मैट्रिक्स क्लोथिंग, गुड़गाँव में मजदूरों के हालात!
आनन्द, गुड़गाँव
गुड़गाँव की ‘मैट्रिक्स क्लोथिंग प्रा. लि.’ कम्पनी (खाण्डसा रोड मोहम्मदपुर गाँव) के मालिक दो पार्टनर है। कम्पनी की दो और शाखाएँ है, जो कि गुड़गाँव सेक्टर 37 औद्योगिक क्षेत्र मे स्थित है। यह कम्पनी मुख्यतः रीबॉक, टिम्बरलैण्ड, पोलो, जोश ए बैंक, मेड जैसी विशालकाय कम्पनियों के लिए कपड़े बनाती है। इस कम्पनी की मुख्य शाखा दिल्ली के औद्यौगिक क्षेत्र मायापुरी इलाके में है। 1990 मे जब हरियाणा मे औद्यौगिक क्षेत्र बसने शुरू हुए तभी यह कम्पनी भी 1995-96 के आसपास हरियाणा के सुनसान, वीरान इलाका मोहम्मदपुर मे जा बसी। कम्पनी के पुराने मज़दूर बताते है कि पहले यहाँ बहुत लूटपाट होती था।
आइये अब आपको बताते हैं कि कम्पनी के अन्दर के हालात क्या हैं। एक ही बाउण्ड्री में तीन बिल्डिंगें और हर बिल्डिंग की चारों मंजिलों में कपड़े सिलाई का ही काम होता है मगर तीनो बिल्डिंगों के मज़दूरों के बीच कई दीवारें खड़ी है। जैसे- बिल्डिंग ए से बी में कोई मज़दूर नही जा सकता है और वैसै ही बी से सी या सी से ए बिल्डिंग मे कोई मज़दूर नही जा सकता । हर मज़दूर की हाजिरी, उसकी तनख्वाह और उसके प्रोडक्शन का हिसाब भी उसके अपने कार्यक्षेत्र मे ही होगा। धुलाई डिपार्टमेण्ट अलग है। सभी कार्यक्षेत्रों के कपड़े एक साथ धोये जाते हैं। इस पूरी कम्पनी मे लगभग चार हजार मज़दूर काम करते हैं। मेरी बिल्डिंग के चारो डिपार्टमेण्ट मे लगभग (1178) मज़दूर काम करते हैं। इस कम्पनी के अन्दर हेल्पर और कारीगर की तनख्वाह लगभग बराबर ही है। चाहे नया हो य पुराना, हेल्पर-5342, कारीगर-5470, और इस कम्पनी मे ठेकेदार की जो लेबर हैं उनकी हालत तो और बुरी है। (पुरुष हेल्पर-4500, महिला हेल्पर-4200)। कहने को इस कम्पनी मे जगह-जगह बोर्ड लगे हुए हैं। जो कि मज़दूरों को उनके श्रम कानूनों, उनके यूनियन बनाने के अधिकार से परचित कराते रहते हैं। मगर सारे श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। और रही बात यूनियन बनाने की तो ब्रम्हा जी भी वहाँ यूनियन नहीं बना सकते। श्रम कानूनों मे से एक श्रम कानून का बोर्ड हमको यह बताता है। कि आपसे (किसी भी वर्कर से) एक हफ्ते मे 60 घण्टे से ज्यादा कोई काम नहीं ले सकता और ओवरटाइम का दोगुने रेट से भुगतान होगा। इसके उलट व्यवहार मे कम्पनी का नियम यह है कि ओवरटाइम लगाने से कोई मना नहीं कर सकता अगर सण्डे को कम्पनी खुली है तो भी आना पड़ेगा। कम्पनी की इसी मनमानी के चलते अधिकतर मज़दूर काम छोड़ते रहते हैं। और जो नही छोड़ते वो बीमार होकर मजबूरी मे गाँव की राह देखते हैं (सितम्बर 2013 मे 3 मज़दूरों ने छाती दर्द) की वजह से गाँव जाने की छुट्टी ली। अक्टूबर मे 5 नए मज़दूरों ने काम छोड़ दिया। उनकी तबीयत नहीं साथ दे रही थी। जिसमे एक को तो टायफाइड हो गया और एक यह बता रहा था। कि फैक्ट्री के अन्दर जाते हैं तो चक्कर सा आने लगता है व उल्टी सी होने लगती है। खैर ये आँकड़े तो आँखों देखे व कानों सुने हैं, असल हकीकत तो इससे भी भयंकर है ।
रही बात ओवरटाइम दोगुने रेट से देने की तो उस हिसाब से 51.50 पैसे प्रति घण्टा का रेट बनता है मगर सभी को 40रू प्रति घण्टा की दर से भुगतन किया जाता है। ये कम्पनी के परमानेण्ट (स्थाई) लेवर के हाल हैं। ठेकेदार की लेबर के हाल और भी बुरे हैं।
कम्पनी मज़दूरों को यह बताने के लगातार अभियान चलाती रहती है कि बजट क्या है, अपनी आय कैसे बढ़़ायी जा सकती है, आप बचत कैसे कर सकते हैं। और उस बचत से सूखे, कंगाल मज़दूरों को करोड़पति बनने के सपने दिखाए जाते हैं। इन तमाम अभियानों को चलाने लिए कम्पनी ने पर्सनल डिपार्टमेण्ट बना रखा है जिसका मुख्य काम यही है कि मज़दूरों को एक होने से कैसे रोका जाये।
मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन