मज़दूर साथियो! न्यूनतम वेतन क़ानून के ज़रिये केजरीवाल की नयी नौटंकी का पर्दाफ़ाश करो! संगठित होकर अपने हक़ हासिल करो!!
शाम
दिल्ली विधानसभा से पारित न्यूनतम वेतन (दिल्ली) संशोधन विधेयक 2017 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गयी है। ‘आप’ सरकार के अनुसार दिल्ली में न्यूनतम वेतन लागू न होने की वजह ‘न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948’ के तहत अभी दिल्ली में न्यूनतम वेतन न देने वालों के ख़िलाफ़़ सख्त कार्रवाई के प्रावधान की ग़ैर मौजूदगी थी। आप सरकार के संशोधित प्रावधान के अनुसार मज़दूरों को तय न्यूनतम वेतनमान से कम पर नौकरी पर रखने वाले नियोक्ताओं पर जुर्माने की रक़म 500 रुपये से बढ़ाकर 20 से 50 हज़ार रुपये तक के जुर्माने और साथ ही एक से तीन साल तक जेल की सज़ा या दोनों का प्रावधान किया गया है। नये क़ानून के अनुसार न्यायालय में शिकायत होने की तिथि से तीन माह की अवधि के भीतर इसका निपटान होगा। मार्च 2017 में, दिल्ली के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर अनिल बैजल ने दिल्ली सरकार के फ़ैसले को मंजूरी दे दी थी। फिर केन्द्र और राज्य सरकार के बीच बिल घूमता रहा और आखि़रकार, कुछ बदलावों के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने विधेयक को अपनी सहमति देकर 4 मई 2018 को अधिसूचित किया था। इस क़ानून के ज़रिये मज़दूरों के जीवन में कितना बदलाव आयेगा इसे समझने के लिए हमें केजरीवाल सरकार की इस क़ानून को लागू करने की मंशा को समझना होगा, दूसरा अगर मंशा को हटा भी दिया जाये तो क्या इस क़ानून को लागू करने की मशीनरी दिल्ली सरकार के पास है या नहीं – इन सवालों पर हमें रौशनी डालनी होगी।
पहली बात यह कि क़ानून लागू करवाना केजरीवाल का एक जुमला है, क्योंकि असल में केजरीवाल सरकार की मज़दूरों को न्यूनतम वेतन देने की कोई मंशा नहीं है। केजरीवाल को चुनाव में चन्दा देने वाली एक बड़ी आबादी दिल्ली के छोटे-बड़े दुकानदारों, फ़ैक्टरी मालिकों और ठेकेदारों की है, वह इन्हें निराश कर मज़दूरों के जीवन स्तर को नहीं सुधार सकती है। केजरीवाल ने दिल्ली की मज़दूर आबादी के बीच इस क़ानून का महज़ जुमला उछाला है, क्योंकि केजरीवाल जानता है कि क़ानून लागू करवाने की मशीनरी के अभाव में बेहद छोटी-सी आबादी के बीच इसका प्रभाव होगा और इक्का-दुक्का फ़ैक्टरी मालिक ही इसके तहत नापे जायेंगे। इसके ज़रिये उसे मज़दूरों के बीच भी वाह-वाह सुनाने को मिलेगी और मालिकों के मुनाफ़़े को भी आँच नहीं आयेगी। दिल्ली में काम करने वाली मेहनतकश आबादी के बीच न तो इस क़दम की कोई सुगबुगाहट है और न ही कोई आशा है, क्योंकि वे अपने अनुभव से जानते हैं कि यह क़ानून भी लागू नहीं होने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाली आबादी के पास यह साबित करने का कोई भी तरीक़़ा नहीं है कि वे किस फ़ैक्टरी में काम करते हैं, अगर यह साबित हो जाये तो मालिक अपनी फ़ैक्टरी का नाम बदल देता है और बताता है कि पुरानी फ़ैक्टरी में तो वह मालिक ही नहीं था और इसके बाद श्रम विभाग मज़दूर पर यह जि़म्मेदारी डाल देता है कि वह साबित करे कि मालिक कौन है। इस क़ानून को पास करवाने की घोषणा को ख़ुद विधायक और निगम पार्षद दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में प्रचारित नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे या तो ख़ुद फ़ैक्टरी मालिक हैं या उनके चन्दे पर चुनाव जीते हैं। यह बात कुछ तथ्यों से ही साफ़ हो जाती है। जब 2013 में पहली बार केजरीवाल की सरकार बनी थी तो इसी केजरीवाल का पहला श्रम मन्त्री गिरीश सोनी चमड़े की फ़ैक्टरी का मालिक था, जिसमें मज़दूरों को न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता था। वज़ीरपुर के विधायक राजेश गुप्ता और निगम पार्षद विकास गोयल की वज़ीरपुर इण्डस्ट्रियल एरिया में फ़ैक्टरियाँ हैं, जहाँ न्यूनतम वेतन तो दूर हर श्रम क़ानून की धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। जब विधायक महोदय की ख़ुद की फ़ैक्टरी में न्यूनतम वेतनमान नहीं लागू होता है, तो वे वज़ीरपुर के अपने मालिक भाइयों की फ़ैक्टरियों में न्यूनतम वेतन लागू करवायेंगे? यही हाल आम आदमी पार्टियों के अन्य विधायकों का है, क्योंकि केजरीवाल के पचास प्रतिशत से अधिक विधायक करोड़पति हैं यानी बड़े दुकानदार, व्यापारी या फ़ैक्टरी मालिक हैं। साफ़़ है कि मज़दूरों के लिए आम आदमी पार्टी व कांग्रेस-भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के लिए बने क़ानूनों को तो मालिक और ठेकेदार मानते ही नहीं हैं। दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों को आज भी 5 से 6 हज़ार रुपया मिलता है। किसी को भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिल पाती। ख़ुद सरकारी विभागों में इसका खुलेआम उल्लंघन होता है। पूरे देश में सरकारी विभागों तक में 70 प्रतिशत के क़रीब मज़दूर ठेके पर, आउटसोर्सिंग, प्रोजेक्ट आदि के तौर पर आरजी तौर पर काम कर रहे हैं। सरकारी विभागों में क्लर्क, अध्यापक, टेक्निशियन आदि से हस्ताक्षर किसी राशि पर करवाये जाते हैं और दिया कुछ और जाता है। बेरोज़गारी के आलम की वजह से मज़बूरी में हस्ताक्षर कर भी दिये जाते हैं। फ़ैक्टरियों में मालिक मज़दूर से पहले ही ख़ाली काग़ज़ पर अँगूठा लगवाकर रख लेता है। ईएसआई कार्ड बनवाता है तो उसे हर दूसरे-तीसरे महीने रद्द करवा देता है और पुनः नया कार्ड बनवाता है जिससे कि अगर वह किसी केस में फँसे तो दिखा सके कि फलाँ मज़दूर तो उसके यहाँ हाल में ही काम करने आया है। यह सब केजरीवाल के फ़ैक्टरी मालिक, व्यापारी और करोड़पति विधायकों या उनके करोड़पति समर्थकों को पता है।
दूसरी बात अगर सरकार की सही मायने में यह मंशा होती कि यह क़ानून लागू किया जाये तो सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि दिल्ली की आप सरकार ने पुराने क़ानूनों को ही कितना लागू किया है? अगर सही मायने में केजरीवाल सरकार की यह मंशा होती तो वह सबसे पहले हर फ़ैक्टरी में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 (Factories Act, 1948) का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया। निश्चित ही इस क़ानून से जिसको थोडा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु यह लगातार सिकुड़ रहा है। दिल्ली की 65 लाख मज़दूर आबादी में क्या न्यूनतम मज़दूरी का संशोधित क़ानून घरेलू कामगारों, डाइवरों, प्राइवेट सफ़ाईकर्मियों आदि पर लागू हो पायेगा? 90 प्रतिशत मज़दूर आबादी जो दिहाड़ी, कैजुअल, पीस रेट, ठेके पर काम कर रही है, उसे न्यूनतम मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ मज़दूरी मिल पा रही है या नहीं इसकी कोई भी जानकारी दिल्ली सरकार के पास नहीं है। चुनाव में वायदा करके भी अब तक ठेका क़ानून को लागू नहीं करवा पायी। श्रम विभाग की स्थिति की अगर बात करें तो न तो उसके पास इतने कर्मचारी हैं कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों व अन्य मज़दूरों की जाँच-पड़ताल की जा सके। नये प्रावधानों में नयी दरों के अनुसार दिल्ली में एक अकुशल मज़दूर/कर्मचारी के लिए न्यूनतम मज़दूरी 13350 रुपये प्रति माह, अर्द्ध कुशल के लिए, यह 14698 रुपये और कुशल मज़दूर/कर्मचारी के लिए 16182 रुपये हो गयी है। इसके अलावा दसवीं फेल के लिए 15,296, दसवीं पास के लिए 16,858 और ग्रेजुएट एवं ज़्यादा शिक्षित के लिए 18,332 रुपये प्रति माह न्यूनतम वेतन हो गयी है। परन्तु दिल्ली में मज़दूरों को 12-12 घण्टे फ़ैक्टरी में खटने के बाद महज़ आठ से नौ हज़ार रुपये मासिक वेतन मिलता है। न्यूनतम वेतन न मिल पाने के कारण दिल्ली के क़रीब 65 लाख मज़दूरों को हर माह 350 करोड़ रुपये का नुक़सान हो रहा है। पूँजीपतियों के वकील ने इस विधेयक के खि़लाफ़ उच्च न्यायालय का दरवाज़ा भी खटखटाया। मालिकों का तर्क है कि बाज़ार की स्थितियों के अनुसार ही न्यूनतम वेतन तय होना चाहिए। मज़दूरी बढ़ने से उत्पादन व रखरखाव की लागत बढ़ेगी। और जिसकी वजह से अन्तरराष्ट्रीजय मार्किट में भारत टिक नही पायेगा। इसकी वजह से भारत में एफ़डीआई भी कम आयेगा। कुछ ऐसा ही तर्क तमिलनाडू में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ने पर भी दिया जा रहा है। हर नियोक्ता के कई प्रतिद्वन्द्वी नियोक्ता को पटकनी देने के लिए मज़दूरों से सस्ते में ज़्यादा माल बनवाना चाहता है ताकि उसका माल सस्ता होने से बिक जाये। जो बात पूँजीपति समझते हैं, वह बात हम मज़दूरों को भी समझनी चाहिए कि न्यूनतम वेतन का सवाल बाज़ार से और अन्ततः इस पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ता है। इस व्यवस्था में मज़दूरों का वेतन असल में मालिक के मुनाफ़़े और मज़दूर की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए संघर्ष का सवाल है। वेतन बढ़ोतरी के के लिए मज़दूर को यूनियन में संगठित होकर लड़ना ही होगा। फ़ैक्टरी में मज़दूर को बस उसके जीवनयापन हेतु वेतन भत्ता दिया जाता है और बाक़ी जो भी मज़दूर पैदा करता है, उसे मालिक अधिशेष के रूप में लूट लेता है। अधिक से अधिक अधिशेष हासिल करने के लिए मालिक वेतन कम करने, काम के घण्टे बढ़ने या श्रम को ज़्यादा सघन बनाने का प्रयास करते हैं और इसके खि़लाफ़ मज़दूर संगठित होकर ही संघर्ष कर सकता है।
अगर इस क़ानून की तफ़सीलों पर बात करने के बाद इससे हम किसी निष्कर्ष को निकालें तो हमें यह बात समझनी होगी कि इस क़ानून को भी लड़कर लागू कराया जा सकता है। हम इस क़ानून को अपनी एकता के बल पर औद्योगिक क्षेत्रों में भी लागू करवा सकते हैं। वज़ीरपुर में हुई 2014 की हड़ताल के दौरान मज़दूरों के दबाव के कारण श्रम विभाग को फ़ैक्टरियों पर छापे मारने पड़े थे और श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के लिए कई मालिकों को जुरमाना भी देना पड़ा था। जहाँ मज़दूर एकजुट होकर लड़ेगा, वहाँ वह अपने हक़ की लड़ाई जीत सकता है। परन्तु हमें यह भी ज्ञात होना चाहिए कि मौजूदा क़ानून की कमजोरी क्या है। हमें सरकार से यह भी माँग करनी चाहिए कि न्यूनतम मज़दूरी को संविधान की नवीं अनुसूची के अन्तर्गत लाया जाये, ताकि इससे सम्बन्धित क़ानून पर अमल के मसले पर न्यायालयों से स्थगनादेश (स्टे) नहीं लिया जा सके। दूसरी यह माँग की गयी थी कि क्षेत्रीय विविधताओं के नाम पर न्यूनतम मज़दूरी में अन्तर का तर्क रद्द करके, सरकारी नौकरियों की तर्ज़ पर, देशभर में एक ही न्यूनतम मज़दूरी तय की जाये। इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों और क़ानूनों में आवश्यक संशोधन किये जायें। महानगरों और दुगर्म क्षेत्रों में होने वाले अतिरिक्त ख़र्चों की भरपाई के लिए सभी प्रकार के कामगारों को विशेष भत्ते दिये जायें।
आखि़र में हमें यह बात समझनी होगी कि अगर इस क़ानून को लागू करवाकर मज़दूरी बढ़ती है तो इससे तात्कालिक तौर पर तो मज़दूरों का फ़ायदा होगा। परन्तु इस माँग को उठाते हुए यह समझना चाहिए कि महज़ इतना ही करते रहेंगे तो चर्खा कातते रह जायेंगे और गोल-गोल घूमते रह जायेंगे। महँगाई बढ़ेगी तो बढ़ी मज़दूरी फिर कम होने लगती है। इसलिए तो हर पाँच साल में दोबारा न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाने के लिए न्यूनतम मज़दूरी आयोग को दोबारा बनाना पड़ता है और नये सर्वे के ज़रिये नये बढ़े हुए वेतनमान की माँग को लागू करके तात्काालिक तौर पर मेहनतकशों का गुस्सा शान्त हो जाता है। क्या हमारी लड़ाई महज़ न्यूनतम वेतन लागू करवाने तक सीमित है? क़तई नहीं, दूरगामी तौर पर जनता के अगुआ हिस्सों को राजनीतिक रूप से शिक्षित करके उन्हें इस पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों के बारे में बताना होगा और उन्हें पूँजीवादी व्यवस्था की ‘मज़दूरी की व्यवस्था को नाश करने’ की माँग के बारे में शिक्षित करते हुए उबारना होगा। जब तक हम यह नहीं करते हम शोषित और उत्पीडि़त रहेंगे और हमारे हिस्से में झुग्गियाँ, नालियाँ, बीमारियाँ और बेरोज़गारी हमेशा मुहँबाए खड़ी रहेगी।
मज़दूर बिगुल, जून 2018
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