कोरोना महामारी की दूसरी लहर से हो रही लाखों मौतें
इस देशव्यापी जनसंहार के लिए फ़ासिस्ट मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही ज़िम्मेदार है!

– सम्पादकीय

कोरोना महामारी की दूसरी लहर पूरे देश में क़हर बरपा कर रही है। बड़ी संख्या में लोग ऑक्सीजन जैसी बुनियादी ज़रूरत के अभाव, अस्पतालों में बेडों की कमी, जीवन रक्षक दवाओं की अनुपलब्धता व अन्य स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण मौत का शिकार हो रहे हैं। अस्पतालों के बाहर लोग रोते-बिलखते असहायता के साथ अपनों को मरता देख रहे हैं। कोरोना मामलों की प्रतिदिन संख्या इतनी अधिक है कि डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के कन्धे भी इसके बोझ तले दब गये हैं। वहीं इससे होने वाली मौतों की संख्या इतनी विकराल है कि शमशानों और क़ब्रिस्तानों में शवों के लिए जगह नहीं मिल रही है। कोई दिन नहीं बीतता है जब देश के किसी कोने से ऐसी भयावह तस्वीरें न आ रही हों जो बतौर इन्सान हमें झकझोरकर न रख दें। चारों ओर मौत, बेबसी और लाचारी का एक ताण्डव जारी है लेकिन इन सबके बीच फ़ासिस्ट मोदी सरकार चुपचाप बैठकर तमाशा देख रही है। पूरे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गयी है और हम एक देशव्यापी स्वास्थ्य संकट व आपदा के साक्षी बन रहे हैं।
भारत बढ़ते संक्रमण और उससे होने वाली मौतों के मामले में नित नये विश्व रिकॉर्ड क़ायम कर रहा है। भारत में कोरोना संक्रमण के मामलों के बढ़ने की रफ़्तार इस समय दुनिया में सबसे ज़्यादा है। इन शब्दों के लिखे जाने तक कोरोना संक्रमण के कुल मामले 2 करोड़ 30 लाख पहुँच चुके हैं और मौतों की संख्या ढाई लाख हो चुकी है। असलियत में मौतें इन आँकड़ों से कम से कम पाँच गुना ज़्यादा मानी जानी चाहिए, कुछ विशेषज्ञ इन्हें 10 गुना अधिक भी बता रहे हैं क्योंकि तमाम वैज्ञानिकों-शोधकर्ताओं के अनुसार बड़े पैमाने पर कोरोना से होने वाली मौतों के आँकड़ों को सरकारों द्वारा दबाया जा रहा है। सरकार के मुताबिक़ ही कोरोना की जारी लहर में 1 अप्रैल, 2021 से अब तक 90,000 से ज़्यादा लोगों ने दम तोड़ दिया। यदि इन लोगों को समय पर अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन और उपचार मिल गया होता तो इनमें से बहुत सारे आज भी जीवित होते। इन्हें मौतें न कहकर इस मुनाफ़ाख़ोर-आदमख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था और उतनी ही निर्मम, लापरवाह, अमानवीय और बेशर्म फ़ासिस्ट सरकार द्वारा की जा रही हत्याएँ कहा जाना चाहिए। यह फ़ासिस्ट मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही और कुप्रबन्धन ही है जिसने देश की जनता को मौत के मुँह में धकेल दिया है। तमाम प्राइवेट दवा व वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियाँ इस संकट में भी मुनाफ़ा पीटने का अवसर तलाश रही हैं। ऑक्सीजन से लेकर तमाम दवाओं की खुली कालाबाज़ारी दिन-दहाड़े चल रही है। आज़ादी के बाद से भारत ने ऐसी आपदा शायद ही पहले कभी देखी होगी। यही नहीं मोदी सरकार जैसी जनद्रोही और फ़ासिस्ट सरकार भी हम इस देश में पहली बार ही देख रहे हैं। कहते हैं कि जब रोम जल रहा था तब वहाँ का राजा नीरो बाँसुरी बजा रहा था। आज यह बात इस फ़ासिस्ट सरकार और इसके प्रधानमंत्री पर शब्दशः सटीक बैठती है। जब भारत कोरोना माहामारी की आग में जल रहा है तो मोदी सरकार बेशर्मी और निर्ममता के साथ उस आग पर अपने हाथ सेंक रही है।
कोरोना महामारी की इस दूसरी अधिक संक्रामक और घातक लहर की ज़द में अब देश के गाँव और छोटे शहर और क़स्बे भी आ चुके हैं, जहाँ पहले ही ख़स्ताहाल स्वास्थ्य सेवाएँ यह बोझ उठा ही नहीं पा रही हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के गाँवों और शहरों में स्थिति नियंत्रण से पूरी तरह बाहर चली गयी है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के बर्बर फ़ासिस्ट मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा कोरोना को लेकर “अफ़वाहें फैलाने” वालों के ख़िलाफ़ रासुका और यूएपीए जैसे काले क़ानूनों का सहारा लिया जा रहा है। मेडिकल रिपोर्टों व मृत्यु प्रमाण पत्रों में कोविड पॉज़िटिव दिखाने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों पर कार्रवाई की जा रही है, उनके अस्पताल सील किये जा रहे हैं और फ़र्ज़ी मुक़दमे डाले जा रहे हैं। लेकिन इतनी भयावह स्थिति पैदा क्यों हुई? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? जब कोरोना की दूसरी लहर के ख़िलाफ़ तैयारी का समय था तब मोदी सरकार का समूचा मंत्रिमण्डल बंगाल से लेकर केरल तक में चुनावी रैलियाँ कर रहा था और नेताओं-विधायकों को ख़रीदने में मगन था। जब संक्रमण से लड़ने की नयी कारगर रणनीति बनाने का वक़्त था तब मोदी सरकार सभी सार्वजनिक उपक्रमों को कौड़ियों के दाम बेच रही थी और मज़दूर-विरोधी श्रम संहिताएँ पारित कर रही थी। जब व्यापक आबादी में निःशुल्क वैक्सीनेशन का कार्यभार पूरा किया जाना चाहिए था तब प्रधानमंत्री मोदी कोरोना पर विजय प्राप्त करने के अहमक दावे कर रहे थे और अपनी पीठ थपथपा रहे थे! जब संक्रमण की रोकथाम के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने की बारी थी तो कुम्भ मेले का आयोजन, वह भी निर्धारित समय से पहले और सभी स्वास्थ्य सुरक्षाओं को धता बताकर करवाया जा रहा था। देश की जनता के स्वास्थ्य और जीवन से खिलवाड़ इन्हीं फ़ासिस्टों की करामात है जिन्होंने इस आपदा को हज़ार गुना बढ़ाने का भीषण अपराध किया है। आज जो लोग मर रहे हैं वे सिर्फ़ कोरोना महामारी के चलते नहीं बल्कि वे फ़ासिस्ट मोदी सरकार की अक्षम्य आपराधिक लापरवाही के चलते भी मर रहे हैं।
मौजूदा स्वास्थ्य संकट की विकरालता इतनी गम्भीर है कि आम तौर पर फ़ासिस्ट मोदी सरकार की सभी कारगुज़ारियों पर मुँह में दही जमाकर बैठने वाले उच्चतम न्यायलय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा है और सरकार को थोड़ी हलकी-फुल्की डाँट-फटकार लगाने पर विवश होना पड़ा है। आख़िर व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार होने के नाते वे भी समझ रहे हैं कि स्थितियाँ किस करवट मुड़ सकती हैं! एक तरफ़ मौतों की यह भयावह त्रासदी जारी है वहीं दूसरी ओर इस दौरान मोदी सरकार सेण्ट्रल विस्टा विकास परियोजना पर 20000 करोड़ रुपये पानी की तरह बहा रही है। यही नहीं, इसके निर्माण कार्य को आवश्यक सेवा तक घोषित कर दिया है ताकि दिल्ली में जारी लॉकडाउन के दौरान भी इसका काम जारी रह सके!
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के पास आपदा से निपटने का मौक़ा, वक़्त और संसाधन नहीं थे। कई विशेषज्ञों द्वारा बार-बार महामारी की दूसरी लहर आने के बारे में चेताये जाने के बावजूद सरकार इसे अगम्भीरता से लेती रही और महामारी पर शिकस्त पाने की बड़ी-बड़ी अवैज्ञानिक डीगें हाँकती रही। पिछले एक साल के अन्दर ही स्वास्थ्य ढाँचे में व्यापक सुधार किया जा सकता था। लेकिन न तो व्यापक तौर पर कोविड केयर सेण्टरों और आइसोलेशन वार्डों को खड़ा किया गया, न घोषित किये गये ऑक्सीजन प्लाण्ट लगाये गये, न अस्पतालों की संख्या बढ़ायी गयी, न मौजूदा स्वास्थ्य ढाँचे को दुरुस्त करके अस्पतालों में आईसीयू और वेण्टिलेटर्स बढ़ाये गये, न एम्बुलैंस सुविधा बढ़ायी गयी, न जीवनरक्षक दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित की गयी। क्यों नहीं इस दौरान बड़े पैमाने पर अस्पतालों में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की भर्ती की गयी? क्या स्पेन की तरह भारत भी स्वास्थ्य के ढाँचे का राष्ट्रीकरण करके युद्ध स्तर पर कोरोना का मुक़ाबला नहीं कर सकता था? क्या दूसरी लहर से ऐन पहले चुनावी रैलियाँ और कुम्भ जैसा आयोजन किया जाना देश की जनता के ख़िलाफ़ किये जाने वाले किसी भी अपराध से कम है? नतीजा एक विकराल ऐतिहासिक आपदा है जो आज इस देश की मेहनतकश जनता को ही सबसे अधिक प्रभावित कर रही है। असल में मोदी सरकार के एजेण्डे में जनता के जान-माल का सरोकार हो तभी तो वह महामारी से गम्भीरतापूर्वक निबटने की कोई योजना बनाती। सत्ता में बैठे इन फ़ासिस्टों को आपदा प्रबन्धन की बजाय जनता को जाति-धर्म और मन्दिर-मस्जिद के नाम पर लड़ाकर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का प्रबन्धन ही आता है और वही ये कर भी रहे हैं! इसका हालिया उदहारण महामारी के दौरान तमाम प्राइवेट कम्पनियों को वैक्सीन बेचकर मुनाफ़ा पीटने की छूट देना भी है। अदार पूनावाला की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इण्डिया कम्पनी को सरकार द्वारा वैक्सीन बनाने के लिए सारे सरकारी नियमों में ढील देकर 3000 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया और भारत बायोटेक को 1500 करोड़ का सरकारी अनुदान दिया गया और कहा गया था कि यह वैक्सीन जनता को मुफ़्त दी जायेगी। अब यही प्राइवेट कम्पनियाँ इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों को 400 रुपये और निजी अस्पतालों को 600 रुपये में बेच रही हैं। दरअसल यह वैक्सीन घोटाला भी रफ़ाएल जैसा ही एक भयंकर घोटाला है और जनता की सम्पदा की खुलेआम लूट है।
कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान भी मोदी सरकार ने ऐसी ही अक्षम्य आपराधिक लापरवाही का परिचय दिया था जब प्रधानमंत्री मोदी ने इतिहास पुरुष बनने के चक्कर में कोरोना केसों की जाँच और इलाज कराने की बजाय देश की जनता पर बिना किसी तैयारी के आनन-फ़ानन में तानाशाहाना ढंग से लॉकडाउन थोप दिया था और करोड़ों मज़दूरों-मेहनतकशों को सड़कों पर मारे-मारे फिरने और भुखमरी-बेरोज़गारी से मरने के लिए छोड़ दिया था। पहली लहर के बाद मोदी सरकार ने पिछली ग़लतियों को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि दूसरी लहर के इस क़दर विकराल होने का प्रमुख कारण ही सरकार की लापरवाही, बदइन्तज़ामी, उदासीनता और जनद्रोही रवैया है। सरकार कोरोना महामारी को अपने हाल पर छोड़कर तमाम दमनकारी-जनविरोधी क़ानून जनता पर थोपने में जुट गयी थी। इतनी बड़ी आपदा के समय भी सरकार की तैयारी शून्य देखी गयी। अरबों-खरबों रुपये के पीएम केयर फ़ण्ड और कोरोना के नाम पर लिये गये अरबों रुपये के क़र्ज़ का किसी को कुछ अता-पता नहीं है जो अपने आप में एक बहुत बड़ा घोटाला है। इस दौर में करोड़ों रुपये ख़र्च करके भाजपा के आलीशान कार्यालय बनाये जाते रहे। राम मन्दिर निर्माण के नाम पर चन्दे के रूप में बेहिसाब पैसे बटोरे जाते रहे। पूँजीपतियों के अरबों-खरबों रुपये के बैंक क़र्ज़े माफ़ किये जाते रहे। वहीं दूसरी तरफ़ महामारी और लॉकडाउन की इस अवधि में बेरोज़गारी और सामाजिक असुरक्षा ज़बर्दस्त रफ़्तार से बढ़ी है। सेण्टर फ़ॉर मॉनिट्रिंग इण्डियन इकॉनमी (CMIE) और अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं के अनुसार औपचारिक/संगठित क्षेत्र में क़रीब 60 लाख मज़दूरों व कर्मचारियों ने नौकरी खोयी। जबकि अनौपचारिक/असंगठित क्षेत्र में क़रीब 12.2 करोड़ लोगों ने रोज़गार खो दिया। इसी दौरान 15 से 24 वर्ष के बीच के क़रीब 41 लाख युवा मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़ी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। इसका असर देश में ग़रीबी और कुपोषण के स्तरों पर भी पड़ा और कई रपटों में बढ़ी ग़रीबी और दरिद्रता और साथ ही बढ़ते कुपोषण के तथ्य सामने आ चुके हैं। जिनकी नौकरियाँ नहीं भी गयीं, उन मज़दूरों की आमदनी में भारी गिरावट आयी। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक नमूना सर्वेक्षण के अनुसार लोगों की औसत आमदनी में 40 से 50 फ़ीसदी की गिरावट आयी है। यानी पिछले डेढ़ वर्षों में मोदी सरकार की जनद्रोही नीतियाँ और अक्षम्य लापरवाही मेहनतकश जनता की जान और आजीविका को लीलने में लगी रही।
अब अपनी इन्हीं नाकामियों को छिपाने के मक़सद से केन्द्र व राज्य सरकारें जनता पर बिना किसी योजना के एक बार फिर से आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन थोप रही हैं। लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार-विस्तार, कोविड केन्द्रों की हालत सुधारने, व्यापक तौर पर जाँचों का इन्तज़ाम करने के मसले पर कुछ नहीं कर रही है। ज़ाहिर है दूसरी लहर से भी सरकार पहली लहर की तरह पुलिस-बल और दमन के ज़रिए निपटना चाह रही है न कि डॉक्टरों, इलाज, स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रिए। हालांकि मोदी सरकार इस बार स्वयं लॉकडाउन लगाने से बच रही है और यह काम राज्य सरकारों के द्वारा करवा रही है। लॉकडाउन लगाने वाले राज्यों में कोरोना महामारी के साथ-साथ लोगों के घरों में भुखमरी ने भी दस्तक दे दी है। कोरोना एक वास्तविक महामारी है और इसकी संक्रमण दर बहुत ज़्यादा है, इसके बावजूद भी बिना किसी तैयारी के किये जा रहे लॉकडाउन की वजह से संक्रमण के फैलने पर कोई नकारात्मक असर तो पड़ेगा नहीं बल्कि इससे मृत्यु का शिकार होने वाले कुल लोगों की संख्या में भी भारी इज़ाफ़ा होगा। सरकार द्वारा, बिना इस बात को सुनिश्चित किये कि प्रत्येक नागरिक तक सार्वभौमिक राशनिंग प्रणाली के ज़रिए खाद्य सामग्री को पहुँचाया जायेगा और प्रत्येक नागरिक को न्यूनतम आमदनी मुहैया करायी जायेगी, अनियोजित लॉकडाउन थोपे जाने से एक बार मेहनतकश आबादी को इसकी मार झेलनी पड़ेगी और इसकी मार पड़नी शुरू हो भी चुकी है। आज निश्चित ही इसके लिए जन दबाव बनाया जाना चाहिए कि केन्द्र और राज्य सरकारें खाद्य सामग्री के वितरण और न्यूनतम आमदनी की गारण्टी करें। वैसे भी लॉकडाउन जैसे उपाय अपने आप में महामारी का समाधान नहीं होते, बल्कि ये कुछ वक़्त आपको ख़रीदकर देते हैं, यानी कुछ मोहलत देते हैं। वायरस चूँकि अब ‘कम्युनिटी ट्रांसमिशन’ की मंज़िल तक पहुँच चुका है और ‘एयरबोर्न’ हो चुका है यानी हवा में प्रवेश कर चुका है, तो लॉकडाउन जैसे क़दम इस मंज़िल में कारगर साबित हो भी नहीं सकते हैं। जिन देशों में भी दक्षिणपन्थी या फ़ासीवादी सरकारें थीं, जिन देशों में विशिष्ट रूप से जनविरोधी और दमनकारी पुलिस व सशस्त्र-बल थे, उन देशों में लॉकडाउन को बेहद जनविरोधी और दमनकारी तरीक़े से लागू किया गया। भारत भी ऐसे देशों में शामिल है। यहाँ पर लॉकडाउन को बिना किसी योजनाबद्धता, बिना किसी तैयारी के मोदी सरकार ने लागू किया। न तो जनता तक तमाम वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति की समुचित व्यवस्था की गयी, जैसा कि वियतनाम व न्यूज़ीलैण्ड समेत कुछ देशों में सरकार ने की थी; न ही जो लोग घर पहुँचना चाहते थे उन्हें घर जाने की व्यवस्था और मौक़ा दिया गया। नतीजतन, फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा थोपा गया योजनाविहीन लॉकडाउन जनता के लिए नर्क बन गया। और इस बार भी सरकारें अपनी काहिली और कुप्रबन्धन पर पर्दा डालने के लिए लॉकडाउन पर निर्भर कर रही हैं। हम जानते हैं कि हर संकट का बोझ पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकार जनता पर डालते हैं। अब कोविड महामारी और लॉकडाउन से गहराये आर्थिक संकट का बोझ भी जनता के ऊपर ही डालने का काम किया जा है।
एक तरफ़ इस कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान देश की मेहनतकश जनता बीमारी, मौत, भुखमरी, आजीविका खो देने की असुरक्षा और सरकारी उदासीनता और भयंकर लापरवाही से त्राहि-त्राहि कर रही है, तो दूसरी तरफ़ तमाम पूँजीपति और धनपशु या तो अपनी विलासिता की मीनारों में बैठे हुए मौज उड़ा रहे हैं या बड़े पैमाने पर सपरिवार विदेश रवाना हो गये हैं। कोविशील्ड वैक्सीन बनाने वाली फ़ार्मा कम्पनी का मालिक अदार पूनावाला भी अपनी जान को ख़तरा बताकर लन्दन भाग गया! इन शोषकों-लुटेरों की जमातों को अपने ऐशगाहों और अय्याशी के अड्डों में बैठकर न सिर्फ़ कोरोना से डर लग रहा है बल्कि वे जनाक्रोश के किसी भी वक़्त फट पड़ने से भी भयाक्रान्त है। और यह भय अकारण नहीं है। आज जिस तरह देशभर में लोग महामारी और स्वास्थ्य सुविधाओं के भीषण अभाव और सरकारी आपराधिक लापरवाही के चलते सड़कों पर मर रहे हैं, उस स्थिति में जनाक्रोश का ज्वालामुखी कभी अचानक भी भड़क सकता है; और यहाँ-वहाँ लोगों का ग़ुस्सा स्वतःस्फूर्त सड़कों पर फूट भी रहा है। आख़िरकार महामारियों का भी वर्ग चरित्र होता ही है और ये सबसे अधिक असर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जमातों पर ही डालती हैं।
वास्तव में, कोरोना संक्रमण का महामारी में तब्दील होना मुनाफ़े पर खड़ी पूँजीवादी व्यवस्था की ही देन है जिसमें जनता के जीवन का कोई मूल्य नहीं है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महामारियों का पैदा होना भी एक पूर्णत: स्वतःस्फूर्त प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं है। तमाम जीवविज्ञानी अब दिखला चुके हैं कि मुनाफ़ की हवस में पर्यावरण और समूची प्रकृति की पूँजीवाद द्वारा तबाही बढ़ते वायरल संक्रमणों और महामारियों और साथ ही उन पर क़ाबू पाने की अक्षमता के लिए ज़िम्मेदार है। उस पर हमारे देश में शासन कर रही मानवद्रोही फ़ासिस्ट मोदी सरकार ने इस महामारी को कई गुना और बढ़ा दिया है। दुनिया के बहुत सारे देशों में इस समय मास्क फ़्री तक हो रहे हैं। कई देश अपने ज़्यादातर नागरिकों को कोरोना वैक्सीन का टीका निःशुल्क दे चुके हैं। स्पेन जैसे पूँजीवादी देश तक ने तमाम प्राइवेट अस्पतालों का राष्ट्रीकरण कर उन्हें सरकारी नियंत्रण के मातहत ला दिया था। लेकिन हमारे यहाँ मोदी सरकार वैज्ञानिकों, स्वास्थ्यकर्मियों और विशेषज्ञों की बातों को हवा में उड़ाकर भयंकर आपदा को न्योता दे रही थी। पिछले एक साल के दौरान भारत ने दुनिया को ऑक्सीजन और दवाओं से लेकर वैक्सीन तक का रिकॉर्ड निर्यात किया है जबकि अब हाल यह है कि देश के लोग इनकी कमी में अपनों को मरता हुआ देखने को मजबूर हैं! सरकारी नाकारापन-निकम्मापन इस हद तक बढ़ गया है कि आज देश के करोड़ों लोग इसका ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं।
वहीं सरकार की नाकामी पर पर्दा डालकर कोविड को षड्यंत्र बताने वाले ऐसे “क्रान्तिकारी” मूर्ख भी हैं जो इस वक़्त भी अपनी जनद्रोही और विज्ञान विरोधी हरक़तों से बाज़ आते नज़र नहीं आ रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए एक सही ही शब्द ईजाद हुआ है: कोविडियट्स, यानी कोविड को नकारने वाले मूर्ख। इन कोविडियट्स के अनुसार कोरोना खाँसी-ज़ुकाम जैसा मामूली फ़्लू है और यह महामारी नहीं बल्कि एक सरकारी ड्रामा है! जहाँ एक तरफ़ तो देश की जनता कोरोना महामारी और सरकारी नाकामी के चलते अपनी जान गँवा रही है वहीं दूसरी तरफ़ ख़ुद को क्रान्तिकारी कहने वाले ये कोविडियट सरकार के सामने कोई माँगपत्र पेश करने की बजाय उल्टा कोरोना को षड्यंत्र क़रार देकर मोदी सरकार के बच के निकलने का रास्ता ही साफ़ कर रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान हो रही मौतों और अफ़रा-तफ़री का कारण ये कोविडियट्स जानबूझकर पूरी तरह से लॉकडाउन पर ही शिफ़्ट किये जा रहे हैं ताकि कोरोना महामारी पर इनकी मूर्खतापूर्ण, दिवालिया और दक्षिणपन्थी कार्यदिशा पर ये पर्दा डाल सकें। इस वक़्त तमाम प्रगतिशील व क्रान्तिकारी ताक़तों के एजेण्डे में इस महामारी की असली जड़, यानी कि पूँजीवाद और महामारी को एक भयंकर आपदा में बदलने में फ़ासिस्ट मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही को बेपर्द करने के अलावा क्या ही काम हो सकता है! लेकिन इन कोविडियट्स के एजेण्डे में ऐसा कुछ नहीं है। ऐसी बचकानी लेकिन ख़तरनाक समझदारी वास्तव में फ़ासिस्ट मोदी सरकार व तमाम अन्य बुर्जुआ सरकारों और पूँजीवादी व्यवस्था को ही कटघरे से बाहर कर देती है। आज ऐसे जनद्रोही विचारों का पर्दा फ़ाश किये जाने की बेहद ज़रूरत है क्योंकि जनता के कुछ हिस्सों में भी, वैज्ञानिक समझ तक सहज पहुँच के अभाव के चलते, ऐसे षड्यंत्र सिधान्तों की स्वीकार्यता बन जाती है और इसलिए ऐसी अवैज्ञानिक और अतार्किक सोच किसी भी दिये गये क्षण में प्रधान अन्तरविरोध की शिनाख़्त कर सही क्रान्तिकारी माँगपत्रक पेश किये जाने के रास्ते में अवरोध पैदा करती है, जनता की पहलक़दमी को बाधित करती है और हर प्रकार के कारगर संघर्ष की धार को कुन्द करती है। अब यह बात किसी से छिप नहीं सकती कि कम्युनिस्ट होने का दावा करने वाले ये कोविडियट्स ऐसी जनद्रोही कार्यदिशा अपनाकर जनता से ग़द्दारी तक के सीमान्तों को छू रहे हैं। कोरोना महामारी के मसले पर इन लोगों के विचारों का दुनियाभर के धुर दक्षिणपन्थियों, जिनमें कि ट्रम्प और बोल्सोनारो जैसों की जमात शामिल है, के साथ पूरा-पूरा साम्य दिखायी दे रहा है। दक्षिणपन्थियों के समान कोरोना को मौसमी फ़्लू बताने की इनकी आपराधिक हरक़त जनता के साथ किये गये किसी विश्वासघात से कम नहीं है। यह पूँजीवाद और फ़ासिस्ट सरकार को उसके कुकर्मों से बरी करना है।
भारत में मौजूदा स्वास्थ्य संकट ने फ़ासिस्ट मोदी सरकार के जनद्रोही चरित्र को न केवल बेनक़ाब किया है बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि देश में हो रही लाखों मौतें इसके आपराधिक कुकर्मों का ही परिणाम है। इसकी ज़िम्मेदारी से यह सरकार बच नहीं सकती है और इस कारण मोदी सरकार और स्वयं मोदी की अलोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। जनता के बीच भी आक्रोश और असन्तोष लगातार पनप रहा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी कि बदहवासी में ये फ़ासिस्ट शासक नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के मसले को, काशी-मथुरा और राम मन्दिर निर्माण को हवा देकर एक बार फिर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके जनता को बाँटने का काम करें और साम्प्रदायिक उन्माद की लहर में जनाक्रोश और बढ़ रहे असन्तोष को डुबो दें। ऐसे में इस देश के मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी को इनके फ़ासिस्ट मंसूबों और हथकण्डों को नाकामयाब बनाने के लिए अपनी वर्ग एकजुटता क़ायम करनी होगी और माकूल जवाब देने की तैयारी अभी से ही शुरू कर देनी होगी। वरना कल बहुत देर हो जायेगी।
इसके साथ ही कोरोना महामारी और मौजूदा आपदा एक बार फिर यह दिखाती है कि मुनाफ़े पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था सिवाय महामारियों, बेरोज़गारी, मौत, भुखमरी, पर्यावरणीय विनाश, युद्धों और असुरक्षा के हमें कुछ और नहीं दे सकती है। पूँजीवादी व्यवस्था में स्वास्थ्य व्यवस्था लोगों की जान बचाने के लिए, जन कल्याण के लिए नहीं बल्कि अधिक से अधिक मुनाफ़ा पीटने का साधन मात्र है। हमें यह समझना होगा कि मौजूदा स्वास्थ्य संकट कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि इस मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था और फ़ासिस्ट मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही का नतीजा है। आज हमें पुरज़ोर तरीक़े से यह माँग उठानी होगी कि देश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीकरण करके उसे सरकारी नियंत्रण में लाया जाये। इस संकट ने एक बार फिर से यह रेखांकित कर दिया है कि सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद ही मानवता को इन विभीषिकाओं से निजात दिला सकता है। मानवता के सामने आज दो ही विकल्प हैं: समाजवाद या विनाश। इस विनाश की कुछ भयावह तस्वीरें हमें अपने आसपास घटित होते हुए दिखायी भी दे रही हैं। एक ऐसी व्यवस्था जिसके केन्द्र में मुट्ठीभर थैलीशाहों का मुनाफ़ा नहीं बल्कि समाज की आवश्यकताएँ होंगी, वही हर प्रकार के संकट, बेरोज़गारी, असुरक्षा और अनिश्चितता से मुक्ति दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधन चन्द पूँजीपतियों की इज़ारेदारी न हों बल्कि मेहनतकश आबादी की साझी सम्पत्ति हों, जिसमें उत्पादन और वितरण बाज़ार की अराजकता से नहीं बल्कि योजनाबद्ध तरीक़े से समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होता हो, जिसमें विज्ञान के पैरों में मुनाफ़े की बेडियाँ न पड़ी हों, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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