बुर्जुआ चुनावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण

व्ला.इ. लेनिन

lenin with peopleजो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की बेवकूफी या पाखण्ड है, यह वर्ग-संघर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावों को देना है।

सर्वहारा अपने वर्ग-संघर्ष को चलाता है और हड़ताल शुरू करने के लिए चुनावों का इन्तज़ार नहीं करता, हालाँकि हड़ताल की पूर्ण सफलता के लिए मेहनतकश जनता के बहुमत की (और फलत: आबादी के बहुमत की) हमदर्दी हासिल करना ज़रूरी है। सर्वहारा (पूँजीपति वर्ग की निगरानी में और उसकी ग़ुलामी के तहत होनेवाले) प्रारम्भिक चुनावों का इन्तज़ार किये बिना अपने वर्ग-संघर्ष को चलाता है और पूँजीपति वर्ग का तख्ता उलट देता है। सर्वहारा को बख़ूबी मालूम है कि उसकी क्रान्ति की सफलता के लिए, पूँजीपति वर्ग का तख्ता सफलतापूर्वक उलट देने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी है कि मेहनतकश जनता के बहुमत (और फलत: आबादी के बहुमत) की हमदर्दी उसके साथ हो।

संसदीय कूढ़मगज़ और आज के लुई ब्लां, यह निश्चय करने के लिए कि उन्हें मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति प्राप्त है या नहीं, निरपेक्ष रूप से चुनावों का ”आग्रह” करते हैं, उन चुनावों का, जो निश्चित रूप से पूँजीपति वर्ग की निगरानी में होते हैं। परन्तु यह दृष्टिकोण उन लोगों का दृष्टिकोण है, जो जीवन्मृत हैं, कोरी पण्डिताऊ बुद्धि रखनेवाले हैं या धूर्त्त प्रवंचक हैं।

वास्तविक जीवन तथा वास्तविक क्रान्तियों के इतिहास से पता चलता है कि अक्सर ”मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति” किसी भी चुनाव द्वारा सिद्ध नहीं की जा सकती (उन चुनावों का तो कहना ही क्या, जो शोषकों की निगरानी में, शोषकों तथा शोषितों की ”समानता” को बनाये हुए होते हैं!)। अक्सर ”मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति” चुनावों द्वारा बिल्कुल ही सिद्ध नहीं होती, बल्कि किसी एक पार्टी के विकास द्वारा सोवियतों में उस पार्टी के प्रतिनिधित्व की वृद्धि द्वारा अथवा किसी ऐसी हड़ताल की सफलता द्वारा, जिसने किसी कारण अत्यधिक महत्‍व प्राप्त कर लिया हो, अथवा गृहयुद्ध में प्राप्त की जानेवाली सफलताओं आदि, आदि द्वारा सिद्ध होती है।

उदाहरण के लिए, हमारी क्रान्ति के इतिहास ने प्रत्यक्ष कर दिया है कि उराल तथा साइबेरिया के विशाल भूखण्डों में सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रति मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति का पता चुनावों के जरिये नहीं चला, बल्कि उस प्रदेश में ज़ारशाही जनरल कोल्चाक के शासन के वर्ष भर के अनुभव से चला। प्रसंगवश, कोल्चाक का शासन भी शीदेमान और काउत्स्की जैसे लोगों (रूसी में वे ”मेन्शेविक” तथा ”समाजवादी-क्रान्तिकारी”, संविधान सभा के समर्थक कहे जाते हैं) के ”संश्रय” से शुरू हुआ, ठीक उसी तरह जैसे इस घड़ी जर्मनी में गाअज़े और शीदेमान के अनुयायी अपने ”संश्रय” द्वारा फॉन गोल्त्स या लुडेनडोपर्फ के सत्तारूढ़ होने के लिए रास्ता साफ़ कर रहे हैं, उनकी इस सत्ता को एक ऐसा लिबास पहना रहे हैं कि वह प्रतिष्ठित दिखाई पड़े। चलते-चलते यह भी कह देना चाहिए कि मन्त्रिमण्डल में गाअज़े और शीदेमान का संश्रय टूट चुका है, परन्तु समाजवाद के इन द्रोहियों का राजनीतिक संश्रय अभी भी क़ायम है। प्रमाण : काउत्स्की की किताबें, Vorwarts में स्टाम्पफर के लेख तथा अपने ”एकीकरण” के बारे में काउत्स्की और शीदेमान के लेख, आदि।

जब तक मेहनतकश जनता का विशाल बहुमत अपने हरावल को  सर्वहारा को  अपनी सहानुभूति और समर्थन न दे, सर्वहारा क्रान्ति असम्भव है। परन्तु यह सहानुभूति और यह समर्थन एकदम से प्रगट नहीं होते और न ही वे चुनाव द्वारा निश्चित होते हैं। वे दीर्घ, कठोर, विकट वर्ग-संघर्ष के दौरान प्राप्त किये जाते हैं। मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति तथा समर्थन के लिए सर्वहारा जो वर्ग-संघर्ष चलाता है, वह सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता पर अधिकार होने के साथ समाप्त नहीं हो जाता। सत्ता पर अधिकार होने के बाद भी यह संघर्ष चलता रहता है, परन्तु अन्य रूपों में। रूसी क्रान्ति में परिस्थितियाँ सर्वहारा वर्ग के लिए (उसके अधिनायकत्व के लिए उसके सघर्ष में) असाधारण रूप में अनुकूल थीं, क्योंकि सर्वहारा क्रान्ति ऐसे समय हुई, जब पूरी जनता के हाथ मे हथियार थे और जब पूरा किसान वर्ग सामाजिक-विश्वासघातियों, मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की ”काउत्स्कीवादी” नीति से बुरी तरह खीझकर ज़मीन्दारों के शासन को उलट देना चाहता था।

लेकिन रूस में भी, जहाँ सर्वहारा क्रान्ति के समय परिस्थितियाँ असाधारण रूप से अनुकूल थीं, जहाँ समूचे सर्वहारा वर्ग, समूची सेना और समूचे किसान वर्ग की अद्भुत एकता तुरन्त हासिल हो गयी थी, वहाँ भी सर्वहारा वर्ग को अपना अधिनायकत्व बरतते हुए महीनों और बरसों तक मेहतनकश जनता के बहुमत की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। दो साल के बाद यह संघर्ष लगभग समाप्त हो गया है, लेकिन अभी पूरी तरह सर्वहारा के हक़ में समाप्त नहीं हुआ है। दो सालों में हमने उराल और साइबेरिया समेत रूस के मज़दूरों और श्रमजीवी किसानों के विशाल बहुमत की पूर्ण सहानुभूति और समर्थन प्राप्त कर लिया है, परन्तु अभी तक हमने उक्रइना में (शोषक किसानों से भिन्न) श्रमजीवी किसानों के बहुमत का पूर्ण समर्थन और सहानुभूति प्राप्त नहीं की है। हम एन्टेन्ट की सैनिक शक्ति द्वारा कुचले जा सकते हैं, (परन्तु कुचले जायेंगे नहीं), लेकिन रूस के अन्दर अब हमें मेहनतकश जनता के इतने प्रबल बहुमत की इतनी पक्की सहानुभूति प्राप्त है कि संसार में आज तक इतना अधिक जनवादी राज्य और कोई नहीं हुआ है, जितना हमारा राज्य है।

सत्तारूढ़ होने के लिए सर्वहारा संघर्ष के इस जटिल, कठिन तथा सुदीर्घ इतिहास की ओर, जिसमें संघर्ष के रूपों का असाधारण वैविध्य दिखाई देता है और जिसमें आकस्मिक परिवर्तनों, मोड़ों और संघर्ष के एक रूप से दूसरे में रूपान्तरण की असामान्य रूप से भरमार है, थोड़ा-सा ध्यान देने से ही उन लोगों की ग़लती प्रत्यक्ष हो जाती है, जो पूँजीवादी संसद, प्रतिक्रियावादी ट्रेड-यूनियनों, ज़ारशाही अथवा शीदेमान शॉप स्टीवर्ड्स समितियों या मज़दूर परिषदों, इत्यादि, इत्यादि में भाग लेने की ”मनाही” करना चाहते हैं। यह ग़लती इसलिए होती है कि मज़दूर वर्ग के सर्वथा ईमानदार, निष्ठापूर्ण तथा साहसपूर्ण क्रान्तिकारी लोग क्रान्तिकारी अनुभव से सम्पन्न नहीं हैं और इसलिए कार्ल लीब्कनेख्त और रोज़ा लुक्ज़ेमबुर्ग एक बार नहीं, हज़ार बार सही थे, जब जनवरी, 1919 में उन्होंने इस ग़लती को समझा और उसकी ओर इशारा किया, मगर फिर भी सर्वहारा क्रान्तिकारियों के साथ रहने का फैसला किया, गोकि ये क्रान्तिकारी उस छोटे-से सवाल के बारे में ग़लती पर थे, बजाय इसके कि समाजवाद के द्रोहियों, शीदेमान और काउत्स्की जैसे लोगों के पक्ष में जाते, जिन्होंने पूँजीवादी संसद में भाग लेने के प्रश्न पर ग़लती नहीं की थी, परन्तु जो समाजवादी नहीं रह गये थे और कूपमण्डूक जनवादी तथा पूँजीपति वर्ग के साथी-संघाती हो गये थे।

फिर भी ग़लती तो ग़लती ही है और उसकी आलोचना करना तथा उसके सुधार के लिए संघर्ष करना ज़रूरी है।

समाजवाद के साथ ग़द्दारी करने वालों के ख़िलापफ़, शीदेमान तथा काउत्स्की जैसे लोगों के ख़िलाफ निर्मम रूप से संघर्ष करना आवश्यक है, परन्तु यह संघर्ष पूँजीवादी संसदों, प्रतिक्रियावादी ट्रेड-यूनियनों, इत्यादि में भाग लेने या न लेने के प्रश्न पर नहीं होना चाहिए। इस प्रश्न को लेकर संघर्ष करना स्पष्ट ही एक ग़लती होगी, और उससे भी बड़ी ग़लती होगी मार्क्‍सवाद के विचारों तथा उसकी व्यावहारिक नीति (एक शक्तिशाली, केन्द्रीकृत राजनीतिक पार्टी) को छोड़कर संघाधिपत्यवाद के विचारों तथा व्यवहार को ग्रहण करना। पूँजीवादी संसदों में प्रतिक्रियावादी ट्रेड-यूनियनों में और उन ”मज़दूर परिषदों” में जिन्हें शीदेमान के अनुयायियों ने विरूपित और नि:सत्व कर दिया है, पार्टी की शिरक़त के लिए काम करना ज़रूरी है, यह ज़रूरी है कि जहाँ भी मज़दूर मौजूद हैं, जहाँ भी मज़दूर से बात की जा सके, और मेहनतकश जन समुदायों का प्रभावित किया जा सके, वहाँ पार्टी मौजूद हो। क़ानूनी और गैरक़ानूनी काम को बहरसूरत मिलाना होगा और ग़ैरक़ानूनी पार्टी को अपने मज़दूर संगठनों द्वारा क़ानूनी कार्रवाइयों पर सतत, व्यवस्थित तथा कठोर नियन्त्रण रखना होगा। यह कोई आसान काम नहीं है, परन्तु सामान्य: सर्वहारा क्रान्ति ”आसान” कामों से या संघर्ष के ”आसान” तरीक़ों से परिचित नहीं है और न हो ही सकती है।

इस मुश्किल काम को हर हाल में पूरा करना होगा। शीदेमान और काउत्स्की के गिरोह और हममें अन्तर इतना ही नहीं है (न ही वह मुख्य अन्तर है) कि वे सशस्त्र विद्रोह की आवश्यकता को ही नहीं मानते और हम मानते हैं। मुख्य और बुनियादी अन्तर यह है कि सभी कार्यक्षेत्रों में (पूँजीवादी संसदों, ट्रेड-यूनियनों, सहकारी समितियों, पत्रकारिता-कार्य, आदि में) वे एक असंगत, अवसरवादी नीति का, यहाँ तक कि खुल्लमखुल्ला दग़ाबाज़ी और ग़द्दारी की नीति का अनुसरण करते हैं।

‘मज़दूर आन्दोलन में जड़सूत्रवाद और संकीर्णतावाद का विरोध’ नामक संकलन (प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1986) में संकलित ‘इतालवी, फ़्रांसीसी और जर्मन कम्युनिस्टों को अभिवादन’ शीर्षक निबन्ध-अंश से।


 

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