Category Archives: मज़दूर बस्तियों से

शाहाबाद डेयरी में नारकीय हालत में रहते मज़दूर

शाहबाद डेयरी, मज़दूर-मेहनतकश बहुल झुग्गी इलाक़ा है। दिल्ली की तमाम कोठियों को चमकाने वाले घरेलू कामगार भी यहाँ रहते हैं। झुग्गियों में रहने वाली इस मेहनतकश आबादी के हालात पर ग़ौर करें तो यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ये लोग एक नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। आज केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार हो या दिल्ली में सत्तासीन आम आदमी पार्टी सरकार, इन्होंने हमें ठगने के अलावा कुछ नहीं किया है।

नागरिकता संशोधन क़ानून का बवाना जे.जे. कॉलोनी के ग़रीब मेहनतकशों की ज़िन्दगी पर असर!

मोदी सरकार अपनी फ़ासीवादी नीति को विस्तारित करते हुए जो एनआरसी और सीएए क़ानून लेकर आयी है, उसके परिणाम मेहनतकश आबादी के लिए भयानक होंगे। इसी वजह से आज ख़ासतौर पर अल्पसंख्यक समुदाय में डर का माहौल है।

नोएडा की 13 कॉलोनियों में पाँच वर्षों से बिजली के लिए नागरिकों का संघर्ष जारी

नोएडा की 13 कॉलोनियों में पाँच वर्षों से बिजली के लिए नागरिकों का संघर्ष जारी – सत्येन्द्र सार्थक उत्तर प्रदेश के नोएडा में 50,000 से अधिक की आबादी वाली 13…

‘अन्‍वेषण’:कला के असली सजर्कों तक कला को ले जाने की अनूठी पहल

यह कविता दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में छात्र-युवा कलाकारों की संस्था ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स लीग’ द्वारा शुरू की गई मुहिम ‘अन्‍वेषण’ को सटीक ढंग से अभिव्यक्त करती है। ‘अन्‍वेषण’ का मक़सद कला को आर्ट गैलरी की दीवारों से बाहर उतारकर ज़िन्दगी के बीच लाना है। इस मुहि‍म का मक़सद जीवन की बुनियादी शर्तों को रचने वाले सर्जकों के बीच जाकर जीवन के गरम ताप से कला को सींचना है। हमने अन्‍वेषण के तहत बवाना, वज़ीरपुर, नांगलोई के औद्योगिक क्षेत्रों में, इन इलाक़ों से सटे रिहायशी क्षेत्रों में फोटोग्राफ़ी की, स्‍केच बनाये, चित्र बनाये और लोगों से कला के बारे में, उनकी ज़िन्दगी के बारे में बातचीत की। इस दौरान किये गये कलाकर्म को लोगों के बीच प्रदर्शित भी किया। इस दौरान हमारे जो अनुभव रहे उन्हें हम यहाँ साझा कर रहे हैं।

एक तरफ़ बढ़ती बेरोज़गारी है और दूसरी तरफ़ लाखों शहरी नौजवानों को गुज़ारे के लिए दो-दो जगह काम करना पड़ रहा है

दिन के समय वो एक प्रायवेट अस्पताल में अटेंडेंट का काम करता है और शाम को ओला बाइक चलाता है। प्रायवेट अस्पताल में उसको संडे तक की छुट्टी नहीं मिल पाती और अक्सर इमरजेंसी कहके उसे संडे को भी काम करने बुलाया जाता है। उसे अस्पताल से दस हज़ार रुपये की तनख़्वाह मिलती है और रोज़ सवेरे 8 बजे से शाम 5 बजे तक लगातार काम रहता है । शाम को 5 बजे से रात के 10 बजे तक श्रीकांत ओला बाइक चलाता है जिससे उसे दिन के 300 रुपए तक मिल जाते हैं ।

गतिविधि रिपोर्ट – शिक्षा सहायता मण्डल, हरिद्वार

मेहनतकशों के बच्चों में पढ़ने की दिलचस्पी होने के बावजूद भी मज़दूर बस्तियों में चलने वाले सरकारी-अर्द्धसरकारी स्कूलों की दुर्दशा की वजह से वे बेहतर शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। इसको बदलने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में ‘सबको नि:शुल्क और एकसमान शिक्षा’ के नारे के साथ एक बड़े आन्दोलन की शुरुआत करनी होगी तभी मेहनतकशों के बच्चों को बेहतर शिक्षा हासिल हो सकती है।उल्लेखनीय है कि ऐसे ‘शिक्षा सहायता मण्डल’ बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की ओर से उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र आदि के अनेक ज़िलों में भी चलाये जा रहे हैं।

हौज़री के मज़दूरों की ज़िन्दगी की एक झलक

पिछले हफ़्ते बुखार होने के कारण वह बीमार रहा पर फिर भी वेतन घटने के कारण छुट्टी नहीं कर सका। इस स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए सबसे पहला असर खाने पर पड़ा है, पहले हफ़्ते में दो-तीन बार अण्डा-मीट बना लिया जाता था पर अब सिर्फ़ एक दिन इतवार को ही बनता है। कपड़े वग़ैरा भी मज़दूरी के वक़्त ही सिलवाये जाते हैं। ज़रूरतें कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, पर फिर भी परिवार का गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है।

एक पंजाबी मज़दूर के शब्द ‘प्रवासी मज़दूरों ने पंजाब को गन्दा कर दिया है’ – क्या वाक़ई ऐसा है?

प्रवास करना मज़दूरों का शौक़ नहीं मजबूरी है। दूसरे मज़दूरों का पंजाब आना और पंजाबी मज़दूरों का विदेशों में जाना पूँजीवादी ढाँचे की नीतियों के कारण ही है। अगर आदमी को उसकी पारिवारिक रिहाइश के पास काम मिलेगा तो वह प्रवास नहीं करेगा, वो उसी जगह काम करने को तरजीह देगा और ऐसे विवाद भी खड़े नहीं होंगे। पर पूँजीवादी ढाँचे के अन्तर्गत विकास असमान होता है। पूँजीपति सस्ती श्रम शक्ति के साथ-साथ कारख़ाने के लिए सस्ते कच्चे माल की उपलब्धता, आवागमन के साधन, तैयार माल के लिए मण्डी, स्थानीय सरकार का कारख़ाने के प्रति नरम रुख़ आदि को ध्यान में रखकर ही कारख़ाना लगाता है ना कि लोगों के रोज़गार की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर। यह असमान विकास कुछ क्षेत्रों में ज़्यादा तरक़्क़ी और कुछ को पीछे ले जाता है। यह पिछड़े हुए क्षेत्र उन्नत क्षेत्रों की तरफ़ सस्ती श्रम शक्ति के लगातार प्रवाह को यक़ीनी बनाते हैं। पक्के रोज़गार का न मिलना और पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप छोटे-मोटे धन्धों का चौपट होना है इस प्रवाह को और तेज़ कर देता है। आज हमारे देश के ऐसे ही हालात हैं।सारे नागरिकों को पक्का रोज़गार, मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ देना सरकार की ज़िम्मेदारी और लोगों का संवैधानिक

संगठित होकर ही बदल सकती है घरेलू मज़दूरों की बुरी हालत

घरेलू मज़दूरों के सिर्फ़ श्रम की ही लूट नहीं होती बल्कि उन्हें बुरे व्यवहार का सामना भी करना पड़ता है। गाली-गलोच, मारपीट आदि आम बात है। जाति, क्षेत्र, धर्म आधारित भेदभाव का बड़े स्तर पर सामना करना पड़ता है। घरेलू स्त्री मज़दूरों को शारीरिक शोषण का सामना भी करना पड़ता है। चोरी-डकैती के मामले में सबसे पहले शक इन मज़दूरों पर ही किया जाता है और उन्हें मालिकों और पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया जाता है।

मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार

मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार – लालचन्द्र 2014 में अच्छे दिन के नारे के साथ भाजपा सत्ता में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद…