाया जाना चाहिए और उनका इस्तेमाल हमेशा और शुरुआत से ही राजनीतिक उद्वेलन के लिए किया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी समझदारी दरअसल राजनीति को अर्थवादी ट्रेड-यूनियनवादी जामा पहनाने जैसा है।
हमने अपनी चर्चा के दौरान इस बात की भी शिनाख्त की कि कैसे लेनिन ने अर्थवाद के प्रमुख सिद्धान्तकार और बाद में मेन्शेविकों के नेता मार्तिनोव की अर्थवादी समझदारी को बेनक़ाब किया जब मार्तिनोव द्वारा “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की अर्थवादी प्रस्थापना पेश की गयी थी। लेनिन कहते हैं कि यह आडम्बरपूर्ण वाक्यांश जो सुनने में “बेहद गम्भीर और क्रान्तिकारी” मालूम पड़ता है “वास्तव में सामाजिक-जनवादी राजनीति को गिराकर ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति के स्तर पर ले जाने की परम्परागत कोशिश को छिपाने के लिए आड़ का ही काम करता है!” लेनिन बताते हैं कि आर्थिक संघर्ष कुछ और नहीं बल्कि अपनी श्रम-शक्ति की बिक्री में बेहतर दाम पाने के लिए, जीवन तथा कार्य की स्थितियाँ सुधारने के लिए अपने मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का सामूहिक संघर्ष होता है। यह संघर्ष आवश्यक रूप से पेशागत संघर्ष होता है क्योंकि अलग-अलग पेशों (trade) में कार्यस्थितियाँ अलग-अलग होती हैं और इसलिए इन स्थितियों को सुधारने की लड़ाई हरेक पेशे में उस पेशे के संगठनों यानी कि ट्रेड यूनियन द्वारा ही संगठित की जा सकती है। और मज़दूरों की तमाम ट्रेड यूनियनें ठीक यही करती हैं और हमेशा से यही करती आयी हैं। इसलिए लेनिन कहते हैं कि मार्तिनोव का “आर्थिक संघर्ष को राजनीतिक रूप देने” का यह दावा ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे कि वह कोई बिलकुल नयी चीज़ हो जबकि इस बड़बोले दावे का मतलब आर्थिक सुधारों के लिए संघर्ष के सिवा और कुछ नहीं है।
अर्थवाद वास्तव में मज़दूर आन्दोलन में सुधारवादी राजनीति का ही एक संस्करण है। अर्थवाद जब यह कहता है कि मज़दूरों की केवल आर्थिक मसलों में ही दिलचस्पी होती है तो वह दरअसल अपनी सुधारवादी राजनीति और वैचारिकी की सीमाओं को ही उजागर कर रहा होता है। ज़ाहिरा तौर पर बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के मज़दूर केवल वेतन-भत्ते के लिए संघर्ष में ही उलझे रहेंगे। यह कार्यभार तो हिरावल और सही क्रान्तिकारी राजनीति का है कि वह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर सोचना सिखाये। यह सबसे बुनियादी लेनिनवादी शिक्षाओं में से एक है कि मज़दूर वर्ग की चेतना उस वक़्त तक सच्ची राजनीतिक चेतना नहीं बन सकती और मज़दूर वर्ग तब तक एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित और संघटित नहीं हो सकता है जब तक कि मजदूरों को हर प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न, दमन, हिंसा और अत्याचार का जवाब देना न सिखाया जाये, चाहे उसका सम्बन्ध किसी भी वर्ग से क्यों न हो।
एक और महत्वपूर्ण बिन्दु जिसपर हमने चर्चा केन्द्रित की थी वह था राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन का प्रश्न। इस प्रश्न पर भी अर्थवादियों का सामाजिक जनवादियों से मतभेद था। जनता के व्यापक हिस्सों का राजनीतिकरण केवल आर्थिक मसलों के ज़रिये ही नहीं होता है बल्कि दमन-उत्पीड़न या आम जनवादी माँगों पर संघर्ष संगठित करके भी होता है या यूँ कहें कि आम तौर पर और इतिहास में भी इन्हीं कारणों से ऐसा अधिक हुआ है। ‘क्या करें?’ में लेनिन मार्तिनोव के अर्थवाद को प्रचार और उद्वेलन के मामले में प्रस्तुत की गयी उसकी अवस्थिति के माध्यम से भी उजागर करते हैं। प्लेखानोव द्वारा इस विषय पर पेश किये गये निम्न विचार को ही लेनिन विस्तारित करते हैं: “प्रचारक एक या चन्द व्यक्तियों के समक्ष अनेक विचार पेश करता है, उद्वेलक केवल एक या चन्द विचार पेश करता है, हालाँकि वह उन्हें आम जनता के सामने रखता है।” जिसका कि विकृतीकरण मार्तिनोव द्वारा किया गया था। लेनिन के अनुसार मज़दूर वर्ग के साथ-साथ अन्य सभी वर्गों की सामाजिक व राजनीतिक स्थिति की सभी विशिष्टताओं का अध्ययन करना कम्युनिस्ट कार्य का बुनियादी अंग है। यानी कि जनता के सभी हिस्सों में प्रचार और उद्वेलन का काम बेहद ज़रूरी है जिसमें कि व्यापक अर्थों में राजनीतिक भण्डाफोड़ सर्वोपरि है।
इसके बाद हमने राजनीतिक अख़बार की ज़रूरत पर भी लेनिन के विचारों को प्रस्तुत किया था। राजनीतिक भण्डाफोड़ के लिए आवश्यक एक अखिल-रूसी अखबार का विचार, जो लेनिन सबसे पहले ‘कहाँ से शुरुआत करें?’ में व्यक्त करते हैं और ‘क्या करें?’ में पुनःरेखांकित करते हैं। लेनिन ज़ोर देकर कहते हैं कि देशव्यापी भण्डाफोड़ का मंच एक अखिल-रूसी अख़बार ही हो सकता है और यह भी कि एक राजनीतिक मुखपत्र के बिना राजनीतिक आन्दोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। लेनिन लिखते हैं, “अख़बार न केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक उद्वेलक का, बल्कि सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर बाँधे गये पाड़ (स्कैफोल्डिंग) से की जा सकती है; इससे इमारत की रूपरेखा प्रकट होती है और इमारत बनाने वालों को एक-दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है, इससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं, अपने संगठित श्रम द्वारा प्राप्त आम परिणाम देख सकते हैं।” इसकी चर्चा हमने पिछले अंकों में तफ़सील से की है।
इसके साथ ही लेनिन द्वारा एक अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार की ज़रूरत पर बल देना अर्थवादियों के साथ विचारधारतमक संघर्ष में एक बेहद अहम बिन्दु था। यह अर्थवादियों के राजनीतिक गतिविधियों के मामले में संकीर्ण दृष्टिकोण पर क्रान्तिकारी हमला था। अर्थवादी किसी भी अखिल-रूसी उपक्रम या उद्देश्य की वांछनीयता को सिरे से ख़ारिज करते थे और मज़दूर वर्ग एक व्यापक राजनीतिक नज़रिया विकसित कर सके, इस कार्यभार में हर सम्भव रुकावट पैदा करते थे। दरअसल अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार का लेनिनवादी विचार क्रान्तिकारी पार्टी की अवधारण से सीधे तौर पर जुड़ता है। लेनिन के लिए पार्टी निर्माण का कार्यभार और एक अखिल-रूसी राजनीतिक अख़बार की योजना वह साझा व सामान्य उद्देश्य और लक्ष्य था, जिससे रूस में क्रान्तिकारी कामों में व्याप्त बिखराव को दूर किया जा सकता था और क्रान्तिकारी गतिविधियों को स्वतःस्फूर्तता के क्षेत्र से बाहर ले जाकर सचेतनता के क्षेत्र में दाखिल कराया जा सकता था।
इसके बाद हमने अपनी चर्चा में जन संगठन और पार्टी संगठन के बीच के फ़र्क को समझने की कोशिश की थी जिस फ़र्क को अर्थवादी धूमिल करने का प्रयास करते रहते हैं। वास्तव में जन संगठन और पार्टी संगठन के फ़र्क को न समझना समूचे मज़दूर वर्ग और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के अन्तर को नहीं समझना है। कम्युनिस्ट पार्टी के दायरे में मज़दूर वर्ग के सबसे उन्नत, दृढ़ और प्रगतिशील तत्व आते हैं और वे ही पूरे मज़दूर वर्ग समेत आम मेहनतकश जनसमुदायों को उनके संघर्षों में क्रान्तिकारी नेतृत्व दे सकते हैं। मज़दूर वर्ग स्वयं यह कार्य स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं कर सकता है और ख़ुद ‘सामाजिक जनवादी’ या कम्युनिस्ट चेतना तक नहीं पहुँच सकता है जैसा कि हमने बार-बार इंगित किया है। पार्टी संगठन द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण और मार्क्सवादी विचारधारा पर निर्मित होता है जबकि जन संगठन न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर गठित होते हैं, विचारधारा उनकी सदस्यता की कोई शर्त हो ही नहीं सकती है वरना वे सही मायनों में “जन” सगठन होंगे ही नहीं! लेकिन अर्थवाद ठीक इसी बात को नकार देता है। कम्युनिस्ट पार्टी एक जन पार्टी बनकर रह जाती है जिसमें कि हर हड़ताली मज़दूर सदस्य होने की अर्हता रखता है, जैसा कि बाद में मेंशेविकों ने पार्टी सदयस्ता पर अपना मत ज़ाहिर भी किया था।
इसके अलावा ट्रेड यूनियन समूची मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है, यह काम केवल पार्टी ही कर सकती है क्योंकि वह “सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, उद्वेलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में” आबादी के सभी वर्गों के बीच जाती है। इस रूप में कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक और विचारधारात्मक रूप से सबसे उन्नत तत्वों का दस्ता और उनका क्रान्तिकारी केन्द्र/हेड क्वार्टर होती है और समस्त जनसमुदायों का प्रतिनिधित्व करती है। लेनिन लिखते हैं, “मज़दूरों के संगठन को एक तो ट्रेड यूनियन संगठन होना चाहिए; दूसरे उसे अधिक से व्यापक संगठन होना चाहिए; तीसरे उसके लिए ज़रूरी होता है कि वह कम से कम गुप्त हो। इसके विपरीत क्रान्तिकारियों के संगठन को सबसे पहले और मुख्यतया ऐसे लोगों का संगठन होना चाहिए, जिन्होंने क्रान्तिकारी कार्य को अपना पेशा बना लिया हो। और चूँकि यह विशेषता ऐसे संगठन के सभी सदस्यों में होनी चाहिए, इसलिए यह आवश्यक है कि न केवल मज़दूरों और बुद्धिजीवियों के बीच फ़र्क, बल्कि अलग-अलग व्यवसायों और पेशों का सारा अन्तर भी एकदम ख़त्म कर दिया जाए। ऐसे संगठन के लिए यह ज़रूरी है कि वह बहुत फैला हुआ न हो तथा अधिक से अधिक गुप्त हो।”
ट्रेड यूनियन या फिर किसी भी अन्य जन संगठन में विचारधारा को सदस्यता की पूर्वशर्त नहीं बनाया जा सकता है। ऐसा करना जन संगठनों के “जन” चरित्र का मखौल उड़ाने के समान होगा और जन संगठनों के काम करने के दायरे को संकुचित करेगा और जनता के बीच क्रान्तिकारियों के राजनीतिक प्रभाव को भी कम करेगा। यानी जन संगठनों के भीतर क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी का ब्लॉक काम करता है, उसी प्रकार जैसा ट्रेड यूनियनों के भीतर सामाजिक जनवादी मज़दूर (यानी कि कम्युनिस्ट) काम करते हैं। इसके साथ ही लेनिन यह भी बताते हैं कि जन संगठन, अपवादस्वरूप स्थितियों को यदि छोड़ दिया जाए, तो खुले तौर पर ही काम करते हैं और यही वांछनीय भी है। इसके विपरीत क्रान्तिकारियों का संगठन यानी कि कम्युनिस्ट पार्टी पूरी की पूरी खुली और क़ानूनी दायरे में काम करने वाला संगठन नहीं होती है। जन संगठन, अपनी परिभाषा से ही, गुप्त संगठन नहीं हो सकते हैं, उल्टे, इन्हें अधिकतम सम्भव व्यापक होने की दरकार होती है।
लेनिन यहीं पर पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को लाते हैं जिसके बिना लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की बात करना अकल्पनीय है। पेशेवर क्रान्तिकारियों से लेनिन का अभिप्राय ऐसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से है जो पार्टी और क्रान्ति के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान यानी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की समझ हो, राजनीतिक अनुभव हो और संगठन का अभ्यास हो।
हमने अपनी चर्चा में यह भी देखा कि सांगठनिक प्रश्न पर भी अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की प्रवृत्ति होती है। अर्थवाद सम्पूर्ण क्रान्तिकारी कार्य का दायरा इतना संकुचित और संकीर्ण बना देता है कि क्रान्तिकारियों के अलग संगठन की ज़रूरत ही वस्तुगत तौर पर ख़ारिज हो जाती है। रूसी अर्थवादी इस संकीर्णता को उचित और वैध ठहराने के लिए इसे एक विशेष “सिद्धान्त” के स्तर पर पहुँचाने की कोशिश कर रहे थे। इसका अर्थ यह हुआ कि मज़दूर आन्दोलन में व्याप्त अर्थवाद का केवल राजनीतिक कार्यभारों के प्रति ही संकुचित नज़रिया नहीं होता है बल्कि सांगठनिक कार्यभारों के प्रति भी यह दृष्टिकोण दिखलाई पड़ता है। अर्थवादी चूँकि सांगठनिक मामलों में भी स्वतःस्फूर्तता के ही पुजारी होते हैं इसलिए संगठन के स्वतःस्फूर्त ढंग से विकसित होते रूपों को ही वांछनीय मानते हैं। लेनिन ने इसे सांगठनिक मामलों में अर्थवादियों के नौसीखुएपन की संज्ञा दी थी। यह नौसिखुआपन, लेनिन के अनुसार, केवल प्रशिक्षण के अभाव को नहीं दिखलाता है, बल्कि यह नौसिखुआपन आम तौर पर क्रान्तिकारी संगठन की गतिविधियों के दायरे को संकुचित करने के मामले में भी नज़र आता है।
मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि राजनीतिक मामलों में पिछड़ेपन, पुच्छलतावाद और स्वतःस्फूर्ततावाद की हिमायत करने वाली और सांगठनिक मामलों में संकुचित और पिछड़ी क़िस्म की समझदारी रखने वाली हर प्रवृत्ति के विरुद्ध डटकर लड़ना बेहद ज़रूरी है, जिसका प्रतिनिधित्व मज़दूर आन्दोलन में अर्थवादी करते हैं। सांगठनिक गतिविधियों के मामले में पैदा हुई यह संकीर्णता तब तक दूर नहीं की जा सकती जब तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अर्थवाद को आम तौर पर दूर नहीं करते। लेनिन की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए यदि हम आज के समय में भी अर्थवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष चलाते हैं तो मज़दूर आन्दोलन में गतिरोध की स्थिति तोड़ने का एक रास्ता निकाल सकता है। उस सूरत में क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनें न केवल आर्थिक संघर्ष को विकसित और मज़बूत करने के लिए बेहद क़ीमती साबित हो सकती हैं, बल्कि राजनीतिक उद्वेलन और क्रान्तिकारी संगठन के लिए भी बहुत आवश्यक सहायक बन सकती हैं। इस मक़सद को हासिल करने के लिए और ट्रेड यूनियन आन्दोलन को क्रान्तिकारी सर्वहारा राजनीति की वांछित दिशा में ले जाने के लिए हमें सबसे पहले अर्थवाद की सीमाओं को समझना होगा, उन्हे उजागर करना होगा और उसके खिलाफ़ विचारधारात्मक और व्यावहारिक, दोनों ही स्तरों पर संघर्ष को निर्देशित करना होगा। यह आज के दौर में क्रान्तिकारी शक्तियों के समक्ष एक बेहद आवश्यक कार्यभार है।
(जारी)
मज़दूर बिगुल, मई 2025