ओरियण्ट क्राफ़्ट में फिर मज़दूर की मौत और पुलिस दमन
गारमेण्ट उद्योग के मज़दूरों के बर्बर शोषण की तस्वीर
बिगुल संवाददाता
गुड़गाँव स्थित विभिन्न कारख़ानों में आये दिन मज़दूरों के साथ कोई न कोई हादसा होता रहता है। परन्तु ज़्यादातर मामलों में प्रबन्धन-प्रशासन मिलकर इन घटनाओं को दबा देते हैं। मौत और मायूसी के इन कारख़ानों में मज़दूर किन हालात में काम करने को मजबूर हैं, उसका अन्दाज़ा उद्योग विहार इलाक़े में ओरियण्ट क्राफ़्ट कम्पनी में हुई हाल की घटना से लगाया जा सकता है। 28 मार्च को कम्पनी में सिलाई मशीन में करण्ट आने से एक मज़दूर की मौत हो गयी और चार अन्य मज़दूर बुरी तरह घायल हो गये। ज़्यादातर मज़दूरों का कहना था कि घायल लोगों में से एक महिला की भी बाद में मौत हो गयी। लेकिन इस तथ्य को सामने नहीं आने दिया गया।
कम्पनी में टेलरिंग का काम करने वाला सुनील काम करते समय मशीन में करण्ट आने से बुरी तरह घायल हो गया। अन्य मज़दूर बेहोश सुनील को उठाकर कम्पनी की डिस्पेंसरी में ले गये, पर वहाँ भी उसकी जान बचाने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाये गये। आधे घण्टे बाद सुनील को एम्बुलेंस से अस्पताल भेजा गया, जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया। कम्पनी प्रबन्धन ने मज़दूरों को बताया कि सुनील की मौत हृदयगति रुकने से हुई है, लेकिन इस पूरे मामले में कम्पनी के ग़ैरिज़म्मेदार रवैये के कारण पहले से ही नाराज़ मज़दूर यह बात सुनकर मृत शरीर को उनके हवाले करने की माँग करने लगे।
मैनेजमेण्ट सुनील के मृत शरीर को उसके परिवार को सौंपने से मना कर रहा था और इसे अब भी हृदयाघात के कारण मौत बताकर मामला रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश की जा रही थी। जब पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से साफ़ हो गया कि मौत हृदयाघात से नहीं, बल्कि बिजली का करण्ट लगने से हुई है तो मैनेजमेण्ट के इस रवैये के विरोध में मज़दूर काम बन्द करके बाहर सड़क पर आ गये और मृतक के शरीर को उसके परिवार को सौंपने की माँग करते हुए धरने पर बैठ गये। इसी बीच मैनेजमेण्ट ने पुलिस बुला ली जिसने धरना दे रहे मज़दूरों पर जमकर लाठियाँ भाँजी और आँसू गैस के गोले दागे। पुलिस इतने पर ही नहीं रुकी, बल्कि कम्पनी और मैनेजमेण्ट के प्रति पूरी वफ़ादारी दिखाते हुए निहत्थे मज़दूरों पर फ़ायरिंग भी की। इस कार्रवाई में कई मज़दूरों को चोटें आयीं और दो मज़दूर गम्भीर रूप से घायल हुए।
मज़दूरों ने बताया कि इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी, बल्कि हर महीने ऐसी दो या तीन घटनाएँ होती रहती हैं, लेकिन उन्हें कम्पनी के अन्दर ही दबा दिया जाता है। यह घटना सबके सामने आ गयी, क्योंकि मज़दूरों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन किया। ओरियण्ट क्राफ़्ट के अन्दर मज़दूरों की सुरक्षा के लिए कोई इन्तज़ाम नहीं हैं और मज़दूर जिन मशीनों पर काम करते हैं, उनमें से ज़्यादातर मशीनों में करण्ट आता है। इसकी शिकायत करने पर सुपरवाइज़र गाली-गलौज कर मज़दूरों को वापस काम पर जाने के लिए दबाव बनाते हैं, और मैनेजमेण्ट इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं देती। कम्पनी में स्थित डिस्पेंसरी भी बस खानापूरी के लिए चलायी जा रही है, जहाँ सिर्फ़ एक अनट्रेण्ड कम्पाउण्डर बैठता है जो हरेक बीमारी की एक ही दवा देता रहता है।
पुलिस-प्रशासन और कम्पनियों के मैनेजमेण्ट की मिलीभगत भी इस घटना से सामने आयी। मज़दूर की मौत के कारणों की कोई जाँच-पड़ताल नहीं की गयी लेकिन पुलिस ने विरोध करने वाले मज़दूरों को दोषी ठहराकर कई मज़दूरों के खि़लाफ़ एफ़.आई.आर. दर्ज कर दी, जिसमें कई महिला मज़दूरों के नाम भी शामिल हैं। घटना के अगले दिन सुबह जब मज़दूरों ने कम्पनी के सामने धरना देने की कोशिश की तो पुलिस ने फिर लाठीचार्ज कर उन्हें खदेड़ दिया। न्याय माँग रहे मज़दूरों के दिलों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए मैनेजमेण्ट और प्रशासन ने मिलकर कम्पनी के आस-पास की सभी दुकानों और दूसरी कम्पनियों को भी बन्द करा दिया था, और बड़ी संख्या में पुलिस पूरे क्षेत्र में मौजूद थी। मज़दूरों को आतंकित करने के लिए दूसरे दिन कुछ मज़दूरों को पुलिस पर हमला करने की धाराएँ लगाकर गिरफ़्तार भी कर लिया गया, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं। लेकिन कम्पनी मैनेजमेण्ट पर न तो कोई केस दर्ज किया गया और न ही कोई कार्रवाई हुई।
ओरियण्ट क्राफ़्ट देश की सबसे बड़ी कपड़ा निर्यातक कम्पनी है, जो टॉमी हिलफ़िगर, डीकेएनवाई, मार्क एण्ड स्पेंसर, फ़िच जैसे महँगे विदेशी ब्राण्डों के लिए कपड़े बनाती है। पूरे एन.सी.आर. क्षेत्र में कम्पनी के कुल 22 कारख़ाने हैं, जिनमें तकरीबन 29,300 मज़दूर काम करते हैं। कम्पनी की गुड़गाँव सेक्टर 18 स्थित इस यूनिट में भी करीब 5000-7000 मज़दूर काम करते हैं, जिनमें से 3000 मज़दूर कम्पनी के कर्मचारी हैं, जबकि बाक़ी मज़दूरों को अलग-अलग ठेका कम्पनियों द्वारा काम पर रखा गया है। कम्पनी के मज़दूरों का मासिक वेतन 5900 रुपये (800 रुपये पी.एफ़. काटने के बाद 5100) है जबकि ठेका मज़दूर को लगभग 5700 रुपये मिलते हैं। ज़ाहिर है कि इतने कम वेतन पर गुड़गाँव जैसे महँगे इलाक़े में गुज़र कर पाना मुश्किल है, इसलिए अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए लगभग सभी मज़दूर सिंगल रेट पर ओवरटाइम करते हैं। 12-14 घण्टे हर रोज़ काम करने के बावजूद मज़दूर ज़्यादा से ज़्यादा 8,000 से 9,000 रुपये तक कमा पाते हैं। कम्पनी में हर समय मज़दूरों पर ज़्यादा से ज़्यादा टारगेट पूरा करने का दबाव रहता है। ज़्यादा से ज़्यादा काम कराने और निगरानी रखने के लिए मैनेजमेण्ट नये-नये तरीक़े अपनाता रहता है। 3-4 साल पहले सुपरवाइज़र ख़ुद स्टॉप घड़ियों के साथ मज़दूरों पर निगरानी रखते थे, आज स्टॉप घड़ियों के स्थान पर मैग्नेटिक कार्ड रीडर के माध्यम से समय की निगरानी रखी जाती है। हरेक सिलाई मशीन पर कार्ड रीडर लगा हुआ है, और कपडे़ के हर बण्डल के साथ एक मैग्नेटिक कार्ड भी आता है, हर सिलाई मज़दूर को काम शुरू करने से पहले और ख़त्म करने के बाद इस कार्ड को पंच करना होता है, जिससे पता चल जाता है कि एक मज़दूर ने एक शर्ट बनाने में कितने सेकेण्ड लगाये। कम्पनी मज़दूरों को लूटने के कई और तरीक़े भी अपनाती है। जैसेकि इस घटना से कुछ ही समय पहले मैनेजमेण्ट ने मज़दूरों से कहा था कि यदि वह अपनी कैज़ुअल छुट्टी न लेकर पूरा महीना काम करें तो उन्हें 1000 से 1500 के बीच अतिरिक्त भुगतान किया जायेगा। लेकिन इस घटना के बाद फ़ैक्टरी दो दिन के लिए बन्द रही, जिसके चलते मज़दूरों को अब अलग से कोई पैसा नहीं दिया जायेगा। हर समय टारगेट पूरा करने का दबाव और अत्यन्त तनाव भरे माहौल में काम करने के कारण मज़दूर बीमार, चिड़चिड़े और अवसादग्रस्त रहते हैं।
इससे पहले 19 मार्च 2012 को भी ओरियण्ट क्राफ़्ट कम्पनी के सेक्टर 37 स्थित कारख़ाने में सुपरवाइज़र द्वारा एक मज़दूर को कैंची मारकर घायल करने के विरोध में मज़दूरों का गुस्सा ठीक इसी तरह फूट पड़ा था। गुड़गाँव में पिछले कुछ सालों के दौरान मज़दूरों के गुस्से के ऐसे अनगिनत छोटे-बड़े विस्फोट होते रहे हैं, पर किसी क्रान्तिकारी मज़दूर यूनियन के अभाव में ये बहुत जल्दी शान्त होकर बिखर जाते हैं और शोषण तथा दमन का सिलसिला पहले की तरह चलता रहता है।
कोई संगठित मज़दूर आन्दोलन न बन पाने और मज़दूरों की कोई माँग उठा पाने में असफल रहने के कारण आख़िरकार इससे मज़दूरों में निराशा और पस्ती और बढ़ जाती है। वे सोचने लगते हैं कि विरोध करने से कोई फ़ायदा नहीं। अगर इस कम्पनी में मज़दूरों की कोई जुझारू यूनियन होती तो मज़दूर मैनेजमेण्ट पर अपनी जायज़ माँगों के लिए दबाव बना सकते थे और कम्पनी की सारी इकाइयों को ठप्प करके प्रशासन को कम्पनी के खि़लाफ़ कार्रवाई के लिए मजबूर कर सकते थे। क्रान्तिकारी यूनियन की मौजूदगी में मालिक, पुलिस और प्रशासन चाहकर भी मज़दूरों का दमन नहीं कर सकते थे।।
लोकसभा चुनाव नज़दीक आता देख तमाम धन्धेबाज़ चुनावी पार्टियों के नेता जनता का वोट हासिल करने की कोशिश में लगे हैं। परन्तु इन तमाम चुनावी मदारियों को मज़दूरों की कितनी परवाह है, इसका पता इसी बात से चल जाता है कि इतनी बड़ी घटना हो जाने के बावजूद अब तक किसी भी चुनावी पार्टी के नेता ने मज़दूरों से मिलकर सच्चाई जानने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि ख़ुद को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली सी.पी.आई, सी.पी.आई. (एम), और सी.पी.आई. (माले) जैसी चुनावी वामपन्थी पार्टी के नेताओं ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है, जबकि यह घटना किसी दूर-दराज के इलाक़े में न होकर गुड़गाँव शहर के बीचों-बीच औद्योगिक क्षेत्र में घटी है।
आज मज़दूरों के दिलों में अपने खुले शोषण के प्रति मैनेजमेण्ट, पुलिस-प्रशासन और सरकार के तानाशाहीपूर्ण रवैये के खि़लाफ़ भयंकर रोष है। परन्तु जब तक मज़दूर अलग-अलग अपनी लड़ाई लड़ते रहेंगे, तब तक जीत पाना नामुमकिन है। देश के ठेका मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ और माँगें एक समान हैं, इसलिए व्यापक मज़दूर आबादी को अपने अधिकारों की लड़ाई को कारख़ानों की सीमाओं से बाहर लाना होगा और इलाक़ाई क्रान्तिकारी यूनियनें बनानी होंगी।
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन