Category Archives: शिक्षा और रोज़गार
आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की लाइलाज बीमारी है
पूंजीवाद में यह तथाकथित ‘‘अतिउत्पादन’’ वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं होता कि समाज में ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया हैं कि लोग उन सबका उपभोग नहीं कर सकते। आर्थिक संकटों के दौरान इस प्रकार की बातें आम होती हैं: कपड़ा मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस पकड़ा दी जाती है कि सूत और वस्त्रें का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया है कि उसकी बिक्री नहीं हो पा रही है, इसलिए उत्पादन में कटौती और मजदूरों की छंटनी करना जरूरी हो गया है। लेकिन कपड़ा मजदूर और उनके परिवार मुश्किल से तन ढांप पाते हैं। कपड़ा पैदा करने वाले कपड़ा खरीद नहीं पाते। खान मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस थमाई जाती है कि कोयले का अतिउत्पादन हो गया है और उत्पादन तथा मजदूरों की तादाद दोनों में कटौती जरूरी है। लेकिन, खान मजदूर और उनके परिवारों को ठिठुरते हुए जाड़े की रातें काटनी होती हैं क्योंकि उनके पास कोयला खरीदने को पैसा नहीं होता। इसलिए, पूंजीवादी अतिउत्पादन सापेक्षिक अतिउत्पादन होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक उत्पादन का आधिक्य केवल लोगों की क्रयशक्ति के सापेक्ष होता है। आर्थिक संकटों के दौर में मांग के अभाव में, पूंजीपति के गोदामों में माल का स्टाक जमा होता जाता है। विभिन्न माल पड़े-पड़े सड़ जाते हैं या यहां तक कि उन्हें जानबूझकर नष्ट किया जाता है। दूसरी ओर व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय रोटी-कपड़ा खरीदने की भी क्षमता नहीं रखता और भुखमरी से जूझता रहता है।
विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण है!
वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी और आर्थिक तबाही के बारे में, एकदम सरल और सीधे-सादे ढंग से यदि पूरी बात को समझने की कोशिश की जाये, तो यह कहा जा सकता है कि अन्तहीन मुनाफ़े की अन्धी हवस में बेतहाशा भागती बेलगाम वित्तीय पूँजी अन्ततः बन्द गली की आखि़री दीवार से जा टकरायी है। एकबारगी सब कुछ बिखर गया है। पूँजीवादी वित्त और उत्पादन की दुनिया में अराजकता फैल गयी है। कोई इस विश्वव्यापी मन्दी को “वित्तीय सुनामी” कह रहा है तो कोई “वित्तीय पर्ल हार्बर”, और कोई इसकी तुलना वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के ध्वंस से कर रहा है। दरअसल वित्तीय पूँजी का आन्तरिक तर्क काम ही इस प्रकार करता है कि निरुपाय संकट के मुक़ाम पर पहुँचकर वह आत्मघाती आतंकवादी के समान व्यवहार करते हुए विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की पूरी अट्टालिका में काफ़ी हद तक या पूरी तरह से ध्वंस करने वाला विस्फोट कर देती है।
बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
जंगल की आग की तरह फैलती विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी करोड़ों मेहनतकशों के रोज़गार निगल चुकी है
हर पूँजीवादी संकट का सबसे सीधा असर छँटनी और बेरोजगारी बढ़ने के रूप में सामने आता है। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा ही बेरोजगारों की एक स्थायी ‘‘रिजर्व आर्मी’’ बनाये रखी जाती है ताकि पूँजीपति अपनी मर्जी से मजदूरी की दर तय कर सकें। लेकिन आर्थिक संकटों के दौर में यह सिलसिला और तेज हो जाता है। अपना मुनाफा बचाने के लिए पूँजीपति बेमुरौव्वती से मजदूरों की छँटनी कर देते हैं और बचे हुए मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जो आबादी बेरोजगारी से बची रह जायेगी उसे भी पहले से ज्यादा लूटा-खसोटा जायेगा, मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। भारत और चीन जैसे देशों में तो पहले से ही तीन चौथाई से अधिक कामगार अस्थायी, ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं जिन्हें किसी तरह की रोजगार सुरक्षा या बीमा, स्वास्थ्य सहायता जैसी न्यूनतम सुविधाएँ जो दूर, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। बढ़ती मन्दी के दौर में इस भारी मेहनतकश की ही पीठ पर सबसे अधिक कोड़े बरसाये जायेंगे। निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी पर भी मन्दी का भारी असर होगा। पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ग के एक हिस्से को सेवा क्षेत्र में, सेल्स आदि में, निजी कम्पनियों के दफ़्तरों में जो छोटी-मोटी नौकरियां मिल जा रही थीं, उनमें तेजी से कमी आयेगी।
पूँजीवादी संकट और मज़दूर वर्ग
आर्थिक संकट की इस स्थिति में वर्तमान सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र साफ़-साफ़ यह कैसे कहे कि आर्थिक संकट और गहरा होगा। सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में ज़बरदस्त विरोधाभास साफ़ नज़र आता है। 21 नवम्बर 2008 को वाणिज्य सचिव, भारत सरकार का कहना है कि आगामी 5 महीने में टैक्सटाइल इंजीनियरिंग उद्योग की 5 लाख नौकरियाँ चली जायेंगी। ख़ुद श्रममंत्री की दिसम्बर 2008 की ‘सी.एन.बी.सी. आवाज़’ टी.वी. चैनल पर चलने वाली ख़बर यह कहती है कि अगस्त से अक्तूबर 08 तक देश में 65,500 लोगों की नौकरियाँ खत्म हुईं हैं। वाणिज्य सचिव आर्थिक मन्दी के कारण नौकरियाँ खत्म होने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के केबिनेट सचिव के.एम. चन्द्रशेखर छँटनी से साफ इन्कार करते हुए कहते हैं कि आर्थिक संकट से निबटने के लिए भारतीय कम्पनियों का मनोबल विदेशी कम्पनियों से ऊँचा है – “घबराइये मत, भारत में छँटनी नहीं होगीः कैबिनेट सचिव” (अमर उजाला, 2 दिसम्बर 2008)।
दिल्ली के ग़रीब बच्चों की नहीं मॉल वालों की चिन्ता है नगर निगम को
सरकारी स्कूलों के साथ अपेक्षा का भाव महज़ सरकारी उदासीनता या लापरवाही नहीं है। मौजूदा लागू आर्थिक नीतियाँ तमाम कल्याणकारी कामों को धीरे-धीरे सरकार से बाज़ार के हवाले कर देने की पैरवी करती हैं। इन नीतियों को लागू करने में कांग्रेस, बीजेपी से लेकर सपा-बसपा और पश्चिम बंगाल-केरल के कथित मार्क्सवादी भी बढ़-चढ़ कर आगे रहते हैं। इसलिए एक धीमी प्रक्रिया में सरकारी शिक्षा की हालत को ख़राब किया जा रहा है और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। गली-गली में खुलती जा रही शिक्षा की दुकानें (प्राईवेट स्कूल) इसका उदाहरण हैं। शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए पैसा कमाने की दुकानों में तब्दील करके इसे आम आदमी के बच्चों की पहुँच से लगातार बाहर धकेला जा रहा है। दिल्ली नगर निगम द्वारा स्कूलों की ज़मीन मॉल, मल्टीप्लेक्सों, होटलों को बेचना इसी प्रक्रिया की एक कड़ी है।