Category Archives: इतिहास

अदम्‍य बोल्‍शेविक – नताशा एक संक्षिप्त जीवनी (सातवीं किश्त)

समोइलोवा ने अक्टूबर क्रान्ति में अपनी तमाम क्रान्तिकारी सक्रियता को, क्रान्ति की जीत में सहभागी बनी, मजदूर स्त्रियों के इस सशक्त सर्जनात्मक उभार के साथ एकरूप कर दिया। आगे चलकर उन्होंने पार्टी के और प्रेस के क्षेत्र में सोवियतों के काम में सक्रिय भूमिका निभायी, पर साथ ही उन्होंने एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी रचनात्मक प्रतिभा का भी परिचय दिया और स्त्री मजदूरों तथा बाद में किसान स्त्रियों को कम्युनिस्ट पार्टी की कतारों तक, सोवियत सत्ता के लिए संघर्षरत योद्धाओं की कतारों तक, सोवियत सत्ता के निर्माताओं की कतारों तक लाने में अपनी मेहनत लगा दी। उन्होंने जनता के बीच आन्दोलन, संगठन और प्रचार के नये रूप लागू किये। ये सारे नये रूप सम्भवत: उनके सुझाये हुए नहीं थे, लेकिन वे हमेशा उन पर विस्तार से काम करतीं और लोगों के बीच उन्हें लागू करतीं। नतीजा हमेशा एक ही रहा, जनता संघर्ष और रचनात्मक क्रान्तिकारी काम के लिए जागृत, संगठित और उद्वेलित हो जाती।

अमेरिका की सूत मिलों में ज़िन्दगी की एक झलक — मदर जोंस

पूँजीवादी व्यवस्था को सिरे से उखाड़कर फेंक दिया जाये, इसके सिवा और कोई रास्ता मुझे दिखायी नहीं देता। जो बाप इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए वोट देता है, वह मेरी नजर में वैसा ही हत्यारा है मानो उसने पिस्तौल लेकर अपने बच्चों को गोली मार दी हो। लेकिन मुझे अपने चारों ओर समाजवाद की नई सुबह फूटने की निशानियाँ दिखायी दे रही हैं, और हर जगह अपने भरोसेमन्द साथियों के साथ मैं उस बेहतर दिन को लाने के लिए काम करूँगी और कामना करूँगी कि वह जल्दी आये।

मदर जोंस : मज़दूरों की बूढ़ी अम्मा और पूँजीपतियों के लिए ”अमेरिका की सबसे खतरनाक औरत”

आज़ादी और बराबरी के लिए मज़दूरों की लम्बी लड़ाई ने सैकड़ों ऐसी महिलाओं को जन्म दिया है जिन्होंने न केवल मुनाफाखोर लुटेरों के दिलों में दहशत पैदा कर दी बल्कि दुनियाभर में नये समाज के लिए लड़ने वालों के लिए एक मिसाल बन गई। इन्हीं में से एक थीं अमेरिका की मैरी जोंस जिन्हें मज़दूर प्यार और आदर से मदर जोंस कहकर पुकारते थे और पूँजीपतियों के अखबार ‘‘अमेरिका की सबसे खतरनाक औरत’’ कहते थे।

भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद – इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य

हमें क्रान्ति की कतारों में नई भर्ती करनी होगी, उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा-दीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के काम को लगन और मेहनत से पूरा करना होगा, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को संशोधनवादियों और अतिवामपन्थी कठमुल्लों का पुछल्ला बने रहने से मुक्त होने का आह्वान करना होगा और इसके लिए उनके सामने क्रान्तिकारी जनदिशा की व्यावहारिक मिसाल पेश करनी होगी। लेकिन इस काम को सार्थक ढंग से तभी अंजाम दिया जा सकता है जबकि कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास से सबक लेकर हम अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरी को दूर कर सकें और बोल्शेविक साँचे-खाँचे में तपी-ढली पार्टी का ढाँचा खड़ा कर सकें। संशोधनवादी भितरघातियों के विरुद्ध निरन्तर समझौताहीन संघर्ष के बिना तथा मज़दूर वर्ग के बीच इनकी पहचान एकदम साफ किये बिना हम इस लक्ष्य में कदापि सफल नहीं हो सकते। बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष करना होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई संशोधनवाद से ही है।

संशोधनवाद और मार्क्‍सवाद : बुनियादी फर्क

आमतौर पर संशोधनवादियों का तर्क यह होता है कि बुर्जुआ जनवाद और सार्विक मताधिकार ने वर्ग-संघर्ष और बलात् सत्‍ता-परिवर्तन के मार्क्‍सवादी सिध्दान्त को पुराना और अप्रासंगिक बना दिया है, पूँजीवादी विकास की नयी प्रवृत्तियों ने पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोधों की तीव्रता कम कर दी है और अब पूँजीवादी जनवाद के मंचों-माध्‍यमों का इस्तेमाल करते हुए, यानी संसदीय चुनावों में बहुमत हासिल करके भी समाजवाद लाया जा सकता है। ऐसे दक्षिणपन्थी अवसरवादी मार्क्‍स और एंगेल्स के जीवनकाल में भी मौजूद थे, लेकिन इस प्रवृत्ति को आगे चलकर अधिक व्यवस्थित ढंग से बर्नस्टीन ने और फिर काउत्स्की ने प्रस्तुत किया। लेनिन के समय में इन्हें संशोधनवादी कहा गया। लेनिन ने रूस के और समूचे यूरोप के संशोधनवादियों के ख़िलाफ अनथक समझौताविहीन संघर्ष चलाया और सर्वहारा क्रान्ति के प्रति उनकी ग़द्दारी को बेनकाब किया।

अदम्‍य बोल्‍शेविक – नताशा एक संक्षिप्त जीवनी (छठी किश्त)

”हमे यूरोप की मौजूदा शमशान-जैसी नीरवता के धोखे में नहीं आना चाहिए”, लेनिन ने कहा। ”यूरोप क्रान्तिकारी भावना से आवेशित है। साम्राज्यवादी युद्ध की राक्षसी भयावहता, महँगाई से पैदा हुई बदहाली, हर जगह क्रान्तिकारी भावना को जन्म दे रही है। और सत्ताधारी वर्ग, अपने चाकरों के साथ बुर्जुआ वर्ग, सरकारें अधिकाधिक एक अन्‍धी गली की तरफ बढ़ रही हैं, जहाँ से ज़बरदस्त उथल-पुथल के बिना वे कभी भी बाहर नहीं निकल सकतीं।

कार्ल मार्क्‍स के जन्मदिन (5 मई) के अवसर पर

मार्क्‍स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूँजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूँजीपति मज़दूर का शोषण करता है। जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठायें कि उजरती मज़दूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूँजीपति को दे देना पड़ता है? पूँजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे। अन्त में मार्क्‍स ने ही उसका सही उत्तर दिया। वह उत्तर इस प्रकार है : उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं – एक ओर पूँजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल – अपनी श्रम-शक्ति – ही है और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है।

नताशा – एक महिला बोल्शेविक संगठनकर्ता (पाँचवीं किश्त)

दिनों-दिन पूँजीवाद का बढ़ता प्रसार न सिर्फ पुरुषों बल्कि उनकी पत्नियों, बहनों और बेटियों को भी औद्योगिक जीवन के चक्रवात में खींच रहा है। उद्योगों की तमाम शाखाओं में धातु उद्योग समेत हज़ारों – दसियों हज़ार स्त्रियाँ काम करती हैं। पूँजी ने उन सब पर ठप्पा लगा दिया है और उन सबको श्रम बाज़ार में फेंक दिया है। वह युवाओं की, स्त्रियों की शारीरिक कमज़ोरी की और मातृत्व के उत्साह की उपेक्षा करती है। जब स्त्रियाँ फैक्टरियों में जाती हैं और उन्हीं मशीनों पर काम करती हैं जिन पर मर्द करते हैं, तो वे एक नयी दुनिया का सन्धान करती हैं। उद्योग की प्रक्रिया में लोगों के नये सम्बन्धों का सन्धान करती हैं। वे मज़दूरों को अपने हालात सुधारने के लिए संघर्ष करते देखती हैं। और हर आने वाले दिन के साथ स्‍त्री मज़दूरों का इसका अधिकाधिक विश्वास होता गया कि काम की स्थितियों ने उन्हें फैक्टरियों के पुरुष मज़दूरों के साथ जोड़ दिया है, कि उन सबके हित साझा हैं, और स्‍त्री मज़दूरों ने यह महसूस करना शुरू किया कि वे औद्योगिक परिवार का हिस्सा हैं, कि उनके हित समूचे मेहनतकश वर्ग के साथ जुड़े हैं।

मई 1886 का वह रक्तरंजित दिन जब मज़दूरों के बहते ख़ून से जन्मा लाल झण्डा

पूँजीवादी न्याय के लम्बे नाटक के बाद 20 अगस्त 1887 को शिकागो की अदालत ने अपना फैसला दिया। सात लोगों को सज़ाए-मौत और एक (नीबे) को पन्‍द्रह साल कैद बामशक्कत की सज़ा दी गयी। स्पाइस ने अदालत में चिल्लाकर कहा था कि ”अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो … आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”
सारे अमेरिका और तमाम दूसरे देशों में इस क्रूर फैसले के खिलाफ भड़क उठे जनता के ग़ुस्से के दबाव में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो अपील मानने से इन्कार कर दिया लेकिन बाद में इलिनाय प्रान्त के गर्वनर ने फील्डेन और श्वाब की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया। 10 नवम्बर 1887 को सबसे कम उम्र के नेता लुइस लिंग्ग ने कालकोठरी में आत्महत्या कर ली

मई दिवस अनुष्ठान नहीं, संकल्पों को फौलादी बनाने का दिन है!

भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुपों-संगठनों के कमज़ोर विचारधारात्मक आधार, ग़लत सांगठनिक कार्यशैली और ग़लत कार्यक्रम पर अमल की आधी-अधूरी कोशिशों के लम्बे सिलसिले ने आज उन्हें इस मुकाम पर ला खड़ा किया है कि उनके सामने पार्टी के पुनर्गठन का नहीं, बल्कि नये सिरे से निर्माण का प्रश्न केन्द्रीय हो गया है। चीजें कभी अपनी जगह रुकी नहीं रहतीं। वे अपने विपरीत में बदल जाती हैं आज अव्वल तो विचारधारा और कार्यक्रम के विभिन्न प्रश्नों पर बहस-मुबाहसे से एकता कायम होने की स्थिति ही नहीं दिखती और यदि यह हो भी जाये तो एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी नहीं बन सकती क्योंकि कुल मिलाकर, घटक संगठनों-ग्रुपों के बोल्शेविक चरित्र पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है। आज भी क्रान्तिकारी कतारों का सबसे बड़ा हिस्सा मा-ले ग्रुपों-संगठनों के तहत ही संगठित है। यानी कतारों का कम्पोज़ीशन (संघटन) क्रान्तिकारी है, लेकिन नीतियों का कम्पोज़ीशन (संघटन) शुरू से ही ग़लत रहा है और अब उसमें विचारधारात्मक भटकाव गम्भीर हो चुका है। इन्हीं नीतियों के वाहक नेतृत्व का कम्पोज़ीशन ज़्यादातर संगठनों में आज अवसरवादी हो चुका है। इस नेतृत्व से ‘पालिमिक्स’ के ज़रिये एकता के रास्ते पार्टी-पुनर्गठन की उपेक्षा नहीं की जा सकती।