Category Archives: इतिहास

मई दिवस अनुष्ठान नहीं, संकल्पों को फ़ौलादी बनाने का दिन है!

भारतवर्ष में सर्वहारा क्रान्तिकारी की जो नयी पीढ़ी इस सच्चाई की आँखों में आँखें डालकर खड़ा होने का साहस जुटा सकेगी, वही नयी सर्वहारा क्रान्तियों के वाहक तथा नयी बोल्शेविक पार्टी के घटक बनने वाले क्रान्तिकारी केन्द्रों के निर्माण का काम हाथ में ले सकेगी। वही नया नेतृत्व क्रान्तिकारी क़तारों को एक नयी एकीकृत पार्टी के झण्डे तले संगठित करने में सफ़ल हो सकेगा। इतिहास अपने को कभी हूबहू नहीं दुहराता और यह कि, सभी तुलनाएँ लंगड़ी होती हैं – इन सूत्रों को याद रखते हुए हम कहना चाहेंगे कि मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी फि़र से खड़ी करने में हमें अपनी पहुँच-पद्धति तय करते हुए रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उस दौर से काफ़ी कुछ सीखना होगा, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में गुज़रा था। बोल्शेविज़्म की स्पिरिट को बहाल करने का सवाल आज का सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल है।

मीना किश्‍वर कमाल : वर्जनाओं के अंधेरे में जो मशाल बन जलती रही

सपनों पर पहरे तो बिठाये जा सकते हैं लेकिन उन्‍हें मिटाया नहीं जा सकता। वर्जनाओं के अंधेरे चाहे जितने घने हों, वे आजादी के सपनों से रोशन आत्‍माओं को नहीं डुबा सकते। यह कल भी सच था, आज भी है और कल भी रहेगा। अफगानिस्‍तान के धार्मिक कठमुल्‍लों के “पाक” फरमानों का बर्बर राज भी इस सच का अपवाद नहीं बन सका। मीना किश्‍वर कमाल की समूची जिन्‍दगी इस सच की मशाल बनकर जलती रही और लाखों अफगानी औरतों की आत्‍माओं को अंधेरे में डूब जाने से बचाती रही।

बिगुल पुस्तिका – 5 : मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी फ्रांस की राजधानी पेरिस में इतिहास में पहली बार 1871 में मज़दूरों ने अपनी हुकूमत क़ायम की। हालांकि पेरिस कम्यून सिर्फ 72 दिनों तक टिक सका लेकिन इस दौरान उसने दिखा दिया कि किस तरह शोषण-उत्पीड़न, भेदभाव-गैरबराबरी से मुक्त समाज क़ायम करना कोरी कल्पना नहीं है। पेरिस कम्यून की पराजय ने भी दुनिया के मजदूर वर्ग को बेशकीमती सबक सिखाये। पेरिस कम्यून का इतिहास क्या था, उसके सबक क्या हैं, यह जानना मज़दूरों के लिए बेहद ज़रूरी है। यह पुस्तिका इसी जरूरत को पूरा करने की एक कोशिश है। पुस्तिका में संकलित लेख ‘नई समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की पत्रिका ‘दायित्वबोध’ से लिये गये हैं।

यह एक गाथा है… पर आप सबके लिए नहीं!

यह गाथा आपमें से बस उनके लिए है जो ज़िन्दगी से प्यार करते हैं और जो आज़ाद इन्सानों की तरह जीना चाहते हैं। आप सबके लिए नहीं, आपमें से बस उनके लिए, जो हर उस चीज़ से नफरत करते हैं, जो अन्यायपूर्ण और ग़लत है, जो भूख, बदहाली और बेघर होने में कोई कल्याणकारी तत्व नहीं देखते। आपमें से उनके लिए, जिन्हें वह समय याद है, जब एक करोड़ बीस लाख बेरोज़गार सूनी आँखों से भविष्य की ओर ताक रहे थे। यह एक गाथा है, उनके लिए, जिन्होंने भूख से तड़पते बच्चे या पीड़ा से छटपटाते इन्सान की मन्द पड़ती कराह सुनी है। उनके लिए, जिन्होंने बन्दूक़ों की गड़गड़ाहट सुनी है और टारपीडो के दागे जाने की आवाज़ पर कान लगाये हों। उनके लिए, जिन्होंने फासिज्म द्वारा बिछायी गयी लाशों का अम्बार देखा है। उनके लिए, जिन्होंने युद्ध के दानव की मांसपेशियों को मज़बूत बनाया था, और बदले में जिन्हें एटमी मौत का ख़ौफ दिया गया था। यह गाथा उनके लिए है। उन माताओं के लिए जो अपने बच्चों को मरता नहीं बल्कि ज़िन्दा देखना चाहती हैं। उन मेहनतकशों के लिए जो जानते हैं कि फासिस्ट सबसे पहले मज़दूर यूनियनों को ही तोड़ते हैं। उन भूतपूर्व सैनिकों के लिए, जिन्हें मालूम है कि जो लोग युद्धों को जन्म देते हैं, वे ख़ुद लड़ाई में नहीं उतरते। उन छात्रों के लिए, जो जानते हैं कि आज़ादी और ज्ञान को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। उन बुद्धिजीवियों के लिए, जिनकी मौत निश्चित है यदि फासिज्म ज़िन्दा रहता है। उन नीग्रो लोगों के लिए, जो जानते हैं कि जिम-क्रो’ और प्रतिक्रियावाद दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन यहूदियों के लिए जिन्होंने हिटलर से सीखा कि यहूदी विरोध की भावना असल में क्या होती है। और यह गाथा बच्चों के लिए, सारे बच्चों के लिए, हर रंग, हर नस्ल, हर आस्था-धर्म के बच्चों के लिए उन सबके लिए लिखी गयी है, ताकि उनका भविष्य जीवन से भरपूर हो, मौत से नहीं।

बिगुल पुस्तिका – 4 : मई दिवस का इतिहास

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और कम्युनिस्ट साहित्य के प्रकाशक अलेक्ज़ेंडर ट्रैक्टनबर्ग द्वारा 1932 में लिखित यह पुस्तिका मई दिवस के इतिहास, उसके राजनीतिक महत्व और मई दिवस के बारे में मज़दूर आन्दोलन के महान नेताओं के विचारों को रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है।

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा – इवान वसील्येविच बाबुश्किन – बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता

रूस में जिन थोड़े से उन्नत चेतना वाले मज़दूरों ने कम्युनिज़्म के विचारों को सबसे पहले स्वीकार किया और फिर आगे बढ़कर पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ता की भूमिका अपनायी तथा पूरा जीवन पार्टी खड़ी करने और क्रान्ति को आगे बढ़ाने के काम में लगाया उनमें पहला नाम इवान वसील्येविच बाबुश्किन (1873-1906) का आता है। 1894 में बाबुश्किन जब कम्युनिस्ट बना तो उसकी उम्र महज़ 21 वर्ष थी।

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा – रॉबर्ट शा: विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास के मील के पत्थरों में से एक

रॉबर्ट शा उन राजनीतिक चेतनासम्पन्न मज़दूरों में से एक थे जिन्होंने पहले इण्टरनेशनल के निर्माण के पहले ही ब्रिटिश सुधारवादी ट्रेड यूनियनवादी नेताओं के प्रभाव एवं वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया था। रॉबर्ट शा उन थोड़े से ब्रिटिश मज़दूर नेताओं में शामिल थे जो चार्टिस्ट या समाजवादी विचार रखते थे और महज़ अपने-अपने कारखानों में वेतन और सुधार की माँग के लिए लड़ने के बजाय मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता और व्यापक वर्गीय हितों के लिए साझा संघर्ष की वकालत करते थे। इन नेताओं ने जर्मन और फ़्रांसीसी मज़दूरों और पोलिश आप्रवासियों के साथ सम्पर्क स्थापित किये। यह पहले इण्टरनेशनल की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम था।

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा – जोहान फि़लिप्प बेकर

जोहान फिलिप्प बेकर एक जर्मन मज़दूर थे जिन्होंने तीसरे दशक में युवावस्था की दहलीज़ पर क़दम रखने के साथ ही मज़दूरों के बीच उभर रही आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। उनकी राजनीतिक चेतना लगातार आगे विकसित होती रही। 1848-1849 में जब पूरे यूरोप में क्रान्तियों का दावानल भड़क उठा तो बेकर ने उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जर्मनी में क्रान्तिकारी उभार के उतार के बाद वे स्विट्ज़रलैण्ड जाकर बस गये।

मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी

पेरिस कम्यून में शामिल मेहनतकशों ने राजकाज चलाकर, बेहद महत्वपूर्ण व मौलिक फ़ैसले लेकर अपार सर्जनात्मकता का परिचय दिया था। यदि उनका मार्गदर्शन करने वाली सही विचारधारा से लैस एक क्रान्तिकारी पार्टी होती तो यह प्रयोग आगे बढ़ सकता था। पर अपने छोटे से जीवन में भी कम्यून ने यह तो साबित ही कर दिखाया कि पुरानी दुनिया को खाक में मिलाने के बाद व्यापक मेहनतकश अवाम की सामूहिक शक्ति और सामूहिक मेधा एक नई दुनिया का भी ढांचा खड़ा कर सकती है, एक नये जीवन का भी ताना-बाना बुन सकती है।

नई मज़दूर क्रान्ति की राह भी रौशन करती रहेगी पेरिस कम्यून की मशाल !

आज के समय में पेरिस कम्यून के आदर्श और मॉडल को याद करना विशेष प्रासंगिक है। समाजवादी क्रान्तियों की फ़ौरी पराजय और खासकर, पूंजीवाद की खुली बहाली के बाद, जब से पूरी दुनिया में निजीकरण-उदारीकरण का शोर मचा हुआ है, तब से मजदूर आन्दोलन के नेतृत्व पर काबिज सामाजिक जनवादी और तरह-तरह के बुर्जुआ सुधारवादी भी यह कहने लगे हैं कि इन घोर मजदूर-विरोधी नीतियों को स्वीकारने के अतिरिक्त मजदूर वर्ग के पास और कोई चारा नहीं है। समाजवाद और क्रान्ति का तो जैसे उन्होंने नाम ही भुला दिया है। उनके अनुसार, मजदूर वर्ग का लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा “कल्याणकारी राज्य” के बुर्जुआ मॉडल को पूरी तरह तोड़े जाने से बचाना है, सब्सिडी और रियायतों में कटौती को रोकना है और अपने ही भाइयों की छंटनी और रोजगार में कटौती की शर्तों पर अपनी तनख्वाहें बढ़वाना है।