सर्वहारा के महान नेता स्तालिन के जन्मदिवस (21 दिसम्बर) के अवसर पर
जोसेफ स्तालिन : क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के बीच की विभाजक रेखा
सत्यप्रकाश
मज़दूर वर्ग के पहले राज्य सोवियत संघ की बुनियाद रखी थी महान लेनिन ने, और पूरी पूँजीवादी दुनिया के प्रत्यक्ष और खुफिया हमलों, साज़िशों, घेरेबन्दी और फासिस्टों के हमले को नाकाम करते हुए पहले समाजवादी राज्य का निर्माण करने वाले थे जोसेफ स्तालिन। स्तालिन शब्द का मतलब होता है इस्पात का इन्सान – और स्तालिन सचमुच एक फौलादी इन्सान थे। मेहनतकशों के पहले राज्य को नेस्तनाबूद कर देने की पूँजीवादी लुटेरों की हर कोशिश को धूल चटाते हुए स्तालिन ने एक फौलादी दीवार की तरह उसकी रक्षा की, उसे विकसित किया और उसे दुनिया के सबसे समृद्ध और ताकतवर समाजों की कतार में ला खड़ा किया। उन्होंने साबित कर दिखाया कि मेहनतकश जनता अपने बलबूते पर एक नया समाज बना सकती है और विकास के ऐसे कीर्तिमान रच सकती है जिन्हें देखकर पूरी दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले। उनके प्रेरक नेतृत्व और कुशल सेनापतित्व में सोवियत जनता ने हिटलर की फासिस्ट फौजों को मटियामेट करके दुनिया को फासीवाद के कहर से बचाया।
यही वज़ह है कि दुनिया भर के पूँजीवादी स्तालिन से जी-जान से नफरत करते हैं और उन्हें बदनाम करने और उन पर लांछन लगाने तथा कीचड़ उछालने का कोई मौका नहीं छोड़ते। सर्वहारा वर्ग के इस महान शिक्षक और नेता के निधन के 56 वर्ष बाद भी मानो उन्हें स्तालिन का हौवा सताता रहता है। वे आज भी स्तालिन से डरते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि रूस की और दुनिया भर की मेहनतकश जनता के दिलों में स्तालिन आज भी ज़िन्दा हैं। कुछ ही दिन पहले रूसी इतिहास के महानतम व्यक्तित्व का पता लगाने के लिए रूस में लाखों लोगों के बीच कराये गये एक सर्वेक्षण में जब स्तालिन का नाम सबसे आगे आने लगा तो चकराये और घबराये शासक वर्गों ने जोड़-तोड़ करके किसी तरह उन्हें तीसरे नम्बर पर कराया। हाल ही में रूस की यात्रा पर गये कुछ भारतीय पत्रकारों ने लौटकर लिखा है कि इन दिनों रूस में जगह-जगह स्तालिन की मूर्तियाँ लगायी जा रही हैं। दरअसल, रूसी अवाम के दिलों से स्तालिन को कभी हटाया ही नहीं जा सका था। रूस के नये पूँजीपतियों के कुछ लम्पट छोकरों द्वारा कुछ जगहों पर लेनिन और स्तालिन की मूर्तियाँ तोड़े जाने को बुर्जुआ मीडिया ने बार-बार दिखाकर ऐसा समाँ बाँध दिया था मानो पूरे रूस से लेनिन और स्तालिन का नामोनिशान मिटा दिया गया हो
यह अफसोस की बात है कि आज आम घरों के नौजवानों और मज़दूरों में से भी बहुत कम ही ऐसे हैं जो स्तालिन और उनके महान कामों और विश्व क्रान्ति में उनके योगदान के बारे में जानते हैं। बुर्जुआ कुत्सा प्रचार के चलते बहुतों के मन में झूठी धारणाएँ बैठी हुई हैं। बहुतेरे प्रगतिशील बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी निरन्तर और चौतरफा बुर्जुआ प्रचार के कारण पूर्वाग्रह ग्रस्त और भ्रमित हैं। लेकिन क्रान्तिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि स्तालिन को ठीक से समझा जाये और सही पक्ष में खड़ा हुआ जाये। स्तालिन का नाम और उनके काम क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के बीच की विभाजक रेखा बन चुके हैं।
रूसी ज़ार के साम्राज्य की एक उत्पीड़ित राष्ट्रीयता जॉर्जिया के गोरी शहर में 1879 में जन्मे जोसेफ विसारियोनोविच जुगाशविली ने एक युवा क्रान्तिकारी के तौर पर काम करते समय अपना गुप्त नाम स्तालिन रखा था। उनके पिता गाँव के एक ग़रीब मोची थे जो बाद में एक जूता कारख़ाने में मज़दूर बन गये थे। उनकी माँ ज़मीन्दारों के ग़ुलाम भूदासों की बेटी थी। इस तरह स्तालिन ने मज़दूरों और किसानों की ज़िन्दगी को करीब से जाना था और जॉर्जिया से होने के नाते वे सह भी समझते थे कि ज़ारशाही रूस किस तरह अपने साम्राज्य के ग़ैर-रूसी लोगों को उत्पीड़ित करता था।
पादरी बनने के लिए धार्मिक विद्यालय में पढ़ाई करते समय ही, पन्द्रह वर्ष की उम्र में वे भूमिगत मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये और अठारह वर्ष की उम्र में वे रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी में शामिल हो गये जो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी बनी। जल्दी ही स्तालिन ने जॉर्जिया की राजधानी तिफलिस और औद्योगिक शहर बातुम में मज़दूरों को संगठित करना शुरू कर दिया। उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और फिर साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया। लेकिन 1904 में वे साइबेरिया के निर्वासन से पुलिस को चकमा देकर निकल आये और फिर से मज़दूरों को संगठित करने में जुट गये। 1905 की असफल रूसी क्रान्ति के दौरान और उसके कुचले जाने के बाद स्तालिन प्रमुख बोल्शेविक भूमिगत और सैनिक संगठनकर्ताओं में से एक थे। पार्टी से जुड़ने के समय ही स्तालिन ने समझ लिया था कि लेनिन ही क्रान्ति के मुख्य सैद्धान्तिक नेता हैं और पार्टी के भीतर चलने वाले वैचारिक संघर्षों में वे हमेशा पूरी मज़बूती के साथ लेनिन की सही लाइन के पक्ष में खड़े रहे। 1912 में उन्हें केन्द्रीय कमेटी में चुना गया।
फरवरी 1917 में रूस के मज़दूरों और किसानों ने निरंकुश ज़ारशाही के शासन को उखाड़ फेंका। उदारवादी बुर्जुआ वर्ग उनके साथ था और ज़ारशाही के पतन के बाद उसी ने शासन सँभाला। क्रान्तिकारी होने का दावा करने वाली रूस की ज्यादातर पार्टियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि रूसी सर्वहारा वर्ग अभी इतना कमज़ोर और पिछड़ा हुआ है कि वह राजनीतिक सत्ता नहीं सँभाल सकता। उनकी दलील थी कि सर्वहारा को अभी नयी बुर्जुआ सरकार का समर्थन करना चाहिए और पूँजीवादी विकास को आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए। समाजवादी क्रान्ति अभी भविष्य की बात है। बोल्शेविकों के भीतर भी इस तरह के विचार घुसपैठ कर गये थे। मार्च में कैद से छूटकर स्तालिन जब केन्द्रीय कमेटी के निर्देश पर सेण्ट पीटर्सबर्ग में काम सँभालने आये तो उन्होंने पाया कि पार्टी के भीतर तीख़ा आन्तरिक संघर्ष जारी है। उन्होंने लेनिन का पक्ष लिया कि मज़दूर वर्ग को तत्काल समाजवादी क्रान्ति की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। स्तालिन को बोल्शेविकों के अख़बार ‘प्राद्वा’ की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी और उन्होंने इस विचार को व्यापक अवाम के बीच ले जाने के लिए अख़बार का बख़ूबी इस्तेमाल किया। अक्टूबर में जब केन्द्रीय कमेटी ने फैसला कर लिया कि सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूर और सैनिक उसके नेतृत्व में शीत प्रासाद पर धावा बोलकर सर्वहारा सरकार की स्थापना करेंगे तो कई बुद्धिजीवी नेताओं को इससे बड़ी परेशानी हुई। ये लोग क्रान्ति की बातें तो करते रहे थे लेकिन शायद उन्हें उम्मीद नहीं थी कि एक वास्तविक क्रान्तिकारी परिस्थिति उनके सामने खड़ी हो जायेगी। इनमें से दो, ज़िनोवियेव और कामेनेव ने तो बुर्जुआ अख़बारों को बता दिया कि बोल्शेविक सत्ता पर कब्ज़ा करने की गुप्त योजना बना रहे हैं। सत्ता पर कब्ज़े के बाद केन्द्रीय कमेटी के एक और सदस्य राइकोव ने इन दोनों के साथ मिलकर बुर्जुआ पार्टियों से गुप्त समझौता किया जिसके तहत बोल्शेविक सत्ता से इस्तीफा दे देते, प्रेस फिर से बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सौंप दिया जाता और लेनिन को कोई भी पद नहीं सँभालने दिया जाता। लेकिन उनकी एक न चली।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद चले लम्बे गृहयुद्ध के दौरान स्तालिन एक दृढ़निश्चयी, कुशल और प्रेरक सैन्य नेता के रूप में उभरे। त्रात्स्की लाल सेना का प्रमुख था लेकिन मज़दूरों और आम सिपाहियों पर भरोसा करने के बजाय वह ज़ारशाही फौज के अफसरों को अपनी ओर मिलाने और उन्हें क्रान्तिकारी सेना की कमान सौंपने की कोशिशों में ज्यादा समय ख़र्च करता था। जनता के जुझारूपन और साहस पर भरोसा करने के बजाय वह तकनीक पर ज्यादा यकीन करता था। इसका नतीजा था कि लाल सेना को एक के बाद एक हारों का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर स्तालिन मज़दूरों और किसानों के नज़रिये से सैन्य स्थिति को समझते थे और उनकी क्षमताओं और सीमाओं से अच्छी तरह वाकिफ थे।
1919 में स्तालिन को वोल्गा नदी के किनारे महत्वपूर्ण शहर ज़ारित्सिन के मोर्चे पर रसद आपूर्ति बहाल करने की ज़िम्मेदारी देकर भेजा गया। ज़ारित्सिन को क्रान्ति की दुश्मन फौजों ने घेर रखा था और शहर के भीतर भी दुश्मन की ताकतों ने घुसपैठ कर लिया था। स्तालिन ने त्रात्स्की का अतिक्रमण करके फौरन कमान अपने हाथों में सँभाल ली और फौलादी हाथों से काम लेते हुए फौजी अफसरों और पार्टी के भीतर से प्रतिक्रान्तिकारियों को निकाल बाहर किया और फिर शहर और पूरे क्षेत्र को दुश्मन से आज़ाद करा दिया। नाराज़ त्रात्स्की ने स्तालिन को वापस बुलाने की माँग की लेकिन इसके बाद तो स्तालिन को गृहयुद्ध के हर अहम मोर्चे पर भेजा जाने लगा। हर जगह स्तालिन ने फौरन ही क्रान्तिकारी जनता का सम्मान अर्जित कर लिया और कठिनतम परिस्थितियों में भी जीत हासिल करने में उनका नेतृत्व किया। गृहयुद्ध ख़त्म होने तक स्तालिन एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित हो चुके थे जिसे मालूम था कि काम कैसे किया जाता है। यह गुण अभिजात वर्गों से आये उन बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट नेताओं में नहीं था जो अपने को सर्वहारा वर्ग के महान नेता समझते थे। अप्रैल 1922 में स्तालिन को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी का जनरल सेक्रेटरी बनाया गया।
लेनिन के निधन के बाद रूस में समाजवाद का निर्माण जारी रखने के सवाल पर पार्टी के भीतर एक तीख़ा संघर्ष छिड़ गया। त्रात्स्की और उसके समर्थकों का कहना था कि सर्वहारा वर्ग अकेले सोवियत संघ में शासन में टिका नहीं रह सकेगा और वे यूरोप के सर्वहारा वर्ग के उठ खड़े होने पर उम्मीदें लगाये हुए थे। दूसरी ओर स्तालिन का मानना था कि शोषित-उत्पीड़ित किसानों की भारी आबादी क्रान्ति में रूसी सर्वहारा का साथ देगी और सोवियत जनता अपने बूते पर न केवल समाजवाद का निर्माण करने में सक्षम है बल्कि देश के भीतर और बाहर के ताकतवर दुश्मनों से उसकी हिफाज़त भी कर सकती है। पार्टी के भीतर के निराशावादियों और बाहरी प्रतिक्रान्तिकारियों की हरचन्द कोशिशों और साज़िशों के बावजूद इतिहास ने साबित किया कि स्तालिन सही थे।
जब बोल्शेविकों ने 1917 में सत्ता सँभाली थी तो पूरे रूसी साम्राज्य की हालत ख़स्ता थी। रूस के बड़े शहरों में अराजकता और बदहाली का आलम था। नयी सरकार काम शुरू करती, इसके पहले ही ज़मीन्दारों, पूँजीपतियों और पुराने शासन के जनरलों ने पूरी ताकत जुटाकर उस पर हमला बोल दिया। ब्रिटेन, फ्रांस, जापान और पोलैण्ड की एकजुट फौजों के साथ-साथ अमेरिका और दर्जनभर दूसरे पूँजीवादी देशों की सैनिक टुकड़ियों ने भी मज़दूरों के राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए रूस पर चढ़ाई कर दी।
तीन साल तक पूरा सोवियत संघ गृहयुद्ध की लपटों में झुलसता रहा। 1920 में गृहयुद्ध ख़त्म हुआ तो खेती की उपज आधी रह गयी थी, जबकि क्रान्ति के पहले ही खेती की हालत इतनी ख़राब थी कि किसानों की भारी आबादी भयंकर ग़रीबी में डूबी रहती थी। उद्योग की हालत तो और भी बुरी थी। बहुत सी खदानें और कारख़ाने तबाह हो गये थे। यातायात और परिवहन की दशा ख़राब थी। बड़े पैमाने के उद्योग की पैदावार गृहयुद्ध के पहले के मुकाबले 1/7 रह गयी थी। क्रान्ति के बाद बड़े जागीरदारों की ज़मीनें छीनकर किसानों में बाँट दी गयी थीं लेकिन अब गाँवों के पूँजीपति जिन्हें कुलक कहते थे, किसानों को फिर से उज़रती ग़ुलामी और असामीगीरी में वापस धकेल रहे थे। आधुनिक उद्योग, खेती, स्वास्थ्य और शिक्षा को विकसित करने के लिए ज़रूरी तकनीकी ज्ञान और कौशल कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित थे जिनमें से ज्यादातर समाजवाद के ख़िलाफ थे। मेहनतकश जनता की भारी आबादी अशिक्षित थी। सोवियत संघ दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था और ताकतवर पूँजीवादी देशों ने उसकी घेरेबन्दी कर रखी थी। ज्यादातर देशों ने उसकी आर्थिक नाकेबन्दी की हुई थी, उसे मान्यता देने से भी इन्कार करते थे और पूरी पूँजीवादी दुनिया में ”लाल शैतानों” का नामोनिशान मिटा देने के दावे किये जा रहे थे। उस वक्त दुनिया की हालत ऐसी थी कि पूँजीवादी राष्ट्रों के अलावा ज्यादातर देश उनके उपनिवेश या नवउपनिवेश थे।
जब 1953 में स्तालिन का निधन हुआ, तो सोवियत संघ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी औद्योगिक, वैज्ञानिक और सैन्य ताकत था और इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि इन सभी क्षेत्रों में वह जल्दी ही अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। और यह ज़बरदस्त तरक्की तब हुई थी जब दूसरे महायुद्ध के दौरान फासिस्टों को पराजित करने में उसे इतना भीषण नुकसान उठाना पड़ा जो किसी भी अन्य देश को कई दशकों तक पीछे धकेलने के लिए काफी था। युद्ध में सोवियत जनता ने अपने दो करोड़ बेहतरीन बेटे-बेटियों को गँवाया था और उसके आर्थिक संसाधनों की भारी तबाही हुई थी। लेकिन चन्द ही वर्षों में स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत जनता ने नये-नये चमत्कार रचते हुए सोवियत संघ को फिर से अगली कतार में जा खड़ा किया। देश से भुखमरी और अशिक्षा पूरी तरह ख़त्म हो चुके थे। खेती का पूरा सामूहिकीकरण हो चुका था और उसकी पैदावार कई गुना बढ़ चुकी थी। सभी नागरिकों को नि:शुल्क बेहतरीन चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी। हर स्तर पर शिक्षा मुफ्त थी। सोवियत संघ में दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा किताबें छपती थीं और वहाँ बोली जाने वाली हर भाषा में छपती थीं। बेरोज़गारी, महँगाई, वेश्यावृत्ति, नशाख़ोरी आदि का तो 1930 के दशक तक ही ख़ात्मा हो चुका था। दुनिया में पहली बार महिलाओं को चूल्हे-चौखट की दासता से निजात मिली थी और वे जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही थीं। विश्वयुद्ध की भीषण तबाही और उथल-पुथल के दौरान और उसके बाद भी सोवियत संघ की विभिन्न राष्ट्रीयताओं की जनता एकजुट थी। यह सब कुछ स्तालिन के कुशल नेतृत्व में ही सम्भव हो सका था।
सोवियत संघ दुनियाभर की संघर्षरत जनता के लिए प्रेरणा और मदद का सम्बल बना हुआ था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीन की जनता साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के जुवे को उखाड़ फेंक चुकी थी। कोरिया, वियतनाम और पूरे हिन्दचीन में साम्राज्यवादी ताकतें पीछे हट रही थीं। विश्वयुद्ध के दौरान फासिस्टों को खदेड़ रही सोवियत सेना की मदद से स्थानीय कम्युनिस्टों के नेतृत्व में लड़ रही छापामार शक्तियों ने पूर्वी यूरोप के राजतन्त्रों और फासिस्ट सैनिक तानाशाहियों को उखाड़ फेंका था और इन सभी देशों में लोक जनवादी सत्ताएँ कायम हो चुकी थीं। उपनिवेशों और नवउपनिवेशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष आगे डग भर रहे थे और दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हो चुकी थी। अफ्रीका महाद्वीप की जनता जाग उठी थी। पूरी दुनिया की लड़ रही जनता एक स्वर से स्तालिन को अपना दोस्त और नेता मानती थी।
इसीलिए स्तालिन सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के मंसूबे रखने वालों की राह की सबसे बड़ी बाधा थे और पूरी दुनिया के बुर्जुआओं की आँखों में लगातार खटकते थे। स्तालिन से हुई कुछ सैद्धान्तिक चूकों और परिस्थितियों के भयंकर दबाव में हुई कुछ ग़लतियों का फायदा उठाकर रूस में पार्टी और समाज के भीतर उभरे नये पूँजीवादी तत्तवों ने स्तालिन के निधन के बाद 1956 में सोवियत संघ में सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने इतिहास की धारा को पलट दिया और करोड़ों मेहनतकशों की कुर्बानी के दम पर बने समाजवादी जनतन्त्र को एक पूँजीवादी देश में बदल डाला। अपने इस घिनौने काम को जायज़ ठहराने के लिए ज़रूरी था कि वे स्तालिन को ग़लत साबित करें और उनके ख़िलाफ लोगों के मन में नफरत पैदा करें। पूरी दुनिया के पूँजीपतियों ने ख़ुशी-ख़ुशी इस काम में उनका साथ दिया और आज तक उनका यह झूठा अभियान जारी है।
लेकिन झूठ की अपनी तमाम फैक्ट्रियों को दिनोरात चलाकर भी वे दुनिया की मेहनतकश जनता के दिलों से स्तालिन की याद को और उनकी शिक्षाओं को कभी मिटा नहीं सकेंगे। मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ की दिखायी राह पर चलते हुए दुनिया के मज़दूर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को चकनाचूर करके समाजवाद का निर्माण करेंगे और शोषणविहीन, वर्गविहीन कम्युनिस्ट समाज के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ेंगे। यही इतिहास का नियम है और ऐसा होकर रहेगा।
बिगुल, दिसम्बर 2009
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