राम मन्दिर के बाद काशी के ज़रिये साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश में लगे संघ-भाजपा
इस उन्माद में मत बहिए! आइए अपने सही इतिहास को जानें!
भारत
आज इस फ़ासीवादी दौर में इतिहास को भी अन्धराष्ट्रवादी/साम्प्रदायिक तरीके से यह निज़ाम हमारे बीच पेश कर रहा है। इतिहास में हुई घटनाओं को वर्तमान पर थोपा जा रहा है। इसलिए आज ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने सही इतिहास से परिचित हों ताकि हम जान सके कि हमारे इतिहास में क्या समृद्ध परम्पराएँ रही हैं, जिनसे हम आज सीख सकते हैं और क्या ऐसी रूढ़ियाँ-कुरीतियाँ रही हैं, जिनसे हमें आज छुटकारा पा लेना चाहिए।
हमें हमेशा से बताया जाता रहा है कि इतिहास महज़ घटनाओं व तारीख़ों का ब्यौरेवार विवरण मात्र है, जो अलग-अलग दौरों में घटित हुआ। हमें बताया जाता है कि इतिहास पीछे छूट चुकी बातें हैं, जिनका वर्तमान से कोई सम्बन्ध नहीं है। इतिहास के बारे के इसी तरह की तमाम धारणाएँ प्रचलित हैं। पर क्या सच में इतिहास हमारे किसी काम का नहीं है? क्या हमारा वर्तमान हमारे इतिहास से प्रभावित नहीं है? क्या इतिहास महज़ राजा-महाराजाओं के जीवन व उनके द्वारा लड़े गये युद्धों का ही विवरण है? इतिहास को सही तरीक़े से जानने की ज़रूरत है ताकि पिछले समाजों का अध्ययन कर हम आज अपने वर्तमान को समझ सकें और उसे बदल सकें। अगर हम इतिहास को बीती हुई बात मान कर छोड़ देंगे तो कभी भविष्य का निर्माण नहीं कर पायेंगे। इस लेख और इस श्रृँखला में आने वाले लेखों में हम में हम जानेंगे संघ द्वारा पेश किये जाने वाले छद्म इतिहास की सच्चाई और साथ ही भारत के इतिहास में भौतिकवादी परम्परा के बारे जो हमारी विरासत है, जो हमें इतिहास की सच्चाई के बारे में बताती है। आइए अब वर्तमान की ओर लौटते हैं और जानते हैं कि इस समय इतिहास को बदलने के नाम पर मोदी सरकार किस प्रकार धर्म की राजनीति कर साम्प्रदायिक उन्माद फैला रही है।
जैसी कि उम्मीद थी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने वाराणसी में ज्ञानवापी मस्ज़िद की अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया है कि मौजूदा संरचना (मस्ज़िद) और मन्दिर के कुछ हिस्सों के निर्माण से पहले वहाँ एक “बड़ा हिन्दू मन्दिर” मौजूद था। इनका उपयोग इस्लामी पूजा स्थल के निर्माण में किया गया था। एएसआई ने काशी विश्वनाथ मन्दिर से सटी 17वीं सदी की मस्ज़िद का अदालत द्वारा अनुमोदित वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या इसका निर्माण किसी मन्दिर की पहले से मौजूद संरचना पर किया गया था, जैसा कि याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है, जो साल भर से मन्दिर में प्रवेश की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि ज्ञानवापी मस्ज़िद परिसर में माँ श्रृंगार गौरी का दर्शन एवं पूजन स्थल मौजूद है। ताज़ा ख़बरों के अनुसार अब ज्ञानवापी स्थित तहख़ाने में पूजा करने की इजाज़त दे दी गयी है। वाराणसी अदालत ने 24 जनवरी को एएसआई रिपोर्ट के निष्कर्षों को सभी पक्षों को उपलब्ध कराने की अनुमति दी थी। एएसआई के सर्वे का निष्कर्ष ज़रा भी अप्रत्याशित प्रतीत नहीं होता और इसी बात की सम्भावना अधिक थी कि वह भाजपा और संघ परिवार के मुताबिक ही अपनी रिपोर्ट देगा। साथ ही न्यायलय भी आज अन्य सभी मामलों की ही तरह इन मामलों में भी भाजपा के मन-मुआफ़िक ही निर्णय दे रहा है। यह दीगर बात है कि हमारे देश का संविधान भी यह कहता है कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के प्रावधानों के तहत कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी भी खण्ड के पूजा स्थल को धर्मान्तरित नहीं करेगा। यह घोषणा करता है कि 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र ज्यों का त्यों जारी रहेगा। इसके बावजूद अगर न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी को हटाकर वहाँ मन्दिर बनाने का निर्णय दिया जाये तो यह भी आश्चर्यचकित करने वाला नहीं होगा। राम मन्दिर का बनना इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण है।
वहीं राम मन्दिर के उद्घाटन के दो दिन बाद ही एएसआई द्वारा इस रिपोर्ट को जारी करना यह भी दर्शाता है कि भाजपा व संघ इसे मुद्दा बनाने के लिए तुले हुए हैं और इसके अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा। दरअसल 22 जनवरी को राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भाजपा-आरएसएस जिस तरह का साम्प्रदायिक उन्माद फैलाना चाहते थे, उसमें वे सफ़ल नहीं हो सके। आरएसएस ने पूरी कोशिश की “राम के नाम” पर उन्माद फैलाकर एक बड़ी आबादी को अपने पक्ष में किया जा सके। हर तरफ़ भगवा झण्डे-पताका लगाने से लेकर शोभा यात्राएँ निकाली गयी, पर इसमें आम जनता की भागीदारी बहुत कम थी। इसकी तैयारी में भाजपा-आरएसएस-बजरंग दल और तमाम इनके संगठनों ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी और साथ ही सरकारी मशीनरी का भी पूरी तरह प्रयोग किया गया, पर इसके बावजूद जनता की बड़ी आबादी इनके उन्माद में शामिल नहीं हुई। राम मन्दिर के नाम पर धर्म की राजनीति का पर्याप्त असर न होते देख अब इन तमाम संगठनों की नज़रें ज्ञानवापी पर टिकी हैं और हो सकता है इसके बाद मथुरा में भी यही देखने को मिले।
सोचने वाली बात यह है कि आज इस सवाल को इतनी प्राथमिकता क्यों दी जा रही है कि किसी जगह पर पहले मन्दिर था या मस्ज़िद? वैसे तो उत्तर व पश्चिमी भारत के सैंकड़ों मन्दिर हैं जिन्हें बौद्ध व जैन मठ तथा विहार तोड़ कर बनाया गया है और इसके स्पष्ट पुरातात्विक प्रमाण मौजूद हैं। तो क्या उन सारे मन्दिरों को तोड़कर वहाँ बौद्ध व जैन मठ तथा विहार बनाना उचित होगा? सवाल यह है कि आज इस ग़ैर–मुद्दे को जनता के लिए मुद्दा बनाया ही क्यों जा रहा है?
जवाब स्पष्ट है। सभी जानते है कि आने वाले अप्रैल या मई में लोकसभा चुनाव है और आज भाजपा के पास विकास का कोई मुद्दा नहीं बचा है, जिसपर चुनाव में वोट माँगा जा सकें। क्या आपने कभी सोचा है कि भाजपा अब कभी ‘अच्छे दिनों’ का नाम तक क्यों नहीं लेती? क्या आपने सोचा है कि नरेन्द्र मोदी अब कभी नोटबन्दी का ज़िक्र तक क्यों नहीं करते? वैसे तो भाजपा हर धार्मिक घटना की वर्षगाँठ मनाती है! वह नोटबन्दी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती? वह जीएसटी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार तो मोदी सरकार तब करेगी जब जनता का पिछले 10 सालों में कोई कल्याण हुआ हो! इन 10 सालों आम मेहनतकश जनता केवल तबाहो-बरबाद हुई है, जिसके बदले में उसे 5 किलो राशन की ख़ैरात देकर और धर्म की अफ़ीम चटाकर चुप कराया जा रहा है।
मन्दिर-मस्ज़िद के मुद्दों को आज इसलिए उछाला जा रहा है क्योंकि महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाक़ाम हो चुकी है। मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे व मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में उलझा कर तीसरी बार सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है।
ज़रा ठण्डे दिमाग़ से सोचिए क्या आज इससे फ़र्क पड़ता है कि किस जगह पर कब मन्दिर बना था या कब उसे तोड़कर मस्ज़िद बनाया गया! जैसा कि हमने ऊपर बताया, अगर इतिहास में पीछे जाकर देखें और तय करें कि कब कहाँ क्या बना था उसके अनुसार तो आज बहुत से मन्दिरों तक को तोड़ना पड़ सकता है क्योंकि वहाँ कभी जैन या बौद्ध मठ मौजूद थे। कुछ मुसलमान शासकों ने मन्दिरों को तोड़ा, तो मुसलमानों के आने से पहले कुछ हिन्दू शासकों ने बौद्धों और जैनों के मन्दिरों को भी तोड़ा है। अशोक के बाद के शासक पुष्यमित्र ने बौद्धों के रक्त से अपने हाथ रंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुसलमानों के आने से पहले ही हमारे देश में मौजूद हिन्दू शासकों द्वारा मठों और मन्दिरों को लूटना जारी था, ताकि वहाँ से धन इकट्ठा किया जा सके। हिन्दू धर्म के भीतर के विभिन्न सम्प्रदायों ने भी बार-बार एक दूसरे के पूजा-स्थलों को तोड़ा व जलाया है, एक-दूसरे को लूटा और मारा-काटा है, मसलन, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि। तो मध्यकालीन अतीत और प्राचीन अतीत में हुई इन घटनाओं के आधार पर इन हिन्दू सम्प्रदायों को आज आपस में हिसाब-किताब बराबर करना चाहिए? यही मज़दूर–विरोधी प्रतिक्रियावादी राजनीति की ख़ासियत होती है। उसके पास भविष्य में देखने और देने को कुछ नहीं होता; वह मालिकों व ठेकेदारों के लूट की यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है; इसलिए वह अतीत के कल्पित अन्याय का हिसाब करने के नाम पर जनता को धर्म पर लड़ाती है। लेकिन उत्तर प्रदेश का मुख्यमन्त्री योगी एम. ए. युसुफ जैसे अरबपति मुसलमान को यूपी में मॉल बनाने के लिए ज़मीनें देने में कोई दिक्कत नहीं देखता! इसी से साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों का दोगलापन पता चल जाता है। मज़दूर वर्ग सबकुछ पैदा करता है, उसके बावजूद शोषित और दमित है, इसलिए वह अतीत के नहीं भविष्य के हिसाब की बात करता है। वह एक अलग भविष्य की बात करता है। वह एक बेहतर समाज और दुनिया के लिए लड़ता है। वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के मेहनतकशों की एकजुटता की बात करता है।
भाजपा की सारी लड़ाई मन्दिर बनाने के नाम पर हो रही है, मन्दिर बनाने के नाम पर उन्मादी भीड़ क़त्लेआम के लिए उतार दी जाती है। पर इन संघियों ने अपने धर्म के इतिहास को भी ठीक से नहीं पढ़ा और इनके गुरुओं ने हमेशा इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। अगर धर्म के इतिहास पर भी नज़र डालें, तो हम पायेंगे कि ऋग्वेद तक में कहीं भी मूर्तिपूजा या मन्दिरों के बारे में एक भी उल्लेख नहीं मिलेगा। साथ ही, हमें हमारे देश की गौरवशाली वैज्ञानिक और भौतिकवादी परम्पराओं के बारे में पता चलेगा, जिन्होंने ब्राह्मणवादी धर्म के सामने ऐसे सवाल खड़े किये, जिनके जवाब ब्राह्मणों के पास नहीं थे और जवाब में उन्होंने ऐसे भौतिकवादियों व वैज्ञानिकों का दमन किया। अब हम इस बात पर नज़र डालते हैं कि हमारे देश में मन्दिर कब से बन रहे हैं!
इसके लिए हम वैदिक काल में चलते हैं l गुणाकर मुले इतिहास, संस्कृति और साम्प्रदायिकता में लिखते हैं: “वैदिक आर्यों के तमाम देवी दैवत अमूर्त थे। उनके लिए मन्दिर नहीं बनते थे, उनकी पूजा नहीं होती थी। उस समय वैदिक देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ होते थे, जिनमें जीव हिंसा एक आम बात थी। पर आज न यज्ञ होते हैं न वैदिक देवताओं की पूजा। इन्द्र वैदिक आर्यों का सबसे बड़ा देवता था। ऋग्वेद की सबसे अधिक ऋचाएँ इन्द्र की स्तुति में रची गयी है। इन्द्र के बाद वैदिक आर्यों के अग्नि, उषा, पूषण, सविता, सोम आदि प्रमुख देवता थे, पर आज इनकी कहीं कोई पूजा नहीं होती। बताते चले कि ऋग्वेद में रुद्र और विष्णु का भी उल्लेख है, पर गौण रूप में। वैदिक काल में हमारे देश में आर्य लोग मूर्तिपूजक नहीं थे और न उस समय आर्यों के मन्दिर ही थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय इस देश के मूल निवासियों के अपने देवी–देवता और उनके मन्दिर नहीं रहे होंगे। ऋग्वेद में अनार्यों के “शिश्नदेव” का उल्लेख है। सिन्धु सभ्यता के निवासियों के मन्दिर होने की काफी सम्भावना है, उनमें लिंग–पूजा प्रचलित थी। पर प्राचीन वैदिक आर्यों के मन्दिर नहीं होते थे। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठान यज्ञकर्म के इर्द–गिर्द सीमित थे।”
इसी में वह आगे लिखते हैं: “अब महाभारत काल में आते हैं। सभी इतिहासकार इसे स्वीकार करते हैं कि महाभारत किसी एक निश्चित काल और एक लेखक की रचना नहीं है। इसकी कुछ कथाएँ वैदिक काल के पहले की भी हो सकती हैं, तो कुछ कथाएँ भारत में इस्लाम के आगमन काल तक जोड़ी जा सकती हैं। महाभारत का काफी अंश गुप्तकाल में लिखा गया, क्योंकि इसमें हूणों का उल्लेख है (आदिपर्व, 174.38 और सभापर्व, 32.12 व 51.24)। आदिपर्व के पहले ही अध्याय (श्लोक 81) में व्यास कहते हैं: “8800 श्लोकों को मैं जानता हूं, शुक जानता है, पर पता नहीं संजय जानता है या नहीं जानता।” बाद में महाभारत एक लाख श्लोकों का बन गया। खैर, यहाँ हमें यह देखना है कि महाभारत में मन्दिरों और मूर्तिपूजा के बारे में क्या जानकारी मिलती है। महाभारत में कई यज्ञों की चर्चा मिलती है जैसे: अश्वमेघ, पुण्डरीक, गवामयन, अग्निजित् , बृहस्पतिसव आदि। फिर भी, यह बात निर्विवाद है कि इस वर्णन में कहीं भी मूर्तिपूजा का वर्णन नहीं मिलता। श्रीकृष्ण या युधिष्ठिर की आन्हिक क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन होने पर भी उनमें या अन्यत्र कहीं भी देवताओं की पाषाणमयी या धातुमयी मूर्तियों के पूजन का वर्णन नहीं मिलता। इससे हम निश्चयपूर्वक इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि महाभारत काल में या महाभारत–काल तक आर्यों के आन्हिक धर्म (नित्यकर्म) में किसी भी देवता के पूजन का समावेश नहीं हुआ था। किसी भी गृह में देव की स्थापना करके उनकी पूजा करने की विधि शुरू नहीं हुई थी। किसी भी गृह्यसूत्र में पूजा–विधि का विवरण नहीं है। अतः यह निर्विवाद है कि देवपूजा की प्रथा महाभारत–काल के अनेक सालों बाद शुरू हुई।”
अब आते हैं इस सवाल पर कि इतिहास में मन्दिर या किसी भी धर्म के पूजा स्थल क्यों लूटे जाते थे? अगर विस्तार में अध्ययन करें तो पायेंगे कि पुराने ज़माने में भी धर्म और देवताओं ने अपने समय के आर्थिक और राजकीय ढाँचे का ही अनुकरण किया है। कारण यह स्पष्ट है कि मन्दिरों के लिए धन-दौलत इन राजाओं से ही मिलती थी और इसी धन-दौलत के लिए बाद के शासकों ने मन्दिरों को लूटा है। गुणाकर मुले उसी किताब में लिखते हैं: “अतीत को केवल तत्कालीन वर्ग–संघर्ष एवं आर्थिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में ही सही तौर से समझा जा सकता है। बुतपरस्तों के मन्दिर तोड़ने का काम केवल मुस्लिम शासकों ने ही नहीं, हिन्दू राजाओं ने भी किया है। पुराने ज़माने में पराजित राज्यों से मूर्तियाँ उठा लाना एक मामूली बात थी। परमार शासक सुभटवमन (1199-1210 ई.) ने गुजरात पर आक्रमण करके दभोई और काम्बे के जैन मन्दिरों को खूब लूटा। इस मामले में कश्मीर के हिन्दू शासक हर्ष (1089-1101 ई.) का उदाहरण बेजोड़ है। कल्हण अपनी राजतरंगिणी में जानकारी देता है कि मन्दिरों को तोड़ने के लिए हर्ष ने ‘देवोत्पाटननायक’ नाम से एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की, और इस अधिकारी का काम था मन्दिरों को तोड़ना, मूर्तियों को गलाना। इस प्रकार हर्ष ने अपने राज्य के, चार को छोड़कर, सारे मन्दिरों को लूटा। किसलिए? इसलिए नहीं कि हर्ष मूर्तिपूजा का विरोधी था, बल्कि इसलिए कि उसे धन की ज़रूरत थी। मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटकर और मूर्तियों को गलाकर उसने अपना खजाना भरा और उसका दूसरे कामों में इस्तेमाल किया। भारत के सभी मुस्लिम शासक औरंग़ज़ेब की तरह बुतशिकन नहीं थे। उसी प्रकार, भारत के सभी हिन्दू शासक हर्ष की तरह देवोत्पाटक नहीं थे। मुहम्मद बिन कासिम के हमले के बाद सिन्ध अरबों के हाथ में चला गया था, तो उस समय उन्होंने हिन्दू मन्दिरों को कोई हानि नहीं पहुँचाई थी। तीन शताब्दियों बाद मुहम्मद गज़नवी ने सोमनाथ को धन के लिए लूटा, जैसा कि उसके समकालीन कश्मीर के हिन्दू शासक हर्ष ने धन के लिए ही मन्दिरों को लूटा था। एक तथ्य यह भी है कि मुसलमानों शासकों के हाथों सबसे अधिक तबाही बौद्ध मन्दिरों और विहारों की हुई है।”
इतिहासकार डीएन झा ने भी अपनी किताब ‘अगेंस्ट द ग्रेन- नोट्स ऑन आइडेण्टिटी एण्ड मीडिएवल पास्ट’ में ब्राह्मण राजाओं के हाथों बौद्ध धर्मावलम्बियों के आस्था स्थलों की तबाही का उल्लेख किया है। डीएन झा लिखते हैं, “एक तरफ़ जहाँ सम्राट अशोक भगवान बुद्ध को मानने वाले थे, वहीं उनके बेटे और भगवान शिव के उपासक जालौक ने बौद्ध विहारों को बर्बाद किया। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का बड़ा उत्पीड़न किया। उनकी विशाल सेना ने बौद्ध स्तूपों को बर्बाद किया और बौद्ध विहारों को आग के हवाले कर दिया। शुंग शासनकाल में बौद्ध स्थल साँची तक कई स्थानों पर तोड़फोड़ के सबूत मिले हैं।” चीनी यात्री ह्वेनसाँग की भारत यात्रा का हवाला देते हुए झा कहते हैं, “शिव भक्त मिहिरकुल ने 1,600 बौद्ध स्तूपों और विहार को नष्ट किया और हज़ारों बौद्धों को मार दिया। प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों को हिन्दू कट्टरपन्थियों ने आग लगा दी और इसके लिए ग़लत तरीक़े से बख़्तियार खिलजी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया, जो वहाँ कभी नहीं गये थे। इस बात में कोई शक़ नहीं है कि पुरी ज़िले में स्थित पूर्णेश्वर, केदारेश्वर, कन्टेश्वर, सोमेश्वर और अंगेश्वर को या तो बौद्ध विहारों के ऊपर बनाया गया या फिर उनमें उनके सामान का इस्तेमाल किया गया।”
वहीं एक दौर में हिन्दू धर्म के कई सम्प्रदाय जैसे शैव-वैष्णव-शाक्त-स्मार्त के भी आपस में झगड़े चले और उन्होंने भी एक दूसरे के पूजा स्थलों को नष्ट किया। इतिहास में और पीछे जायें तो यह तर्क हड़प्पा सभ्यता तक जा सकता है। सोचिए अगर कोई कहे कि वैदिक धर्म से पहले हड़प्पा सभ्यता के जो पूजा स्थलों मौजूद थे, अब वहाँ चाहे मन्दिर हो या मस्ज़िद उसे हटाकर दुबारा हड़प्पा सभ्यता का पूजा स्थल बनाया जाना चाहिए। यह हास्यास्पद लग सकता है। हाँ बिल्कुल! यह पूरा तर्क ही हास्यास्पद है। आप ख़ुद सोचिए क्या अगर आज इसका हिसाब करने लगे कि कब कहाँ कौन–सा पूजा स्थल बना था तो क्या ये सवाल हल हो सकता है?
आज हमारे देश में पर्याप्त पूजा स्थल हर धर्म के लोगो के लिए मौजूद है। आज यह किसी के लिए कोई सवाल ही नहीं है कि किस जगह पर पहले मन्दिर था या मस्ज़िद। इसे आज मुद्दा भाजपा व संघ परिवार द्वारा बनाया जा रहा है ताकि हम असल सवालों पर न सोच सकें।
मोदी सरकार के पास अब यही मुद्दे बचे हैं, जिसके ज़रिये वह 2024 का चुनाव जीत सकती है। पहले राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए, अब ज्ञानवापी के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश जारी है और हो सकता है चुनाव तक काशी-मथुरा तक भी यह आग पहुँच जाये। भाजपा व संघ परिवार आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। यह आपको तय करना है कि आपको क्या चाहिए। क्या आपको शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के अपने बुनियादी हक़ चाहिए, एक बेहतर जीवन चाहिए या फिर आपको मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में ही उलझे रहना है।
याद रखें कि शहीदे–आज़म भगतसिंह ने फाँसी चढ़ने से पहले देश के मेहनतकशों को क्या सन्देश दिया था। भगतसिंह ने देश के नौजवानों, मज़दूरों व ग़रीब किसानों से कहा था “हम धर्म के मामले में अलग होकर भी अपनी राजनीति में एक हो सकते हैं और हमें होना ही होगा। इसके बिना हम मालिकों के जमात के हाथों धोखा खाते रहेंगे, लुटते रहेंगे और कुचले जाते रहेंगे।”
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024
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