जापान में बेरोज़गार मज़दूरों को गाँव भेजने की कोशिश
बढ़ती बेरोज़गारी से घबरायी कई देशों की सरकारों ने अपनाया यह हथकण्डा
मीनाक्षी
विश्व-व्यापी मन्दी के भँवर में फँसा जापान भी हाथ-पाँव मार रहा है। लगातार चौपट होती अर्थव्यवस्था को तरह-तरह के पैकेजों व स्कीमों के ज़रिये बचाने की असफल कोशिशें वहाँ भी चल रही हैं। ऐसी ही एक नयी कोशिश का नाम है प्रोत्साहन पैकेज।
मन्दी ने शहरी उद्योगों में लगे जिन जापानी नौजवानों और मज़दूरों के रोज़गारों को लील लिया है उन्हें खेती करने या बड़े किसानों के यहाँ मज़दूरी करने के लिए गाँवों की ओर रवाना किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस तरह उन्हें ग्रामीण अर्थव्यवस्था में समायोजित कर लिया जायेगा। यह जापानी प्रधानमन्त्री तारो आसो का तथाकथित प्रोत्साहन पैकेज है जिसके तहत पहली खेप में ऐसे 2400 शहरी बेरोज़गारों और अर्द्धबेरोज़गारों को ‘ग्रामीण श्रम दस्ता’ में शामिल किया गया है। कुछ दिनों का प्रशिक्षण देकर इन्हें खेतों में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। सच तो यह है कि इन्हें प्रोत्साहन की ज़रूरत ही नहीं। पूँजीवाद के संकट ने इन्हें पहले से ही रोज़ी-रोटी की चाहत में दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया है।
जापानी सरकार भले ही अपनी पीठ ठोके कि उसने शहर की फ़ाज़िल श्रम शक्ति को कृषि की ज़रूरतों के लिए उपलब्ध कराकर आर्थिक ढाँचे को नियोजित करने की कोशिश की है, लेकिन इसकी कलई तो योजना के शुरू होते ही खुलने लगी है। हज़ारों की संख्या में छात्रों, नौजवानों, मज़दूरों के इस दस्ते में शामिल होने के सरकार के तमाम दावों के बावजूद ख़ुद उसके ही एक मन्त्री का कहना था कि कृषि क्षेत्र रोज़गार के पर्याप्त अवसर मुहैया नहीं करा सकता। अतः देश में बेरोज़गारी की समस्या से निपटने के लिए कृषि से आस लगाना वास्तविकता से मुँह चुराना होगा।
दूसरे, वहाँ धान की खेती में लाभकारी मूल्य में कमी आने के चलते छोटे किसान तो वैसे ही तबाह हो रहे हैं और आजीविका कमाने के दूसरे उपाय अपनाने को मजबूर हो रहे हैं। केवल कुछ बड़े किसान इन नौजवानों को नौकरी पर रखते हैं वह भी जापान के जीवन स्तर के मुक़ाबले काफ़ी कम मज़दूरी पर। इसके अतिरिक्त कृषि का काम लगातार नहीं होता। केवल सालभर में कुछ दिनों के लिए जब बोवाई या कटाई होती है तभी इनकी ज़रूरत पड़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे शहरी नौजवान जो शहर की अपनी नौकरी की अनिश्चितता के चलते स्वेच्छा से गाँव में बसना और खेती करना चाहते हैं उन्हें स्थानीय ग्रामीण समुदाय का विरोध सहना पड़ता है।
हक़ीक़त तो यह है कि जापान की ग्रामीण अर्थव्यवस्था जापानी उद्योग के मुक़ाबले पिछड़ी हुई है। पूँजीवाद में उद्योग के मुक़ाबले खेती हमेशा ही पिछड़ी होती है। वह स्थानीय लोगों को ही जीविका कमाने के अवसर मुहैया नहीं करा पा रही है और फाजिल श्रमशक्ति की मौजूदगी वहाँ पहले से ही बनी हुई है फिर शहरी बेरोज़गारों को भला वह किस प्रकार समायोजित करेगी!
पूँजीवाद के इस संकट से उबरने के लिए जापान ही नहीं बल्कि भारत, चीन और ब्राजील सहित कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में बेरोज़गारी के दबाव को कम करने के लिए सरकारें इसी क़िस्म की योजनाएँ लागू कर रही हैं। चीन में समाजवाद के दौर की नियोजित अर्थव्यवस्था के ढाँचे का फ़ायदा उठा कर चीन के नये पूँजीवादी शासक एक हद तक ऐसा करने में कामयाब हुए हैं।
हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के पीछे एक अहम मकसद यह है कि रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर भाग रही ग्रामीण आबादी को औद्योगिक बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल होने और शहर में दबाव बढ़ाने से रोका जा सके। मज़दूरी की दर कम बनाये रखने के लिए पूँजीपतियों को जिस हद तक बेरोज़गारों की फ़ौज चाहिए, वह तो शहरों में पहले से मौजूद है। इससे ज़्यादा भीड़ बढ़ेगी तो सामाजिक असन्तोष भड़कने का ख़तरा पैदा हो जायेगा। लेकिन इस पूँजीवादी तन्त्र का अपना संकट यह है कि नीचे तक फैले भ्रष्टाचार के कारण नरेगा जैसी योजनाएँ ग्रामीण मज़दूरों के बीच भी असन्तोष को बढ़ाने का ही काम कर रही हैं।
लगातार फैलती विश्वव्यापी मन्दी के कारण बढ़ती बेरोज़गारी को कम करने के लिए पूँजीवाद के सिपहसालारों के पास कोई उपाय नहीं है। पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के पैकेज देने के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आ पा रही है। गोदाम मालों से भरे पड़े हैं और लोगों के पास उन्हें ख़रीदने के लिए पैसे नहीं हैं। लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और तनख़्वाहों में कटौती के कारण हालत और बिगड़ने ही वाली है। ऐसे में शहरों में बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज से घबरायी पूँजीवादी सरकारें तरह-तरह के उपाय कर रही हैं, लेकिन इस तरह की पैबन्दसाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है। पूँजीवादी नीतियों के कारण खेती पहले ही संकटग्रस्त है, ऐसे में शहरी बेरोज़गारों को गाँव भेजने या ग्रामीण बेरोज़गारों को वहीं रोककर रखने की उनकी कोशिशें ज़्यादा कामयाब नहीं हो सकेंगी। लेकिन, अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सही सोच और समझ के साथ काम करें तो ये ही कार्यक्रम ग्रामीण मेहनतकश आबादी को संगठित करने का एक ज़रिया बन सकते हैं।
बिगुल, मई 2009
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