Category Archives: मज़दूर बस्तियों से

स्मार्ट सिटी के नाम पर ग़रीबों को उजाड़ रही राजस्थान सरकार

दूसरी बात यह है कि कच्ची बस्ती में रहने वाले लोग भी इस देश के नागरिक हैं, इसलिए उनको रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और आवास की सुविधा देना इस सरकार की जि़म्मेदारी है। सरकार शहरों को आधुनिक बनाये, सड़कों को चौड़ा करे, यातायात की व्यवस्था को ठीक करे – इससे जनता को कोई परहेज़ नहीं है, लेकिन ऐसा करने की प्रक्रिया में सरकार यदि आम जनता को उजाड़े और प्रभावशाली लोगों को भाँति-भाँति की छूटें, रियायतें, लाभ आदि दे, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार केवल धनपशुओं की सरकार है, जो धनी तबक़ों के हितों की रक्षा करने के लिए ग़रीबों को कुचलती है।

गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है।

लुधियाना में राजीव गाँधी कालोनी के हज़ारों मज़दूर परिवार बस्ती उजाड़ने के खि़लाफ़ संघर्ष की राह पर

इस कालोनी में दस हज़ार से अधिक परिवार रहते हैं। कालोनी निवासियों के राशन कार्ड, वोटर कार्ड, बिजली मीटर, आधार कार्ड बने हुए हैं। यहाँ धर्मशाला के निर्माण व अन्य कामों के लिए सरकारी ग्राण्टें भी जारी होती रही हैं। जब कारख़ाना मालिकों को ज़रूरत थी, तो यहाँ फ़ोकल प्वाइण्ट के बिल्कुल बीच सरकारी ज़मीन पर मज़दूर बस्ती बसने दी गयी। लोगों ने अपनी मेहनत से पक्के घर बना लिये। अब जब पूँजीपतियों को इस बेशक़ीमती ज़मीन की ज़रूरत आन पड़ी है, तो कालोनी तोड़ने की कोशिश की जा रही है।

मैं काम करते-करते परेशान हो गया, क्योंकि मेहनत करने के बावजूद पैसा नहीं बच पाता

मैं बिहार का रहने वाला हूँ। 2010 में मजबूरी के कारण पहली बार अपना गाँव छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। मुझे दुनियादारी के बारे में पता नहीं था। कुछ दिन काम की तलाश में दिल्ली में जगह-जगह घूमे और अन्त में वज़ीरपुर में झुग्गी में रहने लगे। गाँव के मुक़ाबले झुग्गी में रहना बिल्कुल अलग था, झुग्गी में आठ-बाय-आठ कमरा था। पानी की मारामारी अलग से थी। यहीं मुझे स्टील प्लाण्ट में काम भी मिल गया। यहाँ तेज़ाब का काम होता था जिसमें स्टील की चपटी पत्तियों को तेज़ाब में डालकर साफ़ किया जाता है। तेज़ाब का धुआँ लगातार साँस में घुलता रहता है और काम करते हुए अन्दर से गला कटता हुआ महसूस होता है। तेज़ाब कहीं गिर जाये तो अलग समस्या होती है। पिछले हफ़्ते तेज़ाब में काम करते हुए मेरी आँख में तेज़ाब गिर गया था। आँख जाते-जाते बची है। मालिक और मुनीम की गालियाँ अलग से सुननी पड़ती हैं।

ज़हर उगल रहे बायो वेस्ट प्लाण्ट को बन्द कराने नगरनिगम के दफ़्तर तक निकाली रैली

दरअसल मुम्बई के अन्दर भी दो मुम्बई बसती हैं। एक तरफ़ तो कोलाबा अँधेरी जैसे उच्च वर्ग के इलाक़े हैं। जिनको चमकाने के लिए गोवण्डी मानखुर्द जैसे इलाक़ों का मज़दूर-मेहनतकश वर्ग अपनी हड्डियाँ गलाता है। पर दूसरी तरफ़ ख़ुद एक नारकीय ज़िन्दगी जीने को मजबूर होता है। मुम्बई के मेट्रो फ़ेज 3 के लिए कोलाबा, अँधेरी में काटे जा रहे पेड़ों की ख़बर तो बनती है पर 2009 से गोवण्डी मानखुर्द के निवासियों की साँसों में घुल रहे ज़हर की सुध लेने वाला कोई नहीं है। गोवण्डी में ही देओनार डम्पिंग ज़ोन भी मौजूद था जहाँ हर दिन 7,500 टन कूड़ा डाला जाता था। मिडिल क्लास कॉलोनी को चकाचक रखने के लिए मज़दूर रिहाइशी इलाक़ों को कूड़ाघर बनाके रखा जाता है।

मुम्बई के ग़रीबों के फेफड़ों में ज़हर घोल रहे बायोवेस्ट ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट को बन्द करवाने के लिए शुरू हुआ संघर्ष

यूँ तो इससे पहले भी इस प्लाण्ट को हटाने के लिए आन्दोलन हुए हैं। पर उन आन्दोलनों की शुरुआत ज़्यादातर चुनावी पार्टियों या फिर एनजीओ ने की थी। इसीलिए वे दिखावेबाज़ी के बाद जल्द ही ख़त्म हो गये। क्योंकि एनजीओं हों या फिर चुनावी पार्टी, उनको फ़ण्डिंग करने का काम बड़े-बड़े उद्योगपति घराने ही करते हैं। जो कम्पनी इस प्लाण्ट को चला रही है, उसका भी हर साल का मुनाफ़़ा लगभग 50 करोड़ है। इसलिए नौजवान भारत सभा व बिगुल मज़दूर दस्ता के नेतृत्व में इलाक़े के नौजवानों ने तय किया है कि किसी चुनावी पार्टी या एनजीओ के पिछलग्गू बने बिना ख़ुद स्थानीय गली कमेटियाँ बनाते हुए एक जुझारू आन्दोलन खड़ा करना होगा। पिछले कुछ दिनों से ये आन्दोलन चलाया जा रहा है व आशा है कि जनता की ताक़त के सामने पूँजी की ताक़त झुकेगी और ग़रीबों-मेहनतकशों को भी स्वच्छ हवा का अधिकार मिलेगा।

ग़रीबों की बस्ती ईडब्ल्यूएस कालोनी (लुधियाना) में बुरी रिहायशी परिस्थितियाँ और सरकारी व्यवस्था बेरुख़ी

दुनिया की ख़ूबसूरत इमारतों का निर्माण करने वाले, अपने हाथों से मिट्टी से अनाज, पत्थरों से हीरे तराशने वाले, बंजर ज़मीन को इंसान के रहने लायक बनाने वाले सृजकों के अपने रहने की जगहों की परिस्थितियाँ बहुत भयानक हैं। दुनिया के किसी भी कोने में देख लीजिए हर जगह मज़दूरों-मेहनतकशों के साथ धक्केशाही होती है। दुनिया की ज़रूरतें पूरी करने के लिए दिन-रात एक करके अपनी जान की बाज़ी लगाकर, ख़तरनाक मशीनों पर अपने हाथ-पैर कटाकर काम करने वाले मज़दूर ख़ुद सभी बुनियादी ज़रूरतों से वंचित रह जाते हैं। जिस जगह वे अपने परिवार के साथ समय बिताने व आराम करने के लिए रहे हैं वहाँ के हालात शब्दों में बयान नहीं किये जा सकते। ऐसी ही हालत लुधियाना की ईडब्ल्यूएस कालोनी (आर्थिक तौर पर कमज़ोर लोगों की कालोनी) की है।

स्वच्छता अभियान की देशव्यापी नौटंकी के बीच मुम्बई में सार्वजनिक शौचालय में गिरकर लोगों की मौत

मुम्बई के ज़्यादातर सार्वजनिक शौचालय बनाये तो म्हाडा या बीएमसी द्वारा जाते हैं पर उन्हें चलाने का ठेका एनजीओ या प्राइवेट कम्पनियों को दिया गया है। बेहद ग़रीब इलाक़े में एकदम जर्जर शौचालय के लिए भी ये ठेकेदार 2, 3 से 5 रुपया चार्ज लेते हैं। पूरी मुम्बई में सार्वजनिक शौचालयों से सालाना लगभग 400 करोड़ की कमाई होती है। जाहिर है कि ये इन कम्पनियों के लिए बेहद मुनाफ़़ेे का सौदा है जहाँ ख़र्च कुछ भी नहीं है और कमाई इतनी ज़्यादा है।

विकास के नाम पर मुम्बई में ग़रीबों की झोपड़ियाँ बनायी जा रही है निशाना

अमीरों के कारख़ानों के लिए कौड़ियों के दाम ज़मीन देने वाली सरकारें ग़रीबों से उनके रहने की कुछ गज ज़मीन छीनने के लिए जिस तरह के हथकण्डे अपनाती है वो अपने आप में इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताता है। मुम्बई जैसे शहरों में रहने वाले ग़रीबों को अगर अपने लिए आत्मसम्मान की जि़न्दगी हासिल करनी है तो उन्हें सिर्फ़ अपनी झोपड़ी बचाने के लिए ही नहीं बल्कि इस पूरी व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचना होगा।

मज़दूर इलाक़े में मज़दूर साथियों के साथ के कुछ अनुभव

गुडगाँव, शायद एशिया के सबसे बड़े मॉलों के लिए जाना जाता है, यहाँ पर आपको भारत की सबसे बड़ी मीनारें दिख जायेंगी लेकिन इसी शहर के निम्न-मध्यवर्गीय से लेकर मज़दूर इलाकों तक यह हालत एक सामान्य बात है। हम मेट्रो में जब लौट रहे थे, तो गुडगाँव के गुरुग्राम बनने की बात याद आ गयी। इस बार शायद ‘गऊ-ग्राम’ ठीक रहेगा। गाय जैसा सफ़ेद, उसके मूत्र जैसा स्वास्थ्य-वर्धक और गोबर जैसा पवित्र!!