दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत के 70 वर्ष पूरे होने के मौके पर
इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की पूँजीवादी कोशिशों के बावजूद इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता
हिटलर को हराकर दुनिया को फासीवाद के राक्षस से मजदूरों के राज ने ही बचाया था
आनन्द सिंह
साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा आपस में दुनिया के बँटवारे के लिए छेड़े गये महाविनाशकारी द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के 70 वर्ष पूरे होने के मौके पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने एक बार फिर यह झूठा प्रचार शुरू कर दिया कि स्तालिन ने हिटलर के साथ समझौता करके उसे युद्ध छेड़ने का मौका दिया। इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर उनहोंने एक तरफ तो इस युद्ध में फासिस्टों के खिलाफ जीत का श्रेय खुद लेने की कोशिश की और दूसरी ओर तत्कालीन मजदूरों के राज्य सोवियत संघ की नीतियों को युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराने की धूर्ततापूर्ण कोशिश भी की। दरअसल ऐसा करके साम्राज्यवादी देश एक तीर से दो निशाने साधने की की फिराक में रहे हैं। एक तरफ तो वे अपने ख़ून से रंगे हाथों को विश्व की आम जनता से छिपाना चाहते हैं, दूसरी ओर वे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के कहर से त्रस्त जनता के मन में समाजवादी विचारों की बढ़ती हुई लोकप्रियता को कम करने के लिए इसे समाजवाद के खिलाफ कुत्सा-प्रचार का हथकण्डा बनाना चाहते हैं।
सच्चाई यह है कि अपनी दो करोड़ जनता की बलि चढ़ाकर सोवियत संघ ने फासिस्ट जर्मनी की सबसे बड़ी फौज का कहर अकेले झेलते हुए न सिर्फ दुनिया में मजदूरों के पहले राज्य की रक्षा की बल्कि हिटलरशाही को नेस्तनाबूद करके पूरी दुनिया को फासीवादी बर्बरता से बचाया।
सच तो यह है कि स्तालिन हिटलर के सत्ता पर काबिज होने के समय से ही पश्चिमी देशों को लगातार फसीवाद के ख़तरे से आगाह कर रहे थे लेकिन उस वक्त तमाम पश्चिमी देश हिटलर के साथ न सिर्फ समझौते कर रहे थे बल्कि उसे बढ़ावा दे रहे थे। स्तालिन पहले दिन से जानते थे कि हिटलर समाजवाद की मातृभूमि को नष्ट करने के लिए उस पर हमला जरूर करेगा। उन्होंने आत्मरक्षार्थ युद्ध की तैयारी के लिए थोड़ा समय लेने के वास्ते ही हिटलर के साथ अनाक्रमण सन्धि की थी जबकि दोनों पक्ष जानते थे कि यह सन्धि कुछ ही समय की मेहमान है। यही वजह थी कि सन्धि के बावजूद सोवियत संघ में समस्त संसाधनों को युद्ध की तैयारियों में लगा दिया गया था। दूसरी ओर, हिटलर ने भी अपनी सबसे बड़ी और अच्छी फौजी डिवीजनों को सोवियत संघ पर धवा बोलने के लिए बचाकर रखा था। इस फौज की ताकत उस फौज से कई गुना थी जिसे लेकर हिटलर ने आधे यूरोप को रौंद डाला थां रूस पर हमले के बाद भी पश्चिमी देशों ने लम्बे समय तक पश्चिम का मोर्चा नहीं खोला क्योंकि वे इस इन्तजार में थे कि हिटलर सोवियत संघ को चकनाचूर कर डालेगा। जब सोवियत फौजों ने पूरी सोवियत जनता की जबर्दस्त मदद से जर्मन फौजों को खदेड़ना शुरू कर दिया तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों ने मोर्चा खोला।
दरअसल इस युद्ध के लिए साम्राज्यवादी ताकतों की आपसी होड़ जिम्मेदार थी। ऱंस, ब्रिटेन, अमेरिका ने अपनी पूँजी विस्तार की हवस को मिटाने के लिए अपनी सैन्य ताकत के धौंस पर प्रथम विश्व युद्ध में विश्व का विभाजन कर लिया था। लेकिन इस बलपूर्ण विभाजन से जर्मनी, जापान व इटली नाखुश थे और अपनी अपमानजनक हार का बदला लेने के लिए तथा विश्व का पुनर्विभाजन अपनी शर्तों पर करने के मकसद से इस गुट ने द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत की। यही नहीं उनकी योजना सभी देशों में फासीवादी तानाशाही कायम करने की थी। जर्मनी उराल तक समस्त यूरोप पर कब्जा करने का ख्वाब देख रहा था। इटली ”रोम साम्राज्य के पुनर्जन्म” के बारे में सोच रहा था जिसमें अफ्रीकी महाद्वीप, निकट-मध्य तथा बाल्कन प्रायद्वीप शामिल होते जिसके फलस्वरूप भूमध्य सागर इटली का भीतरी सागर बन जाता। दूसरी ओर जापान प्रशान्त महासागर तथा उराल तक एशिया में आधिपत्य जमाना चाहता था। ब्रिटेन, अमेरिका व ऱंस अपने साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धियों को परास्त करने और इन देशों के आक्रमण को सोवियत संघ की ओर मोड़ने की उम्मीद रखते थे।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात 28 जून, 1919 को वर्साई की शान्ति संधि हुई जो जर्मनी के लिहाज से बहुत अपमानजनक थी। इस संधि के फलस्वरूप जर्मनी को अपने युद्धपूर्व क्षेत्रफल के आठवें हिस्से और आबादी के बारहवें हिस्से से हाथ धोना पड़ा। उसके सभी उपनिवेश छिन गये, टैगो और कैमरून को ब्रिटेन और ऱंस ने आपस में बाँट लिया। युद्ध में जान-माल ही हानि के लिए उसे भारी हरजाना देने पर विवश किया गया। जर्मनी की सशस्त्र सेनाओं की सीमा बाँध दी गयी थी। वास्तव में यह विजित पर विजेता की हुक्मशाही थी जिसे लेनिन ने एक लुटेरी सन्धि कहा था। इस अपमानजनक सन्धि की वजह से जर्मन जनता में गहरा असन्तोष था जिसे आगे चलकर नाजियों ने बुर्जुआ जनवादी सरकार के विरुद्ध भुनाया। इसके अतिरिक्त वर्साई संधि के द्वारा नवगठित सोवियत राज्य पर पश्चिमी शक्तियों के प्रभाव में स्थित प्रतिक्रियावादी सरकारों द्वारा शासित छोटे देशों का एक तथाकथित संघरोध घेरा बनाया गया था। एक तरह से यह एक कम्युनिज्म विरोधी दीवार और सोवियत रूस पर हमले के लिए स्प्रिंगबोर्ड बनाने की साजिश थी। वर्साई संधि के निर्माता यह दावा करते रहे कि वह युध्दों को हमेशा के लिए खत्म कर देगी लेकिन जैसा कि आगे साबित हुआ कि वर्साई में ही विश्व के पुनर्विभाजन के लिए विनाशकारी युध्दों की नींव रखी गयी थी।
मार्च 1939 में सोवियत संघ ने फासीवाद विरोधी गठबन्धन बनाने पर बातचीत शुरू की, लेकिन ऱंस और ब्रिटेन ने पुन: ढुलमुल रवैया अपनाया। दरअसल ये देश ”मुँह में राम बगल में छुरी” को चरितार्थ कर रहे थे। जून-अगस्त 1939 में गुप्त आंग्ल-जर्मन वार्ता हुई जिसका मकसद था ब्रिटेन के साम्राज्य की अखण्डता कायम करने के लिए हिटलर को पूर्वी मोर्चे पर खुली छूट। लेकिन हिटलर ने चालाकी दिखाते हुए पहले पश्चिमी देशों से निपटने का फैसला लिया और 20 अगस्त को अप्रत्याक्रमण सन्धि का प्रस्ताव रखा जिसे बाद में सोवियत संघ ने इसलिए स्वीकार कर लिया जिससे कि उसे अपनी सेना को लामबन्द करने और युद्ध सामग्री के उत्पादन को बढ़ाने में समय मिल सके।
पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों और फासिस्ट गुट के अन्तरविरोधों की परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में सामने आयी। सितम्बर 1939 को हिटलर की सेनाओं ने पोलैण्ड पर हमला बोल दिया। 3 सितम्बर 1939 को ऱंस और ग्रेट ब्रिटेन ने पोलैण्ड की सहायता का वादा करते हुए जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। लेकिन युद्ध की घोषणा के बावजूद पश्चिमी देश हिटलर को ”पूर्वी अभियान” शुरू करने के लिए उकसा रहे थे। इस दौर में पश्चिमी देशों के युद्ध के दिखावे को सित्सक्रीग (बैठे-बैठे युद्ध), फोनी वार (नकली युद्ध) इत्यादि नामों से जाना जाता है। इन परिस्थितियों में पोलैण्ड का एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। इसलिए सोवियत सेना ने कोई और चारा न देख 17 सितम्बर 1939 को पोलैण्ड की सीमा पार कर ली। इस प्रकार मुक्ति का निदान आरम्भ हुआ। परिणामस्वरूप पश्चिमी उक्रेन तथा पश्चिमी बेलारूस का पुनर्मिलन उक्रेनी तथा बेलारूस के सोवियत समाजवादी जनतंत्रों से हुआ। इसके अतिरिक्त बाल्टिक देशों में भी युद्ध प्रारम्भ होते ही नाजी जर्मनी की घुसपैठ बढ़ गयी जिसकी वजह से उन देशों की जनता में आक्रोश का माहौल था। इसकी परिणति जनविद्रोह के रूप में हुई जिसके द्वारा नाजी समर्थक सरकारों का तख्तापलट हुआ। जुलाई 1940 में इन देशों की लोकतांत्रिक संसदों ने सोवियत संघ से सोवियत समाजवादी जनतंत्र संघ में सम्मिलित करने का अनुरोध किया जिसे सोवियत संघ ने स्वीकार कर अपनी सामरिक स्थिति सुदृढ़ की।
दूसरी ओर फासिस्ट ताकतें एक के बाद एक नये क्षेत्रों पर कब्जा करती जा रही थीं। मई 1940 तक जर्मन सेना डेनमार्क, नार्वे, बेल्जियम और लक्जेमबर्ग तक पहुँच चुकी थी। 10 जून 1940 को जर्मन टैंक पेरिस के नजदीक पहुँच चुके थे। साथ ही साथ इटली ने भी ऱंस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। ऱंस की प्रतिक्रियावादी सरकार इन आक्रमणों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए जनता की लामबन्दी करने में असमर्थ थी। 14 जून 1940 को ऱंस ने बिना किसी प्रतिरोध के पेरिस को जर्मनों के सुपुर्द कर दिया। इस तरह ऱंस के दो-तिहाई हिस्से पर जर्मन सेना का कब्जा हो गया।
ऱंस के आत्मसमर्पण के पश्चात समूचे विश्व में फासिस्ट ताकतों की बढ़त का खतरा मँडराने लगा। जिन नाजी नागों को पश्चिम साम्राज्यवादी देशों ने पाला पोसा था उन्होंने ही इन देशों को डस लिया। विशेषकर ग्रेट ब्रिटेन की हालत बहुत ही दयनीय थी। जर्मन पनडुब्बियाँ सागर में ब्रिटिश जहाजों को एक-एक करके डुबोती जा रही थीं। अगस्त 1940 में जर्मन सेना ने लंदन, बर्मिंघम आदि प्रमुख ब्रिटिश शहरों पर बड़े पैमाने पर बमबारी की।
दिन पर दिन बढ़ते फासिस्ट खतरे से निपटने के लिए समूचे विश्व की जनता अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बना रही थी। रूजवेल्ट और चर्चिल की सरकारों ने 22 जून 1941 को सोवियत संघ के समर्थन की अधिकृत घोषणा की। 7 दिसम्बर 1941 को जापान ने प्रशान्त महासागर में अमेरिका के मुख्य नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया। कुछ ही घण्टों में प्रशान्त महासागर का सम्पूर्ण नौसैनिक बेड़ा नष्ट हो गया। थोड़े ही समय में जापान ने मलाया, बर्मा, फिलीपींस, इण्डोनेशिया आदि पर कब्जा कर लिया।
हिटलर और पश्चिमी सैन्य राजनीतिक विशेषज्ञों की राय थी कि जर्मनी तीन महीने के अन्दर सोवियत संघ पर विजय प्राप्त कर लेगा। इस दम्भ का कारण जर्मन सेनाओं की अत्याधुनिक सैन्य शक्ति थी। पश्चिमी देशों द्वारा युद्ध में दूसरा मोर्चा खोलने में जान-बूझकर देरी करने से जर्मनी को यह मौका मिल गया कि वह अपनी सैन्य शक्ति का अधिकतम हिस्सा सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में झोंके। पश्चिमी देशों की इस मौकापरस्ती को माओ ने पहाड़ की चोटी पर बैठकर नीचे शेरों की लड़ाई देखने के समान बताया था। परन्तु भविष्य की घटनाओं ने सिद्ध किया कि हिटलर का सोवियत संघ पर आक्रमण करना एक पागल सियार की भाँति था जो मति मारी जाने पर गाँव की ओर भागता है। हालाँकि शुरुआती दौर में सोवियत सेना हारती नजर आ रही थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया सोवियत संघ की स्थिति सुदृढ़ होती गयी। स्तालिन ने स्वयं मास्को की रक्षा का संचालन किया और लाल सेना की बागडोर अपने हाथ में ली। युद्ध के खतरे से निपटने के लिए राज्य सुरक्षा समिति बनायी गयी जिसके अध्यक्ष स्वयं स्तालिन थे। उन्होंने समाजवादी मातृभूमि की रक्षा के लिए उठ खड़े होने का सोवियत जनता का आह्नान किया। फासिस्टों से सिर्फ सोवियत फौज ही नहीं लड़ रही थी। पूरी जनता ही इस लड़ाई में शामिल हो गयी थी। हजारों छोट-बड़े छापामार दस्तों ने जर्मन सेना पर हमले कर-करके उनकी ताकत निचोड़ डाली और उनकी सप्लाई की लाइनें काट डालीं।
स्तालिनग्राद में महीनों चली लड़ाई में जर्मनों की हार के साथ ही सोवियत संघ से उनको खदेड़ने का सिलसिला शुरू हो गया।
अमेरिकी जनरल डगलस मैकार्थर ने भी माना था कि जितने बड़े पैमाने पर और जिस शौर्य के साथ स्तालिनग्राद का युद्ध लड़ा गया था उससे जो सैनिक उपलब्धियाँ हासिल हुईं वे समूचे इतिहास में अप्रतिम थीं। 1941 में जब नाजियों ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया था तो पूँजीवादी जगत यह आस लगाये बैठा था कि कुछ ही समय में साम्यवाद का सफाया हो जायेगा लेकिन हिटलर के साथ-साथ पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने भी सोवियत समाजवाद की ताकत और अपने समाज की हर कीमत पर रक्षा करने वाले सोवियत जनता की अकूत इच्छाशक्ति को कम करके ऑंका था।
स्तालिनग्राद की निर्णायक लड़ाई में नाजी सेना को पटखनी देने के बाद 1944 की शुरुआत में लाल सेना को कई जीतें मिलीं। लेनिनग्राद नाकेबन्दी से मुक्त कर लिया गया। उक्रेन भी पूरी तरह से मुक्त हो गया। इसी तरह चेकोस्लोवाकिया और रूमानिया भी मुक्त हुए। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के मन में मजदूर क्रान्ति का भूत फिर सताने लगा। ऐसे में ब्रिटेन, ऱंस व अमेरिका ने आख़िरकार ऱंस के उत्तरी तटक्षेत्र में सैनिक उतारकर दूसरा मोर्चा खोला। 6 जून 1944 को नार्मंडी में पश्चिमी देशों की सेनाओं ने जर्मन सेना को शिकस्त दी। नार्मंडी की विजय को पश्चिमी साम्राज्यवादी द्वितीय विश्व युद्ध का सबसे निर्णायक मोड़ बताते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हिटलर को निर्णायक शिकस्त स्तालिनग्राद की लड़ाई में ही मिल चुकी थी और उसके बाद उसकी हार लगभग सुनिश्चित थी।
जर्मनी के आत्मसमर्पण करने के बाद जापान की हार सुनिश्चित होने के बावजूद अमेरिका ने 6 और 8 अगस्त को क्रमश: हिरोशिमा और नागासाकी शहरों में परमाणु बम गिराये जिससे अकूत जानमाल की हानि हुई। दरअसल यह मानवद्रोही कार्यवाई युध्दोपरान्त विश्व के शक्ति सन्तुलन में अमेरिका को चौधराहट कायम करने के मकसद से की गयी थी। युद्ध के दौरान सोवियत संघ की निर्णायक भूमिका से उसकी प्रतिष्ठा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत बढ़ गयी थी। यहाँ तक पश्चिमी मीडिया में स्तालिन को ‘अंकल जो’ करके सम्बोधित किया जाता था। लेकिन सोवियत संघ की बढ़ती प्रतिष्ठा साम्राज्यवादियों के लिए अशुभ संकेत था और इसीलिए शक्ति सन्तुलन अपने पक्ष में करने के लिए अमेरिकी शासकों ने नागरिक आबादी पर अणु बम फेंकने जैसे घृणित कार्य को अंजाम दिया।
निचोड़ के तौर पर यह कहा जा सकता है कि युद्ध और हिंसा पूँजीवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्था की ही उपज है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात हालाँकि पूरे विश्व के स्तर पर कोई युद्ध नहीं हुआ लेकिन साम्राज्यवादी अन्तरविरोध लगातार विश्व के किसी ने किसी हिस्से में जनता पर विनाशकारी युद्ध थोपते रहे हैं। कोरिया, वियतनाम, फिलीस्तीन, ईरान, इराक और अफगानिस्तान के युध्दों के अलावा अफ्रीका के कई देशों में बरसों से जारी गृहयुद्ध भी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा उकसाये और भड़काये गये हैं और कई में इनकी सीधी भागीदारी रही है।
साम्राज्यवादी शासक इतिहास को मनगढ़न्त रूप से पेश कर अपने ख़ून से रंगे हाथों को कितना भी धोने की कोशिश कर लें, पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट द्वारा पैदा मानवद्रोही युद्ध लगातार उनकी कलई खोलते रहेंगे। मानवता को युद्ध और हिंसा से निजात पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में मिल ही नहीं सकती। पूँजीवादी व्यवस्था को दफनाकर ही एक शान्तिपूर्ण युद्धरहित विश्व की कल्पना की जा सकती है।
बिगुल, अक्टूबर 2009
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