नोएडा के औद्योगिक मज़दूरों के सामने चुनौतियाँ
शोषण-उत्पीड़न झेलते दसियों लाख मज़दूर, पर एकजुट संघर्ष और आन्दोलन का अभाव
उत्तर प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र विकास क़ानून नोएडा में 1976 में आपातकाल के दौर में से अस्तित्व में आया। नोएडा भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था की महत्वाकांक्षी परियोजना दिल्ली-मुम्बई इण्डस्ट्रियल कॉरीडोर का प्रमुख बिन्दु बनता है। आज नोएडा में भारत की सबसे उन्नत मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाइयों के साथ ही सॉफ़्टवेयर उद्योग, प्राइवेट कॉलेज, यूनिवर्सिटी और हरे-भरे पार्कों के बीच बसी गगनचुम्बी ऑफ़िसों की इमारतें और अपार्टमेण्ट स्थित हैं। दूसरी तरफ़ दादरी, कुलेसरा, भंगेल सरीखे़ गाँवों में औद्योगिक क्षेत्र के बीचों-बीच और किनारे मज़दूर आबादी ठसाठस लॉजों और दड़बेनुमा मकानों में रहती है। यह क्षेत्र बड़ी औद्योगिक इकाइयों का क्षेत्र रहा है। यहाँ डेवू, यामाहा से लेकर तमाम ऑटो कम्पनियाँ मौजूद हैं। पिछले कुछ सालों में ‘मेक इन इण्डिया’ के तहत ओप्पो और वीवो सरीख़ी चीनी मोबाइल फ़ोन कम्पनियाँ भी खुली हैं। इन मोबाइल कम्पनियों में और एलजी से लेकर मोज़र बेयर में मज़दूर पिछले दस सालों में कम्पनी प्रबन्धन के ख़िलाफ़ लड़ते रहे हैं। परन्तु मज़दूर आन्दोलन को कोई जीत हासिल नहीं हुई है। नोएडा के फ़ेज़ टू में औद्योगिक इलाक़ा सबसे अधिक फैला है। बाउण्उरी का इलाक़ा यानी कि विशेष आर्थिक ज़ोन में ठेकेदारी पर काम होता है और यहाँ मज़दूरों का बेइन्तहा दमन होता है। हौज़री के काम में भी ठेकेदारों का बोलाबाला है। इनके बरक्स ग्रेटर नोएडा में अधिक बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं जहाँ इलेक्ट्रॉनिक सेक्टर और ऑटो सेक्टर में अधिक वेतन है तो एसईज़ेड में बेहद कम वेतन है। जिस तरह दिल्ली में नई औद्योगिक इकाइयों को लगाने की सीमा सामने आने के बाद नोएडा विकसित हुआ था उसी तरह 1990 में नोएडा के आगे नोएडा एक्सटेंशन विकसित हुआ जो अब ग्रेटर नोएडा के नाम से जाना जाता है। यहाँ अधिकतर बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ मौजूद हैं।
नोएडा के औद्योगिक इलाक़े में मज़दूरों के कई संघर्ष भी हुए, परन्तु ये असफल रहे हैं जिनके पीछे एक बड़ा कारण पिछले लम्बे समय से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा मज़दूरों के आन्दोलन से ग़द्दारी करना। तमाम नकली लाल झण्डे वाली संसदमार्गी वाम पार्टियों की यूनियनों के तमाम प्रतिनिधि यहाँ मज़दूरों को केवल आर्थिक समझौतों की लड़ाई तक सीमित रखते हैं। जिन उद्योगों में मज़दूर अपने हक़ के लिए लड़े उनके आन्दोलनों को इन यूनियनों ने बेच खाया है। कई यूनियनें अपना अस्तित्व खो चुकी हैं। लॉकडाउन में एक तो वैसे ही मज़दूरों की ज़िन्दगी बेहाल हो गयी और ऊपर से यूपी सरकार ने मज़दूरों के राशन की व्यवस्था नहीं की और न ही मज़दूरों को घर भेजने की व्यवस्था की बल्कि उनको ज़बरन लॉजों में रहने को मजबूर किया गया। इसका क़हर भी सबसे अधिक ठेका मज़दूरों के ऊपर ही पड़ा। लॉकडाउन ख़त्म होने पर पूँजीपतियों को सस्ता श्रम मिले इसलिए सरकार ने मज़दूरों के रहे-सहे श्रम क़ानूनों को तत्काल हटा देने का फ़ैसला किया। योगी सरकार ने पहले काम के घण्टे घटाने हेतु क़ानून पारित किया जिसे इलाहबाद हाई कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया। इसके बाद फिर से योगी सरकार ने अध्यादेश पारित कर 38 में से 33 श्रम क़ानूनों को हटा दिया। योगी सरकार के ‘यूपी मॉडल’ की हक़ीक़त यही है। लेकिन नोएडा में इन नीतियों का कोई विरोध नहीं हुआ है। हाल ही में 26 नवम्बर को मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों पर हमले के ख़िलाफ़ जब गुड़गाँव और दिल्ली में मज़दूर संगठनों ने कुछ इलाक़ों में काम ठप्प कराया तो नोएडा में हड़ताल के दिन केवल प्रतीकात्मक प्रदर्शन हुआ और हड़ताल नहीं हुई।
इसका बड़ा कारण 2013 की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की ऐसी ही दो-दिवसीय प्रतीकात्मक हड़ताल की एक घटना थी जब मज़दूरों का ग़ुस्सा सड़कों पर बह निकला था और नोएडा फ़ेज़ टू में मज़दूरों ने तोड़फोड़ की थी। इस हड़ताल का प्रशासन ने ज़बरदस्त दमन किया और मज़दूरों का आन्दोलन तुरन्त बिखर गया। तमाम संगठनों के नेताओं की गिरफ़्तारी हुई और इस घटना के बाद से ही हर एकदिवसीय प्रदर्शन के आह्वान पर नोएडा में केन्द्रीय ट्रेड यूनियन मज़दूरों का केवल जुटान करती हैं।
आज भी मज़दूर काम की परिस्थिति को लेकर ग़ुस्से में हैं परन्तु जब तक मज़दूरों के संघर्ष को नेतृत्व देने वाले क्रान्तिकारी संगठन का अभाव है तब तक मज़दूर ख़ुद-ब-ख़ुद संगठित नहीं हो सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इस पट्टी में मज़दूर लड़ते न रहे हों बल्कि मोज़र बेयर, वीवो और एलजी के मज़दूरों ने हड़ताल भी की। परन्तु यह भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में या संघर्ष की सही समझ न होने के चलते बिखर गया है। वीवो से लेकर ओप्पो के मज़दूर भी पिछले 5 सालों में सड़कों पर उतरे हैं परन्तु प्रशासन और प्रबन्धन के दबाव के चलते मज़दूरों को पीछे हटना पड़ा है। हालिया संघर्षों में हार का बड़ा कारण वस्तुगत भी है। इन इकाइयों में अधिकतम 500 से लेकर 1000 मज़दूर ही कार्यरत हैं और फ़ैक्ट्री आधारित हड़तालों को प्रबन्धन सभी मज़दूरों को काम से निकालकर तोड़ देता है। परन्तु अगर केवल मोबाइल असेम्बल करने वाली चीनी और भारतीय कम्पनियों में कार्यरत मज़दूरों की संख्या जोड़ दें जो यह लाख से ऊपर जाती है। इस मज़दूर आबादी की माँग भी एक है। अगर यह मज़दूर आबादी सेक्टर के आधार पर संगठित होकर लड़े तो मज़दूरों की जीत की सम्भावना अधिक है। साथ ही कम्पनी में ठेका मज़दूर संघर्ष से दूर ही रहते हैं और अगर साथ आते भी है तो वे प्रदर्शनों में भीड़ बढाने का काम ही करते हैं। यूनियन प्रतिनिधि स्थाई मज़दूरों के बीच से ही चुने जाते हैं। ठेका और स्थाई मज़दूरों के बीच बनी दिवार को गिराए बिना भी नोएडा के मज़दूरों के संघर्ष को जीता नहीं जा सकता है। फ़ोर्डिस्ट उत्पादन पद्धति को बिखराकर अब ज़्यादातर कम्पनियों में 25-100 मज़दूर ही काम करते हैं और इस तरह फ़ैक्ट्री आधारित संघर्षों को चलाने और जीतने की सम्भावना कम हो चली है। आज पूरे नोएडा और ग्रेटर नोएडा औद्योगिक इलाक़े में इलाक़ाई और सेक्टरगत आधार पर ठेका और स्थाई मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियनों का निर्माण नोएडा और ग्रेटर नोएडा के मज़दूरों के सामने एकमात्र विकल्प है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन