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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सातवीं किस्त)
कैसे तैयार हुआ भारतीय संविधान?
आलोक रंजन
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इस निबन्ध में पहले इस तथ्य की विस्तार से चर्चा की जा चुकी है कि किस प्रकार कैबिनेट मिशन की योजना के अनुसार, संविधान सभा के सदस्य सार्विक मताधिकार के आधार के बजाय प्रान्तीय असेम्बलियों के उन सदस्यों द्वारा चुने गये थे जो स्वयं मात्र 11.5 प्रतिशत वयस्क नागरिकों द्वारा चुने गये थे। 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ को कभी ”ग़ुलामी के चार्टर” का नाम देने वाली कांग्रेस जन अपेक्षाओं के साथ विश्वासघात करके उसी क़ानून के प्रावधानों को स्वीकारते हुए इस चुनाव में भागीदार बनी थी। इसका मूल कारण उग्र होते वर्ग संघर्ष और जनक्रान्ति के विस्फोट का भय था।
यह उल्लेख भी पहले किया जा चुका है कि मुस्लिम लीग के 73 सदस्यों ने संविधान सभा की कार्रवाई में कभी भी हिस्सा नहीं लिया। फिर कांग्रेस ने लीग के बिना ही संविधान का मसौदा तैयार करने का काम आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। संविधान सभा का उद्धाटन सत्र 9 दिसम्बर से 23 दिसम्बर 1946 तक नयी दिल्ली के कांस्टीटयूशन हाल (वर्तमान संसद का सेण्ट्रल हाल) में चला जिसमें कुल 207 प्रतिनिधि मौजूद थे। संविधान की तैयारी में कुल ग्यारह महीने 17 दिन का समय लगा। संविधान सभा के कुल ग्यारह सत्र चले जिनमें 165 दिन का समय लगा। संविधान सभा के अध्यक्ष दक्षिणपन्थी कांग्रेसी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे।
13 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में ‘उद्देश्य विषयक प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया, जिसे दूसरे सत्र (20-25 जनवरी 1947) के दौरान, 22 जनवरी 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। कांग्रेसी नज़रिये के इतिहासकार 9 जनवरी 1946 को भारत में संवैधानिक जनवादी गणतन्त्र की स्थापना की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण दिन मानते हैं। पर यहाँ इस तथ्य को रेखांकित किया जाना चाहिए कि न केवल यह संविधान सभा देश के सिर्फ 11.5 प्रतिशत विशेषाधिकार प्राप्त निर्वाचकों द्वारा परोक्ष रीति से चुनी गयी थी, बल्कि लीग के 73 सदस्यों के बहिष्कार के बाद विविध किस्म की आरक्षित एवं नामांकित सीटों वाली इस केन्द्रीय असेम्बली में मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व सिर्फ 4 कांग्रेसी मुस्लिम सदस्य कर रहे थे। विभाजन की प्रक्रिया भी व्यवहारत: 9 जनवरी 1946 को ही शुरू हो चुकी थी। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी रेखांकन यहाँ ज़रूरी है कि संविधान सभा ही स्वतन्त्र भारत की पहली विधायिका के रूप में काम कर रही थी जिसका ढाँचा कैबिनेट मिशन प्लान द्वारा तय हुआ था और जिसने अस्तित्व में आने के शुरुआती आठ महीनों तक औपनिवेशिक सत्ता के अन्तर्गत काम किया था।
नेहरू के जीवनीकार माइकल ब्रेशर ने लिखा था कि भारतीय संविधान की एक उल्लेखनीय विशिष्टता आंग्ल-भारतीय परम्परा की निरन्तरता थी। इसमें 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ की 395 में से 250 धाराओं को या तो ज्यों के त्यों या थोड़े-बहुत शाब्दिक बदलावों के साथ शामिल कर लिया गया था (‘नेहरू : ए पोलिटिकल बायोग्राफी’, लन्दन, 1959, पृ. 421)। अपनी पुस्तक ‘मिशन विद माउण्टबेटन’ (लन्दन, 1951, पृ. 319, 355) में एलन कैम्पबेल जॉनसन ने भी यही विचार रखे हैं। भारतीय बड़े पूँजीपतियों के एक अग्रणी नेता और गाँधी के लाड़ले घनश्याम दास बिड़ला ने गर्वपूर्वक घोषणा की कि हमने जिस संविधान को पारित किया है उसमें 1935 के क़ानून के बड़े हिस्से को यथावत् अपना लिया गया है, यह दिखाता है कि उस क़ानून में भविष्य की हमारी योजनाओं का खाका मौजूद था (बिड़ला : ‘इन दि शैडो ऑफ दि महात्मा’, बम्बई, 1968, पृ. 131)। यानी कांग्रेस के लिए जो क़ानून कभी ग़ुलामी का चार्टर था, वही वास्तव में, काफी हद तक देशी बुर्जुआ सत्ता के शासन-विधान का ब्लू-प्रिण्ट था।
गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस का समूचा इतिहास जनान्दोलनों के ज़रिये दबाव बनाने और फिर कुछ रियायतें हासिल करके जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात करते हुए समझौता कर लेने, साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की हर मजबूरी का लाभ उठाने तथा जनसंघर्षों को नियन्त्रण से बाहर न जाने देने का इतिहास रहा था। किसानों और व्यापक आम ज़नता को आकृष्ट करने के लिए ”सन्त” गाँधी का यूटोपिया था, रैडिकल मध्यवर्ग को लुभाने के लिए नेहरू का ”वामपन्थी” मुखौटा था और बुर्जुआ वर्ग को आश्वस्त करने के लिए व्यवहारकुशल अनुदारवादी पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, टण्डन और पन्त जैसे लोग थे। तमाम लोकरंजक और रैडिकल नारों-वायदों की कथनी के बावजूद, भारतीय पूँजीपति वर्ग को कांग्रेस की वास्तविक करनी पर पूरा भरोसा था और कांग्रेस इस भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरी। संविधान-निर्माण की प्रक्रिया में भी कांग्रेस की संरचना और नीति-रणनीति की पूरी झलक हमें देखने को मिलती है।
लीग के बहिष्कार के बाद संविधान सभा (जो केन्द्रीय असेम्बली भी थी) की संरचना वस्तुत: एक दलीय होकर रह गयी थी। कांग्रेसियों के अतिरिक्त बहुत थोड़े अन्य निर्वाचित प्रतिनिधि थे, शेष कुछ रियासतों के नामित प्रतिनिधि थे। जो भी नीतिगत विरोध और मतान्तर थे वे ”वामपन्थी” कांग्रेसियों और दक्षिणपन्थी कांग्रेसियों के बीच ही थे और उन्हें भी नितान्त सौहार्द्रपूर्ण ढंग से हल कर लिया गया। नेहरू के नेतृत्व वाला ”वाम” धड़ा अल्पमत में था, पर उनके लोकरंजक चेहरे और समाजवादी नीतियों (वस्तुत: समाजवाद के नाम पर राजकीय पूँजीवादी नीतियों) को आगे रखकर चलने का महत्व भारतीय पूँजीपति वर्ग बख़ूबी समझता था। इस ”वाम” धड़े या नेहरूवियाई ”समाजवाद” का स्पष्ट प्रभाव संविधान के चौथे भाग में हमें देखने को मिलता है जहाँ राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है। इस हिस्से में जनवाद, समाजवाद और ज़नता के प्रति राज्य की ज़िम्मेदारी-जवाबदेही की लम्बी-चौड़ी लफ्फाज़ी की गयी है। बुर्जुआ विधिवेत्ता और संविधान-विशेषज्ञ इसे भारतीय संविधान की ”आत्मा” और ”मूल तत्व” और ”मूल अभिप्राय” की संज्ञा देते हैं, लेकिन हास्यास्पद बात यह है कि इनका अनुपालन राज्य के लिए वैधिक रूप से बाध्यताकारी नहीं है, इन्हें ‘नॉन जस्टिसियेबल’ का दर्जा दिया गया है। संविधान लागू होने के छ: दशकों के दौरान भारतीय राज्यसत्ता संविधान में उल्लिखित इन दिशा-निर्देशों या आदर्शों से ज्यादा से ज्यादा दूर होती चली गयी है, लेकिन संविधान में नीति निर्देशक सिद्धान्त आज भी मौजूद रहकर आम ज़नता की जीवन स्थितियों का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं और शासक वर्गों की बेशर्मी की बानगी पेश कर रहे हैं। संविधान में वैधिक रूप से बाध्यताकारी वह हिस्सा है जहाँ नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की चर्चा की गयी है। इस हिस्से पर कांग्रेस के सभी धड़ों की आम सहमति थी। आगे हम देखेंगे कि किस प्रकार ये मूलभूत अधिकार वस्तुत: सम्पत्तिशाली तबक़ों के लिए ही मायने रखते हैं और आम जनसमुदाय के लिए इनका वजूद रस्मी से अधिक कुछ भी नहीं है। संविधान सभा में अनुदारवादी कांग्रेसी सदस्यों का ही बहुमत था। उनके बुर्जुआ संविधानवादी विचारों को गाँधी और अम्बेडकर के सामाजिक सुधारवादी नज़रिये से छौंक-बघारकर संविधान के तीसरे खण्ड में सटीक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
संविधान सभा में कई प्रतिष्ठित विधिवेत्ता और संविधान-विशेषज्ञ शामिल थे, जिनमें अम्बेडकर, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि प्रमुख थे। फिर सरदार पटेल थे जिन्होंने रजवाड़ों के विलय का क़ानूनी फ्रेमवर्क तैयार किया था। और फिर गाँधी थे, जो कांग्रेस और संविधान सभा में नहीं होते हुए भी, और विभाजन तथा सत्ता-हस्तान्तरण की परिस्थितियों से दुखी होते हुए भी, बुनियादी नीति-निर्माण में परोक्ष लेकिन निर्णायक दख़ल रखते थे। एक बैरिस्टर के रूप में ब्रिटिश क़ानूनों का उनका अध्ययन गहन था। इन सबका नतीजा था कि इंग्लैण्ड, अमेरिका और आयरलैण्ड से लेकर कनाडा तक के संविधान से कुछ-कुछ चीज़ों को चुनकर 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ की धाराओं से बने मूल ढाँचे पर तरह-तरह की लोकलुभावन पच्चीकारी और मायावी रंग-रोगन किया गया। प्रकाण्ड विधिशास्त्रीय चातुर्य के साथ ‘स्वतन्त्रता-समानता-भ्रातृत्व’ के प्रबोधनकालीन आदर्शों और समाजवादी नारों-वायदों के साथ बुर्जुआ विशेषाधिकारों के हिफाज़त की गारण्टी को प्रस्तुत किया गया है। भारतीय संविधान एक कुटिल बुर्जुआ संरचना है जो ऊँचे आदर्शों की लफ्फाज़ी करते हुए, ज़नता को अत्यन्त सीमित जनवादी अधिकार देने वाली पूँजीवादी सत्ता-संरचना की आधारभूमि तैयार करता है। इसमें अन्तर्निहित संवैधानिक प्रावधानों का दायरा इतना ”व्यापक” है कि 1975 में इन्दिरा गाँधी को आपातकाल लागू करने के लिए संवैधानिक दायरे का अतिक्रमण नहीं करना पड़ा। जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व में दशकों से जारी सैनिक शासन जैसी स्थिति भी ”संविधानसम्मत” है। इस मायने में भारतीय संविधान कुख्यात जर्मन राइख़ के विधिशास्त्रीय नज़ीरों से काफी हद तक प्रेरित प्रतीत होता है। दूसरी ओर, संविधान की प्रस्तावना की शब्दावली में अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से उधार लेकर प्रबोधनकालीन अदर्शों की कलगी टाँकने की कोशिश की गयी है। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का आइडिया आयरलैण्ड के संविधान से टीपा गया है। संसदीय प्रणाली, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका के कार्यविभाजन आदि ढाँचागत व्यवस्थाएँ ब्रिटेन से उधार ली गयी हैं। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों और अधिकार विभाजन को कनाडा के संविधान से लिया गया है। मूलभूत अधिकार विषयक धाराओं को अमेरिकी संविधान में उल्लिखित ‘बिल ऑफ राइट्स’ के आधार पर ड्राफ्ट किया गया है। सातवें शिडयूल की समवर्ती सूची में उल्लिखित व्यापार-वाणिज्य और संसदीय विशेषाधिकार विषयक प्रावधानों को ऑस्ट्रेलिया के संविधान से लिया गया है। भारतीय संविधान-निर्माताओं की विशेषता यह थी कि पल्लवग्राही तरीक़े से इधर का ईंट, उधर का रोड़ा जोड़कर, 1935 के औपनिवेशिक क़ानून के बुनियादी ढाँचे पर उन्होंने एक ऐसी वृहद संवैधानिक अट्टालिका खड़ी की जो लुभावने नारों-वायदों और अन्तरविरोधी धाराओं की आड़ में भारतीय पूँजीपति वर्ग के शोषण और अत्याचारी शासन की बख़ूबी पर्दापोशी करने का काम करता है।
14 अगस्त 1947 की रात में (आधी रात के बाद) केन्द्रीय असेम्बली में आज़ादी की घोषणा हुई। तब संविधान सभा का पाँचवाँ सत्र (14-30 अगस्त 1947) जारी था। फिर इसी सत्र के दौरान, 29 अगस्त को, संविधान सभा ने संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय प्रारूप कमेटी चुनी जिसके सदस्य इस प्रकार थे :
(1) अम्बेडकर (2) अल्लादी कुप्पुस्वामी अय्यर (3) एन. गोपाल स्वामी अयंगर (4) के.एम. मुंशी (5) सैय्यद मोहम्मद सेदुल्ला (6) आर.एल. मित्ताल (7) डी.पी. खेतान। भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में डॉ. अम्बेडकर की छवि बहुप्रचारित है। संविधान-निर्माण में अम्बेडकर की भूमिका और उनके राजनीतिक विचारों पर हम अलग से संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है। कमेटी के सभी सदस्य प्राय: बैठकों में उपस्थित भी नहीं रहते थे, लेकिन कोरम पूरा रहता था और बैठकें जारी रहती थीं। प्रारूप कमेटी की ये बैठकें 27 अक्टूबर 1947 से 13 फरवरी 1948 तक जारी रहीं। कमेटी ने अन्तिम प्रारूप 21 फरवरी को सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप दिया। 8 माह बाद, 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में प्रारूप पर चर्चा प्रारम्भ हुई जो एक वर्ष तक जारी रही। सदस्यों ने किसी-किसी पहलू पर विशिष्ट टिप्पणियाँ कीं और कुछ संशोधनों के सुझाव भी दिये, जिनमें से कुछ को संविधान में शामिल कर लिया गया। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान के अन्तिम प्रारूप को पारित कर दिया। 24 जनवरी 1950 को केन्द्रिय असेम्बली/संविधान सभा के अन्तिम सत्र की शुरुआत हुई जिसमें सचिव एच.वी.आर. अयंगर ने घोषणा की कि राजेन्द्र प्रसाद सर्वसम्मति से भारत के पहले राष्ट्रपति चुने गये हैं। फिर सभी 284 सदस्यों ने संविधान की सुलेखित (कैलिग्राफिक) प्रति पर हस्ताक्षर किये। पहले हस्ताक्षरकर्ता प्रधनमन्त्री नेहरू थे और अन्तिम हस्ताक्षर संविधान सभा के अध्यक्ष की हैसियत से राजेन्द्र प्रसाद ने किये। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हो गया। केन्द्रीय असेम्बली/संविधान सभा उस दिन भंग हो गयी, उसने स्वयं को भारत की आरजी (प्रोविज़नल) संसद में तब्दील कर लिया जो 1952 में पहले आम चुनाव के बाद नयी संसद के अस्तित्व में आने तक कार्यरत रही।
लेख के अगले हिस्से में हम भारतीय संविधान की मूल अन्तर्वस्तु और मुख्य हिस्सों की विवेचना प्रस्तुत करेंगे। लेकिन उसके पहले संविधान निर्माण के दौरान अम्बेडकर की भूमिका और उनकी राजनीतिक दृष्टि की संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है।
(अगले अंक में ‘डॉ. अम्बेडकर और भारतीय संविधान‘)
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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