‘ब्राण्डेड’ कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

राजकुमार

गुड़गाँव के उद्योग विहार से लेकर मानेसर तक लगभग दस हजार कम्पनियों में लाखों मजदूर काम करते हैं। इस पूरे इलाके में देश के कई कोनों से आकर काम ढूढ़ने वाले मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यू.पी., बिहार, हरियाणा, बंगाल, मधय प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा जैसे कई राज्यों से काम की तलाश में आने वाले ज्यादातर मजदूर इस क्षेत्र में नये होते हैं और उन्हें अपने अधिाकारों और श्रम कानूनों की कोई जानकारी नहीं होती और न ही उनके सामने आजीविका कमाने का कोई और विकल्प होता है, इसलिये वे किसी भी शर्त पर कारखानों में काम करने के लिए तैयार रहते हैं। गुड़गाँव के इस क्षेत्र में मौजूद सभी कम्पनियाँ इसका पूरा फायदा उठा रही हैं और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपनी मनमर्जी के मुताबिक मजदूरों से काम करवा रही हैं और देश की जीडीपी में अपनी मोटी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। आटोमोबाइल और मेडिकल जैसे कई उद्योगों के साथ कपड़ा उद्योग से जुड़ी अनेक कम्पनियाँ इस औद्योगिक क्षेत्र  में मौजूद हैं। इन कपड़ा कम्पनियों में लाखों महिलाएँ और पुरुष मजदूर पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए, पांच सितारा होटलों तथा शाँपिंग माँलों की चमक दमक के लिए और मधय-वर्ग की ब्रांडेड जरूरतों को पूरा करने के लिए कई तरह के कपड़ों का उत्पादन करने में लगे हैं। अकेले गुड़गांव के उद्योग विहार औद्योगिक क्षेत्र में ही लगभग 2,500 कपड़ा कम्पनियों में मजदूर काम करते हैं। इन कम्पनियों में तैयार ज्यादातर डिजाइनर कपड़े यूरोप, अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों की कम्पनियों के लिये बनाये जाते हैं और वहाँ निर्यात किये जाते हैं। कई कम्पनियाँ सादा कपड़ा भी बनाती हैं, जिसे अन्य कम्पनियों को निर्यात कर दिया जाता है और इस कपड़े का इस्तेमाल कच्चे माल के रूप में जैकेट तथा दूसरे कपड़े बनाने में किया जाता है। हर साल यह कम्पनियाँ देश-विदेश में कपड़ो का कई हजार करोड़ का व्यापार करती हैं और भारत सरकार देश के विकास में इनकी भागीदारी के लिये इन्हें सम्मानित भी करती रहती है। हर दिन कई घण्टों तक इन्हीं “ब्राण्डेड” कपड़ों के प्रचार में लगा रहने वाला भारत का “स्‍वतंत्र” मीडिया भी इन कारखानों में लगे मजदूरों की ज़िन्दगी और उनकी जीवन की स्थिति के बारे में कभी कोई खबर नहीं दिखाता और देश-विदेश में इन ब्राण्डेड कपड़ों के लिये एक बड़े बाजार का निर्माण करने वाली मध्य-वर्ग की आबादी इन कपड़ों का निर्माण करने वाले लाखों मजदूरों की जिन्दगी की सच्चाई से बेखबर देश-विदेश के कुछ मुट्ठी भर लोगों के विलासी जीवन की चकाचौंध को देखकर उससे सम्मोहित होती रहती है।

garment factory

इन सभी कपड़ा कम्पनियों में से ज्यादातर में 5 से 10 प्रतिशत मजदूर ही पर्मानेन्ट होते हैं और 90 से 95 फीसदी मजदूरों को ठेकेदारों के माध्‍यम से काम पर रखा जाता है, जबकि जो काम यह ठेका मजदूर करते हैं वह स्थाई रूप से लगातार पूरे साल चलता है। इन सभी ठेका मजदूरों के लिए श्रम कानूनों का कोई मतलब नहीं होता। कोई दुर्घटना हो जाने पर कम्पनियाँ ठेके पर काम करने वाले इन मजदूरों को कोई हर्जाना नहीं देतीं, और न ही मजदूर के पास कोई आई-कार्ड होता है जिसके तथ्य पर वे ठेकेदार से पैसा ले सके। इन कम्पनियों में सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं होते और आने जाने के लिये सिर्फ़ एक गेट होता है। पिछले दिनों जब पाकिस्तान में एक कपड़ा फ़ैक्टरी में आग लगने से 280 के आसपास मजदूरों की मौत हो गई उसके बाद हरियाणा प्रशासन ने सुरक्षा के इंतजाम ठीक करने के आदेश दिये। लेकिन यहाँ मौजूद किसी भी कम्पनी में न तो सुरक्षा के मानकों का पालन होता है और न ही कोई श्रम अधिकारी इनकी जाँच करते हैं।

काम के दौरान यदि कोई मजदूर अस्वस्थ हो जाता है तो उनके लिये किसी डाक्टर या प्रारम्भिक चिकित्सा का भी कोई इन्तजाम इन कम्पनियों में नहीं होता। ज्यादातर कपड़ा कम्पनियों में 50 से 1500 तक मजदूर काम करते हैं, लेकिन कुछ बड़ी कम्पनियों में लगभग 10,000 मजदूर तक काम करते हैं। ज्यादातर कम्पनियों में 12-12 घंटे की दो शिफ़्टों में या 8-8 घंटों की तीन शिफ़्टों में काम होता है। 8 घंटे की शिफ़्ट में काम करने वाले मजदूरों को अधिक काम होने पर सिंगल रेट से ओवर टाइम की मजदूरी देकर दो शिफ़्टों में 16 घण्टे काम करवाया जाता है और मजदूर इससे मना नहीं कर सकते। ज्यादातर सभी कम्पनियों में नये मजदूरों को इसी शर्त पर काम पर रखा जाता है कि वे दो शिफ़्टों में 16 घण्टे काम करने के लिये तैयार हों। कई मजदूर 16 घण्टे खड़े होकर लगातार काम नहीं कर पाते और बीच में ही छोड़ देते हैं जिनका बकाया पैसा उन्हें कभी नहीं दिया जाता और वे ठेकेदारों के चक्कर लगाने के बाद अन्त में अपनी बकाया मजदूरी और पी.एफ. ई.एस.आई. के पैसे छोड़ देते हैं। 8 घण्टे की एक शिफ़्ट के दौरान दिन में एक बार 30 मिनट का लंच होता है, और इसके अलावा मजदूर लगातार खड़े होकर काम करते हैं। जब भी मजदूरों से दो शिफ़्टों में ओवरटाइम करवाया जाता है तो उन्हें बीच में 30 मिनट का गैप दिया जाता है जिसके बाद दूसरी शिफ़्ट में उन्हें लगातार काम करना पड़ता है। ज्यादातर कम्पनियों में मजदूरों को पूरे महीने में एक भी छुट्टी नहीं मिलती और निर्धारित समय से थोड़ा भी लेट होने पर आधे दिन का वेतन काट दिया जाता है। समय और नियमों का हवाला देकर वेतन काटने का यह काम वही कम्पनी मैनेजमेण्ट या ठेकेदार करते हैं जो अनेक मजदूरों की बकाया मजदूरी, पी.एफ. और ई.एस.आई. पहले ही गैर-कानूनी ढंग से लूट चुके होते हैं और मजदूरों की मेहनत की इसी लूट पर पल रहे हैं। इस तरह मजदूर दोहरे शोषण के शिकार हैं; एक ओर श्रम कानूनों के लागू न होने से काम और जीवन की बदतर स्थिति और दूसरी ओर कम्पनी मैनेजमेण्ट और ठेकेदारों द्वारा गैर-कानूनी ढंग से की जाने वाली लूट।

हरियाणा सरकार द्वारा 2012 में निर्धारित किए गए मानक के अनुसार एक अकुशल मजदूर को हर हफ़्ते में 6 दिन 8 घण्टे काम के बदले 4,847 रुपये महीना (या 186 रुपया प्रति दिन) मिलना चाहिये और श्रम कानून के अनुसार ओवर टाइम दुगनी दर से मिलना चाहिये। यानि यदि एक मजदूर पूरे महीने 6 दिन हफ़्ते के हिसाब से 12 घण्टे प्रति दिन काम करता है तो उसे दोगुना, यानि 9,694 रुपये, वेतन मिलना चाहिये। और यदि एक मजदूर हफ़्ते में सात दिन काम करता है तो 12 घण्टे प्रति दिन काम के बदले में उसकी पूरे महीने की मजदूरी 11,904 होनी चाहिए। यह कागजों पर बने कानूनों की बात है, लेकिन गुड़गांव औद्योगिक क्षेत्र की वास्तविक स्थिति काफी अलग है। यहाँ कुछ कम्पनियों में मजदूर ठेके पर सीधे काम पर रखे जाते हैं, जिन्हें 8 घण्टे की शिफ़्ट में 30 दिन काम के बदले 4,000 से 4800 के आसपास मजदूरी दी जाती है। कई कम्पनियों में मजदूरों को कई ठेकेदारों के माध्यम से काम पर रखा जाता है, क्योंकि कम्पनी सभी मजदूरों को सीधे काम पर नहीं रखना चाहती। इससे मजदूरों को एकजुट होने से रोकने का फायदा कम्पनियों को मिलता है। ठेकेदारों के माध्यम से रखे जाने वाले मजदूरों को 8 घण्टे की शिफ़्ट में काम के बदले 3,000 से 4,000 रुपयों के आसपास मजदूरी दी जाती है, जिसमें से पी.एफ. और ई.एस.आई. कटने (जो भविष्य में मजदूरों को कभी नहीं मिलता) के बाद मजदूरों को लगभग 3,000 से 3,800 रुपये महीना मजदूरी मिलती है। कई कम्पनियाँ ठेका मजदूरों से 12 घण्टे की शिफ़्ट में महीने में 30 दिन काम करवाती हैं और उन्हें निर्धारित मजदूरी से आधी से भी कम, यानि 5,500-5900 के आसपास मजदूरी दी जाती है, जो श्रम कानून के अनुसार 11,904 (186 रुपया प्रति दिन और ओवरटाइम डबल रेट के हिसाब से) होनी चाहिये। यदि श्रम कानून द्वारा निर्धारित मजदूरी को भी मान लिया जाये तो आठ घण्टे काम के बदले में मिलने वाली 4,800 रुपये मजदूरी जिसमें से पीएफ और ईएसआई काट लिया जाता है, यह गुड़गाँव जैसे शहर में इंसान की तरह एक सामान्य जीवन जीने के लिये किसी भी स्थिति में नाकाफी है। ऐसे में ज्यादातर मजदूर ऐसी कम्पनियों की तलाश करते हैं जहाँ ओवरटाइम करवाया जाता हो या 12 घण्टे की शिफ़्ट में काम होता हो, क्योंकि 8 घंटों काम के बदले में मिलने वाली मजदूरी इतनी कम होती है कि चिकित्सा-शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के बाजारीकरण के इस दौर में कोई भी मजदूर उससे अपने परिवार के लिए भोजन, कपड़ा, इलाज, आवास और शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरते भी पूरी नहीं कर सकता। ऐसे में इन सभी मजदूरों के पास 12 से 16 घंटे काम करके कुछ सौ रुपये ज्यादा मजदूरी कमाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। यह लाखों मजदूर वर्तमान व्यवस्था में थोड़ी सी मजदूरी के बदले ठेकेदारों, दलालों और कम्पनियों की गुलामी करने पर मजबूर हैं।

मजदूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मजदूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज्यादातर मजदूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपरवाइजरों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मजदूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ़ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मजदूरों से तीन से चार शिफ़्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइजर लगतार मजदूरों पर नजर रखते हैं, और यदि कोई मजदूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मजदूर होते हैं जिसके लिये ज्यादा कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मजदूरों से ही लाइन में सिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मजदूर ने बताया कि औसत रूप में हर मजदूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मजदूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।

इस क्षेत्र के किसी भी कपड़ा कारखाने में ठेका मजदूरों की यूनियन नहीं है और बड़ी-बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें कभी इन मजदूरों की समस्याओं की ओर कोई ध्‍यान नहीं देतीं जिससे कारण यहाँ कम्पनियों के मैनेजमेण्ट और ठेकेदार अपनी पूरी तानाशाही मजदूरों के ऊपर थोपते हैं। देश के “विकास” की चमक-दमक में मजदूरों के खुले शोषण और भारतीय “जनतन्त्र” में मेहनत-मजदूरी कर जीने वाली गुड़गाँव की इस मजदूर आबादी के साथ होने वाली अंधेरगर्दी यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि इन मजदूरों की किसी भी समस्या की कोई सुनवाई न ही श्रम विभाग या पुलिस में होती है और न ही कोई नेता या मन्त्री कभी इनकी खबर लेने आता है। आई-फोन और ब्राण्डेड कपड़ों से लेकर 3-डी टीवी जैसे विलासिता के सामानों के प्रचार में घण्टों का समय देने वाला मेनस्ट्रीम मीडिया भी 6 से 10 प्रतिशत की दर से “प्रगति” कर रहे भारत में रहने वाले इन मजदूरों के जीवन की सच्चाई को नहीं दिखाता। लेकिन जब दमन उत्पीड़न और शोषण के शिकार यह मजदूर अपनी कानूनी हक जैसे ओवर-टाइम डबल रेट से या यूनियन बनाने की संवैधानिक माँग के लिये सड़कों पर आते हैं और कोई आन्दोलन करते हैं तो पुलिस-फोर्स से लेकर श्रम विभाग और मन्त्रियों से लेकर मीडिया तक सभी कम्पनियों के दलालों के रूप में मजदूरों के खिलाफ प्रचार और दमन की कार्यवाहियों को जायज ठहराने के लिये सामने आ जाते हैं। ओरियण्ट क्राफ़्ट में इसी साल 19 मार्च में हुई घटना इसक प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहाँ ठेकेदार द्वारा एक मजदूर के चाकू मारने के बाद मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन किया था जिसको दबाने के लिये कम्पनी द्वारा पुलिस और बाउन्सरों (गुण्डों) का सहारा लेकर मजदूरों का खुला दमन किया गया था और कई मजदूर गिरफ़्तार कर लिये गये, जबकि ठेकेदार को दूसरे दिन ही छोड़ दिया गया था। इस घटना के बाद पुलिस और कम्पनी मैनेजमेण्ट द्वारा मजदूरों में फैलाये गये खौफ का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि सभी मजदूर घटना के समय मौजूद न होने की बात कह रहे थे और कोई भी जानकारी देने से डर रहे थे।

पूरे भारत में किसी क्रान्तिकारी मजदूर यूनियन तथा किसी मजदूर संगठन के न होने के कारण मजदूरों अपनी कानूनी माँगों को कम्पनियों और पूँजीवादी सत्ता से सामने रखकर दवाब बनाने में असमर्थ हैं। मजदूरों की इस मजबूरी का पूरा फायदा पूँजीवादी प्रशानिक-राजनीतिक तंत्र उठा रहा है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में मौजूद बड़ी-बड़ी यूनियनें जो मजदूरों को गुमराह करने के लिये कम्पनी और मजदूरों को “एक परिवार” और “एक-दूसरे के सहयोगी” के रूप में प्रचार करती हैं, और अपनी दलालों की भूमिका का पूरा निर्वाह कर रही हैं। 1990 के आर्थिक सुधारों और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू करने के बाद भारत की पूँजीवादी राज्य सत्ता ने देशी-विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने और 8-9 प्रतिशत की “विकास” दर हासिल करने के लिये मजदूरों के सभी अधिकारों को एक-एक कर लगातार सीमित किया है जिसका पूरा फायदा यह कम्पनियाँ उठा रही हैं और अतिरिक्त मुनाफा निचोड़ने के लिये मजदूरी का स्तर नीचे से नीचे रखने का प्रयास किया जाता है। कपड़ा कम्पनियों में काम कर चुके कई मजदूर बताते हैं कि कुछ साल पहले जिन कम्पनियों में स्थाई मजदूर रखे जाते थे उन सभी कम्पनियों ने लगातार छटनी करते हुये आज ज्यादातर मजदूरों को ठेके पर कर दिया है। कपड़ा उद्योगो में काम में लगे मजदूरों के शोषण के यह हालात सिर्फ़ भारत में ही नहीं हैं, बल्कि बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ पूरी दुनिया में सस्ते श्रम और सस्ते कच्चे माल की तलाश में ज्यादा अतिरिक्त मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगी हैं। इसका एक उदाहरण अभी हाल ही में बंग्लादेश के ढाका शहर में एक कपड़ा फ़ैक्टरी में घटी घटना है जहाँ आग लगने से 110 मजदूरों की मौत की हो गई थी, जिसका कारण मजदूरों की सुरक्षा के कोई इन्तजाम न होना था। इस फ़ैक्टरी में वाल-मार्ट के लिये कपड़े बनाये जाते थे।

इन तथ्यो की रोशनी में पर देखने पर स्पष्ट स्थिति इस तरह सामने आते हैं कि इस पूरे क्षेत्र में कपड़ा उद्योग में ज्यादातर मजदूर ठेके पर काम कर रहे हैं, सभी मजदूर घोर शोषण के शिकार है और उन सभी की काम और जीवन की स्थिति लगभग एक समान हैं, और उनकी मांगें भी एक समान हैं। इन मजदूरों के बीच लगातार प्रचार-प्रसार कर उन्हें उनकी माँगों के इर्द-गिर्द गोलबंद करते हुये क्षेत्रीय स्तर पर उनके ट्रेड के आधार पर एक क्रांतिकारी नेतृत्व में संगठित किया जा सकता है, जो पूरी व्यवस्था के वर्ग चरित्र को और स्पष्ट रूप में उनके सामने लाने में मदद करेगा और भविष्य के बड़े आन्दोलनों के लिये उन्हें शिक्षित करने का काम करेगा।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर-दिसम्‍बर  2012

 


 

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