क्लासिकीय पेण्टिंग्स पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा हमला :
सही सर्वहारा नज़रिया क्या हो?
सनी
पिछले तीन महीनों में पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आम लोगों का ध्यान पर्यावरण समस्या की ओर खींचने के लिए चुनिन्दा क्लासिकीय चित्रों पर हमला किया है। लिओनार्डो दा विन्ची की मोनालिसा, वैन गॉग की सनफ़्लावर्स तथा मोने का एक चित्र भी निशाने पर आ चुका है। पर्यावरण कार्यकर्ता ‘स्टॉप आयल’ और ‘लेट्जे जेनेरेन’ नामक एनजीओ से जुड़े हैं जिन्होंने म्यूज़ियम में जाकर चित्रों पर टमाटर की चटनी फेंकने से लेकर स्याही फेंकने का तरीक़ा अपनाया है। इस कृत्य को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा कि प्रकृति के चित्रों से अधिक ज़रूरी प्रकृति है तथा प्रकृति की तबाही की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए ही वे ऐसे क़दम उठा रहे हैं। निश्चित ही, पर्यावरण का प्रश्न एक ज्वलन्त प्रश्न है और इस सवाल पर तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए परन्तु यह कार्रवाई क्रान्तिकारी जनदिशा की रोशनी में ही की जानी चाहिए। यानी क्रान्तिकारी हिरावल को पर्यावरण के मसले पर सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता को पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संगठित करने की ओर अग्रसर होना चाहिए।
यह सच है कि म्यूज़ियम में मौजूद क्लासिकीय चित्र आज बड़ी पूँजी द्वारा सट्टेबाज़ी की मुद्रा के तौर पर इस्तेमाल होते हैं और हमें इन कलाकृतियों के माल बन जाने की प्रवृति पर चोट करनी होगी। परन्तु इसका अर्थ चित्रों पर ही हमला करना नहीं होता है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जीवाश्म ईंधन, मुख्यत: पेट्रोलियम उत्पाद के लिए होने वाली ड्रिलिंग को रोकने की माँग की ओर जनता और पश्चिमी यूरोप की सरकारों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए इस ‘रणकौशल’ को ठीक बताया है। जीवाश्म तेल के लिए होने वाली ड्रिलिंग को रोकने के लिए क्लासिकीय चित्रों को बर्बाद करने की धमकी देने से तेल की ड्रिलिंग नहीं रुकेगी, भले ही तत्कालिक तौर पर सरकार कुछ-न-कुछ बयानबाज़ी करे। सोशल मीडिया पर कलाकृतियों पर हमले की आलोचना होने पर पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने कहा कि इन हमलों में कलाकृतियों को वास्तविक नुक़सान नहीं हुआ है और यह महज़ चेतावनी है। इस कृत्य का समर्थन करते हुए “वामपन्थी” दायरे से कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा कि वैन गॉग, विन्ची और मोने के चित्र बीते समाज के चित्र हैं और बुर्जुआ वर्ग अथवा सामन्ती वर्ग की कला के उदहारण हैं इसलिए ही इन हमलों को सही ठहराया जाना चाहिए। यह एक “वामपन्थी” अतिरेकवादी समझ है जिसके चलते लम्बे दौर में प्रकृति संरक्षण के मुद्दे से ही लोगों की दूरी बनेगी।
इन क्लासिकीय चित्रों पर आलू फेंकने, टमाटर की चटनी फेंकने या स्याही फेंकने पर सर्वहारा वर्ग का रुख़ क्या होगा? इस प्रश्न का जवाब हमें आम तौर पर वर्ग समाज के हज़ारों साल में बनी कलाकृतियों के प्रति सर्वहारा वर्ग का नज़रिया साफ़ करने का भी मौक़ा देता है।
पहली बात, वैन गॉग से लेकर विन्ची और मोने के क्लासिकीय चित्र मानवीय धरोहर हैं, बुर्जुआ वर्ग की जागीर नहीं। सर्वहारा वर्ग संस्कृति और कला, अतीत की समूची कला को नष्ट करके नये सिरे से नहीं पैदा करता है। बल्कि वह अतीत की विरासत के ढाँचे पर इसे खड़ा करता है। अतीत की कला के उन प्रगतिशील तत्वों को वह अपनाता है जो मानवीय सारतत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। सोवियत रूस में भी कला के सवाल पर ऐसी ही बहस उठा खड़ी हुई थी जहाँ प्रोलेतकुल्त नामक “वामपन्थी” राजनीतिक धारा समाजवाद के पहले तक के मानवीय समाज में पैदा हुई कलाकृतियों को वर्ग समाज का उत्पाद बताकर नकार रही थी और इसके बरक्स भविष्य के स्वप्नों को नये सिरे से कला में गढ़ने का नारा दे रही थी। लेनिन ने इस बहस में सही सर्वहारा संस्कृति से पक्ष लेते हुए बताया कि मज़दूर वर्ग पुराने वर्ग समाज की समूची संस्कृति को नकारता नहीं है। वे इसे बिम्ब से समझाते हैं कि मज़दूर राज अतीत की संस्कृति के पत्थरों को चुनकर अपने भवन का निर्माण करता है। लेनिन कहते हैं कि :
“मानव-जाति के पूरे विकास ने जो संस्कृति पैदा की है उसकी सूक्ष्म जानकारी तथा उसके रूपान्तरण के आधार पर ही हम एक सर्वहारा संस्कृति का निर्माण कर सकेंगे। सर्वहारा संस्कृति ऐसी वस्तु नहीं है जो शून्य से पैदा हो गयी हो, वह उन लोगों का आविष्कार नहीं है जो अपने को सर्वहारा संस्कृति का विशेषज्ञ बताते हैं। ये सब मूर्खता की बातें हैं। पूँजीवादी, सामन्ती तथा नौकरशाही समाज के जुए के नीचे रहते हुए मानव-जाति ने जो ज्ञान राशि संचित की है, सर्वहारा संस्कृति अनिवार्य रूप से उसी का तार्किक विकास होगी। जिस तरह मार्क्स द्वारा पुनर्रचित राजनीतिक अर्थशास्त्र ने हमें यह बतलाया कि मानव समाज अनिवार्य रूप से कहाँ पहुँचेगा, वर्ग संघर्ष की तरफ़, सर्वहारा क्रान्ति की शुरूआत की तरफ़ वह कैसे बढ़ेगा, उसी तरह यह तमाम रास्ते भी सर्वहारा क्रान्ति की दिशा में बढ़ते आये हैं और बढ़ते जायेंगे।”
आगे फिर लेनिन दोहराते हैं :
“पूँजीवादी युग की मूल्यवान उपलब्धियों को ठुकराने की बजाय उसने इसके विपरीत, उस प्रत्येक मूल्यवान वस्तु को जो मानवीय चिन्तन तथा संस्कृति के दो हज़ार से अधिक वर्षों के विकास के दौरान उत्पन्न हुई है, अपना लिया है और उसे नया रूप प्रदान किया है। सच्ची सर्वहारा संस्कृति के विकास का कार्य केवल उस कार्य को ही माना जा सकता है, जो सब प्रकार के शोषण के विरुद्ध संघर्ष की अन्तिम मंज़िल के रूप में, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना के व्यावहारिक अनुभव से प्रेरणा लेकर इसी समझदारी के आधार पर और इसी दिशा में आगे किया जाता है।”
लेनिन का सर्वहारा संस्कृति के प्रति नज़रिया पूँजीवादी युग तथा वर्ग समाज के अतीत की मूल्यवान उपलब्धियों की विरासत को स्वीकार करता है न कि उसे ठुकरा देता है। पुनर्जागरण काल के विन्ची उस प्रगतिशील क्रान्ति के महामानव थे जो चिन्तन शक्ति, आवेग एवं चरित्र में भी महामानव थे। इस विरोध प्रदर्शन में विन्ची का एक चित्र भी निशाने पर आया है। वैन गॉग के चित्र जीवन की जद्दोजहद और प्रकृति को रंगों को उकेरते हैं। मज़दूरों, निचलों और ग़रीबों के जीवन और प्रकृति को स्टूडियो से बाहर निकालकर विविध चित्र उकेरते हैं। मोने भी इम्प्रेशनिज़्म के दौर में प्रकृति को रंगों और रोशनी के अन्तर्गुन्थन में उकेरते हैं। यथार्थ का यह चित्रण आज हमारे लिए अधूरा है परन्तु यथार्थ का हमारा आज का चित्रण इन कलाकर्मों के मूल्यांकन पर ही आगे खड़ा होता है।
दूसरी बात, यह तर्क कि ‘प्रकृति’, ‘प्रकृति की तस्वीरों’ से अधिक महत्वपूर्ण है, तुलनात्मक तर्क पद्धति है और ग़लत है। प्रकृति अधिक महत्वपूर्ण है, यह बोध ही हमें ज्ञान, संस्कृति और हमारी कलाकृतियाँ देता है। मानवीय सारतत्व बनाम प्रकृति यानी क्लासिकीय चित्रों बनाम प्रकृति को एक दूसरे के विरोध में रखना ही मूर्खतापूर्ण है। मुख्य सवाल पर्यावरण को बचाये जाने के लिए आम जन के आह्वान का होना चाहिए। यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि इसमें कला की भूमिका होगी। परन्तु “वामपन्थी” अतिवाद के छोर पर खड़े कुछ लोग आम मेहनतकश जन को जागृत करने के कार्यभार से मुँह मोड़कर ऐसे अतिरेकी कृत्यों का समर्थन करते हैं। इस तरह के कृत्य हमेशा ही क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए नुक़सानदायक होते हैं और हमें सर्वहारा संस्कृति से पथभ्रष्ट करते हैं।
तीसरी बात, अगर हम यह मान लें कि कोई विशिष्ट कलाकृति प्रतिगामी बुर्जुआ विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है तो भी उनपर हमला करना नुक़सानदायक होगा। इस क़िस्म की भंजन की कार्रवाई किसी भी तरह आम जनता के मन से बुर्जुआ वर्ग के विचारों को मिटा नहीं सकती है। न ही मूर्ति भंजन या चित्र भंजन की ये घटनाएँ किसी भी तरह से आम जनता को बुर्जुआ कला से दूर करती हैं। वास्तव में, बुर्जुआ विचारधारा के प्रतिगामी विचारों की नुमाइन्दगी करने वाली कलाकृतियों पर भी सर्वहारा वर्ग को बहस-मुबाहिसा करना चाहिए और उसकी वर्ग अन्तर्वस्तु को व्यापक जनता के समक्ष उजागर करना चाहिए। किसी भयंकर वर्गयुद्ध के दौरान एक लहर में प्रतिक्रिया के प्रतीकों का नष्ट किया जाना युद्ध की कार्रवाई होता है। लेकिन आम तौर पर इस प्रकार का भंजन एक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक क़दम होता है। अतीत की कलात्मक विरासत को मृत प्रगतिशील प्रतीकों का म्यूज़ियम नहीं बनाया जा सकता है, बल्कि उसे भी वर्ग संघर्ष और राजनीतिक व विचारधारात्मक संघर्ष को परावर्तित करना चाहिए। ज़ाहिरा तौर पर, सर्वहारा वर्ग सत्ता में आने पर प्राचीन रोम और यूनान, या बैजन्तियाई साम्राज्य की सारी कलाकृतियों व इमारतों को नष्ट नहीं कर देगा। ऐसे में, नयी पीढ़ी के पास कभी कोई इतिहासबोध ही नहीं होगा और विचारों के मामले में वह भयंकर रूप से दरिद्र होगी।भाकपा (माले) की पार्टी कांग्रेस (मई 1970) के बाद छात्रों-युवाओं के ‘ऐक्शन-स्क्वाडों’ ने बुर्जुआ राष्ट्रीय नेताओं की मूर्तियाँ तोड़ने का सिलसिला शुरू किया जो लुड्डाइट एक्शन सरीखा था जिसे “सांस्कृतिक क्रान्ति” कहा गया। यह तथाकथित सांस्कृतिक क्रान्ति दरअसल भंजन-दहन-हनन समारोह ही था। दीपायन बोस इसकी विवेचना करते हैं : “…इस “सांस्कृतिक क्रान्ति” ने इतिहास और विरासत के प्रति एक अतिरेकी, एकांगी और अनैतिहासिक रवैया अपनाया। शुरू में तो भाकपा (मा-ले) नेतृत्व ने इस नये घटना-विकास के प्रति असम्पृक्त रुख़ अपनाया, लेकिन जब यह लहर पूरे कलकत्ता में फैल गयी तो चारु मजुमदार ने देहातों में किसान उभार की एक स्वाभाविक परिणति बताते हुए इसका पुरज़ोर समर्थन किया। गाँधी और अन्य बुर्जुआ नेताओं की मूर्तियाँ तोड़े जाने को “मूर्ति भंजन का उत्सव” घोषित करते हुए उन्होंने लिखा कि छात्रों ने औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था पर हमला बोल दिया है, क्योंकि वे समझ चुके हैं कि उसे नष्ट किये बिना तथा दलाल पूँजीपति वर्ग द्वारा खड़ी की गयी प्रतिमाओं को ध्वस्त किये बिना क्रान्तिकारी शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति का निर्माण सम्भव नहीं…” (नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (दूसरी क़िस्त), दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015)
इस दौरान गाँधी से लेकर विद्या सागर, टैगोर, राजा राम मोहन राय आदि की मूर्तियों पर हमला किया गया। दीपायन बोस इसे “वामपन्थी” अतिपन्थ क़रार देते हैं और आलोचना करते हुए लिखते हैं कि :
“मूर्तिभंजन किसी भी सूरत में ग़लत था क्योंकि मूर्तियाँ तोड़ने और तस्वीरें जलाने से जनमानस में अंकित किसी व्यक्ति की छवि को क़तई नहीं मिटाया जा सकता। इसके लिए विचारधारात्मक कार्य की लम्बी प्रक्रिया अनिवार्य होती है। माओ त्से-तुङ ने ‘हुनान किसान आन्दोलन की जाँच-पड़ताल रिपोर्ट’ में यह स्पष्ट कहा था कि “जो किसान अपने हाथों से मूर्तियाँ बनाते हैं, वे ही समय आने पर अपने ही हाथों से उन्हें किनारे हटा देंगे, अतः वक़्त से पहले किसी को यह काम करने की ज़रूरत नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी जन समुदाय की राजनीतिक चेतना को ऊपर उठाने का काम करती है, और मूर्तिपूजा, अन्य अन्धविश्वासों और मिथ्या धारणाओं से छुटकारा पाने की ज़िम्मेदारी लोगों पर छोड़ देती है।” ज़ाहिर है कि लोगों की राजनीतिक चेतना का स्तर उठाये बिना और पर्याप्त विचारधारात्मक कार्य किये बिना ऐसे लोगों की मूर्तियाँ तोड़ना, जो घर-घर के जाने-पहचाने नाम थे, एक अतिवादी कार्रवाई थी।” (नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (तीसरी क़िस्त), दिशा सन्धान–4, जनवरी-मार्च 2017)
अतः यह साफ़ है कि पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा रणकौशल के नाम पर की जा रही ये गतिविधियाँ किसी भी तरह से सही नहीं ठहरायी जा सकती हैं। वहीं मोने, वैन गॉग और विन्ची के चित्र तो सर्वहारा वर्ग की विरासत हैं। अमुक कार्रवाई कार्यकर्ताओं के मक़सद को भी नुक़सान पहुँचाती है। हम अतीत से विमुख होकर इतिहास नहीं बदल सकते हैं। अबू तालिब ने सही ही चेताया है, ‘यदि तुम इतिहास पर पिस्तौल से गोली चलाओगे तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसायेगा।’ आज हम जिस युग में खड़े हैं वहाँ बुर्जुआ वर्ग द्वारा सर्वहारा वर्ग की स्मृतियों पर और उसकी ऐतिहासिक विरासत पर हमला निरन्तर जारी है। सर्वहारा क्रान्तियों और सिद्धान्तों को धूल और राख़ की परत के नीचे दबा दिया गया है। मज़दूर वर्ग के विज्ञान मार्क्सवाद के साथ ही आधुनिकता की सभी प्रगतिशील अवधारणाओं पर हमला किया जा रहा है। नयी समाजवादी क्रान्ति की कार्यदिशा के तहत हमें न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग के प्रयोगों और उसके सिद्धान्तों पर किये जा रहे हमलों का जवाब देना होगा बल्कि मानव इतिहास की प्रगतिशील परम्परा की भी रक्षा करनी होगी। यह सर्वहारा पुनर्जागरण और सर्वहारा प्रबोधन का कार्यभार है जिसे अंजाम दिये बिना 21वीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों को अंजाम नहीं दिया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022
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