बेरोज़गारी की राक्षसी लील गयी 19 नौजवानों को
अरविन्द
पिछली 1 फ़रवरी को बरेली में आईटीबीपी (भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस) की भरती रैली से लौट रहे 19 नौजवान एक भीषण हादसे में मारे गये। भारी भीड़ के कारण ट्रेन की छत पर सफर कर रहे ये नौजवान ओवरब्रिज से टकराकर या ट्रेन से गिरने के कारण मारे गये। कम से कम 12 नौजवान बुरी तरह घायल भी हुए।
मगर क्या यह महज़ एक “दुर्घटना” थी? अगर इसे दुर्घटना न कहकर हत्या कहा जाये तो ठीक होगा। कारण यह कि प्रशासन की लापरवाही इस कदर थी मानो यहाँ नौजवानों की भर्ती की बजाय कोई पशु मेला आयोजित किया गया है। भर्ती में नाई, धोबी, सफ़ाईकर्मी आदि के मात्र 416 पदों के लिए डेढ़ लाख से अधिक आवेदक आये हुए थे। आईटीबीपी के अधिकारियों को प्रत्याशियों की संख्या का पहले से ही अनुमान था, और उन्होंने ज़िला प्रशासन व पुलिस को सूचित करके अपना पल्ला झाड़ लिया तथा प्रशासन व पुलिस भी सूचना पाकर निश्चिन्त हो गये। ऐसे में नौकरी और रोज़ी-रोटी की तलाश में आये ग़रीब घरों के इन बेक़ुसूर नौजवानों की मौत का ज़िम्मेदार कौन था? पहली नज़र में तो आईटीबीपी के अधिकारियों की समझदारी पर सवाल उठता है जिन्होंने 416 पदों के लिए डेढ़ लाख आवेदकों को बुलाया। दूसरी तरफ ज़िला प्रशासन और पुलिस में से किसने ‘अधिक’ लापरवाही की यह रेखांकित करना ज्यादा मुश्वि़फ़ल नहीं होना चाहिए। साफ़ है कि इन लाखों युवाओं, रेल यात्रियों, हज़ारों आमजनों को जो तकलीफ़ हुई, जो तबाही-अराजकता फैली उसे रोका जा सकता था या कम किया जा सकता था अगर प्रशासन और पुलिस वैसी ही चौकसी दिखाते जैसी वे किसी नेता-मन्त्री की यात्रा के समय दिखाते हैं। लेकिन हम सब जानते हैं कि प्रशासन और पुलिस की जनपक्षधरता और संवेदनशीलता का क्या हाल है। आये दिन बाबाओं के आश्रमों, धार्मिक मेलों, विद्यालयों में मचने वाली भगदड़ और उनमें होने वाली मौतें बार-बार इसकी गवाही देती रहती हैं। यह मामला रेल अधिकारियों की संवेदनहीनता को भी दर्शाता है। जब उन्हें पहले से ही पता था कि जहाँ से ट्रेन गुजरेगी वहाँ पुल है और छत पर बैठे लोगों को जान का ख़तरा हो सकता है, तो उन्होंने लोगों को ख़बरदार क्यों नहीं किया? ज़ाहिरा तौर पर यह दुर्घटना पूरे प्रशासन की संवेदनहीनता और निक्कमेपन को उजागर करती है।
सबसे बढ़कर ऐसी घटनाएँ पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी की भयानक तस्वीर सामने लाती हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों की बदौलत सरकार के तमाम दावों के बावजूद देश में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ रही है। पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए तो रोज़गार की स्थिति और भी गम्भीर है। हालत यह है कि बी.ए. और एम.ए. पास करने के बाद भी हज़ारों नौजवान महानगरों में लेबर चौक पर दिहाड़ी करने या कारख़ानों में 2500-3000 की नौकरी करने के लिए मजबूर हैं। निजी क्षेत्र में जो रोज़गार अधिकांश नौजवानों को मिल भी रहा है उसकी कोई गारण्टी नहीं है। कभी भी उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। सरकारी नौकरियों में मिलने वाली निश्चितता के ही कारण एक-एक पद के लिए हज़ारों-हज़ार लोग आवेदन करते हैं। इनसे सरकार को मोटी कमाई भी होती है। फार्म की बिक्री, कोचिंग सेण्टर, गाइड बुकों आदि का सैकड़ों करोड़ का कारोबार भी इन्हीं की बदौलत चलता है। नौकरी के लिए आवेदन भेजने और परीक्षा देने जाने वाले नौजवानों से डाक और रेल विभाग भी हर साल करोड़ों की कमाई करते हैं। पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना की भरती के लिए विज्ञापन निकालकर लाखों नौजवानों को बुलाया जाता है और फिर उनमें से कुछ सौ को चुनकर बाक़ी को वापस भेज दिया जाता है। लगभग हमेशा ही इन भरती “रैलियों” में अफरा-तफरी या भगदड़ मचती है। कई बार ऐन समय पर भरती रद्द कर दी जाती है, जैसा कि इस बार हुआ। सबकुछ जानते हुए भी सेना या प्रशासन भरती की कोई ऐसी व्यवस्था नहीं करते जिसमें ऐसे हालात पैदा होने की सम्भावना ही न हो।
आइये, ज़रा हम इस बात पर नज़र डालें कि भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में रोज़गार की क्या स्थिति है? वित्तमन्त्री प्रणव मुखर्जी 8.5 फ़ीसदी विकास दर का ढोल बजा रहे हैं। मगर इतनी ऊँची विकास दर के बावूजद रोज़गार क्यों नहीं पैदा हो रहा? आँकडे़ बताते हैं कि 1991 से पहले 4 फ़ीसदी विकास दर के साथ रोज़गार में 2 फ़ीसदी की वृद्धि हुआ करती थी। लेकिन 1991 के बाद के वर्षों में आर्थिक वृद्धि 6 से 9 फ़ीसदी हो गयी, लेकिन नियमित रोज़गार में वृद्धि की दर 1 फ़ीसदी सालाना से अधिक नहीं हो पायी। इन आँकड़ों से साफ़ है कि इस “रोज़गारविहीन विकास” से देश के करोड़ों नौजवानों को कोई लाभ नहीं हुआ। उल्टे पहले जो रोज़गार स्थायी थे, उन्हें भी तेज़ी से कम किया जा रहा है और अधिकांश रोज़गार ठेका, दिहाड़ी, पीस-रेट या कैजुअल आधार पर किया जा रहा है। देश में इस समय कुल मज़दूरों में से 93 प्रतिशत असंगठित/अनौपचारिक कामगारों की श्रेणी में आते हैं और कुल बेरोज़गारों की संख्या 25 से 30 करोड़ के बीच बैठती है। इनमें से 6 से 8 करोड़ शिक्षित बेरोज़गार हैं।
बेरोज़गारी पूँजीवादी व्यवस्था की एक सामान्य परिघटना होती है। पूँजीपति वर्ग यानी कि मालिकों, ठेकेदारों आदि को बेरोज़गार मज़दूर आबादी की ज़रूरत होती है। यदि सभी मज़दूरों को रोज़गार मिल जायेगा तो मालिक किस चीज़ का हौवा दिखाकर मज़दूरों की मज़दूरी काटेगा, उन्हें पाशविक स्थितियों में काम करने के लिए मजबूर करेगा और उनसे अपने मनमुआफ़िक काम करायेगा? बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी के मौजूद रहने से ही पूँजीपति मज़दूरों के सामने अपनी मोल-भाव की ताक़त को बढ़ा सकता है। पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से बेरोज़गारों को पैदा करती है, क्योंकि वह उत्पादकता बढ़ाकर मुनाफ़ा कमाने की हवस में उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी और मशीनें लगाती है, और मज़दूरों को बेकारी के दलदल में धकेलती जाती है। ये बेकार मज़दूर पूँजीपतियों की ज़रूरत हैं। इसलिए पूँजीवाद में बेरोज़गारी कभी ख़त्म नहीं हो सकती।
बेरोज़गारी के मारे नौजवान गाँवों-कस्बों से पक्की सरकारी नौकरी की चाहत और सम्मान की ख़ातिर सभी प्रकार के पदों के लिए आवेदन करते हैं और फिर पशुओं की तरह ट्रेनों-बसों में लदकर परीक्षा देने के लिए दौड़-भाग करते हैं। आईटीबीपी में भरती के लिए जा रहे नौजवानों की मौत वास्तव में इस व्यवस्था द्वारा उनकी हत्या है। उन्हें वास्तव में बेरोज़गारी की राक्षसी ने लील लिया। इन ग़रीब नौजवानों की ही तरह न जाने कितने नौजवान किसी ट्रेन दुर्घटना में, या बेरोज़गारी से तंग आकर आत्महत्या के ज़रिये काल का ग्रास बनेंगे। सवाल हमारे सामने खड़ा है। हम इन्तज़ार करते रहेंगे, तमाशबीन बने रहेंगे या इस हत्यारी व्यवस्था को तबाह कर देने के लिए उठ खड़े होंगे।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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