अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगाँठ (7 नवम्बर) के अवसर पर
अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण का रास्ता ही मुक्ति का रास्ता है!
आज से नब्बे वर्ष पहले, 24 अक्टूबर 1917 (नये कैलेण्डर के अनुसार 7 नवम्बर 1917) को, जब रूस के मेहनतकश अवाम ने क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग और उसकी क्रान्तिकारी राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में शोषकों-पूँजीपतियों की सत्ता को धूल में मिलाकर अपना राज कायम किया था तो धरती पर एक नया विहान उतर आया था। सदियों के अंधेरे को चीरकर पूरब के आसमान में उगे इस सूरज की प्रखर रोशनी में दुनिया भर के सर्वहारा वर्ग और समस्त शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय ने अपनी मुक्ति के रास्ते को साफ-साफ पहचाना था।
भूख-कुपोषण, अपमान-लाचारी, युद्ध-अकाल-महामारी से मुक्त एक नयी दुनिया का सपना देखने वाले, पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की विभीषिकाओं से मुक्ति का मार्ग तलाशने वाले बग़ावती नौजवान और जागरूक मेहनतकश जब भी इतिहास की ओर मुड़कर देखते हैं तो बीसवीं शताब्दी में सम्पन्न दोनों महान प्रवृत्ति-निर्धारक क्रान्तियों – 1917 क़ी रूसी क्रान्ति और 1949 की चीनी क्रान्ति का आलोक उन्हें बरबस अपनी ओर खींचता है। इसलिए दुनिया भर का बुर्जुआ शासक वर्ग और उनका अन्तरराष्ट्रीय मीडिया इन क्रान्तियों और उनके नेताओं को कलंकित करने व उनका चरित्र हनन करने के लिए अपनी सारी सर्जनात्मक प्रतिभा को झोंके रहता है। स्कूलों-कालेजों के पाठयपुस्तकों से लेकर तमाम पुस्तकालयों तक मार्क्सवाद विरोधी व रूसी-चीनी क्रान्ति विरोधी या कम्युनिज्म विरोधी कचरा-साहित्य की सप्लाई निरन्तर जारी है। टी. वी., इण्टरनेट आदि के ज़रिये आयी तथाकथित संचार क्रान्ति ने अन्तरराष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग की कम्युनिज्म विरोधी प्रचार-क्षमता को अभूतपूर्व रूप से बढ़ा दिया है। इतना सब कुछ के बावजूद दुनिया के सर्वहारा वर्ग की यादों से सर्वहारा क्रान्तियों को मिटाया नहीं जा सका और न ही नयी दुनिया का सपना देखने वाली नयी पीढ़ी तक इन क्रान्तियों के प्रकाश फंजों को पहुँचने से रोका जा सका।
महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया की तमाम सम्पदा का उत्पादक मेहनतकश जनसमुदाय सर्वहारा वर्ग की अगुवाई में और उसके हिरावल दस्ते – एक सच्ची, इंकलाबी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में स्वयं शासन-सूत्र भी सम्हाल सकता है तथा अपने भाग्य और भविष्य का नियन्ता स्वयं बन सकता है। महान अक्टूबर क्रान्ति ने यह साबित किया कि मालिक वर्गों को समझा-बुझाकर नहीं बल्कि उनकी सत्ता को बलपूर्वक उखाड़कर और उनपर बलपूर्वक अपनी सत्ता (सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व) कायम करके ही पूँजीवाद के जड़मूल से नाश की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है और समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है।
अक्टूबर क्रान्ति ने पूँजीपतियों और उनके पहले के तमाम मालिकों द्वारा हज़ारों वर्षों के दौरान जनता में कूट-कूटकर भरी गयी इस बात को झूठा साबित किया कि मेहनतकश लोग सिर्फ काम कर सकते हैं, ”ज्ञानी” लोगों की मदद से राजकाज चलाना तो मालिक लोगों का काम है। राज्यसत्ता पर काबिज होने के बाद महान लेनिन की बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सोवियत संघ के मज़दूरों और मेहनतकश जनता ने न केवल पश्चिमी पूँजीवादी देशों के संयुक्त हमले का मुकाबला किया और उनके समर्थन से तोड़फोड़ की कार्रवाइयों में लगे देशी प्रतिक्रियावादियों को कुचल डाला, बल्कि भुखमरी और अकाल झेलकर भी साम्राज्यवादियों की आर्थिक नाकेबन्दी के सामने घुटने नहीं टेके और दिन-रात एक करके समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया। दस वर्षों के भीतर उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाने का खात्मा करके विविध रूपों में सामाजिक मालिकाना कायम कर दिया गया।
जल्दी ही, शुरुआती संकटों से उबरकर समाजवाद आगे को लम्बे डग भरने लगा। पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान, उद्योग और कृषि के क्षेत्र में उत्पादन-वृद्धि के ऐसे रिकार्ड कायम हुए जिन्होंने औद्योगिक क्रान्ति को भी मीलों पीछे छोड़ दिया। यह पूँजीवादी प्रचार एकदम झूठा साबित हुआ कि सर्वहारा वर्ग के राज्य के मालिकाने वाले कारखाने और सामूहिक खेती में उत्पादन का काम सुचारु रूप से चल ही नहीं सकता। काम न केवल सुचारु रूप से चला, बल्कि उत्पादन-वृद्धि की ऐसी रफ्तार दुनिया ने पहले कभी नहीं देखी थी।
केवल आर्थिक प्रगति और समानता के स्तर पर ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी सोवियत संघ ने चमत्कारी उपलब्धियां हासिल कीं, जिन्हें पश्चिमी पूँजीवादी देशों के बुर्जुआ बुद्धिजीवियों और अखबारों को भी स्वीकार करना पड़ा। वेश्यावृत्ति और यौनरोगों का और बलात्कार जैसे अपराधों का पूरी तरह खात्मा हो गया। शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा पूरी आबादी को समान स्तर पर मुहैया की जाने लगी। आम मज़दूरों के लिए तरह-तरह के नाटक, फिल्म व सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार किये जाने लगे और उन्हें मनोरंजन और घर-परिवार के लिए पर्याप्त समय भी मिलने लगा। ज्यादा से ज्यादा बड़े पैमाने पर स्त्रियाँ चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी से मुक्त होकर उत्पादन के अतिरिक्त अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी हिस्सा लेने लगीं।
समाजवाद की अस्थायी हार और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का दौर फिर भी बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल!
स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में खु्रश्चेव के नेतृत्व में एक नये किस्म के पूँजीपति वर्ग का शासन कायम हो गया। ये पार्टी और राज्य मशीनरी के नौकरशाह थे जो लाल झण्डा, पार्टी और समाजवाद की आड़ लेकर वास्तव में जनता की सम्पत्ति के मालिक बन बैठे थे। यह नये किस्म का राजकीय पूँजीवाद था। 1990 आते-आते यह राजकीय पूँजीवाद खुले निजी पूँजीवाद में बदल गया। सभी नकाब और मुलम्मे उतर गये। असलियत सामने आ गयी। सोवियत संघ भी टूट गया।
यह वह दौर था, जब न केवल पूर्वी यूरोप के देशों में खुला पूँजीवाद बहाल हो गया था, बल्कि 1976 में माओ त्से-तुङ की मृत्यु के बाद चीन में भी ”बाजार समाजवाद” के नाम पर पूँजीवाद बहाल हो चुका था। दुनिया भर के साम्राज्यवादियों और पूँजीपतियों के भोंपू लगातार चीखने लगे कि समाजवाद को हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर दिया गया, कि अक्टूबर क्रान्ति की मशाल हमेशा-हमेशा के लिए बुझा दी गयी। क्या यह सच है?
इतिहास कहता हैनहीं! पहले भी ऐसा कई बार हुआ है कि क्रान्तिकारी वर्ग अपनी अन्तिम जीत के पहले सत्ताधारी वर्गों से कई बार परास्त हुए हैं। पहले भी कई बार क्रान्तियों का पहला चक्र अधूरा या असफल रह गया है और फिर उनके नये चक्र ने इतिहास के नये युग की शुरुआत की है। स्वयं पूँजीवाद सामन्तवाद से तीन सौ वर्षों तक लड़ने और कई-कई बार पराजित होने के बाद ही अन्तिम जीत हासिल कर सका।
सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच के विश्व-ऐतिहासिक महासमर का अभी पहला चक्र पूरा हुआ है। नया चक्र अब शुरू हुआ है। पूरी दुनिया में अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों का निर्माण अवश्यम्भावी है।
पर इतना ही कहना काफी नहीं। आज विश्व स्तर पर चरम संकटग्रस्त पूँजीवाद मेहनतकशों पर जो कहर बरपा कर रहा है, उससे निजात पाने के लिए अक्टूबर क्रान्ति की मशाल से नयी क्रान्तियों का दावानल भड़काना होगा। और इसके लिए ज़रूरी है कि मेहनतकश अवाम और उसका इन्कलाबी हिरावल दस्ता समाजवाद की फिलहाली हार के सभी कारणों को भलीभाँति समझे।
समाजवादी समाज में जारी वर्ग-संघर्ष और पूँजीवाद की फिर से बहाली में पार्टी के भीतर के बुर्जुआ वर्ग की भूमिका
समाजवाद दरअसल पूँजीवाद और वर्ग-विहीन समाज (कम्युनिज्म) के बीच का एक लम्बा समय होता है जिसमें खेतों-कारखानों पर निजी मालिकाने के खात्मे के बावजूद अभी विभिन्न छोटे स्तरों पर निजी स्वामित्व मौजूद रहता है, अन्तर एवं असमानताएँ मौजूद रहती हैं, बाजार व मुद्रा मौजूद रहते हैं, शारीरिक श्रम व मानसिक श्रम जैसे भेद मौजूद रहते हैं, तनख्वाहों में अन्तर बना रहता है, पुरानी आदतें व संस्कार मौजूद रहते हैं, वर्ग-संघर्ष जारी रहता है तथा इस तरह पूँजीवाद के एक या दूसरे रूप में बहाली का खतरा भीतर से भी बना रहता है। (बाहरी साम्राज्यवादी हमले या तोड़फोड़ का खतरा तो लगातार रहता ही है)।
समाजवादी समाज में मौजूद बुर्जुआ वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी कम्युनिस्ट पार्टी व राज्य के नेतृत्व में मौजूद वे लोग करते हैं जो अपने ओहदे के विशेषाधिकारों-सुविधाओं के ग़ुलाम बन चुके होते हैं, जो ख़ुद नौकरशाह बन चुके होते हैं, जो वर्ग संघर्ष को तिलांजलि देकर शान्तिपूर्ण विकास की वकालत करते हैं। ये खुद ही एक किस्म के बुर्जुआ वर्ग होते हैं – पार्टी के भीतर के बुर्जुआ वर्ग, जो लाल झण्डा, पार्टी और समाजवाद की आड़ में जनता को ठगकर साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की ”ऐतिहासिक” सेवा करते हैं। रूस में ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव ने और चीन में देघसियाओ-पिघ और उसके उत्तराधिकारियों ने यही काम किया।
संशोधनवादी और हर तरह के नकली कम्युनिस्ट वे भितरघाती हैं जो मज़दूरों की लड़ाई को अन्दर से कमजोर करके पूँजीपतियों की सेवा करते हैं! यही वे नकली कम्युनिस्ट हैं, जिन्होंने न केवल समाजवाद को तबाह करके विश्व पूँजीवाद की सेवा की है, बल्कि क्रान्ति होने के पहले भी, यही भितरघाती, मज़दूरों की हर लड़ाई को भीतर से कमजोर करते रहे हैं, उनकी पीठ में चाकू भोंकने का काम करते रहे हैं। रूस के मेन्शेविकों, जर्मनी के कार्ल काउत्स्की और ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव, देङ सियाओ-पिङ तथा हमारे देश के डाँगे-ज्योति बसु-सुरजीत-करात-बर्द्धन आदि की नस्ल और बिरादरी एक है।
आज भी यह बात पूरी दुनिया और हमारे देश के सन्दर्भ में सही है। समाजवाद को बदनाम करने के लिए पूँजीवादी प्रचार तंत्र ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव और देङ आदि संशोधनवादियों के सभी कुकर्मों की तोहमत समाजवाद के मत्थे मढ़ रहा है। हमारे देश में भी ज्योति बसु और प्रकाश करात से लेकर तक इन्द्रजीत गुप्त और ए.बी बर्द्धन तक – इन सबके पाप का घड़ा कम्युनिज्म के मत्थे फोड़कर कम्युनिज्म के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों को बदनाम किया जाता है। यूरोप से लेकर भारत तक – ये सभी किसिम-किसिम के नकली कम्युनिस्ट बुर्जुआ संसदों के सुअरबाड़ों में बरसों से लोट लगा रहे हैं और अब तो प्राय: सरकारों में शामिल होकर उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को लागू करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पहले तो यह पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में छिपकर काम करते थे और कम्बल ओढ़कर घी पीते थे। अब यह सब कुछ खुलेआम हो रहा है। इसका लाभ यह है कि मेहनतकश जनता, जो मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों से अपरिचित है, वह भी इनकी करनी से इनका असली चरित्र पहचानने लगी है।
नकली वामपन्थियों का भण्डाफोड़ लगातार करो! ट्रेड यूनियनों से अर्थवाद-सुधारवाद और नौकरशाही को उखाड़ फेंको!!
फिर भी सर्वहारा क्रान्तिकारियों को निश्चिन्त होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के बिखरे होने और कमजोर होने के कारण, बहुतेरे मेहनतकश भाकपा-माकपा जैसी पार्टियों और एटक-सीटू आदि के नेताओं को ही कम्युनिस्ट समझते हैं। व्यापक मज़दूर आबादी को कम्युनिज्म के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों से और संशोधनवाद-अर्थवाद की असलियत से परिचित कराने के लिए क्रान्तिकारी प्रचार की कार्रवाई जरूरी है।
मज़दूर यूनियनों में अभी भी इन्हीं अर्थवादी ट्रेड यूनियन नेताओं की नौकरशाही हावी है, जिन्होंने मज़दूर वर्ग को सिर्फ आर्थिक माँगों की लड़ाई तक ही सीमित रखकर उसे उसके राजनीतिक संघर्ष के कार्यभार और पूँजी के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष के ऐतिहासिक मिशन से एकदम अपरिचित रखा है। इनके असली चरित्र को जानने के बाद मज़दूर वर्ग निराश होकर या तो बुर्जुआ ट्रेडयूनियनों की ओर जा रहा है या फिर अराजकतावादी ढंग के आन्दोलन-उभार का रास्ता अपना रहा है। इसके बजाय मज़दूर वर्ग क्रान्तिकारी आधार पर ट्रेड यूनियन आन्दोलन के पुनर्निर्माण का रास्ता अपनाये, व्यापक मज़दूर एकता के नारे को अमली जामा पहनाये और जनवादी तौर-तरीकों के द्वारा ट्रेड यूनियन नौकरशाही की जड़ ही खोद डाले – इसके लिए मज़दूर आबादी के बीच व्यापक क्रान्तिकारी प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई चलानी होगी। और यह काम उनके बीच जाकर उनके रोजमर्रे के आर्थिक और राजनीतिक माँगों के संघर्षों में सक्रिय भागीदारी के साथ-साथ करना होगा।
ट्रेड यूनियन आन्दोलन का क्रान्तिकारीकरण भी वही मज़दूर वर्ग कर सकता है जो राजनीतिक संघर्ष के अपने कार्यभार को भी समझे और अपने वर्ग संगठन के सबसे उन्नत रूप के तौर पर एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी के निर्माण की ज़रूरत को महसूस करे। कहा जा सकता है कि ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण के कार्यभार और एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण एवं गठन से सम्बन्धित कार्यभार एकदम अलग-अलग न होकर एक-दूसरे से अनेक रूपों में जुड़े हुए हैं।
आज हालात ऐसे हैं कि मज़दूर यदि नीतियाँ बनाने वाली पूँजीवादी राज्य मशीनरी के ख़िलाफ राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ेगा, तो अलग-अलग बँटकर लड़ता हुआ अपनी छोटी-छोटी आर्थिक माँगें भी नहीं मनवा पायेगा! यह एक अच्छी बात है कि आज भारतीय शासक वर्ग की आर्थिक नीतियों ने ख़ुद ही ऐसी अनुकूल स्थिति पैदा कर दी है कि मज़दूर वर्ग राजनीतिक अधिकारों के संघर्ष के लिए प्रचार को स्वीकार करने के लिए पहले हमेशा से अधिक तैयार होता जा रहा है। निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ संकटग्रस्त विश्व पूँजीवाद की नीतियाँ हैं जो भारत में भी मेहनतकश जनता के सामने छँटनी-तालाबन्दी, बेरोज़गारी और महँगाई का अभूतपूर्व कहर बरपाना शुरू कर चुकी हैं। मेहनतकश अवाम समझता जा रहा है कि अब सिर्फ वेतन-वृद्धि और चन्द सुविधाओं के लिए लड़ने पर वह भी नहीं मिलने वाला। अब वेतन-वृद्धि की आंशिक लड़ाई भी तभी जीती जा सकती है जब पूरी आर्थिक नीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी जाये, रोज़गार के बुनियादी अधिकार को मुद्दा बनाया जाये और जनविरोधी नीतियों को बनाने और लागू करने वाली राज्य मशीनरी के ख़िलाफ संगठित हुआ जाये। हालात ऐसे बन रहे हैं कि मज़दूर वर्ग ट्रेड यूनियन के धन्धेबाज़ों की गिरफ्त से बाहर आकर इस सच्चाई को आसानी से समझ और पकड़ सकता है।
भाँति-भाँति के अर्थवादी, उदारवादी, सुधारवादी नकली कम्युनिस्टों और मज़दूर नेताओं से अपना पीछा छुड़ाये बग़ैर भारतीय मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति की राह पर, अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण केनिर्माण की राह परआगे नहीं बढ़ सकता। उसे ट्रेड यूनियन आन्दोलन से नौकरशाही और अर्थवाद-सुधारवाद को उखाड़ फेंकना होगा। अलग-अलग ट्रेड यूनियनों की दलगत दुकानदारियों में मज़दूरों को बाँटने की साज़िश को पहचानकर व्यापक मज़दूर एकता और जनवाद के आधार पर संगठित होना होगा। अक्टूबर क्रान्ति की अनवरत जलती मशाल आह्वान कर रही है कि सिर्फ आर्थिक लड़ाई लड़ने के बजाय अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ो, मज़दूर विरोधी आर्थिक नीतियाँ बनाने वाली राज्यसत्ता के ख़िलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ो! क्रान्तिकारी विचारधारा के मार्गदर्शक सिद्धान्त और क्रान्तिकारी पार्टी की राजनीतिक ज़रूरत को पहचानो! देश स्तर पर सर्वहारा वर्ग की एक क्रान्तिकारी पार्टी फिर से खड़ी करने के लिए आगे आओ। भारत के मज़दूर वर्ग को आह्वान को सुनना होगा और इस मशाल को थामकर आगे बढ़ना होगा।
बिगुल, नवम्बर 2009
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