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कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है ? (बीसवीं किस्त)
कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राज्य की दग़ाबाज़ी की दास्तान
आनन्द सिंह
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उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहने वाली विभिन्न राष्ट्रीयताओं के साथ भारतीय राज्य के ऐतिहासिक विश्वासघात की विस्तृत चर्चा हम इस धारावाहिक लेख की पिछली किस्त में कर चुके हैं। उत्तर-पूर्व के समान ही जम्मू एवं कश्मीर की जनता के साथ भारतीय राज्य अपने जन्म से ही छल और कपट करता आया है जिसका दुष्परिणाम वहाँ की जनता को आज तक झेलना पड़ रहा है। भारत का खाता-पीता मध्य वर्ग जब राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर कश्मीर को भारत का ताज़ कहता है तो उसे यह आभास भी नहीं होता कि यह ताज़ कश्मीरियों की कई पीढ़ियों की भावनाओं और आकांक्षाओं को बेरहमी से कुचल कर बना है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कश्मीर में आतंकवाद की हरक़तों को बढ़ावा देने में पाकिस्तान का भी हाथ है परन्तु यह सच्चाई आमतौर पर दृष्टि ओझल कर दी जाती है कि कश्मीर में आतंकवाद के पनपने की मुख्य वजह भारतीय राज्य की वायदाखि़लाफ़ी और कश्मीरी जनता के न्यायोचित संघर्षों के बर्बर दमन और उससे बढ़ते असंतोष एवं अलगाव की भावना रही है। वर्ष 1990 से ही जम्मू एवं कश्मीर में सैन्य बल विशेष सुरक्षा अधिनियम (ए.एफ.एस.पी.ए.) लागू है और समूची कश्मीर घाटी सैन्य छावनी में तब्दील है। कश्मीर की मौजूदा नौजवान पीढ़ी बूटों की आवाज़ों के बीच और बन्दूकों के साये में पली-बढ़ी है। कश्मीर का पिछले दो दशकों का इतिहास नृशंस हत्याओं, बलात्कारों, अपहरणों और मानसिक यातनाओं का इतिहास रहा है। परन्तु यह समस्या पिछले दो दशकों में ही नहीं उठ खड़ी हुई है, बल्कि भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के साथ की गई वायदाखि़लाफ़ी और दमन के लम्बे इतिहास की तार्किक परिणति के रूप में हमारे सामने है। भारतीय लोकतन्त्र की सदाशयता का आवरण उठाने के लिए भारतीय राज्य की इस ऐतिहासिक वायदाखि़लाफ़ी का कच्चा चिठ्ठा खोलना बेहद ज़रूरी है।
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश राज्य के मातहत तमाम रियासतों में कश्मीर भी एक था। परन्तु कश्मीर की स्थिति इस मामले में बाकी रियासतों से अलग थी कि वहाँ की आबादी का बहुलांश मुस्लिम था, जबकि वहाँ का राजा हरी सिंह हिन्दू था। अन्य राजाओं की तरह हरी सिंह भी निरंकुश और जनविरोधी था और जनता के बीच उसकी कोई लोकप्रियता नहीं थी। जनता के बीच नेशनल कांफ्रेन्स के तत्कालीन नेता शेख अब्दुल्ला खासे लोकप्रिय थे। शेख अब्दुल्ला का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष था और यही वजह थी कि विभाजन के समय वह न तो कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने के पक्षधर थे और न ही इस्लाम पर आधारित राज्य बनाने में। लेकिन साथ ही साथ वह भारत में अन्य राज्यों की भाँति शामिल होने को लेकर भी सशंकित थे। समय और परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने भी अपनी अवस्थिति को कई बार बदला। शुरुआत में तो वो कश्मीर को एक स्वतन्त्र संघ, पूर्व के स्विटज़रलैण्ड के रूप में देखना चाहते थे। नेशनल कांफ्रेन्स ने सत्ता हस्तांतरण के लिए आये ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के सम्मुख भी एक ज्ञापन दिया था जिसमें उसने यह माँग रखी थी कि जम्मू कश्मीर का शासन लोगों के हाथ में होना चाहिए। इस ज्ञापन में कुख़्यात अमृतसर सन्धि पर भी सवाल उठाये गये थे जिसमें हरी सिंह के पूर्वज गुलाब सिंह ने मात्र 75 लाख रुपयों में कश्मीर को अंग्रेजों के हवाले कर दिया था। शेख अब्दुल्ला के गरम तेवरों को देखते हुए हरी सिंह ने उनको जेल में डाल दिया।
हरी सिंह भी विभाजन की सूरत में भारत या पाकिस्तान किसी भी देश में कश्मीर को शामिल नहीं करना चाहता था। वह एक स्वतन्त्र राज्य का महाराजा बनने का ख़्वाब देख रहा था। परन्तु पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित कबायली हमले की वजह से उसके ख़्वाब मिट्टी में मिल गये। इस हमले का सामना करने में अपनी सेना को अक्षम देख हरी सिंह को मज़बूरी में भारतीय सेना से मदद की गुहार लगानी पड़ी। मौके का भरपूर फ़ायदा उठाते हुए भारतीय राज्य ने 26 अक्टूबर 1947 को मदद के बदले में हरी सिंह से विलय के दस्तावेज़ (इन्स्ट्रूमेन्ट ऑफ एक्सेशन) पर दस्तख़त करा लिये। इस दस्तावेज़ में जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय की बात कही गयी थी, परन्तु उल्लेखनीय है कि इसमें मात्र तीन विषयों यानी रक्षा, विदेश नीति और संचार के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों पर जम्मू एवं कश्मीर राज्य की स्वायत्तता का प्रावधान था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विलय के दस्तावेज़ में यह स्पष्ट प्रावधान था कि जम्मू एवं कश्मीर का भारत में विलय आरज़ी था तथा अन्तिम फैसला वहाँ की जनता की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर निर्भर करेगा। उस वक़्त भारत सरकार ने वायदा किया था कि यह विलय तभी पूर्ण माना जायेगा जब राज्य में कानून और व्यवस्था सामान्य होगी और जम्मू एवं कश्मीर की जनता इसके पक्ष में होगी। उसके बाद अनेक अवसरों पर नेहरू ने यह वायदा दुहराया था। पाकिस्तान समर्थित कबायली हमले के विरोध में भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र को भेजी शिकायत में भी यह लिखा था कि ‘‘राज्य (जम्मू एवं कश्मीर) में सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद राज्य के लोग स्वतन्त्र रूप से अपने भविष्य का फैसला करेंगे और यह फैसला जनमतसंग्रह के सर्वमान्य तरीक़े से होगा।’’
तमाम आश्वासनों के बावज़ूद एक बार जम्मू एवं कश्मीर का भारत में विलय होने के बाद वहाँ की जनता के आत्मनिर्णय का अधिकार आज तक उन्हें नहीं मिल पाया है जो कि इस समस्या की जड़ है। विलय के दस्तावेज़ को संवैधानिक जामा पहनाने के मक़सद से संविधान में अनु. 370 डाला गया जो जम्मू एवं कश्मीर को विशेष दर्जा देता है। परन्तु ग़ौर करने वाली बात है कि अनु. 370 में यह कहीं नहीं लिखा है कि जम्मू एवं कश्मीर का भारत में विलय आरज़ी है और इस विलय पर अन्तिम फैसला राज्य की जनता करेगी। यानी अनु. 370 स्वयं विलय के दस्तावेज़ की मूल भावना और जम्मू एवं कश्मीर की जनता की आकांक्षाओं के ख़िलाफ़ जाता है। आरम्भ में इस अनु. में जम्मू एवं कश्मीर को स्वात्यत्त राज्य का दर्ज़ा देने वाले अनेक प्रावधान थे, मिसाल के तौर पर वहाँ के मुख्यमंत्री को सदर-ए-रियासत (प्रधानमंत्री) कहा जायेगा, वहाँ की विधायिका को संसद कहा जायेगा, वह राज्य भारत के उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से मुक्त होगा आदि। परन्तु समय बीतने के साथ भारत सरकार ने संवैधानिक संशोधन के ज़रिये अनु. 370 में दी गई स्वायत्तता का अधिकांश हिस्सा जम्मू एवं कश्मीर की जनता से छीन लिया।
संविधान लागू होने के समय से ही भारत की हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें जम्मू एवं कश्मीर की रही सही स्वायत्तता का विरोध करती आयी हैं और वे शुरुआत से ही जनता की मर्ज़ी के बगैर ही इस राज्य को जबरन भारत में मिला लेने की पक्षधर रही हैं। संविधान लागू होने के तुरन्त बाद 1950 के दशक की शुरुआत में भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्वज संगठन) और जम्मू प्रजा परिषद नामक साम्प्रदायिक संगठन ने अनु. 370 हटाने और जम्मू एवं कश्मीर को किसी भी प्रकार का विशेष दर्ज़ा देने के ख़िलाफ़ आन्दोलन छेड़ दिया। नेहरू सरकार ने भी इन साम्प्रदायिक ताकतों से सख़्ती से निपटने की बजाय उनके प्रति नरम रुख़ अख़्तियार किया। जब शेख अब्दुल्ला को यकीन हो चला कि नेहरू भी साम्प्रदायिक ताकतों के आगे घुटने टेक रहे हैं तो उन्होंने खुले आम घोषणा कर दी कि कश्मीर भारत से आज़ाद होना चाहिए। नतीजतन वे गिरफ़्तार कर लिए गये। उनकी चुनी हुई सरकार बर्ख़ास्त कर दी गई और जम्मू एवं कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। कुछ समय बाद वहाँ गुलाम बख़्शी मुहम्मद शेख को मुख्यमंत्री बनवाया गया जो जम्मू एवं कश्मीर में भारतीय राज्य की कठपुतली से अधिक कुछ भी न था। जेल में रहने के दौरान शेख अब्दुल्ला थोड़ा नरम हुए। कुछ समय बाद उन्हें जेल से रिहा भी किया गया। परन्तु जनमत संग्रह को लेकर उनकी सापेक्षतः नरम अवस्थिति भी अब नेहरू को स्वीकार्य न थी। अतः उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। नेहरू की मृत्यु के बाद शेख अब्दुल्ला जेल से रिहा हुए, परन्तु तब तक वे समझौतापरस्त हो चुके थे।
1980 के दशक में कश्मीर की घाटी हिंसा की लपटों में झुलस उठी। 1987 में राज्य के चुनावों में भारी धाँधली के बाद लोगों का असंतोष और बढ़ गया। यही वह माहौल था जब कश्मीर के युवाओं ने हिंसा की राह पकड़ी। निश्चित रूप से इस आग को भड़काने में पाकिस्तान की भी अपनी भूमिका रही थी और हिंसा का रास्ता चुनने वालों में तमाम ऐसे भी थे जो कश्मीर का विलय पाकिस्तान में करना चाहते थे। परन्तु उनमें से अधिकांश ऐसे थे जो आज़ाद कश्मीर की बात करते थे यानी ऐसा कश्मीर जो भारत और पाकिस्तान दोनों से आज़ाद हो। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रण्ट ऐसा ही एक संगठन था। भारतीय सेना ने सभी किस्म के संगठनों को आतंकवादी करार कर उनका बर्बर दमन करने की ठानी। राज्य में सैन्य बल विशेष अधिकार अधिनियम लगा दिया गया। देखते ही देखते समूची कश्मीर घाटी सैन्य छावनी में तब्दील हो गई। यही नहीं भारतीय सेना ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये। 1990 के पूर्वार्द्ध तक कश्मीर में नृशंस हत्यायें, बलात्कार, अपहरण, यातनायें आम बात हो गयीं। यह तथ्य कई मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों में भी सामने आया है।
हालाँकि कश्मीरी समाज परम्परागत रूप से धार्मिक कट्टरपन्थ से मुक्त रहा है, परन्तु 1980 के दशक में पैदा हुई परिस्थितियों ने वहाँ इस्लामिक कट्टरपंथियों को अपना आधार फैलाने के लिए ज़मीन तैयार की। इसी की परिणति घाटी के अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और घाटी से उनके पलायन के रूप में हुई। आज भी वहाँ की जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति देने में समर्थ राजनीतिक शक्ति के अभाव में तहरीक़-ए-हुर्रियत जैसे संगठन कट्टरपंथी इस्लाम की जड़ें मज़बूत कर रहे हैं।
हालाँकि 1990 के दशक के अन्त तक भारतीय सेना ने पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों सहित सभी क़िस्म के चरमपंथियों को ‘न्यूट्रलाइज़’ कर दिया था, लेकिन वर्ष 2009 से कश्मीरी जनता के प्रतिरोध ने एक नई दिशा में क़दम आगे बढ़ाये जिसे इन्तिफ़ादा (जनविद्रोह) कहा जा रहा है। इस नये चरण में भारतीय सेना का सामना ए के 47 या हैंड ग्रेनेड लिए दुर्दान्त आतंकवादियों से नहीं बल्कि हाथों में गिट्टी व पत्थर आम छात्रों और युवाओं से हो रहा है। 2009 में अमरनाथ यात्रा विवाद, उसी साल शोपियाँ में सशस्त्र बलों द्वारा दो महिलाओं के बलात्कार और हत्या, माछिल फ़र्जी मुठभेड़ में कश्मीरी युवकों की हत्या और जुलाई 2010 में तुफ़ैल मट्टू नामक छात्र की सेना की गोलीबारी में मौत के बाद जनता का गुस्सा इसी नये प्रकार के प्रतिरोध के रूप में सड़कों पर दिखायी दिया जिसका सामना करने में भारतीय सेना को दाँतों तले चने चबाने पड़े। हाल ही में अफ़जल गुरू को फाँसी दिये जाने के बाद कश्मीर के हालात एक फिर तनावपूर्ण हो गये थे। कई दिनों तक कर्फ़्यू लगाने के बाद ही हालात को काबू में किया जा सका।
कश्मीर के इस संक्षिप्त इतिहास से स्पष्ट है कि कश्मीर समस्या के लिए मुख्य रूप से भारतीय राज्य की वायदाखि़लाफ़ी और उसके द्वारा कश्मीरी जनता पर किया गया बर्बर दमन है। इस समस्या के समाधान के लिए कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को केन्द्र में रखना होगा। परन्तु भारतीय पूँजीवादी राज्य से ऐसी उम्मीद पालना ख़ामख़्याली है। ऐसा वायदा तो सिर्फ़ एक समाजवादी राज्य ही निभा सकता है।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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