क्या करें?
ट्रेड-यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी राजनीति
जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

लेनिन

हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आन्दोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिल्कुल ज़रूरी और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक-जनवादी ढंग की हो। परन्तु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुँचे थे कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फौरन ज़रूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर हम सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के और ख़ास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है। अपनी बात को और ठोस ढंग से समझाने के लिए हम मामले के उस पहलू को लेंगे, जो ‘‘अर्थवादियों’’ के सबसे ज़्यादा ‘‘नजदीक’’ है, यानी हम व्यावहारिक पहलू को लेंगे। ‘‘हर आदमी यह मानता है’’ कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है। सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाये, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से सम्बन्धित सवाल उठाने की ‘‘प्रेरणा देता है’’ और इसलिए हम ‘‘आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने’’ की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अन्दर-अन्दर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे (सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर तक), कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे ‘‘अर्थवादी’’ करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग-चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अन्दर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारम्भिक बिन्दु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग-चेतना बढ़ायी जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। ‘‘अर्थवादी’’ लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इन्कार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक दूसरे को कतई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।

Lenin

मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राजसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि ‘‘मज़दूर के बीच जाओ’’ – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव ‘‘अर्थवाद’’ की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।

हमने इस बेडौल सूत्र को जान-बूझकर चुना है, हमने जान-बूझकर अपना मत अतिसरल, एकदम दो-टूक ढंग से व्यक्त किया है – इसलिए नहीं कि हम विरोधाभासों का प्रयोग करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हम ‘‘अर्थवादियों’’ को वे काम करने की ‘‘प्रेरणा देना’’ चाहते हैं, जिनको वे बड़े अक्षम्य ढंग से अनदेखा कर देते हैं, हम उन्हें ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति और सामाजिक-जनवादी राजनीति के बीच अन्तर देखने की ‘‘प्रेरणा देना’’ चाहते हैं, जिसे समझने से वे इन्कार करते हैं। अतएव हम पाठकों से यह प्रार्थना करेंगे कि वे झुँझलाएँ नहीं, बल्कि अन्त तक ध्यान से हमारी बात सुनें।

पिछले चन्द बरसों में जिस तरह का सामाजिक-जनवादी मण्डल सबसे अधिक प्रचलित हो गया है, उसे ही ले लीजिये और उसके काम की जाँच कीजिये। ‘‘मज़दूरों के साथ उसका सम्पर्क’’ रहता है और वह इससे सन्तुष्ट रहता है, वह परचे निकालता है, जिनमें कारख़ानों में होने वाले अनाचारों, पूँजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के जुल्म की निन्दा की जाती है। मज़दूरों की सभाओं में जो बहस होती है, वह इन विषयों की सीमा के बाहर नहीं जाती या जाती भी है, तो बहुत कम। ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास के बारे में, हमारी सरकार की घरेलू तथा विदेश नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या वाद-विवादों का संगठन किया जाता है। और जहाँ तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से सम्पर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात है, उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचता। वास्तविकता यह है कि इन मण्डलों के अधिकतर सदस्यों की कल्पना के अनुसार आदर्श नेता वह है, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेड-यूनियन के सचिव के रूप में अधिक काम करता है, क्योंकि हर ट्रेड-यूनियन का, मिसाल के लिए, किसी ब्रिटिश ट्रेड-यूनियन का, सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मज़दूरों की मदद करता है, वह कारख़ानों में होने वाले अनाचारों का भण्डाफोड़ करने में मदद करता है, उन कानूनों तथा कदमों के अनौचित्य का पर्दाफाश करता है, जिनसे हड़ताल करने और धरना देने (हर किसी को यह चेतावानी देने के लिए कि अमुक कारख़ाने में हड़ताल चल रही है) की स्वतन्त्रता पर आघात होता है, वह मज़दूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज, जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि-आदि। सारांश यह कि ‘‘मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष’’ ट्रेड-यूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने ही से सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता, कि सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेड-यूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन-नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या संस्तर से सम्बन्ध हो, विचलित हो उठाने की क्षमता हो; उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए; उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम का विश्व ऐतिहासिक महत्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, (इंग्लैण्ड की सबसे शक्तिशाली ट्रेड यूनियनों में से एक, बॉयलर-मेकर्स सोसाइटी के विख्यात सचिव एवं नेता) राबर्ट नाइट जैसे नेता की विल्हेल्म लीब्कनेख़्त जैसे नेता से तुलना करके देखिये और इन दोनों पर उन अन्तरों को लागू करने की कोशिश कीजिये, जिनमें मार्तीनोव ने ईस्क्रा के साथ अपने मतभेदों को प्रकट किया है। आप पायेंगे – मैं मार्तीनोव के लेख पर नजर डालना शुरू कर रहा हूँ – कि जहाँ राबर्ट नाइट ‘‘जनता का कुछ ठोस कार्रवाइयों के लिए आह्वान’’ ज़्यादा करते थे (पृ- 39), वहाँ विल्हेम लीब्कनेख़्त ‘‘सारी वर्तमान व्यवस्था का या उसकी आंशिक अभिव्यक्तियों का क्रान्तिकारी स्पष्टकरण’’ करने की ओर अधिक ध्यान देते थे (पृ- 38-39); जहाँ राबर्ट नाइट ‘‘सर्वहारा की तात्कालिक माँगों को निर्धारित करते थे तथा उनकी पूर्ति के उपाय बताते थे’’ (पृ- 41), वहाँ विल्हेल्म लीब्कनेख़्त यह करने के साथ-साथ ‘‘विभिन्न विरोधी स्तरों की सक्रिय गतिविधियों का संचालन करने’’ तथा ‘‘उनके लिए काम का एक सकारात्मक कार्यक्रम निर्दिष्ट करने’’’ से नहीं हिचकते थे (पृ- 41); राबर्ट नाइट ही थे, जिन्होंने ‘‘जहाँ तक सम्भव हो, आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने’’ की कोशिश की (पृ- 42) और वह ‘‘सरकार के सामने ऐसी ठोस माँगें रखने में, जिनसे कोई ठोस नतीजा निकलने की उम्मीद हो,’’ बड़े शानदार ढंग से कामयाब हुए (पृ- 43); लेकिन लीब्कनेख़्त ‘‘एकांगी’’ ढंग का ‘‘भण्डाफोड़’’ करने में अधिक मात्र में लगे रहते थे (पृ- 40); जहाँ राबर्ट नाइट ‘‘नीरस दैनिक संघर्ष की प्रगति’’ को अधिक महत्व देते थे (पृ- 61), वहाँ लीब्कनेख़्त ‘‘आकर्षक एवं पूर्ण विचारों के प्रचार’’ को ज़्यादा महत्वपूर्ण समझते थे (पृ- 61); जहाँ लीब्कनेख़्त ने अपनी देखरेख में निकलने वाले पत्र को ‘‘क्रान्तिकारी विरोध-पक्ष का एक ऐसा मुखपत्र बना दिया था, जिसने हमारे देश की अवस्था का, विशेषतया राजनीतिक अवस्था का, जहाँ तक वह आबादी के सबसे विविध स्तरों के हितों से टकराती थी, भण्डाफोड़ किया’’ (पृ- 63), वहाँ राबर्ट नाइट ‘‘सर्वहारा वर्ग के संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क रखते हुए मज़दूर वर्ग के ध्येय के लिए काम करते थे” (पृ- 63) – यदि ‘‘घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क’’ रखने का मतलब स्वयंस्फूर्ति की पूजा करना है, जिस पर हम ऊपर क्रिचेव्स्की तथा मार्तीनोव के उदाहरण का उपयोग करते हुए विचार कर चुके हैं – और ‘‘अपने प्रभाव के क्षेत्र को सीमित कर लेते थे,’’ क्योंकि मार्तीनोव की तरह उनका भी यह विश्वास था कि ऐसा करके वह ‘‘उस प्रभाव को और गहरा बना देते थे’’ (पृ- 63)। संक्षेप में, आप देखेंगे कि मार्तीनोव सामाजिक-जनवाद को वस्तुतः ट्रेड यूनियनवाद के स्तर पर उतार लाते हैं, हालाँकि वह ऐसा स्वभावतः इसलिए नहीं करते कि वह सामाजिक-जनवाद का भला नहीं चाहते, बल्कि केवल इसलिए करते हैं कि प्लेख़ानोव को समझने की तकलीफ़ गवारा करने के बजाय उन्हें प्लेख़ानोव को और गूढ़ बनाने की जल्दी पड़ी हुई है।

लेकिन आइये, अपने बयान की ओर लौट आयें। हमने कहा था कि यदि कोई सामाजिक-जनवादी सचमुच सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना को सर्वांगीण रूप से विकसित करना आवश्यक समझता है, तो उसे ‘‘आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना’’ चाहिए। इससे नीचे लिखे ये सवाल पैदा होते हैं: यह कैसे किया जाये? क्या यह करने के लिए हमारे पास काफ़ी शक्तियाँ हैं? क्या सभी अन्य वर्गों में इस प्रकार का काम करने के लिए कोई आधार मौजूद है? क्या ऐसा करने का अर्थ या इसका नतीजा वर्गीय दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं होगा? आइये, इन सवालों पर थोड़ा विचार करें।

हमें सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, आन्दोलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में ‘‘आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना’’ चाहिए। इस बात में किसी को सन्देह नहीं है कि सामाजिक-जनवादियों के सैद्धान्तिक काम का लक्ष्य विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन होना चाहिए। परन्तु कारख़ानों के जीवन की विशेषताओं का अध्ययन करने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उसकी तुलना में इस प्रकार के अध्ययन का काम बहुत ही कम, हद दरजे तक कम, किया जाता है। समितियों और मण्डलों में आपको कितने ही ऐसे लोग मिलेंगे, जो मसलन धातु-उद्योग की किसी विशेष शाखा के अध्ययन में ही डूबे हुए हैं, पर इन संगठनों में आपको ऐसे सदस्य शायद ही कभी ढूँढ़े मिलेंगे, जो (जैसा कि अक्सर होता है, किसी कारणवश व्यावहारिक काम नहीं कर सकते) हमारे देश के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के किसी ऐसे तात्कालिक प्रश्न के सम्बन्ध में विशेष रूप से सामग्री एकत्रित कर रहे हों, जो आबादी के अन्य हिस्सों में सामाजिक-जनवादी काम करने का साधन बन सके। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के वर्तमान नेताओं में से अधिकतर में प्रशिक्षा के अभाव की चर्चा करते हुए हम इस प्रसंग में भी प्रशिक्षा की बात का जिक्र किये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि ‘‘सर्वहारा के संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क’’ की ‘‘अर्थवादी’’ अवधारणा से इसका भी गहरा सम्बन्ध है। लेकिन निस्सन्देह, मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आन्दोलन। पश्चिमी यूरोप के सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ता को इस मामले  में उन सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनों से, जिसमें भाग लेने की सबको स्वतन्त्रता होती है, और इस बात से बड़ी आसानी हो जाती है कि वह संसद के अन्दर सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से बातें करता है। हमारे यहाँ न तो संसद है और न सभा करने की आज़ादी, फिर भी हम वैसे मज़दूरों की बैठकें करने में समर्थ हैं, जो सामाजिक-जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं। हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि ‘‘कम्युनिस्ट हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं’’, कि इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।

’मिसाल के लिए, फ्रांस और प्रशा के युद्ध के समय लीब्कनेख़्त ने पूरे जनवादी पक्ष के लिए कार्रवाई का एक कार्यक्रम निर्दिष्ट किया था – और मार्क्स तथा एंगेल्स ने तो 1848 में यह और भी बड़े पैमाने पर किया था।

 

मज़दूर बिगुलफरवरी  2013

 


 

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