नये साल के मौक़े पर
केवल सत्ता से ही नहीं, पूरे समाज से फ़ासीवादी दानव को खदेड़ने का संकल्प लो!
सम्पादक मण्डल
वर्ष 2014 में खस्ताहाल आर्थिक स्थिति और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की लूट-खसोट और घपले-घोटालों की वजह से ख़त्म होती लोकप्रियता को देखते हुए भारत के पूँजीपति वर्ग ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के फ़ासीवादी विकल्प पर अपना दाँव लगाया था जिसकी बदौलत भाजपा को अभूतपूर्व जीत हासिल हुई थी। जनता की हाड़तोड़ मेहनत से अर्जित करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाकर मोदी लहर चलायी गयी जिसकी वजह से आम जनता को भी कुछ समय तक यह उम्मीद जग गयी थी कि वाक़ई उसके अच्छे दिन आने वाले हैं। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान यह उम्मीद न सिर्फ़ नाउम्मीदी में तब्दील हो गयी, बल्कि मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी बद से बदतर होती गयी और लूट-खसोट तथा घपले-घोटालों में भाजपाइयों ने वो कर दिखाया जो कांग्रेस 60 साल में नहीं कर पायी थी। अर्थव्यवस्था में सुधार तो दूर, उसकी हालत और लचर होती गयी। यही वजह है कि चुनावी अखाड़े में कभी अपराजेय दिखने वाले नरेन्द्र मोदी और भाजपा की स्थिति अपने कार्यकाल के अन्त तक आते-आते दयनीय हो चुकी है और अगले लोकसभा चुनाव में उनकी मिट्टी पलीद होने की सम्भावना साफ़ नज़र आने लगी है। पिछले साल के अन्तिम महीने में 5 राज्यों के चुनावी नतीजों से यह साफ़ हो गया कि भगवाधारियों का चुनावी विजय का अभियान ढलान पर है। यही वजह है कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा एक बार फिर से कांग्रेस पर दाँव लगाने की फ़िराक़ में है और संसदीय वाम समेत तमाम प्रगतिशील लोग भी फ़ासीवाद को शिकस्त देने के लिए राहुल गाँधी और कांग्रेस की शरण में जाते दिख रहे हैं। इस परिदृश्य में यह सवाल लाज़िमी है कि मज़दूर वर्ग की रणनीति क्या होनी चाहिए? ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हम लगातार यह कहते आये हैं कि फ़ासीवाद एक व्यापक सामाजिक आधार वाला धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जो सत्ता में न रहने पर भी समाज में मौजूद रहता है। इससे यह स्पष्ट है कि फ़ासीवाद-विरोधी मज़दूर वर्ग की रणनीति केवल भाजपा को चुनावों में हराने तक सीमित नहीं रह सकती। इस नये साल में मज़दूर वर्ग और उसके हितों की नुमाइन्दगी करने वालों के सामने मुख्य चुनौती यह है कि किस प्रकार फ़ासीवाद का सामाजिक आधार कमज़ोर करके जनता के व्यापक हिस्सों तक मज़दूर वर्गीय दृष्टिकोण पहुँचाया जाये और समाज में परिवर्तनकामी विचारों को फैलाकर आमूलचूल बदलाव की तैयारी की जाये। इस लिहाज़ से आगामी लोकसभा चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होने वाले हैं क्योंकि चुनावी राजनीतिक सरगर्मी में सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र पक्ष रखने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन उस पर चर्चा करने से पहले आइए हम पहले पिछले साल के प्रमुख घटनाक्रम पर नज़र दौड़ा लें, ताकि हमें वस्तुस्थिति का ठोस अन्दाज़ा हो सके।
पिछले साल अगर फ़ासीवादी उन्मादी लहर उतार पर दिखी तो उसकी मुख्य वजह अर्थव्यव्स्था की खस्ताहाल स्थिति रही। ग़ौरतलब है कि लचर अर्थव्यवस्था को सुधारकर लोगों की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने का वायदा करके ही फ़ासीवादी सत्ता में आये थे। लेकिन सत्ता के नशे में चूर होकर उन्होंने अपनी करतूतों से पहले से ही बीमार अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी। नोटबन्दी और जीएसटी की मार का असर पिछले साल भी जारी रहा और मज़दूरों, छोटे किसानों और छोटे व्यापारियों की तबाही का सिलसिला बरकरार रहा। औद्योगिक विकास की दर में भी कोई विचारणीय बढ़ोतरी नहीं हुई। बैंकों के एनपीए की समस्या ने पिछले साल विकराल रूप ले लिया, क्योंकि बैंकों द्वारा दिये गये कुल क़र्ज़ के 10 फ़ीसदी से भी अधिक की वसूली की कोई सम्भावना नहीं दिख रही। यह दिखाता है कि पिछले साल बैंकिंग संकट पहले से भी ज़्यादा घनीभूत होता गया जिसका नतीजा आरबीआई और सरकार के बीच सार्वजनिक तकरार में भी सामने आया और अन्तरविरोध इतने तीखे हो गये कि साल के अन्त तक आते-आते अन्ततोगत्वा आरबीआई के गवर्नर को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। कहने की ज़रूरत नहीं कि सतह पर दिखने वाले इन लक्षणों के मूल में मुनाफ़े की दर के नीचे गिरने की प्रवृत्ति का पूँजीवादी संकट ही है जिसकी जद में दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएँ आ चुकी हैं।
खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का सीधा असर इस देश की मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी पर पड़ रहा है जिसका नतीजा छँटनी, महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी के रूप में सामने आ रहा है। हर साल की ही तरह पिछले साल भी मज़दूरों की ज़िन्दगी की परेशानियाँ बढ़ती गयीं। पक्का काम मिलने की सम्भावना तो पहले ही ख़त्म होती जा रही थी, अब ठेके वाले काम मिलने भी मुश्किल होते जा रहे हैं जिसकी वजह से मज़दूरों की आय लगातार कम होती जा रही है। नरेन्द्र मोदी द्वारा नये रोज़गार पैदा करने का वायदा तो बहुत पहले ही जुमला साबित हो चुका था, लेकिन पिछले साल यह ख़ौफ़नाक सच्चाई सामने आयी कि रोज़गार के अवसर बढ़ना तो दूर कम हो रहे हैं। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग ऑफ़ इण्डियन इकोनोमी (सीएमआईई) की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2018 में देश में एक करोड़ से भी ज़्यादा नौकरियाँ ख़त्म हो गयीं। यह आँकड़ा बेरोज़गारी के मौजूदा हाल की ख़ौफ़नाक हक़ीक़त बयान करता है। ग़ौरतलब है कि बेरोज़गारी की सबसे ज़्यादा मार मज़दूर और निम्न मध्य वर्ग पर पड़ रही है। स्वयं सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) द्वारा जारी आँकड़े के अनुसार वर्ष 2015 में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी), कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी), रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में कुल 1,13,524 उम्मीदवारों का चयन हुआ था जो 2017 में घटकर 1,00,933 रह गया। बढ़ती बेरोज़गारी का नतीजा विभिन्न किस्म के सामाजिक तनावों के रूप में सामने आ रहा है जिनका दंश अधिकांशत: मज़दूर वर्ग को ही झेलना पड़ता है। मिसाल के लिए पिछले साल गुजरात से उत्तर भारतीय मज़दूर बड़े पैमाने पर पलायन करने के लिए मजबूर हुए।
कृषि में भी पिछले साल पूँजीवादी संकट का असर स्पष्ट दिखा। दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु सहित देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों के जुझारू प्रदर्शन हुए। देश के कई हिस्सों में किसानों ने अपनी फ़सल बेचने की बजाय सड़कों पर ही फेंककर अपना विरोध दर्ज कराया। गाँवों-गाँवों तक पूँजी की पैठ से किसानों का विभेदीकरण बढ़ रहा है और छोटे-मझौले किसान मुनाफ़े की खेती में पिछड़ रहे हैं। कुलकों और धनी किसानों के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टियाँ समर्थन मूल्य बढ़ाने और क़र्ज़-माफ़ी जैसी माँगों के इर्द-गिर्द छोटे-मझौले किसानों को भी लामबन्द कर रही हैं जिसकी वजह से पिछले साल किसानों के प्रदर्शनों में ज़बरदस्त भीड़ देखने को मिली। हालाँकि कई राज्यों में किसानों की तमाम माँगें मानी भी गयीं, परन्तु इससे कृषि संकट हल नहीं होने वाला क्योंकि इन माँगों से धनी किसानों के ही वारे-न्यारे होने वाले हैं; जैसाकि दुनियाभर में देखने में आया है, पूँजीवादी खेती में छोटे और मझौले किसानों का उजड़ना तय है।
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपने फिसड्डीपन को छिपाने के लिए हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों की फ़ौज ने पिछले साल भी पूरे देश में साम्प्रदायिक और जातीय तनाव को हवा देने की भरपूर कोशिश की। साल की शुरुआत में कासगंज और साल के अन्त में बुलन्दशहर में साम्प्रदायिक वारदातों में संघ परिवार की भूमिका खुलकर सामने आयी। इसके अलावा पूरे सालभर संघ परिवार ने राम मन्दिर का मुद्दा फिर से गर्माने की पुरज़ोर कोशिश की, ये दीगर बात है कि राम मन्दिर का मुद्दा काठ की हाँडी ही साबित हुआ। साम्प्रदायिक नफ़रत भड़काने के साथ ही साथ संघ परिवार ने जातीय विद्वेष की आग भड़काने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। पिछले साल एससी-एसटी एक्ट में छेड़छाड़ करके उसके प्रावधानों को ढीला करने की क़वायद करना ऐसी ही एक साज़िश थी।
नरेन्द्र मोदी ने पिछले चुनावों के दौरान महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा को एक बड़ा मुद्दा बनाया था और औरतों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का वायदा किया था। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा कम होने की बजाय बढ़ती ही गयी। पिछले साल कठुआ, उन्नाव और मुज़फ़्फ़रपुर में नृशंस यौन हिंसा की वारदातों में भाजपा के सदस्यों की लिप्तता उजागर होने के बाद मोदी सरकार की ख़ूब छीछालेदर हुई और महिलाओं की सुरक्षा के तमाम वायदों की हवा निकल गयी।
पिछले साल घपले-घोटालों को अंजाम देने और तमाम संवैधानिक संस्थाओं को अपने राजनीतिक हित के मातहत लाने की दिशा में भी भाजपा सरकार ने कांग्रेस के कीर्तिमान को ध्वस्त किया। चाहे रफेल जहाज घोटाला हो या रिलायंस को गैस चोरी की इजाज़त देने का मामला हो या फिर जियो इंस्टीट्यूट को खुलने से पहले ही पुरस्कृत करने का मामला हो, भाजपाइयों की पूँजीपतियों से साँठ-गाँठ और लूट-खसोट जगज़ाहिर हुई जिससे जनता के बीच उनकी लोकप्रियता निश्चित रूप से घटी। अपनी घटती लोकप्रियता से बिलबिलाये भगवा फ़ासिस्टों ने पहले की ही तरह पिछले साल भी अन्धराष्ट्रवाद का उन्माद फैलाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। भीमा कोरेगाँव मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्टों की गिरफ़्तारी ऐसी ही उन्मादी मुहिम का हिस्सा थी।
अन्तरराष्ट्रीय पटल पर पिछले साल अमेरिका और चीन के बीच अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा नयी ऊँचाइयों पर जा पहुँची जब इस प्रतिस्पर्द्धा ने व्यापारिक युद्ध का रूप ले लिया। पहले अमेरिका ने चीनी मालों पर आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा की और उसके जवाब में चीन ने भी अमेरिकी मालों पर आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा कर दी। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व में कमी और चीन का एक नये साम्राज्यवादी देश के रूप में तेज़ी से उभार का ही संकेत है। उधर सीरिया में भी अमेरिकी साम्राज्यवाद को मुँह की खानी पड़ी जब दिसम्बर में राष्ट्रपति ट्रम्प को सीरिया से अमेरिकी सेना वापस बुलाने की घोषणा करनी पड़ी। यह मध्यपूर्व की राजनीति में रूस-सीरिया-ईरान के गठबन्धन की बड़ी जीत है जो आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा को और तीखा करने की ज़मीन तैयार करेगी। उधर यमन में अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और कनाडा की सरपरस्ती में सऊदी अरब द्वारा किया जा रहा भीषण क़त्लेआम अपने चरम पर जा पहुँचा और एक मानवीय संकट की परिस्थिति उत्पन्न हो उठी। फ़िलिस्तीन में ज़ायनवादी इज़रायल की बर्बरता पिछले साल भी बदस्तूर जारी रही और कहने की ज़रूरत नहीं फ़िलिस्तीनियों का बहादुराना प्रतिरोध भी इज़रायली बर्बरता को चुनौती देता रहा। ब्राजील में धुर दक्षिणपन्थी बोल्सोनारो का राष्ट्रपति बनना भी पिछले साल अन्तरराष्ट्रीय पटल की एक प्रमुख घटना थी। इसके अतिरिक्त फ़्रांस में नवउदारवादी पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जनउभार (‘येलो वेस्ट’ आन्दोलन) भी पिछले साल की अहम घटना थी जिसने यह दिखाया कि विश्व पूँजीवाद 2007-8 से जारी संकट से उबर नहीं पा रहा है और उसे उबारने के लिए किये जा रहे सारे प्रयास मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी की मुश्किलों का बोझ बढ़ा रहे हैं।
देश-दुनिया में पिछले साल घटित हुए उपरोक्त घटनाक्रम की रोशनी में हमें आज के ठोस कार्यभारों को हाथ में लेना है। इसमें कोई शक नहीं कि कई मायनों में हम एक ऐतिहासिक सन्धिबिन्दु पर खड़े हैं जहाँ से भविष्य का रास्ता इस पर निर्भर करेगा कि आज सर्वहारा वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली शक्तियाँ इन परिस्थितियों का मूल्यांकन कितनी सटीकता से करती हैं और अपने प्रयासों को किस दिशा में निर्देशित करती हैं। फ़ासीवादियों की घटती लोकप्रियता से सन्तुष्ट होने की बजाय हमें इस परिस्थिति का लाभ उठाकर फ़ासीवाद के जनक और पोषक, यानी पूँजीवाद के ताबूत में आखि़री कील ठोंकने की तैयारियों में जी-जान से जुट जाना होगा। आगामी लोकसभा चुनाव इस प्रक्रिया में एक अहम माहौल तैयार करेगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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