मई दिवस कोई रस्म नहीं, दुनियाभर के मज़दूरों के संघर्ष की जीवित परम्परा है
मई दिवस को रस्मअदायगी बनाने की संशोधनवादी व पूँजीवादी ट्रेड यूनियनों की साज़िश को नाकाम करो
मई दिवस को मज़दूर वर्ग के जुझारू संघर्ष की नयी शुरुआत का मौक़ा बनाओ!

– सम्पादकीय

मई दिवस का नाम हम सभी जानते हैं। हममें से कुछ हैं जो 1 मई, यानी मज़दूर दिवस या मई दिवस, के पीछे मौजूद गौरवशाली इतिहास से भी परिचित हैं। लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो कि इस इतिहास से परिचित नहीं हैं। यह भी एक त्रासदी है कि हम मज़दूर अपने ही तेजस्वी पुरखों के महान संघर्षों और क़ुर्बानियों से नावाकि़फ़ हैं। जो मई दिवस की महान अन्तरराष्ट्रीय विरासत से परिचित हैं, वे भी आज इसे एक रस्मअदायगी क़वायदों में डूबता देख रहे हैं। कहीं न कहीं हमारे जीवन की तकलीफ़ों में हम भी जाने-अनजाने इसे रस्मअदायगी ही मान चुके हैं। यह मज़दूर वर्ग के लिए बहुत ख़तरनाक बात है। क्यों? ज़रा उन हुक्मरानों पर निगाह डालिए जो आज हम पर हुकूमत कर रहे हैं। यानी हमारे देश के पूँजीपति, धन्नासेठ और अमीरज़ादे। वे अपने वर्ग के नायकों को कभी नहीं भूलते। वे अपने वर्ग के प्रतीकों को कभी नहीं भूलते। हर वर्ष नियम से गाँधी, नेहरू, पटेल, शास्त्री, इन्दिरा से लेकर फ़ासीवादियों के गुरू गोलवलकर, हेडगेवार, और देवरस से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, दीन दयाल उपाध्याय आदि की जयन्तियाँ मनायी जाती हैं। टेलीविज़न, रेडियो और अख़बार इनके प्रचार में लग जाते हैं। हमें भी यक़ीन दिला दिया जाता है कि पूँजीपतियों और उनके पूरे वर्ग के ये नायक व प्रतीक हमारे और पूरे देश की जनता के भी नायक व प्रतीक हैं। दूसरे शब्दों में, हम अपने ही वर्ग शत्रुओं के नायकों व प्रतीकों को अपने नायक और प्रतीक मान बैठते हैं।
अपने नायकों, प्रतीकों और विरासत को ज़िन्दा रखना हर वर्ग के लिए बेहद ज़रूरी होता है। उसके बिना न तो कोई वर्ग अपने शासन को क़ायम रख सकता है और न ही कोई वर्ग अपने शासन को स्थापित करने की उम्मीद कर सकता है। सर्वहारा वर्ग समाजवादी क्रान्ति के ज़रिए मज़दूर वर्ग की सत्ता क़ायम करने की उम्मीद नहीं कर सकता है, यदि वह अपने नायकों, प्रतीकों और विरासत से कटा हुआ हो। अपने अतीत की जीती गयी और हारी गयी लड़ाइयों से सबक़ लेकर ही कोई वर्ग अपने भविष्य की लड़ाइयों को लड़ सकता है। आज पूँजीपति वर्ग शासन कर रहा है क्योंकि वह एक राजनीतिक वर्ग के रूप में, यानी एक ऐसे वर्ग के रूप में अपने आपको संगठित करने में कामयाब रहा है, जिसका मक़सद अपनी सत्ता क़ायम करना होता है। एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करने के लिए अपनी अतीत की गौरवशाली विरासत, उपलब्धियों और ग़लतियों से वाक़िफ़ होना अनिवार्य होता है। यही वजह है कि आज हमें अपने गौरवशाली अतीत और विरासत से परिचित होने की शिद्दत से ज़रूरत है।
हममें से कितने जानते हैं कि पूँजीवाद के पैदा होने के समय से ही सर्वहारा वर्ग मालिकों के वर्ग से लड़ रहा है? हममें से कितने जानते हैं कि अपनी शुरुआती लड़ाइयों से सीखते हुए मज़दूरों ने आगे चलकर पहले लगभग दस हफ़्तों के लिए 1871 पेरिस में अपनी सत्ता क़ायम की, जिसे पेरिस कम्यून के नाम से जाना जाता है? हममें से कितने जानते हैं उसके 15 वर्ष बाद ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम’ के नारे के साथ एक इन्सानी ज़िन्दगी के हक़ के वास्ते शिकागो के मज़दूरों ने एक शानदार संघर्ष लड़ा जिसमें एल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, एडोल्फ़ फ़िशर व जॉर्ज एंजेल जैसे हमारे वीर मज़दूर साथी शहीद हुए थे लेकिन जिनके संघर्ष के बूते दुनियाभर में आठ घण्टे के काम के दिन के हक़ को पूँजीपति वर्ग को अन्तत: स्वीकार करना पड़ा? आप में से कितने जानते हैं कि 1917 में रूस में हमारे ही जैसे मज़दूरों ने पहली व्यवस्थित सर्वहारा राज्यसत्ता स्थापित की और लगभग चार दशकों तक अपने देश में सर्वहारा सत्ता और समाजवाद के चमत्त्कारिक प्रयोग करके मज़दूरों-मेहनतकशों को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूख और अनिश्चितता से मुक्त कर दिया? हममें से कितने जानते हैं कि मज़दूर सत्ता और समाजवाद का एक और शानदार प्रयोग 1949 से 1976 के बीच चीन में हुआ जिसने अपनी आश्चर्यजनक कामयाबी से दुनिया को चौंका दिया? चूँकि हममें से कई लोग इसे नहीं जानते इसलिए आज भी उन्हें पता नहीं कि हम अतीत में भी पूँजीपतियों को हरा चुके हैं, उनसे सत्ता छीन चुके हैं। पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग न तो अजेय था और न ही अजेय है। आज वह बड़ा और ताक़तवर इसलिए नज़र आ रहा है क्योंकि हम अपने घुटनों पर गिरे हुए हैं। आज वह अजेय इसलिए दिख रहा है क्योंकि बेहद छोटा होने के बावजूद वह एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित है और हम बिखरे हुए हैं। वह हमसे ज़्यादा ताक़तवर नहीं है, बस वह राजनीतिक रूप से संगठित है। इसकी एक वजह यह भी है कि हम अपने इतिहास और अपनी विरासत, यानी दुनिया के मज़दूरों के शानदार इतिहास और विरासत से कट गये हैं, जिसका एक बेहद अहम हिस्सा मई दिवस का इतिहास भी है। नतीजतन, हममें एक पराजयबोध और निराशा आ जाती है क्योंकि हमें नहीं पता कि हम पहले भी जीत चुके हैं और फिर जीत सकते हैं। यह होता है अपनी विरासत से कट जाने का नतीजा।
यही वजह है कि पूँजीपति वर्ग अगर मई दिवस के नाम को मिटा नहीं सकता तो उसे महज़ रस्मअदायगी में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। हमें यह नहीं बताया जाता है कि मई दिवस का संघर्ष लड़ा ही क्यों गया था। हमारे लिए इसे एक रस्मअदायगी या छुट्टी का दिन मात्र बना दिया जाता है। इस काम में शासक वर्ग की सबसे बड़ी मदद करती हैं, संशोधनवादी पार्टियों (यानी नाम से सर्वहारा वर्गीय लेकिन वास्तव में पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली चुनावबाज़ पार्टियाँ) से जुड़ी ट्रेड यूनियनें जैसे कि सीटू, एटक, एक्टू आदि। इसके अलावा, खुले तौर पर पूँजीवादी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें भी मई दिवस की शानदार विरासत पर धूल और राख डालने का काम करती हैं, जैसे कि बीएमएस, इण्टक आदि।
मई दिवस का संघर्ष महज़ वेतन-भत्ते में बढ़ोत्तरी के लिए किया गया संघर्ष नहीं था। यह एक राजनीतिक संघर्ष था जिसकी केन्द्रीय माँग थी मज़दूरों के लिए एक मानवीय जीवन का अधिकार हासिल करना। उस दौर में पूरी दुनिया में ही अलग-अलग जगहों पर दस, बारह, चौदह या सोलह घण्टों तक मज़दूरों से काम करवाया जाता था। मज़दूर के जीवन का अर्थ सिर्फ़ इतना था कि वह पूँजीपति के लिए उत्पादन करे, उसके लिए मूल्य और बेशी मूल्य पैदा कर उसे मुनाफ़ा पीटने में सक्षम बनाये, उसकी तिजोरियाँ भरे और यही करने में वह अपना शरीर गला दे, हड्डियों का चूरा बना दे और अपने ख़ून को सिक्कों में ढाल दे। अपने परिवार, अपने बच्चों के लिए स्तरीय भोजन, शिक्षा, चिकित्सा और आवास की उम्मीद करना तो दूर की बात थी, वह उनके साथ वक़्त भी नहीं बिता पाता था।
इन कार्य स्थितियों और जीवन स्थितियों के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने 1850 के दशक से ही ज़ोरदार तरीके़ से आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी। ऑस्ट्रेलिया में कई जगहों पर तो मज़दूरों ने 1856 में ही अपने जुझारू संघर्ष के बूते 8 घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार जीत लिया था। ऑस्ट्रेलिया में पत्थरतराश मज़दूरों ने विक्टोरिया में आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए हड़ताल की और उसमें विजय भी हासिल की। लेकिन दुनिया में बाक़ी जगहों पर अभी भी उसे आम तौर पर 10 से 14-16 घण्टों तक काम करना पड़ता था। इसके विरुद्ध अमेरिका के मज़दूरों ने संघर्ष को बुलन्द किया। 1886 में 1 मई के दिन को शिकागो के मज़दूरों ने आम हड़ताल का दिन बनाने का निर्णय किया। माँग थी कार्यदिवस को आठ घण्टे का बनाने की। नारा था : “आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम”। इस नारे के साथ 1 मई 1886 को शिकागो के मज़दूरों ने एक ऐसे ऐतिहासिक संघर्ष की शुरुआत की जो पूरे दुनिया के मज़दूरों के लिए एक मिसाल बन गया। 4 मई को हेमार्केट नामक स्थान पर मज़दूरों ने इस माँग को लेकर एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया, जहाँ साज़िशाना तरीके़ से एक बम फिंकवाया गया और उसके बाद पुलिस ने मज़दूरों की सभा पर गोली चला दी, जिसमें चार लोगों की मौत हो गयी। सात पुलिसकर्मी भी इस टकराव में मारे गये। इसके बाद पुलिस ने ढूँढ़-ढूँढ़कर मज़दूर नेताओं की धरपकड़ की जिनमें से चार को बाद में एक नक़ली मुक़दमे में बिना किसी सुबूत के फाँसी दे दी। एक मज़दूर नेता ने जेल में ही आत्महत्या कर ली। बाद में अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दों को भी यह स्वीकार करना पड़ा था कि यह मुक़दमा एक नाटक था, जिसमें मज़दूरों को आवाज़ उठाने के लिए सज़ा देने का निर्णय पहले ही किया जा चुका था।
1889 में द्वितीय इण्टरनेशनल ने, जो कि दुनियाभर की कम्युनिस्ट व मज़दूर पार्टियों का अन्तरराष्ट्रीय मंच था, पूरी दुनिया में 1 मई को मई दिवस मनाने का फ़ैसला किया क्योंकि यह मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष का एक प्रतीक बन चुका था। इसके साथ पूरी दुनिया में ही आठ घण्टे के कार्यदिवस का संघर्ष और आगे बढ़ा और 1900 के दशक से 1960 के दशक के बीच अधिकांश उन्नत पूँजीवादी देशों में मज़दूर वर्ग के इस संघर्ष के सामने पूँजीवादी सरकारों को झुकना पड़ा और आठ घण्टे के कार्यदिवस या सप्ताह में कुल 40 काम के घण्टे का क़ानून बनाना पड़ा। एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के कई देशों में भी इस दौर में आठ घण्टे के कार्यदिवस के क़ानून बने और जैसे-जैसे इन महाद्वीपों के देश औपनिवेशिक, अर्द्धऔपनिवेशिक या नवऔपनिवेशिक ग़ुलामी से आज़ाद होते गये, जनता के संघर्षों के दबाव में इन देशों में भी आठ घण्टे के कार्यदिवस के क़ानून बने।
उन्नत पूँजीवादी देशों में 1970 के दशक के पहले लगभग सभी औपचारिक व संगठित क्षेत्र के कार्यस्थलों पर यह क़ानून मोटे तौर पर लागू भी होता रहा, हालाँकि इन सभी देशों में पूँजीपति वर्ग ने अपने मुनाफ़े की दर को पहले जैसे स्तर पर बनाये रखने के लिए मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी को घटाने का प्रयास भी किया, जिसके ख़िलाफ़ मज़दूरों ने लगातार संघर्ष किया। 1970 के दशक से उन्नत पूँजीवादी देशों में भी अनौपचारिकीकरण यानी ठेकाकरण, कैज़ुअलाइज़ेशन और दिहाड़ीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई हालाँकि यह प्रक्रिया 1990 के दशक तक ज़्यादा तेज़ गति से नहीं चल पायी और उन्नत देशों में अधिकांशत: प्रवासी मज़दूरों तक सीमित रही। मसलन, अमेरिका में अश्वेत मज़दूरों के अलावा मेक्सिकन, प्यूएर्तो रीकन, डोमिनिकन रिपब्लिक के प्रवासी मज़दूरों के ठेकाकरण, कैज़ुअलाइज़ेशन व दिहाड़ीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी। इन प्रवासी मज़दूरों के लिए कार्यदिवस भी आम तौर पर आठ घण्टे से ज़्यादा होने लगा। आज यह प्रक्रिया चरम पर पहुँच चुकी है जिसमें कि उन्नत देशों में भी प्रवासी मज़दूरों की कार्यस्थितियाँ बेहद बिगड़ चुकी हैं, उनके बहुतेरे श्रम अधिकार उनसे छीने जा चुके हैं, जिनमें आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार भी शामिल है।
तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के नवस्वाधीन देशों में, जो कि 1940 के दशक से 1990 के दशक के बीच आज़ाद हुए थे, पहले से ही एक विशाल अनौपचारिक सेक्टर और अनौपचारिक मज़दूरों की आबादी मौजूद थी। इनमें से बहुतेरे देशों में जो हुआ उसे कमोबेश भारत के उदाहरण से समझा जा सकता है। आज़ादी के तुरन्त बाद दो सौ साल की औपनिवेशिक ग़ुलामी के कारण भारत के आर्थिक रूप से कमज़ोर पूँजीपति वर्ग ने जनता की बचत को एकत्र करके पब्लिक सेक्टर का एक विशाल ढाँचा खड़ा किया। पूँजीपति वर्ग को इसी के ज़रिेए विशाल ऋण दिये गये, जिसके बूते भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए अपने पैरों पर खड़ा हो पाना सम्भव हुआ। बाद में चलकर कुछ दशकों बाद इन ऋणों को माफ़ कर दिया गया। यानी भारत के टाटा-बिड़ला जैसे बड़े पूँजीपति जनता की गाढ़ी मेहनत की कमाई के बूते ही अपने पैरों पर खड़े हुए, अपने “उद्यम” के बूते नहीं! पूँजीपति वर्ग उन क्षेत्रों में निवेश नहीं करना चाहता था जिनसे तुरन्त मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता है। जैसे कि अवसंरचनागत उद्योग, भारी रासायनिक, इंजीनियरिंग उद्योग आदि क्योंकि इसमें निवेश पर मुनाफ़ा आने में वक़्त लगता है। लेकिन इन आधारभूत उद्योगों के बिना किसी भी देश में पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की गाड़ी छकड़ा-गाड़ी के माफ़िक़ ही चल सकती है। यह पूँजीवादी विकास के लिए अनिवार्य होता है। यह काम भारत में पूँजीवादी सरकार ने जनता की जमा पूँजी के बूते किया ताकि पूँजीपतियों को इसका ख़र्च न उठाना पड़े। पूँजीपति वर्ग ने उपभोक्ता सामग्रियों को पैदा करने पर ज़ोर दिया जिससे कि तुरन्त मुनाफ़ा कमाया जा सके। यह नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था का सारतत्व था: सारा ख़र्चा जनता का, सारा मुनाफ़ा मालिकों का!
बहरहाल, पब्लिक सेक्टर के उद्योगों व उपक्रमों में श्रम क़ानूनों को एक हद तक लागू किया गया। बड़े पूँजीपतियों के भी बड़े उद्योगों में सीमित तौर पर इन श्रम क़ानूनों को लागू किया गया। इन श्रम क़ानूनों में आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार, ईएसआई, पीएफ़, बोनस, डबल रेट से ओवरटाइम का भुगतान, पेंशन आदि। लेकिन कभी भी मज़दूर आबादी की बहुसंख्या इन संगठित क्षेत्रों के कारख़ानों व कार्यस्थलों पर काम नहीं करती थी। आज संगठित व औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का प्रतिशत कुल मज़दूर आबादी में घटते-घटते 6-7 प्रतिशत तक आ चुका है। 93 से 94 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों के कारख़ानों, वर्कशॉपों, दुकानों, खेतों व अन्य कार्यस्थलों पर काम करते हैं। इनमें से अधिकांश को आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार प्राप्त नहीं है और न ही उन्हें पीएफ़, ईएसआई, पेंशन, बोनस, स्वैच्छिक ओवरटाइम व ओवरटाइम के डबल रेट से भुगतान आदि जैसे श्रम अधिकार प्राप्त हैं, जिसे मज़दूर वर्ग ने जुझारू संघर्षों के बूते जीता था।
1980 के दशक से भारत में भी अनौपचारिकीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ी। भारतीय अर्थवयवस्था का पहले से ही विशालकाय अनौपचारिक क्षेत्र और तेज़ी से बढ़ा। ठेका प्रथा का बोलबाला हो गया, कैज़ुअलाइज़ेशन व दिहाड़ीकरण के ज़रिए मज़दूरों की विशाल बहुसंख्या के नंगे व बर्बर शोषण का रास्ता खोल दिया गया। आज हालत यह है कि भारत के कुल मज़दूरों के 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से को आठ घण्टे का कार्यदिवस हासिल नहीं है, जिसे मज़दूर वर्ग ने कई दशकों पहले हासिल किया था। दशकों के संघर्षों के बाद और दशकों पहले हासिल किये गये इन तमाम अधिकारों को आज छीना जा रहा है। क़ानून की किताबों में ये क़ानून झींगुरों की ख़ुराक बन रहे हैं। अदालतों, श्रम न्यायालयों, प्रशासकों और नेताओं-मंत्रियों को भली-भाँति पता है कि आठ घण्टे के कार्यदिवस समेत अधिकांश क़ानूनी श्रम अधिकार मज़दूरों को नहीं दिये जा रहे हैं। लेकिन पूँजीवादी राज्यसत्ता के सभी निकाय, चाहे वह सरकार हो, नौकरशाही हो या फिर न्यायपालिका, मिलीभगत करके पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा में सन्नद्ध हैं और इन अधिकारों के नंगे हनन पर चुप्पी साधे रहते हैं और आँखें बन्द किये रहते हैं। करें भी क्यों नहीं? जब नेताओं, मंत्रियों में ही बहुतेरे ख़ुद पूँजीपति हैं और कारख़ाने चलाते हैं और जब सभी पार्टियों का चुनावी चन्दा अरबों-खरबों में पूँजीपति वर्ग के घरानों, कम्पनियों आदि से आता है, तो ज़ाहिर है कि सरकार किसी भी पूँजीवादी पार्टी की बने, मालिकों-ठेकेदारों के और दलालों के हितों की ही सेवा की जायेगी।
दरअसल, आज पूँजीपति वर्ग को मज़दूर वर्ग के इन अधिकारों को छीनने की ख़ास तौर पर ज़रूरत है। पूरी दुनिया में पूँजीपति वर्ग आर्थिक संकट का शिकार है। यह मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का संकट है जो कि पूँजीवादी व्यवस्था में नियमित अन्तराल पर आता रहता है और अपने आपको अतिउत्पादन और अल्पउपभोग की परिघटनाओं के रूप में प्रकट करता है। यह इसलिए होता है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में तमाम पूँजीपति अपने मुनाफ़े को अधिकतम बनाने के लिए आपस में प्रतिस्पर्द्धा में संलग्न होते हैं और इस प्रक्रिया में वे उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी लगाते हैं ताकि अपने माल को कम लागत में उत्पादित कर सकें और अपने प्रतिस्पर्द्धी को बाज़ार में पटखनी दे सकें। इस प्रक्रिया में समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ही श्रमशक्ति को ख़रीदने पर निवेश कम होता जाता है, प्रति मशीन श्रम व्यय की मात्रा कम होती जाती है और जैसे-जैसे समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में जीवित श्रम (मज़दूरों के सक्रिय श्रम) पर मृत श्रम (यानी मशीनरी, इमारतें, कच्चा माल आदि) हावी होता जाता है, वैसे-वैसे समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के स्तर पर पूँजीपतियों के मुनाफ़े की औसत दर भी गिरती जाती है। क्योंकि नया मूल्य केवल जीवित श्रम पैदा करता है। मज़दूर की मेहनत ही नये मूल्य और इस प्रकार मुनाफ़े का सृजन करती है। मशीनरी, कच्चा माल आदि क्रमिक प्रक्रिया में या एक बार में केवल अपने मूल्य को माल में स्थानान्तरित करते हैं, वे माल के मूल्य में कोई बढ़ोत्तरी नहीं करते हैं। यह मज़दूर का श्रम है, जो ख़र्च होने की प्रक्रिया में माल के रूप में ठोस रूप ग्रहण करता है और नया मूल्य पैदा करता है।
मज़दूर अपने कार्यदिवस के एक हिस्से में अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है, और बाक़ी हिस्से में वह पूँजीपति के लिए मुनाफ़ा पैदा करता है। अगर ऐसा न हो तो कोई पूँजीपति निवेश करेगा ही नहीं! पहले हिस्से को आवश्यक श्रमकाल कहते हैं और दूसरे को अतिरिक्त श्रमकाल। आवश्यक श्रमकाल में मज़दूरी के बराबर मूल्य का उत्पादन मज़दूर द्वारा किया जाता है और दूसरे हिस्से में पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन होता है, जो कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत है। जैसे-जैसे मज़दूरों के लिए आवश्यक वस्तुओं को पैदा करने वाले उद्योगों में यानी मज़दूरी-उत्पाद पैदा करने वाले उद्योगों में उत्पादकता बढ़ती है, वैसे-वैसे मज़दूरी-उत्पाद सस्ते होते जाते हैं और श्रमशक्ति का मूल्य घटता है। यह प्रक्रिया एक दीर्घकालिक प्रक्रिया के रूप में घटित होती है। लेकिन श्रमशक्ति चाहे कितनी भी सस्ती हो जाये और मज़दूर चाहे जितने कम समय में अपने गुज़ारे लायक़, यानी अपनी श्रमशक्ति की क़ीमत के बराबर मूल्य पैदा कर ले, अन्तत: मुनाफ़े की दर गिरती ही है। अगर मज़दूर केवल हवा पर ज़िन्दा रहे और पूरे कार्यदिवस में वह पूँजीपति के लिए मुनाफ़ा पैदा करे, तो भी पूँजीपतियों के बीच माल की लागत और इस प्रकार क़ीमत को कम करने की प्रतिस्पर्द्धा के जारी रहने के कारण तकनोलॉजी, मशीनों, कच्चे माल आदि पर निवेश बढ़ता ही रहेगा और चूँकि मुनाफ़े की दर की गणना मुनाफ़े और केवल मज़दूर की श्रमशक्ति को ख़रीदने में लगी पूँजी यानी परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात के आधार पर नहीं होती, बल्कि मुनाफ़े और कुल पूँजी निवेश के अनुपात पर होती है, इसलिए मुनाफ़े की दर अन्तत: गिरती है। मज़दूरों के शोषण की दर में बढ़ोत्तरी केवल उसे तात्त्कालिक व अस्थायी तौर पर रोक सकती है। संक्षेप में, मुनाफ़ा बढ़ाने की हवस को शान्त करने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में पूँजीपतियों द्वारा अपनाये गये तरीक़े ही, यानी श्रम की उत्पादकता को बढ़ाते जाना और मालों के दामों को कम करके प्रतिस्पर्द्धा में विजय हासिल करना, अन्तत: समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की गिरती दर के संकट को पैदा करता है। यह पूँजीपति वर्ग की इच्छा से परे है और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का एक आम नियम है। कोई एक पूँजीपति यह नहीं सोच सकता कि चूँकि उत्पादकता को बढ़ाते जाने और सस्ता बेचकर बाज़ार पर क़ब्ज़ा करने की होड़ के कारण पूँजीवाद में मुनाफ़े की औसत दर गिरने का संकट पैदा होता है, इसलिए मैं उत्पादकता बढ़ाऊँगा ही नहीं! कोई पूँजीपति अगर ऐसा करने का प्रयास करेगा तो तात्कालिक प्रतिस्पर्द्धा में वह तबाह हो जायेगा और दूसरे पूँजीपतियों द्वारा निगल लिया जायेगा। पूँजीपति वर्ग को बाज़ार कभी लम्बी दूरी का सोचने की इजाज़त नहीं देता है। पूँजी की गति पूँजीपति को नियंत्रित करती है, पूँजीपति पूँजी की गति को नियंत्रित नहीं करता।
यही वजह है कि नियमित अन्तराल पर पूँजीवाद आर्थिक संकट के भँवर में घिरता है। पूँजीवाद 1970 से ही एक दीर्घकालिक संकट से घिरा हुआ है। इसी से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग से उसके श्रम अधिकारों को छीनने की प्रक्रिया 1970 के दशक से शुरू की थी। इसे ही हम नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत के नाम से जानते हैं। 1990 का दशक आते-आते उन्नत पूँजीवादी देशों में शुरू हुई यह प्रक्रिया भारत जैसे देशों में भी खुले तौर पर और ज़ोरदार तरीक़े से शुरू हो चुकी थी। इस प्रक्रिया के तहत ही ठेकाकरण, कैज़ुअलाइज़ेशन और दिहाड़ीकरण कर मज़दूरों को स्थायी रोज़गार के अधिकार से वंचित किया गया ताकि उसकी मोलभाव की क्षमता को कम किया जा सके और उसकी औसत मज़दूरी को घटाया जा सके। यदि औसत मज़दूरी घटेगी तो मुनाफ़े की दर बढ़ेगी। इसके ज़रिए पूँजीपति वर्ग ने लगभग सभी देशों में ही 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध तक मुनाफ़े की गिरती दर को कुछ रोकने में कामयाबी हासिल की। लेकिन 2000 के दशक से शुरू हुए संकट और उसके 2007 में एक महामन्दी में तब्दील होने के साथ यह प्रक्रिया समाप्त हो गयी। आज मज़दूरों के श्रम अधिकारों पर नये सिरे से जो हमला पूरी दुनिया में किया जा रहा है, उसके पीछे 2007 से जारी दीर्घकालिक महामन्दी है। मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से पूँजीपति वर्ग बिलबिला रहा है और राहत के लिए मज़दूरों के शेाषण की दर को और ज़्यादा बढ़ाने की ख़ातिर उसके नाममात्र के बचे-खुचे अधिकारों को छीनने की कोशिशों में लगा हुआ है।
यही कारण है कि 2010 के दशक की शुरुआत से ही दुनियाभर में पूँजीपति वर्ग ने अपना समर्थन उदारपन्थी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों की बजाय घोर मज़दूर विरोधी फ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी पार्टियों और तानाशाहों को देना शुरू किया। भारत के पूँजीपति वर्ग ने भी एकमत होकर खरबों रुपये ख़र्च करके 2014 के पूँजीवादी आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी-नीत भाजपा को सत्ता में पहुँचाया। क्योंकि मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता के हितों पर नंगई के साथ बर्बर हमले करने का काम कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा ज़्यादा बेहतर तरीक़े से कर सकती है। मोदी सरकार ने पूँजीपति वर्ग के आम हितों की सेवा करते हुए यह काम किया भी है। जहाँ एक ओर नये लेबर कोड लाकर मज़दूरों से आठ घण्टे के कार्यदिवस के अधिकार को क़ानूनी तौर पर छीनने, ट्रेड यूनियन बनाने के हक़ में तमाम बाधाएँ खड़ी करने और सस्ते बाल व किशोर श्रम के शोषण का रास्ता खोलन की तैयारी की जा चुकी है, वहीं दूसरी ओर जहाँ कहीं भी मज़दूर बेहतर कार्यस्थितियों और जीवनस्थितियों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, आवाज़ उठा रहे हैं, वहाँ उन्हें क्रूरता से कुचलने का काम भी मोदी सरकार बख़ूबी कर रही है।
इसके अलावा, देश के मेहनतकश अवाम को धर्म और मन्दिर-मस्जिद के नाम पर बाँटकर असल मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम भी भाजपा सरकार और संघ परिवार लगातार कर रहा है। कम राजनीतिक चेतना के कारण आम मेहनतकश जनता का एक हिस्सा भी अपनी हताशा में इस लहर में बह जा रहा है और उसे लग रहा है कि असली समस्या दूसरे धर्म या जाति के लोग हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हर धर्म और जाति के मेहनतकशों की असली दुश्मन सरमायेदारों की पूरी जमात, यानी मालिक, ठेकेदार, दलाल, बिचौलिये, धनी व्यापारी आदि हैं। महँगाई, बेरोज़गारी और अनिश्चितता धर्म पूछकर वार नहीं करती। वह हर मज़दूर-मेहनतकश की कमर तोड़ रही है। लेकिन भाजपा सरकार उसे धर्म के नाम पर दंगे फैलाकर बाँटने का काम कर रही है, टुटपुँजिया आबादी की असुरक्षा का इस्तेमाल कर उसकी भीड़ को धार्मिक उन्माद में बहाकर मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी ताक़तों पर हमले कर रही है ताकि देश के धन्नासेठों यानी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला आदि की सेवा की जा सके। इन सारी साज़िशों के पीछे वास्तव में बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और मज़दूरों के श्रम अधिकारों को छीने जाने के कुकर्म से ध्यान हटाना है।
ऐसे दौर में, मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन फ़ासीवादी मोदी सरकार की इन ख़तरनाक साज़िशों का जवाब दे सकता है। वर्गसचेत मज़दूरों को इन साज़िशों को समझना चाहिए और अपने भाइयों-बहनों को इसके बारे में समझाना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि किस तरह धर्म का उन्माद उनके हक़ों को छीनने और उन्हें दबाने-कुचलने के लिए ही खड़ा किया जा रहा है और इस उन्माद में बहना अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। हमें आज मई दिवस की क्रान्तिकारी परम्परा को जानने-समझने और उसे जीवित करने की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है। मई दिवस ने हमें आठ घण्टे के कार्यदिवस और एक इन्सानी जीवन का हक़ दिया था, जिसे आज पूँजीपति वर्ग और उसकी प्रतिक्रियावादी राजसत्ताएँ छीन रही हैं। आज हमें इस बात की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है कि हम नये सिरे से जागें, गोलबन्द हों और संगठित हों और अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए यह नया महासंग्राम पूरे देश के पैमाने पर छेड़ दें।
इसके लिए हमें दरकार है कि हम संशोधनवादी पार्टियों जैसे कि माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि को मज़दूर आन्दोलन से बाहर करें क्योंकि ये हमारे संघर्ष को बेकार करने का काम करते हैं। ये नक़ली लाल झण्डे से हमें धोखा देने का काम करते हैं। वास्तव में, ये मज़दूर आन्दोलन के भीतर पूँजीपति वर्ग के भेदिये हैं जिनका मक़सद ही हमारे संघर्षों को समझौतापरस्ती, रस्मअदायगी, दलाली, कमीशनख़ोरी, अर्थवाद के दलदल में डुबा देना है। क्या हम सभी अपने अनुभवों से नहीं जानते कि देशभर में इन्होंने किस तरह हमारे आन्दोलनों को बेच खाया है, समझौतापरस्त और घुटनाटेकू नीतियों से बर्बाद किया है और मालिकों के साथ मिलीभगत कर हमारे संघर्षों को नुक़सान पहुँचाया है? यही वे ताक़तें हैं जो हमसे हमारे लड़ने की ताक़त छीन रही हैं, हमारे क्रान्तिकारी अतीत को भुला देने की साज़िशें कर रही हैं, मई दिवस और पेरिस कम्यून की इन्क़लाबी परम्पराओं पर धूल और राख की परतें चढ़ा रही हैं और मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित होने की क्षमता से वंचित कर रही हैं। आज फ़ासीवाद और मज़दूर वर्ग पर हो रहे हमलों का कारगर तरीक़े से विरोध करने की क्षमता अर्जित करने के लिए हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए सबसे ज़रूरी है कि संशोधनवादियों को अपने आन्दोलन में से जड़ समेत उखाड़कर फेंक दिया जाये और उन्हें कहीं भी पाँव न जमाने दिया जाये। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों ने अपने आन्दोलन से सीटू को उखाड़ फेंका और उसका नतीजा भी सामने आया: एक ऐसा ऐतिहासिक जुझारू आन्दोलन जिसने राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की चूलें हिला दीं। वजह यह थी यह कोई समझौतापरस्त आन्दोलन नहीं है, बल्कि जनता की शक्ति के आधार पर खड़ा एक जुझारू आन्दोलन है।
मई दिवस की परम्पराओं को जीवित करने का आज यही रास्ता हो सकता है। इसी के ज़रिए आज मज़दूर-मेहनतकश नये सिरे से क्रान्तिकारी संगठन खड़े कर सकते हैं और पूँजीवाद और फ़ासीवाद द्वारा उसके हक़ों पर लगातार किये जा रहे हमलों का कामयाबी से मुक़ाबला कर सकते हैं और उनका मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, मई 2022


 

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