फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों में कर्मचारियों के हालात
लॉकडाउन में स्विगी, ज़ोमैटो आदि की बेहिसाब कमाई की क़ीमत वर्कर चुका रहे हैं अपनी छँटनी और लूट से

– अनुपम

कोरोना लॉकडाउन के दौरान फ़ूड डिलीवरी कम्पनियों ने जमकर मुनाफ़ा कमाया। महामारी के दौरान घरों में बन्द लोगों को खाने-पीने की चीज़ें पहुँचाने के काम पर सरकार द्वारा रोक नहीं लगायी गयी थी इसलिए अपनी रोज़ी कमाते रहने के लिए अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में भी फ़ूड डिलीवरी कर्मचारी कोरोना महामारी के साये में यह काम करते रहे। सरकार और कम्पनी दोनों की तरफ़ से ही उनके इस कठिन काम की तारीफ़ की जाती रही। मोदी ने उन्हें ‘फ़्रण्टलाइन वर्कर’ कहा तो वहीं कम्पनियों ने उन्हें ‘हीरो’ कहा।
बेशक डिलीवरी ब्वॉय जो कर रहे थे, उसकी काफ़ी अहमियत थी। लेकिन डिलीवरी वर्करों की तारीफ़ के पुल बाँधने वाली कम्पनियों और सरकार ने उन्हें इस मेहनत बदले में बेरोज़गारी और शोषण के अलावा कुछ नहीं दिया। संकट के दौरान जहाँ एक ओर स्विगी (फ़ूड डिलीवरी की दैत्याकार कम्पनियों में से एक) ने फ़्लीट मैनेजर तक के पद ख़त्म कर दिये वहीं डिलीवरी वर्कर्स की तनख़्वाह में क़रीब 60 प्रतिशत तक की कटौती कर दी। दूसरी दैत्याकार कम्पनी, ज़ोमेटो का भी ऐसा ही यही हाल रहा।
कई डिलीवरी वर्कर बताते हैं कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान कोरोना का ख़तरा उठाते हुए कोरोना प्रभावित अस्पतालों के अन्दर तक जाकर भी ऑर्डर पहुँचाये। काम के दौरान पुलिस द्वारा एक बार उनकी बाइक भी ज़ब्‍त कर ली गयी थी और तब उन्होंने उसे छुड़वाने के लिए ख़ुद अपनी जेब से 2,000 रुपये ख़र्च किये थे। कम्पनी प्रशासन ने उनकी कोई मदद नहीं की। पहले तो कम्पनी का कोई कर्मचारी उनकी शिकायत सुनता था लेकिन अब उसकी कॉल सेंटर बना द‍िया गया, जिस पर फ़ोन का या तो जवाब ही नहीं म‍िलता या फिर गोलमोल जवाब दिये जाते हैं। बार-बार शिकायत करो तो उल्‍टा नौकरी से निकालने की धमकी दी जाती है।
ऑनलाइन न्यूज़पोर्टल, द वायर में छपी एक रिपोर्ट से हमें ऐसे कई वर्कर्स के बारे में पता चला जिन्हें लॉकडाउन के दौरान विभिन्न कारणों से निकाल बाहर किया गया और जो बचे, उनकी तनख़्वाह में कटौती कर दी गयी। कम्पनी के इस रवैये के विरोध में हड़तालें भी हुईं, लेकिन कम्पनी ने हड़तालों को छल और बल से दबा द‍िया और बहुत से लोगों को निकाल दिया।
एक डिलीवरी वर्कर राज ने बताया कि जब उसने स्विगी कम्पनी ज्वाइन की थी तो उसने काम की कठिनाइयों की बिल्कुल भी परवाह नहीं की थी। जब वह पन्द्रह वर्ष का था तभी उसके पिताजी विकलांग हो गये थे। नतीजतन, उसने कम उम्र में ही रोज़ी-रोटी के लिए काम करना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू में दुकानों और फ़ैक्टरियों में काम करने के बाद वह 2018 में स्विगी के लाँच होते ही उसके लिए काम करने लगा, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि वह यहाँ कमरतोड़ मेहनत के बावजूद भी ज़्यादा कमा सकेगा। शुरू के दो सालों तक ऐसा ही हुआ लेकिन उसके बाद फ़रवरी 2020 के बाद मार्च से स्थितियाँ बिल्कुल ही बदल गयीं।
मार्च में लॉकडाउन के दौरान भी उसे ऑर्डर आते रहे, लेकिन शहर के कुछ हिस्सों में कण्टेन्मेण्ट ज़ोन बन जाने के चलते वह कई ऑर्डर डिलीवर ही नहीं कर पाया। इसका बहाना लेकर कम्पनी ने बिना किसी सुनवाई के उसकी आईडी ब्लॉक कर दी। काफ़ी मशक़्क़त करने पर उसकी आईडी पूरे 25 दिनों के बाद फिर से चालू की गयी। तब तक उसके ऊपर कई सारे क़र्ज़ों का बोझ बढ़ चुका था। उन्हें चुका पाने के लिए स्विगी में मिलने वाला वेतन इस बार काफ़ी कम था। लाचार होकर राज ने स्विगी के अलावा ऐमाज़ॉन कम्पनी के लिए भी काम करना शुरू कर दिया। इन दिनों वह ऐमाज़ॉन के लिए सुबह 6 बजे से दोपहर के 2 बजे तक काम करता है और फिर उसके बाद शाम 6 बजे से आधी रात तक दूसरी शिफ़्ट में स्विगी के लिए खटता है।
पहले से दोगुनी मेहनत करके भी बद से बदतर ज़िन्दगी बिता रहा राज अब अपने काम में कोई भविष्य नहीं देखता और निराश होकर दूसरे कामों को इससे बेहतर बताता है। लेकिन बेरोज़गार होने के डर से वह मजबूरन जैसे-तैसे यही काम करके अपना और अपने परिवार का ख़र्च चला रहा है।
निखिल नाम के एक फ़्लीट मैनेजर को भी स्विगी कम्पनी ने निकाल बाहर किया। यह छँटनी कोरोना महामारी के कारण नहीं बल्कि कम्पनी की पहले से तय योजना का एक हिस्सा थी। कम्पनी ने पहले से ही तय कर रखा था कि वह फ़्लीट मैनेजरों को हटाकर उनकी जगह एक नया सिस्टम “रिमोट ऑपरेशन्स कण्ट्रोल” लाँच करेगी, जिसमें एक केन्द्रीय कॉल सेण्टर होगा और बाक़ी सारा काम कम्प्यूटराइज़्ड होगा। निखिल के अनुसार, उसको और उसके 53 सहकर्मियों को ऐसी कुछ बातों की नवम्बर 2019 में ही भनक लग गयी थी।
निखिल ने बताया कि उसने कम्पनी के लिए पूरे पाँच साल तक प्रतिदिन 9-10 घण्टे काम किया। रोज़ ही 250 से लेकर 350 तक कॉलें उसके पास आती थीं। उसका काम था कि वह डिलीवरी वर्कर्स के काम पर नज़र रखे और किसी दुर्घटना की स्थिति में उन तक मदद पहुँचाने का काम करे। यह काम वह 11 सहायकों के साथ मिलकर करता था। लेकिन कम्पनी की नयी नीति ने उन सबसे उनकी नौकरी छीन ली।
फ़्लीट मैनेजर को हटाकर कम्पनी ने किस तरह अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ा, इसके बहुत सारे उदाहरण वर्कर्स ने ख़ुद अपने अनुभव के आधार पर बताये। जैसे कि साहिल ने बताया कि सितम्बर में उसे किसी ग्राहक ने एक ऑर्डर दिया था, जिसे लेने के वक़्त उसे पता चला कि वह ऑर्डर रेस्टोरेण्ट में तैयार नहीं है। ऐसे वक़्त में ग्राहक द्वारा बार-बार कॉल किये जाने पर उसे फ़्लीट मैनेजर की ज़रूरत महसूस हुई, लेकिन डेढ़ घण्टे तक उसे नये सिस्टम से कोई सहायता नहीं मिली। अन्ततः ऑर्डर तो रद्द हो गया और साथ ही में उसके खाते से दस रुपये भी काट लिये गये। नये सिस्टम का डिलीवरी वर्करों के साथ सम्बन्ध कितना दोस्ताना है, यह इसी से पता लगता है कि वे समय पर किसी काम नहीं आते।
वहीं, दूसरी ओर कर्मचारियों की शिकायतें सुनने के लिए मार्च 2020 में जो तरीका लागू किया गया, उसकी कई सारी ख़ामियों ने वर्कर्स की एक बड़ी संख्या को चुपचाप रहने के लिए मजबूर कर दिया। पहली बात कि फ़ॉर्म की भाषा भी अंग्रेज़ी रखी गयी, दूसरी यह कि लिखित में होने के चलते वर्कर्स और कम्पनी के बीच संवाद सरल नहीं रह गया। सूरत में काम करने वाले डिलीवरी वर्कर इरशाद बताते हैं कि अगर उन्हें अपने रूट को किसी वजह से बदलना पड़े, तो कम्पनी उनके पास चेतावनी भरे नोटिस भेजती है। इसके बुरे असर (कमीशन में कटौती और छँटनी) से बचने के लिए उनके पास एक ही चारा होता है कि वह कम्पनी का गूगल फ़ॉर्म भरकर कम्पनी को सूचित करें। इसी काम में उनके हफ़्ते के आख़िरी दिन का काफ़ी हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
अप्रैल के महीने में डिलीवरी के लिए बाइक चलाते वक़्त स्विगी कर्मचारी इरशाद का एक्सीडेण्ट हो गया और उसके बाँये हाथ में चोट लग गयी। दर्द होने के बावजूद वह ऑर्डर डिलीवर करके ही अस्पताल गया। जब उसे पता चला कि उसे मोच आयी है तो वह अपने दोस्त की मदद से कम्पनी के हब में गया। उसे कम्पनी ने 2018 में यह वादा किया था कि वह चोट वग़ैरह लगने की स्थिति में उसे सवेतन अवकाश देगी, लेकिन हब में जाने पर उसे बताया गया कि कम्पनी केवल कोरोना पीड़ितों को ही सवेतन छुट्टी दे रही है, इसलिए उसे यह सुविधा नहीं दी जायेगी।
छुट्टी की सुविधा देने वाली स्कीम ‘स्विगी स्माइल’ कर्मचारियों को उनके काम की स्पीड और क्वालिटी को ध्यान में रखकर उन्हें कुछ ही दिन छुट्टी लेने का मौक़ा देती थी। 2020 में उसे भी बन्द कर दिया गया और यह नियम लाया गया कि अगर वे ज़्यादा समय तक स्विगी के ऐप पर लॉग ऑफ़ रहते हैं तो उनकी आईडी ब्लॉक कर दी जायेगी। इसके ज़रिये भी बड़ी तादाद में वर्कर्स बाहर निकाले गये।
स्विगी टेक्नोलॉजी के इस इस्तेमाल को अपने स्तर के कारोबार की एक ज़रूरत बताता है। वह बताता है कि अब उनके काम को सम्भालना इन्सानों के बस की बात नहीं है, इसलिए ही उसकी जगह पर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि स्विगी को बाज़ार में स्थापित करने में डिलीवरी वर्करों, फ़्लीट मैनेजरों और अन्य कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 2019 से स्विगी का फैलाव अगर देश के 500 शहरों में हो सका, तो इसलिए कि स्विगी के लिए काम करने वाले कर्मचारियों ने दिन-रात सख़्त मेहनत की है। वहीं, दूसरी तरफ़ कम्पनी के अनुसन्धान करने वाले विभाग का अध्यक्ष ख़ुद ही अपनी मीटिंगों में कर्मचारियों को मशीन और उनके डाटा को अपने स्टार्टअप का ईंधन बताता है। यानी कि यह सब कुछ मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए किया गया है न कि किसी मजबूरी में।
नये मानवविहीन स्वचालित तंत्र द्वारा कम्पनी ने जो व्यवस्था क़ायम की है, वह वर्कर्स में आतंक पैदा करती है। कम्पनी द्वारा इस नये ऑटोमेशन के ज़रिये कर्मचारी की हर गतिविधि बारीकी से रिकॉर्ड की जाती है। वर्कर जहाँ भी जाता है, वहाँ उसे अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अपनी सेल्फ़ी अपलोड करनी होती है। यह भी देखा जाता है कि उसने अपनी पोशाक ठीक से पहनी है कि नहीं। उसके किसी दुकान या होटल से घर या ऑफ़िस तक ऑर्डर पहुँचाने के समय अन्तराल को भी नोट किया जाता है। इस पूरे काम में गड़बड़ी होने पर उसका लेखा-जोखा उसे हफ़्ते के आख़िर में एक धमकी भरे मैसेज के रूप में भेजा जाता है। मैसेज के अनुसार, अगर कोई वर्कर किसी ग़लती को दो से ज़्यादा बार करेगा तो उसकी आईडी बन्द कर दी जायेगी।
नयी टेक्नोलॉजी के ज़रिये कम्पनी वर्कर को न सिर्फ़ जीपीएस के ज़रिये, बल्कि ब्लूटूथ के ज़रिये भी ट्रैक करती है। इतना सब कुछ करने के बाद भी कम्पनी का वास्ता इस चीज़ से बिल्कुल भी नहीं होता कि वर्कर काम करके ख़ुश है कि नहीं।
नौकरी छूटने के इन सभी ख़तरों से जूझते हुए जो लोग नौकरी में क़ायम रहते हैं, उनको मिलने वाला वेतन उनकी ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर पायेगा, इसकी भी कोई गारण्टी इस काम में नहीं है। लॉकडाउन के बाद से कम्पनी ने प्रति ऑर्डर भुगतान में कमी लाने के लिए भी नये-नये हथकण्डे अपनाते हुए यह नियम लागू किया है कि एक जगह पर दो ऑर्डर डिलीवर करने पर दूसरे ऑर्डर पर कम पैसे मिलेंगे। सामान्य ऑर्डर पर किया जाने वाला भुगतान भी कम्पनी की तरफ़ से कम कर दिया गया है। न्यूनतम भुगतान में 57 प्रतिशत की कमी करके उसे 15 रुपये प्रति ऑर्डर कर दिया गया है। पेट्रोल, डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों को भी ध्यान में रखा जाये, तो इससे स्थिति और भी भयावह मालूम होती है, क्योंकि स्विगी के वर्करों को पेट्रोल का ख़र्च भी कम्पनी नहीं देती बल्कि वर्करों को अपने जेबख़र्च से ही इसे किसी तरह से चलाना होता है।
सूरत के डिलीवरी वर्कर किशन ने कम्पनी के इस रवैये के बारे में वायर को सितम्बर 2020 में दिये अपने एक इण्टरव्यू में यह बताया कि छह-आठ साल पहले से शुरू हुई सारी दिक़्क़तें अब इतनी बढ़ गयी हैं कि उन्हें लगता है जैसे वे कम्पनी के ग़ुलाम हों। वहीं विक्रम कहते हैं कि मोदी ने मन की बात में उनकी प्रशंसा की, और कम्पनी ने भी तारीफ़ ही की, लेकिन दोनों ने ही उन्हें कुछ नहीं दिया, बल्कि कोरोना के दौरान मेहनत करने के बदले में उनकी तनख़्वाह ही काट ली गयी।
ऑनलाइन जॉब पोर्टल आसानजॉब्स डॉट कॉम पर स्विगी द्वारा नौकरियों के बारे में डाले गये 2018 के विज्ञापन जहाँ पहले एक वर्कर की तनख़्वाह को 40,000 के ऊपर बताते थे तो आज कम्पनी ने उन्हीं नौकरियों की घोषित मासिक आय 18,000 से ऊपर होने का दावा किया है। जबकि असल में आमदनी और भी कम होती है। एक ऑर्डर पर उन्‍हें मुश्किल से 15 रुपये मिलते हैं।
लॉकडाउन के दौरान कम्पनी द्वारा किये गये इस शोषण का विरोध करने के लिए वर्कर्स ने अगस्त के महीने से ही हड़ताल करनी शुरू की। सबसे पहले चेन्नई में ऐसा हुआ, फिर सितम्बर में साउथ दिल्ली के 150 वर्करों ने ऐसा किया। दिसम्बर तक यह हड़ताल लगभग पूरे देश में फैल गयी। उन्होंने कम्पनी की ऐप अनइन्सटॉल (बन्द) कर दी। कम्पनी ने हड़ताल तोड़ने के लिए धमकी मैनेजरों तक की मदद ली। वर्करों को झुकाने के लिए दिल्ली में दूसरी कम्पनियों, जैसे रेपिडो और शैडोफ़ॉक्स को ठेका देकर उनके डिलीवरी वर्करों से काम लिया गया। हड़ताल में भाग लेने वाली यूनियन, ऑल इण्डिया गिग वर्कर्स यूनियन की संयोजक कृष्णास्वामी ने बताया कि स्विगी की तरफ़ से मैसेज आते तो ख़ूब हैं लेकिन अगर आप उनका जवाब देना चाहते हों तो उसके लिए कम्पनी की तरफ़ से कोई व्यक्ति आपकी पहुँच में नहीं होता। वर्कर अगर हब जाकर कम्पनी के किसी व्यक्ति से मिलने जाते हैं तो वहाँ धमकी मैनेजर आकर धमकियाँ देने व समझाने लगते हैं। अब कम्पनी फ़्लीट मैनेजर के पद को ख़त्म कर चुकी थी और अपने अधिकतर काम स्वचालित कर चुकी थी।
पिछले वर्ष 18 मई को स्विगी के सहसंस्थापक ने अपनी कम्पनी के प्रशासनिक ढ़ाँचे को एक ईमेल के ज़रिये भी यह बात बतायी थी कि कर्मचारियों पर व्यय को कम किया जाना मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए आज ज़रूरी हो गया है। और ईमेल के अगले दिन से ही वर्करों-मैनेजरों को निकालने, हब्स को बन्द करने का सिलसिला शुरू हो गया था। जबकि अब कम्पनी ने वर्करों के वेतन में कटौती तथा उनकी हड़ताल ख़त्म करने के लिए धमकी मैनेजर भेजने की बात को सिरे से ही नकार दिया है। कम्पनी कर्मचारियों के शोषण की बात को स्वीकारना तो दूर, बल्कि उन्हें कर्मचारी मानने से ही इन्कार करती है। वह उन्हें स्वतंत्र और स्वरोज़गार प्राप्त व्यक्ति बताती है।
अत्याधुनिक तकनीक से लैस शोषण की इस मशीनरी का मुक़ाबला भी व्यापक क्रान्तिकारी एकता बनाकर ही किया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

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