देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे मोदी सरकार के चहेते
नमिता
पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों की श्रम शक्ति के शोषण पर टिकी होती है और पूँजीवादी दैत्य मज़दूरों का खून पीकर ही जीता है, लेकिन इनकी हवस इतने से ही नहीं मिटती । मुनाफे की अंधाधुंध दौड़ में पगलाए हाथी की तरह ये हर उस चीज़ को कब्ज़े में कर लेना चाहते हैं, जिससे इनका मुनाफा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहे । 1991 के बाद जबसे उदारवादी नीतियाँ जोर-शोर से शुरू हुई हैं, उसके बाद से ही देश के प्राकृतिक संसाधन पूँजीपतियों को लुटाने की गति तेज़ हुई है ।
वैसे तो भारत में बनने वाली अलग-अलग सरकारें पूँजीपतियों की सेवा में तल्लीन रहती हैं। वे इस तंत्र को पुख्ता बनाती हैं जिससे पूँजीपति वर्ग आम जनता का शोषण बेरोकटोक जारी रख सके और देश के तमाम प्राकृतिक संसाधन भी पूँजीपतियों और उनके सेवकों, राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों को लूटने की खुली छूट मिल सके । वे इस बात को साबित करती रही हैं कि सरकारें सिर्फ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती है ।
लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आते ही यह गति सरपट दौड़ने लगी। तमाम लोकलुभावन जुमलों और भ्रष्टाचार को किसी भी हालत में बर्दाश्त ना करने का दावा करके सत्ता में आयी मोदी सरकार में बेशर्मी से भ्रष्टाचार जारी है। कोयला, अनेक बेशकीमती खनिज पदार्थ, नदियाँ, जंगल, पहाड़ जैसे प्राकृतिक संसाधन और ज़मीनें सारे नियम-कायदों को ताक पर रखकर कौड़ियों के भाव पूँजीपतियों को लुटाये जा रहे हैं।
इसकी एक मिसाल है भाजपा सांसद हेमामालिनी को मुम्बई के अँधेरी में नृत्य अकादमी खोलने के लिए करोड़ों रुपये की सरकारी ज़मीन मात्र 70 हज़ार रुपये में दे दी गयी और जब सवाल उठने लगे तो महाराष्ट्र के राजस्व मंत्री ने बचाव करते हुए कहा यह ज़मीन आबंटन कोई गलती नहीं, बल्कि सरकारी नीति के तहत किया गया है। यह भी कहा कि अगर हेमा मालिनी से जमीन वापस ली जाती है तो कलाकारों, शिक्षाविदों, पूर्वमंत्रियों, क्लबों और जिमखाना को दिये गये आबंटन भी वापस लेने होंगे ।
यानि वे जाने-अनजाने यह साफ़-साफ़ कह गये ़कि पहले भी तो जनता की संपत्ति औने-पौने दाम पर पूँजीपतियों को लुटायी जाती रही है तो अब यह सवाल क्यों उठाया जा रहा है। और सच ही तो है कि पूँजीपतियों को बेरोकटोक और सस्ते दामों पर जमीन हड़पने में मदद करने के लिए भूमि अधिग्रहण नीति में भी बदलाव किया जा रहा है ।
दूसरा वाकया गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की पुत्री अनार पटेल और उनके बिजनेस पार्टनर की कंपनी को 422 एकड़ जमीन 92% की छूट पर दिये जाने का है। मालूम हो कि गुजरात सरकार ने 2010 में गीर के आधिकारिक वन क्षेत्र में यह जगह 15 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से, यानि 1।5 करोड़ रुपये में ‘वाइल्डवुड रिज़ॉर्ट एंव रियल्टीज़ प्रा.लि. को दी । इस जमीन का बाजार मूल्य 125 करोड़ रुपये था । ज्ञात हो कि इस कंपनी में अनार पटेल का भी हिस्सा है । इसके बाद कंपनी ने आसपास की 172 एकड़ कृषि भूमि भी खरीद ली और राज्य सरकार ने कृषि भूमि को व्यावसायिक भूमि में बदलने की इजाज़त भी दे दी । कंपनी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए सभी नियमों-कायदों को ताक पर रखकर राजस्व विभाग के सयुंक्त सचिव ने कहा कि राज्य द्वारा लिया गया फैसला बिलकुल सही है और इससे राज्य में पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलेगा । अनार पटेल भी अपने और सहयोगियों के बचाव में खुलकर सामने आ गयी और “समाजसेवा” पर भाषण दे डाला । उन्होंने कहा कि, “मैंने और मेरे पति ने जीवन का 22 साल से ज़्यादा वक्त समाज की सेवा में अर्पित कर दिया । मेरा मानना है कि ईमानदारी और नैतिकता के साथ कारोबार करना सबका हक़ है।”
उनकी “नैतिकता” और “ईमानदारी” यही है कि लोगों को उनकी जगह-जमीन से उजाड़कर, कौड़ियों के भाव प्राकृतिक संसाधन लूटकर उस पर कारोबार खड़ा किया जाये और मनमाफ़िक मुनाफ़ा लूटा जाए । वैसे इन नेताओं और पूँजीपतियों से इससे ज़्यादा उम्मीद भी क्या की जा सकती है कि वह जनता को खुलकर लूटें और उस लूट को जायज़ ठहराने के लिए नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ायें ।
जिस देश में रोज़ हज़ारों बच्चे भूख से मरते हों, करोड़ों बेघर हों, बेरोज़गार हों, बुनियादी जरूरत की सारी चीज़ें महँगी हो गयी हों, शिक्षा, स्वास्थ्य की सब्सिडी में लगातार कटौती की जा रही हो और दूसरी तरफ पूँजीपतियों के करोड़ों रुपये के क़र्ज़ माफ़ किये जा रहे हों, उस देश में जब जनता शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार का सवाल उठाती है तो कहा जता है कि देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है । गरीबों को ही कुर्बानी करने और अपने खाली पेट को थोड़ा और कसकर बाँध लेने के लिए तैयार रहना होगा। संकट के कारण कभी ऐसा नहीं होता कि अपनी अय्याशियों पर करोड़ों रुपये फूँकने वाले अमीरों पर लगाम कसी जाये, उनकी फ़िज़ूलखर्चियों पर रोक लगायी जाये, उनकी लाखों-करोड़ों की तनख्वाहों में कटौती की जाए या उनकी बेतहाशा आमदनी पर टैक्स बढ़ाकर संकट का बोझ हल्का किया जाये ।
बल्कि होता यह है कि अंबानी-अडानी ग्रुप को हज़ारों एकड़ जमीन एक रुपये की दर पर और तमाम पूँजीपतियों और उनके सेवकों को कौड़ियों के भाव ज़मीनें और प्राकृतिक संसाधन लुटाने वाली सरकार कहती है कि ग़रीबों को मिलने वाली सब्सिडी से अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है, उन्हें ख़त्म करना ज़रूरी है। इसीलिए लगातार शिक्षा, स्वास्थ्य के मदों में कटौती कर रही है और मेहनतकशों की हड्डियाँ ज़्यादा निचोड़कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भर रही है । कहने की ज़रूरत नहीं है कि अप्रत्यक्ष करों के रूप में सरकार हर साल मेहनतकश जनता से खरबों रुपये वसूलती है । इस पैसे से रोज़गार के नये अवसर और झुग्गीवालों को मकान देने के बजाय यह अंबानी-अडानी को सब्सिडी देने में खर्च कर देती है ।
अब सोचना हमें है कि क्या हम सरकार और व्यवस्था की खुलेआम नंगई और भ्रष्टाचार को यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठे देखते रहेंगे या इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए अपनी गति को तेज करेंगे ।
मज़दूर बिगुल, मई 2016
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