Category Archives: महान शिक्षकों की क़लम से

लेनिन – बुर्जुआ चुनावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण

जो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की बेवकूफी या पाखण्ड है, यह वर्ग-संघर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावों को देना है।

लेनिन – संघर्ष के रूपों के प्रश्न पर मार्क्‍सवादी नज़रिया

…संघर्ष के रूपों के प्रश्न के विवेचन से हर मार्क्‍सवादी को क्या बुनियादी अपेक्षाएँ करनी चाहिए? पहली चीज़, मार्क्‍सवाद समाजवाद के तमाम अपरिष्कृत रूपों से इस बात में भिन्न है कि वह आन्दोलन को संघर्ष के किसी एक विशेष रूप के साथ नहीं बाँधता। वह संघर्ष के सर्वथा विविध रूपों को मान्यता देता है, इसके अलावा वह उन्हें ”गढ़ता” नहीं, बल्कि मात्र क्रान्तिकारी वर्गों के संघर्ष के उन रूपों का सामान्यीकरण करता है, उन्हें संगठित करता है तथा उन्हें सचेतन अभिव्यक्ति देता है, जो आन्दोलन के दौरान स्वयं जन्म लेते हैं। समस्त अमूर्त फार्मूलों और समस्त मताग्रहवादी नुस्ख़ों का असंदिग्ध शत्रु मार्क्‍सवाद चल रहे उस जन-संघर्ष की ओर सावधनीभरा रुख़ अपनाने की अपेक्षा करता है, जो आन्दोलन के विकसित होने के साथ, जन-साधारण की वर्ग चेतना की वृद्धि के साथ, आर्थिक तथा राजनीतिक संकटों के तीक्ष्ण होने के साथ बचाव और धावे की नयी तथा अधिक विविध विधियों को जन्म देता है। इसलिए, मार्क्‍सवाद संघर्ष के केवल संबद्ध घड़ी में संभव तथा विद्यमान रूपों तक अपने को किसी भी सूरत में सीमित नहीं रखता, यह तो इसे मान्यता देता है कि संघर्ष के नये रूप, जो संबद्ध कालावधि में कार्यकर्ताओं के लिए अज्ञात होते हैं, संबद्ध सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन के साथ अनिवार्यत: उत्पन्न होते हैं। इस मामले में मार्क्‍सवाद जन-साधारण के अमल से सीखता है – अगर ऐसा कहना संभव हो – और अपने बन्द अध्ययनकक्षों में ”व्‍यवस्थापनकर्ताओं” द्वारा गढ़े गए संघर्ष के रूप जन-साधारण को सिखाने का दावा करने से वह कोसों दूर रहता है।

एंगेल्स – मज़दूरी व्यवस्था

मज़दूरी की दर ऊँची बनाये रखने और काम के घण्टे कम करने के संघर्ष में ट्रेड यूनियनों का बहुत बड़ा लाभ यह है कि वे जीवन स्तर ऊँचा बनाये रखने और उसे बेहतर करने में मदद करती हैं। लन्दन के पूर्वी भाग में बहुत से पेशे ऐसे हैं जिनका श्रम राजगीर मिस्त्रियों तथा राजगीर के साथ काम करने वाले मज़दूरों से अधिक कुशल और उनके जैसा कठिन नहीं है, फिर भी वे इसके मुकाबले आधी मज़दूरी ही कमा पाते हैं। क्यों? सिर्फ़ इसलिए क्योंकि एक शक्तिशाली संगठन पहले वाले मज़दूरों को तुलनात्मक रूप से ऊँचा जीवन स्तर बनाये रखने में सक्षम बनाता है जिससे उनकी मज़दूरी निर्धारित होती है – जबकि दूसरे वाले मज़दूरों को असंगठित और कमज़ोर होने के नाते अपने नियोक्ताओं के अपरिहार्य और मनमाने अतिक्रमण का शिकार होना पड़ता है; उनका जीवन स्तर लगातार गिरता जाता है, वे लगातार कम से कम मज़दूरी पर जीना सीख लेते हैं, और उनकी मज़दूरी स्वाभाविक रूप से उस स्तर तक गिर जाती है जिसे उन्होंने खुद पर्याप्त मान लेना सीख लिया है ।

लेनिन – फ़ैक्ट्री-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास

जो कोई काम पर लगता है, वह अपने मालिक से अक्सर असन्तुष्ट होता है, उसकी शिक़ायत अदालत में या सरकारी अधिकारी के पास करता है। अधिकारी तथा अदालत दोनों विवाद आमतौर पर मालिक के पक्ष में निपटाते हैं उसका समर्थन करते हैं। परन्तु मालिक का यह हित साधन किसी आम विनियम या किसी क़ानून पर नहीं, वरन पृथक-पृथक अधिकारियों की ताबेदारी पर आधारित होता है, जो भिन्न-भिन्न अवसरों पर कम या अधिक मात्रा में उसकी रक्षा करते हैं और जो मामले को अनुचित रूप से, मालिक के पक्ष में इसलिए तय करते हैं कि वे या तो मालिक के परिचित होते हैं, या फिर इसलिए कि वे कामकाज के हालात के बारे में अपरिचित होते हैं तथा मज़दूर को समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे अन्याय का प्रत्येक पृथक मामला मज़दूर तथा मालिक के बीच प्रत्येक पृथक टक्कर पर, प्रत्येक पृथक अधिकारी पर निर्भर करता है। लेकिन फैक्ट्री मज़दूरों का इतना बड़ा समूह जमा कर लेती है, उत्पीड़न को ऐसी सीमा पर पहुँचा देती है कि प्रत्येक पृथक मामले की जाँच करना असम्भव हो जाता है। आम विनियम तैयार किये जाते हैं, मज़दूरों तथा मालिकों के बीच सम्बन्धों के बारे में एक क़ानून बनाया जाता है, ऐसा क़ानून, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। इस क़ानून में मालिकों के लिए हित साधन को राज्य की सत्ता का सहारा दिया जाता है। पृथक अधिकारी द्वारा अन्याय का स्थान क़ानून द्वारा अन्याय ले लेता है। उदाहरण के लिए, इस प्रकार के विनियम प्रकट होते हैं — यदि मज़दूर काम से ग़ैर-हाज़िर है, तो वह मज़दूरी से ही हाथ नहीं धोता, वरन उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ता है, जबकि मालिक यदि काम के न होने पर मज़दूरों को घर वापस भेज देता है, तो उसे कुछ नहीं देना पड़ता; मालिक मज़दूर को कठोर भाषा का उपयोग करने पर बरखास्त कर सकता है, जबकि मालिक का इस प्रकार का बर्ताव होने पर मज़दूर काम नहीं छोड़ सकता; मालिक को अपनी ही सत्ता के आधार पर ज़ुर्माना करने, मज़दूरी में कटौतियाँ करने, उससे ओवरटाइम काम करने की माँग करने का अधिकार होता है, आदि।

एंगेल्स – काम के उचित दिन की उचित मज़दूरी

एंगेल्स ने यह लेख ‘दि लेबर स्टैण्डर्ड’ के लिए मई 1-2, 1881 को लिखा था जो उसी वर्ष 7 मई को प्रकाशित हुआ था। इस लेख में एंगेल्स ने बताया है कि मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक लक्ष्य सिर्फ पूँजीपति वर्ग द्वारा तय तथाकथित उचित मज़दूरी को प्राप्त करना नहीं है। वास्तव में यह ”उचित मज़दूरी” उचित है ही नहीं। मज़दूर वर्ग का अन्तिम लक्ष्य अपने श्रम के उत्पादों पर पूर्ण नियन्त्रण है। यह एक अलग बात है कि जब पूँजीपति वर्ग अपने द्वारा तय तथाकथित उचित मज़दूरी देने से भी मुकर जाता है तो मज़दूर आन्दोलन को उसके लिए भी लड़ना होता है। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं होना चाहिए कि मज़दूर वर्ग का आन्दोलन इसे ही अन्तिम लड़ाई समझे।

एँगेल्स – मार्क्‍स की समाधि पर भाषण

जैसेकि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्‍स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होंने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी — कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व मनुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, क़ानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म सम्बन्धी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसाकि अब तक होता रहा है।

लेनिन – मार्क्‍सवाद और सुधारवाद

सुधारवादियों का मजदूरों पर प्रभाव जितना अधिक सशक्त होता है, मजदूर उतने ही निर्बल होते हैं, बुर्जुआ वर्ग पर उनकी निर्भरता उतनी ही ज्यादा होती है, तरह-तरह के दाँव-पेंचों से इन सुधारों को शून्य में परिणत कर देना बुर्जुआ वर्ग के लिए उतना आसान होता है। मजदूर आन्दोलन जितना अधिक स्वावलम्बी तथा गहन होता है,उसके ध्‍येय जितने अधिक विस्तृत होते हैं, सुधारवादी संकीर्णता से वह जितना अधिक मुक्त होता है, मजदूरों के लिए अलग-अलग सुधारों को सुदृढ़ बनाना तथा उनका उपयोग करना उतना ही आसान होता है।

कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से एक अंश

आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता। … बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।

कम्युनिस्ट जीवनशैली के बारे में माओ त्से-तुङ के कुछ उद्धरण

कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाये? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी यह देखना चाहिए कि वह व्यापक मज़दूर-किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं? क्रान्तिकारी वह है जो मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाना चाहता हो, और अपने अमल में मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है या प्रतिक्रान्तिकारी है। अगर कोई आज मज़दूर-किसानों के जन-समुदाय के साथ एकरूप हो जाता है, तो आज वह क्रान्तिकारी है; लेकिन अगर कल वह ऐसा नहीं करता या इसके उल्टे आम जनता का उत्पीड़न करने लगता है, तो वह क्रान्तिकारी नहीं रह जाता अथवा प्रतिक्रान्तिकारी बन जाता है।

लेनिन – बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा

बुर्जुआ जनवाद, जो सर्वहारा वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने और उसे संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते मूल्यवान है, सदैव संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा होता है, वह सदा अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा होता है।