चेत जाइए, जुझारू बनिए, नहीं तो बिला जायेंगे!

त्रिपुरा में चुनाव परिणाम आने के बाद दो दिनों के भीतर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों ने वाम मोर्चा के 514 कार्यकर्ताओं पर हमले किये, लेनिन की मूर्ति को बुलडोज़र से गिरा दिया, 1539 घरों में तोड़फोड़ की, 196 घरों को जला दिया, 134 कार्यालयों में तोड़फोड़ की, 64 में आग लगा दी और 208 को क़ब्ज़ा कर लिया।

गुजरात-2002 के बाद यह दूसरा मॉडल है। इसे 2019 तक फ़ासिस्ट पूरे देश में फैला देना चाहते हैं।

लेकिन संसदीय वामपंथी और उदारवादी लोग शायद अब भी इस मुग़ालते में जी रहे हैं कि सूफि़याना कलाम सुनाकर, गंगा-जमनी तहजीब की दुहाई देकर, मोमबत्ती जुलूस निकालकर, ज्ञापन-प्रतिवेदन देकर, क़ानून और “पवित्र” संविधान की दुहाई देकर, तराजू के “सेक्युलर” पलड़े और फ़ासिस्ट पलड़े के बीच कूदते रहने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों और नरम केसरिया लाइन वाली कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर और चुनाव जीतकर फ़ासिस्टों के क़हर से निजात पा लेंगे। ये लोग भला कब चेतेंगे? न्यायपालिका तो फ़ासिस्टों के बाज़ू की जेब में है और चुनाव आयोग पिछवाड़े की जेब में। पूरी तैयारी इस बात की है कि अगर साम्प्रदायिक विभाजन, अन्धराष्ट्रवादी नारों और ख़रीद-फ़रोख़्त से सरकारें न बनें तो ईवीएम देवी की कृपा हो जावे। ये किसी को “शाकाहारी” मानकर बख्शेंगे नहीं। अब तो सडकों पर उतरने, आमने-सामने की भिड़न्त करने और कार्यकर्ताओं को लड़ाकू बनाने से दूर मत रहिये। विचारधारात्मक मतभेद और संघर्ष जारी रहेंगे, वह अलग मंच की बात है। पर यदि ये फ़ासिस्टों से भिड़न्त करने को तैयार हैं तो हम प्राणपण से उनके साथ हैं। इनसे यही कहा जा सकता है कि अब तो 1920-30 के दशकों के यूरोपीय इतिहास की शिक्षाओं को याद कीजिए। वह आत्मघाती हरक़त मत कीजिए जो उस समय सामाजिक जनवादियों ने की थी। यह संसदवाद, क़ानूनवाद और अर्थवाद का रास्ता जिस अन्धी घाटी तक जाता है, वह दूर नहीं है। चेत जाइए, नहीं तो बिला जायेंगे।

इन फ़ासिस्ट गुण्डों ने कई बार हम लोगों की पुस्तक-प्रदर्शनी वैन तोड़ी, शहीद मेला जैसे कई आयोजनों पर हमले किये, घुसकर हंगामा किया, छात्र मोर्चा और मज़दूर मोर्चा के साथियों से मारपीट की, फ़र्जी मुक़द्दमे दर्ज कराये। हमेशा हम लोगों ने इनका मुकाबला किया, आक्रामक प्रतिरक्षा की नीति अपनायी और लाठी-डण्डे का जवाब लाठी-डण्डे से दिया। ये फ़ासिस्ट अन्दर से कायर भी होते हैं।  1960 के दशक में, जब संशोधनवाद आने के बावजूद कतारों में जुझारूपन अभी बचा हुआ था, तो फ़ासिस्टों की भीड़ ”चीन के दलाल” जैसे नारे लगाते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तरों पर हमला करती थी, तो दफ़्तर में बैठे लोग झण्डे-बैनर के डण्डे निकालकर उन्हें दौड़ा लेते थे। लेकिन इन्हें अपना यह इतिहास भी अब याद नहीं होगा।

सोचिए कि आप वर्ग-संघर्ष की बात करते हैं और आपकी क़तारों से बहादुरी, जुझारूपन और कुर्बानी के ज़ज्बे का इस क़दर लोप क्यों हो गया है! इसके पीछे आपकी राजनीतिक लाइन ज़िम्मेदार है, पर अभी लाइन पर बहस करने का समय नहीं है। अभी तो बस इतना कह रहे हैं कि हालात पर सोचिए, आरामतलबी और आभिजात्य छोडि़ए, कम से कम पुराने रैडिकल बुर्जुआओं जितना तो लड़ाकूपन दिखाइए। तथाकथित बड़ी पार्टी होने की अहम्मन्यता और श्रेष्ठता-बोध से मुक्ति पाइये। इतनी बड़ी-बड़ी यूनियनें होने की डींगें हाँकते हैं और क्या हो रहा है? कुछ हज़ार मज़दूरों के भी फ़ासिस्ट-विरोधी लड़ाकू दस्ते तैयार नहीं हैं। यह अर्थवाद का दीमक तो आपने ही पैठाया है मज़दूर आन्दोलन के भीतर! आप ही ने तो मज़दूरों को अराजनीतिक बनाया है! अब वह अराजनीतिक मज़दूर भी यदि सिर्फ़ आसन्न आर्थिक स्वार्थ के लिए लड़ता है, जाति-धरम पर बँट जाता है और कमल पर बटन दबाता है और उसके विमानवीकृत, विघटित चेतना वाले हिस्से के भीतर से फ़ासिस्टों की गुण्डा-फ़ौज में भरती होती है, तो आश्चर्य की क्या बात है। यह तो इतिहास अपने को दुहरा रहा है। फ़ासिज़्म के धुर-प्रतिक्रियावादी पेटी-बुर्जुआ सामाजिक आन्दोलन के बरक्स तृणमूल स्तर से मेहनतकश जनता और प्रगतिशील मध्य वर्ग का जुझारू सामाजिक आन्दोलन संगठित करने के बारे में कभी आपने सोचा तक नहीं। क्यों? क्या जवाब है इसका आपके पास? आपको यह तो सोचना ही होगा कि त्रिपुरा में जब इतने बड़े पैमाने पर आपके कार्यकर्ताओं पर हमले हो रहे थे, घरों और कार्यालयों को जलाया जा रहा था, तो आपके कार्यकर्ताओं ने जुझारू प्रतिरोध क्यों नहीं किया, एक भी जगह फ़ासिस्ट गुण्डों को उन्होंने दौड़ाया और पीटा क्यों नहीं? कथनी में मार्क्स-लेनिन और करनी में गान्ही बाबा! और गान्ही बाबा भी कह गये हैं कि यदि कायरता और हिंसा में चुनना हो तो हिंसा को चुनना श्रेयस्कर होगा!

जीना है तो लड़ना सीखिए। अगर लड़ेंगे नहीं तो फ़ासिस्ट आपको ज़मीन के नीचे दफ़न कर देंगे और फिर आपकी हड्डियों को निकालकर कहेंगे – देखो, ये बातबहादुर, कायर संसदमार्गी कम्युनिस्टों की हड्डियाँ हैं, देखो!

मज़दूर बिगुल, मार्च 2018


 

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